वाल्मीकि के पश्चात करुण रस को मानवीय करुणा को साहित्य और समाज के सोच के केन्द्र में प्रतिष्ठित कर देने वाले संभवतः भवभूति हैं। उनका कथन है कि एक करुणरस ही है जो विभिन्न राग मुद्रा के संयोग से अनेक रूपों में परिभाषित होता रहता है – पानी के बुलबुले की तरह, तरंग की तरह, भँवर की भाँति, फेन के माफिक –
एको रसः करुण एव निमित्तभेदा
द्भिन्न पृथक पृथगिव श्रयते विवर्तान्।
आवर्त बुदबुदतरङमयान्विकारान्
नम्मो यथा सलिलमेव तु तत्समग्रम्।।
कवि की इस प्रस्थापना की तह में जाकर विचार करें तो बड़बोलापन या नई बात कहकर साहित्य जगत को चौंका देने की मंशा नहीं है, अपितु श्रीराम के उत्तर चरित से उपजी संवेदना है – करुणा है। उसी का आवर्त है। परम्परा से रसराज की पदवी श्रृंगार को प्राप्त है। इस परम्परा के आगे बिना प्रश्न चिन्ह लगाये कवि ने करुणा को उसके आगे कर दिया। एक नई सोच दी। रस सोच के ही औरस पुत्र हैं। तरह-तरह की मानवीय चिन्ता – संवेदना साहित्य संसार में रस-राग के आकार-प्रकार में छवि धारणकर प्रकट होते रहते हैं – जलधर की भाँति भिगोने के लिए, तर करने के लिए, मानव होने के लिए। क्रौंचवध से उपजी पीड़ा – सोच ने आदि कवि को तरह-तरह के रस से युक्त आदि महाकाव्य रामायण रचने की प्रेरणा दी। मानों वही करुणा विविध रसों की भंगिमा में काव्यान बन गई। इसी परम्परा को मानों बढ़ाते हुए घनीभूत पीड़ा को भवभूति ने स्मृति से उतारकर ‘उत्तर रामचरितम्’ नाटक में करुण रस वाली नई अवधारणा की है। जैसे घनीभूत वाष्प कभी धारासार वर्षा में तो कभी बादल के फट पड़ने की और उसमें पर्वतों के धसक जाने की स्थिति निर्मित होती है, वैसे ही ‘उत्तररामचरित’ की करुणा - सीता-राम की पीड़ा ने पत्थर तक को अपने संग रोने के लिए – फट पड़ने के लिए विवश-सा कर दिया है – जो शेक्सपियर की त्रासदी नहीं कर सकी। सीता के वियोग से विकल जनस्थान के रोते हुए पत्थर और फटते हुए वज्रहृदय की गहराई को पश्चिमी त्रासदी कदाचित नहीं छू सकी है –
जनस्थाने शून्ये विकलकरणैरार्य चरितै
रपिग्रावा रोदित्यपि दलति वज्रस्य हृदयम्।। 1/28
वास्तव में करुणा यद्यपि दुखात्मक प्रकृति वाली है, परन्तु अन्य मौलिक प्रवृत्तियों की अपेक्षा यह त्वरित प्रतिक्रिया वाली है। यह अन्य प्रवृत्तियों को प्रतिक्रिया के लिए उकसाती है – कभी उत्साह को तो कभी क्रोध को, कभी घृणा को तो कभी शाँति-प्रेम को। करुणा की इसी व्यापक और सुखदुखात्मक प्रकृति को पहचानकर भवभूति ने अपनी प्रतिभा की भूति का प्रमाण दिया है। इसी से प्रभावित होकर उन्होंने आँचल में दूध और आँखों में आँसू समेटे स्त्री समजा के प्रति अपनी सहानुभूति विशेष रूप से अभिव्यक्त की है। सीता के विरह में राम को बार-बार रुलाया है। मूर्च्छित होने दिया है। करुण रस की भट्ठी में तपस्या है – (“पुटपाक प्रतिकाशो रामस्य करुणो रसः”) और उन्हें जन अदालत के कठघरे में खड़ा किया है – अपराध स्वीकारने के लिए। न्यायाधीश के द्वारा अपराधी करार दिये जाने पर अपराधबोध में वह प्रायश्चित का भाव नहीं रहता जो व्यक्ति के द्वारा स्वयं सबके सामने बिना किसी बाहरी दबाव के स्वीकारे जाने पर। राम ने स्वीकारा है कि एक तो रावण वध के बाद अग्नि परीक्षा लेना अन्याय था और उस पर से यह लोकापवाद के भय से निर्वासन दंड दिया जाना तो ‘अपूर्व चाण्डाल कर्म’ है। प्रेम से पाली गई चिड़िया को छल से बहेलिये के हाथ सौंप देना है –
“अपूर्वकर्मचाण्डालमयि मुग्धे विमु़ञ्चमाम्।
श्रितासि चन्दनभ्रान्त्या दुर्विपाकं विषद्रुमम्।।”
‘अपूर्वकर्मचाण्डाल’ राम को कहने का साहस या तो स्वयं राम ही कर सकते थे या भवभूति की कलम ही कर सकती थी। उनकी कलम स्त्री विषयक अनेक भ्रान्त धारणाओं और रुढ़ियों पर प्रहार करती है। मालतीमाधव नाटक में परम्परा से हटकर मालती और माधव के प्रेम परिणय के बाधक समाज को एक प्रकार से कालापिक करार दिया गया है। कापालिक अघोरघंट यदि मालती को बलि देने के लिए उद्यत है तो पिता भी मंत्री होकर भी राजा के बूढ़े नर्मसचिव नंदन से उसका ब्याह कर देने की स्वीकृति देकर कापालिक कर तरह बलि देने का ही मानो उपक्रम करते हैं – “निर्व्यूढ़ च निष्करुणतया तातस्य कापालिकत्वम्।” प्रोफेसर राधावल्लभ त्रिपाठी ने ठीक ही कहा है कि “सामंतीय समाज में स्त्री को एक उपभोग की वस्तु बना दिये जाने के विरुद्ध प्रतिक्रिया कालिदास और भवभूति दोनों ने बड़े प्रखर रूप में दी है।... कवि के मन में स्त्री की छवि और समाज में उसकी चिन्त्य स्थिति दोनों को एक साथ विडंबना की शैली में भवभूति ने राम के मुख से व्यक्त किया है”
नाथवन्त स्त्वया लोकास्त्वमनाथा विपत्स्यते।।”
रचनाकार चाहे जिस वर्ग या संस्कार को लेकर सरस्वती के मंदिर में आये, वह मानवता, समता, समस्त के प्रति प्रेम और सदभाव संजोये रहता है – संतों की तरह। खासकर दबे, दलित, शोषित, पीड़ित के प्रति प्रार्थना, निवेदन लेकर आता है। उसके निवेदन में आक्रोश-आकांक्षा, रीझ-खीझ होते हैं – समष्टि के कल्याण के लिए भवभूति का स्वर जरा ज्यादा ही ऊँचा-तीखा है – कबीर की भाँति। कालिदास तुलसीदास की सामाजिक राजनीतिक नजरिये में बदलाव लाने का प्रयास करते हैं तो भवभूति कबीर की तरह। सड़े-गले मुल्यों एवं समयातीत सोच, परम्पराओं पर दोनों प्रहार करते हैं। स्त्री के लिए राज-समाज को प्रेरित करते हैं। वे व्यक्ति के सम्मान की योग्यता गुण को मानते हैं – जाति, लिंग, वय आदि को नहीं –
“न धर्मवृद्धेषु वयः समीक्षते” – कालिदास कुमारसंभव
“गुणाः पूजास्थानं गुणिषु न च लिङग न च वयः।”
ब्याहता स्त्री के परित्याग व प्रसंग शाकुन्तलम् नाटक में भी है और उत्तर रामचरित में भी। दोनों नाटकों में दोनों नाटककारों ने राज-समाज की ओछी मनोवृत्तियों पर टिप्पणी की है, किंतु कालिदास की टिप्पणी उतनी तीखी नहीं है जितनी भवभूति की है। निर्वासन के अनौचित्य पर जनक कहते हैं कि यह तो सीता और मेरा भी अपमान है, तो कुरूपत्नी अरुंधती अग्निपरीक्षा को ही अनुचित ठहराती है। वे सीता को वंदनीय चरित्र मानकर उसे अग्नि से ज्यादा पवित्र मानती हैं।
तरह-तरह से कवि ने रुढ़ियों को तोड़ने की कोशिश की है। जोखिम उठाया है। अपने को घर के भीतर और बाहर भी अवज्ञा का पात्र बनाया है। स्त्री और शूद्र वेद पढ़ने के अधिकारी हैं। आत्रेयी नाम की तापसी वेद पढ़ने के लिए वाल्मीकि आश्रम में अतिथियों के कारण स्वाध्याय में बाधा पड़ते देख अगस्त्य ऋषि के आश्रम में जाती है। ‘मालतीमाधव’ की कामंदकी देवरात के साथ न्याय विद्या पढ़ती थी। देवरात बाद में अपने पुत्र माधव को उसके पास विद्या अध्ययन के लिए भेजता है। इसी तरह जनक जी के वाल्मीकि आश्रम में आगमन पर मधुपर्क कराया जाता है और वशिष्ठ ऋषि के आने पर बेचारी बछिया मारी जाती है। आतिथ्य का यह विधान वहाँ के आश्रमवासी छात्रों को उचित नहीं लगता।
मालती-माधव के प्रेम की मान्यता, धर्म की विकृति के प्रतीक कापालिक अघोरघंट का वध, शम्बूकवध हृदयहीन रूढ़ व्यवस्था के प्रति जनक माता कौसल्या आदि के आक्रोश की अभिव्यंजना भवभूति को क्रांतिकारी कवि प्रमाणित करने के पर्याप्त प्रमाण हैं। उन्होंने रामायणी कथा में बहुत कुछ परिवर्तन करते हुए साहस का परिचय दिया है यह साहस चमत्कार या नवता के व्यामोह में पड़कर नहीं किया गया है, अपितु उनके मन के अंदर उमड़-घुमड़ रही वह विचार वाष्प है जो मानवीय संवेदना के विविध रूपो में नाटकीयता के अनुरूप बरस पड़ती है, फूट पड़ती है – ज्वालामुखी की तरह। अन्तर्दाह से दग्ध होता राम मन भवभूति का पीड़ा तापित मन लगता है, जो श्लोक में परिणत हो गया है, जो अपने राम को न जीने देता है न मरने –
दलति हृदयं गाढोद्वेगं द्विधा तु न मिद्यते
वहर्ति विकलः कायो मोहं न मुञ्जति चेतनाम् ।।
ज्वलयति तनुमन्तर्दाहः करोति न भस्मसात्।
प्रहरति विधिर्मर्मच्छेदी न कृन्तति जीवितम्।।
अर्थात सीता विरह में राम कहते हैं कि गाढ़ोद्वेग हृदय को दल-सा रहा है, तथापि वह दो भागों में फट नहीं रहा है। विकल काया बार-बार मूर्च्छित होकर भी चेतना छोड़ नहीं रही है, अर्थात मूर्च्छा की अवस्था में भी पीड़ा का अहसास चैन नहीं लेने देता। अन्तर्दाह शरीर को जलाकर भस्म नहीं बना रहा है, ताकि दाह से मुक्ति मिले। दैव ने मेरे मर्म पर प्रहार किया है, परन्तु जीवन को समाप्त नहीं किया है, ताकि वह भोगता रहे। त्रासदी के नाटककार शेक्सपियर से तुलना करते हुए डॉ. रामविलास शर्मा ने कहा है – “प्रसार-यथार्थ की विविधता मनोवैज्ञानिक सूझ-बूझ, चरित्र निर्माण की वास्तविकता – में यद्यपि शेक्सपियर आगे हैं, तथा गहराई – शोकानुभूति की तीव्रता, करुण रस ही नहीं, वात्सल्य आदि सुकुमार भावों की पराकाष्ठा – में भवभूति आगे हैं।”
– परम्परा का मूल्यांकन पृष्ठ 43
जैसे यथार्थ से साक्षात्कार प्रसाद भी करते हैं और निराला भी, परन्तु प्रसाद या प्रेमचन्द उस यथार्थ को प्रायः आदर्शोन्मुख बना देते हैं,जबकि निराला करुणोन्मुख वैसे ही कालिदास और भवभूति की काव्यानुभूति है। कालिदास दण्डकारण्य की सीताहरण घटना की स्मृति को रघुवंश में (14/25) सुखात्मक अनुभूति बना देते हैं तो भवभूति उत्तर रामचरित में चित्रदर्शन से उपजी स्मृति को दुखद। यह स्मृति लक्ष्मण को भी कचोटती है, तो राम को भी टीसती है। यह टीस “ते हि नो दिवसा गताः” - के रूप में राम मुख से प्रकट होती है। राम उसे भुला नहीं पाते। यह यथार्थ एक मुहावरा-सा बनकर संस्कृत में प्रचलित हो गया है।
सार्ववर्णिक वेद नाटक को भवभूति सर्वसंवेदना सहानुभूति से करुण बनाते हुए भावात्मक एवं शिल्प शैली के स्तर पर भी नई पम्परा का प्रवर्तन करते हैं। उनके तीनों नाटक विदूषकविहीन हैं। हास्यव्यंग्य पात्रहीन इन नाटकों में धार्मिक सामाजिक विडम्बना और विसंगति पर प्रहार या व्यंग्य संस्कृत का रूढ़ पात्र विदूषक राजा या नायक का मुँहलगा बनकर करता रहा है, हास्य के बहाने करता रहा है, किन्तु भवभूति के नाटकों में यह कार्य बच्चों और छात्रों से कराया गया है। लव और चन्द्रकेतु के बीच अश्वमेघ के घोड़े को रोक लेने के कारण जो संवाद हैं, वह सामंती व्यवस्था पर कड़ा प्रहार है। वासंती का सीधा-सीधा राग विषयक उपालम्भ भी इसके उदाहरण हैं। संभवतः भवभूति की करुणा ने गंभीरता के बीच विदूषकीय हल्कापन को टालने के लिए ऐसा किया हो।
भाषा और भाव दोनों स्तर पर भवभूति नाटकीय द्वन्द्व सृजन में निपुण हैं। एक ही श्लोक में अनेक विरोधी अनुरोधी भावों की व्यंजना जगह-जगह छूती है – बिहारी के दोहे की तरह। नाटकीय द्वन्द्व विधान के लिए कहीं रामायण की कथा में, कहीं भाषा में, रंगमंच की शैली में परिवर्तन किया गया है। डॉ. राधावल्लभ त्रिपाठी का मन्तव्य है कि “सामाजिक शक्तियों की द्वन्द्वात्मकता भवभूति के तीनों नाटकों की अन्तर्वस्तु कही जा सकती है।... महावीर चरित में राम कथा के क्षेत्रों में एक प्रवर्तक नाटक है। भवभूति ने साहस करके राम कथा के रंगमंचीय रूप का जो पैमाना बना दिया, उसका प्रतिरूप लेकर राजशेखर (बालरामायण), मुरारि (अनर्घराघव), जयदेव (प्रसन्नराघव) आदि ने रामायण की विषयवस्तु पर नाटक लिखे।”
भवभूति की तरह से अपनी प्रतिभा विभूति के द्वारा परम्परा की रेखाओं को मिटा मिटाये, उनके आगे नई परम्परा की रेखा खींचते हैं। “उन्होंने अपने शास्त्र ज्ञान और पाण्डित्य का खाद की तरह उपयोग करते हुए कविता की अपनी धरती पर उसके अपने दर्शन का पौधा रोपा और खड़ा किया।” (राधावल्लभ त्रिपाठी) कालिदास जो संस्कृत के कृतकृत्यता समृद्ध नाटककार हैं, अपने नाटकों में विवाहेतर प्रेम संबंध को प्रेम के आदर्श से, उसकी सामाजिकता से जोड़ा तो भवभूति ने वैवाहिक जीवन के प्रेम को आदर्श स्थिति का दर्शन रचा है। समन्वित जीवन का दर्शन। अद्वैत का दर्शन। अनन्यता का राग। तारामैत्रकम या चक्षुराग का गाढानुबंध कालिदास का तारामैत्रकम् शकुन्तला दुष्यन्त के प्रेम के रूप में उतनी ऊँचाई पर नहीं पहुँच पाता, जितनी ऊँचाई पर भवभूति के मालती-माधव का। एक के रम्यवीक्षण-श्रवण स्मृतिपटल को ही कुरेदकर चुक जाते हैं तो दूसरे के जोड़ते हैं, राग सूत्र में बाँधते हैं –
रम्याणि वीक्ष्य मधुरांश्च निशम्य शब्दान्
पर्युत्स्की भवति यत्सुखितोsपि जन्तुः।
तच्चनसा स्मरति नूनमबोधपूर्वं
भावस्थिराणि जननान्तर सौहृदानि।।
व्यतिषजति पदार्थान्तरः कोsपि हेतु
ने खलु बहुरुपाधीन पर्तयः संश्रयन्ते।
विकसति हि पातङगस्योदये पुण्डरीकं
द्रवति य हिमरश्मावदगते चन्द्रकान्तः।।
“वेदान्त के ब्रह्म, बौद्धों के शून्य तथा मीमांसकों के अदृष्ट को भवभूति ने अपनी कविता में अन्ततः प्रेम तत्व के द्वारा विस्थापित कर दिया है। प्रेम का एक सर्वव्यापी सत्ता के रूप में उसकी अपार और अप्रत्याशित संभावनाओं के अनुभव के साथ वे जो निर्वचन देते हैं, वह किसी दर्शन के प्रस्थान में परम सत्ता का ही निर्वचन हो सकता है।”
प्रो. राधावल्लभ त्रिपाठी, दूसरी परम्परा के नाटककार भवभूति पृष्ठ 25
‘उत्तररामचरितम्’ नाटक भवभूति के विलक्षण प्रतिभा वैभव का विलक्षण प्रसाद है। उनके वेद, उपनिषद, साँख्य आदि दर्शन, ज्ञान, लोक-लगाव और नाटक धर्म से सीधे जुड़ावों का मधु मिश्रण है। उनकी प्रतिभा प्रयोगधर्मी है। वह दर्शन-वर्णन, परम्परा और प्रयोग को नाटकीय अनुरोध की शर्त पर दूध-पानी की तरह घुलाती हैं। परम्परा के आगे नई रेखा खींचती है। पूर्व रंग, नान्दी, रस, भाषा, मंच विधान, कथा-विन्यास, प्रकृति चित्रण प्रेम अभिव्यंजना सभी स्तर पर कवि ने लीक से हटकर नई लीक बनाई है। वाल्मीकि की करुणा को परिपूर्णता दी है। राम भगवान से उतारकर महावीर रूप में अवतरित कराया है। प्रकृति के कोमल-कठोर, सुखद और त्रासद रूपों का एकत्र दर्शन कराकर जीवन के तिक्त, अम्ल-मधुर भावों का रस चरवाया है। लोकजीवन की सच्ची अनुभूति से नाटक को केवल मनोरंजन का माध्यम न बनाकर जागरण का हेतु भी बनाया है। संवेदनाशून्य शास्त्र और नपुंसक परिणामरहित करुणा – ‘आह-ओह’ को नकारा है। इस नकार का प्रतिफलन रामायण कथा के नव साक्षात्कार नाट्य रंग के विधान तथा भाव-भाषा में देखा जा सकता है। निश्चय ही कालिदास के बाद भवभूति संस्कृत की विलक्षण भूति हैं। भारतसावित्री की विभूति हैं। इस स्मरणीय विभूति को बारंबार प्रकट में संजोये रहेगी –
या देवी सर्वभूतेषु स्मृतिरुपेण संस्थिता
नमस्तस्मै नमस्तस्मै नमस्तस्मै नमोनमः।। - दुर्गा सप्तशती