9/28/2007

वैज्ञानिक प्रमाण का मोहताज नहीं है राम का अस्तित्व


तमिलनाडू के मुख्यमंत्री तथा डी एम के प्रमुख एम करुणानिधि ने पिछले दिनों राम के अस्तित्व को चुनौती देकर देश की राजनीति में कोहराम बरपा कर दिया है। अभी इस विषय पर बहस व मंथन चल ही रहा है कि रामसेतु को खंडित कर सेतु समुद्रम परियोजना पूरी की जानी चाहिए अथवा नहीं, इस परियोजना को लागू किए जाने का ज़िम्मेदार कौन है और कौन नहीं तथा इस परियोजना के लागू करने में किसी ऐसे नए मार्ग का चुनाव किया जा सकता है जोकि रामसेतु को खंडित किए बिना सेतु समुद्रम परियोजना को पूरा करने में सहायक सिद्ध हो सके। कि इसी बीच आम भारतीयों की भावनाओं को ठेस पहुंचाने वाला राम के अस्तित्व संबंधी बयान देकर बुजुर्ग द्रविड़ नेता करुणानिधि ने गोया ठहरे हुए पानी में पत्थर मारने जैसा काम कर दिखाया है। यदि करुणानिधि अपने सबसे पहले दिए गए इस बयान पर भी ख़ामोश रह जाते कि रामसेतु के मानव निर्मित होने का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है। यदि वे अपने इस बयान को वापस ले लेते अथवा इससे आगे बढ़ते हुए जलती हुई आग में घी डालने जैसा काम न करते तो भी काफ़ी हद तक मामला सुलझ सकता था। परन्तु करुणानिधि ने न केवल उक्त बयान दिया बल्कि इसके बाद उन्होंने भगवान राम के अस्तित्व में आने को भी यह कहकर चुनौती दे डाली कि भगवान राम के होने के कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं हैं। करुणानिधि के इस बयान ने भारतीय रामभक्तों की भावनाओं को तो ठेस पहुँचाई ही है, साथ-साथ उन्होंने भगवान राम को रजनीति का मोहरा बनाने वालों को भी इसी बहाने अपना नाम चमकाने का अवसर प्रदान कर दिया है।

जिस प्रकार मुस्लिम समुदाय की ओर से कई बार ऐसे फ़तवे सुनाई देते थे कि ईश निंदा किए जाने के कारण अथवा हज़रत मोहम्मद का अपमान किए जाने के कारण जो भी अमुक व्यक्ति का सिर क़लम करेगा, उसे भारी भरकम पुरस्कार से नवाज़ा जाएगा। ठीक उसी प्रकार पहली बार हिन्दू समाज की ओर से एक राजनैतिक संत द्वारा करुणानिधि का सिर कलम करने वाले व्यक्ति को सोने से तोले जाने का फ़तवा जारी किया गया है। इसमें कोई शक नहीं कि करुणानिधि ने भगवान राम के अस्तित्व को चुनौती देकर अति निंदनीय कार्य किया है। उनके इस वक्तव्य के चलते कई प्रमुख लोगों द्वारा उन्हें दक्षिण भारत में रहने वाला रावण का वंशज तक कहकर सम्बोधित किया जा रहा है। यह सब कुछ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर किया जा रहा है। जैसा कि वामपंथी नेता प्रकाश करात का मानना है कि 'इस देश में कुछ लोग ऐसे हैं जिनकी धार्मिक आस्थाएं हैं। वहीं कुछ लोग हमारी तरह भी हैं, अर्थात् जो धर्म के प्रति आस्थावान नहीं है। ऐसे लोगों को अपनी राय प्रकट करने पर किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए।' निश्चित रूप से करात का यह कथन भी बिल्कुल सही प्रतीत होता है। परन्तु अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के विषय को यदि हम इस कथन के साथ तोलें तो मामला साफ़ हो जाता है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता संबंधी एक उदाहरण के अनुसार किसी भी व्यक्ति को हवा में अपनी छड़ी घुमाने की इजांजत तो ज़रूर है परन्तु उसी सीमा के भीतर जहां से कि उसकी अपनी हद समाप्त होती है तथा दूसरे की हद शुरु होती है। इस कथन से यह बात साफ़ हो जाती है कि किसी व्यक्ति को अपने विचार रखने का अधिकार तो है परन्तु किसी के दिल दुखाने का या किसी की आस्था या विश्वास को ठेस पहुँचाने का अधिकार हरगिज़ नहीं है।

भगवान राम के अस्तित्व की बात लाखों वर्ष पुरानी है। हंजारों वर्षों से शास्त्रों तथा धार्मिक ग्रन्थों के माध्यम से राम कथा के बारे में न केवल भारतवर्ष बल्कि पूरे विश्व में चर्चा होती रही है। दीपावली, दशहरा व राम नवमी जैसे भारत में मनाए जाने वाले कई त्यौहार भगवान राम के अस्तित्व से जुड़े हैं तथा हजारों वर्षों से भारत में मनाए जा रहे हैं। वैसे तो हिन्दू धर्म में 33 करोड़ देवी देवताओं का ज़िक्र किया गया है परन्तु इन सभी में भगवान राम को ही मर्यादा पुरुषोत्तम के नाम से सम्बोधित किया जाता है। यदि राम का अस्तित्व नहीं था तो सहस्त्राब्दियों से भगवान राम संबंधी उल्लेख शास्त्रों में क्योंकर दर्ज हैं? हिन्दू समाज आख़िर क्योंकर दीपावली व दशहरा जैसे त्यौहार मनाकर राम की पूजा व आराधना करता चला आ रहा है।

रहा प्रश्न वैज्ञानिक प्रमाण होने या न होने का तो करुणानिधि जी तो लाखों वर्ष प्राचीन उस घटना के प्रमाण पूछ रहे हैं जोकि सीधे तौर पर भारतवासियों विशेषकर हिन्दू समाज की भावनाओं तथा विश्वास से जुड़ चुकी है। देश की सबसे बड़ी तीर्थनगरी अयोध्या आज भी राम के नाम से ही जोड़कर देखी जाती है। यदि यह प्रमाण भी करुणानिधि को अपर्याप्त महसूस होते हों तो भी उन्हें विचलित होने की अधिक आवश्यकता इसलिए नहीं होनी चाहिए कि आज के वैज्ञानिक एवं आधुनिक दौर में तमाम ऐसी घटनाएँ घटित होती हैं जिनके कि कोई प्रमाण नहीं होते। इसका अर्थ यह तो क़तई नहीं हुआ कि अमुक घटना घटी ही नहीं। उदाहरण के तौर पर आज भी अनेक लोगों की हत्याएँ होती हैं। मामले पुलिस और अदालत तक जाते हैं। मुंकद्दमा भी चलता है तथा सभी आरोपी बरी भी हो जाते हैं। अर्थात् आज की अति आधुनिक समझी जाने वाली प्रशासनिक व न्यायिक व्यवस्था इस बात को प्रमाणित करने में असहाय नज़र आती है कि अमुक व्यक्ति की हत्या किसने की। तो क्या इससे यह निष्कर्ष निकाला जाना चाहिए कि जब कोई हत्यारा प्रमाणित ही नहीं हो सका तो गोया अमुक व्यक्ति की हत्या ही नहीं हुई। तात्पर्य यह है कि आधुनिकता का दम भरने वाले इस दौर में आज भी जब हम ऐसी तमाम बातों को प्रमाणित नहीं कर सकते तो ऐसे में लाखों वर्ष पुरानी घटना के विषय में प्रमाण की तलाश करना वैज्ञानिक सोच तो नहीं हास्यास्पद एवं नकारात्मक सोच का लक्षण अवश्य कहा जा सकता है।

करुणानिधि के बयान को सीधे-सीधे केवल राम के अस्तित्व के प्रश्न तक ही सीमित रखकर नहीं सोचना चाहिए। उनके इस बयान के पीछे दक्षिण भारत व उत्तर भारत के बीच की वह पारंपरिक नकारात्मक सोच भी परिलक्षित होती है जो अन्य कई स्वरों के रूप में भी विभिन्न दक्षिण भारतीय नेताओं के मुँह से कभी-कभार सुनाई देती है। परन्तु हमें उन विवादों में जाने से कोई लाभ नहीं। मोटे तौर पर हमें यही समझना होगा कि हमारी मातृभाषा व राष्ट्रभाषा का सबसे अधिक विरोध सदैव इन्हीं द्रविड़ व तमिल भाषी क्षेत्रों में किया जाता रहा है। ऐसा भी सुना जाता है कि दक्षिण भारत के इन्हीं राज्यों में कहीं-कहीं रावण की भी पूजा की जाती है। इस क्षेत्र के कुछ इतिहासकार यह भी लिखते हैं कि भगवान राम द्वारा स्रूपनखा की नाक काटने की घटना उत्तर भारत के उच्च जाति के एक राजा द्वारा दक्षिण की एक महिला का किया गया अपमान मात्र था।

बहरहाल इस विशाल धर्म निरपेक्ष भारत में जबकि हम सभी धर्मों व सम्प्रदायों के लोगों को साथ लेकर चलने का दम भरते हैं तथा दुनिया को यह बताते हुए हम नहीं थकते कि अनेकता में एकता की जो मिसाल हमारे देश में देखी जा सकती है वह और कहीं नहीं मिलती। ऐसे में मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम के अस्तित्व को लेकर हिन्दू धर्म के भीतर छिड़ा आपसी घमासान ही धर्म निरपेक्षता के सभी दावों को मुंह चिढ़ाता है। अत: बेशक करुणानिधि या किसी भी धर्म एवं सम्प्रदाय का कोई अन्य व्यक्ति किसी समुदाय के ईष्ट के प्रति अपनी आस्था रखे या न रखे नि:सन्देह यह उसका अत्यन्त निजी मामला है व उसका अपना अधिकार भी, परन्तु किसी समुदाय के ईष्ट के अस्तित्व को ही चुनौती दे डालने का अधिकार किसी को भी नहीं होना चाहिए। बेहतर होगा कि करुणानिधि भारतीय समाज से अपने विवादित वक्तव्य के लिए क्षमा मांग कर इस मामले पर यहीं विराम लगा दें।

निर्मल रानी

9/26/2007

सत्ता बड़ी या राम

भारात में धार्मिक भावनाओं को भड़का कर राजनीति करने में महारत रखने वाले लोग एक बार फिर अपने असली चेहरे के साथ सक्रिय हो उठे हैं। मज़े की बात तो यह है कि इस बार वे धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाने का आरोप तो भारत की सत्तारूढ़ केन्द्र सरकार पर लगा रहे हैं जबकि अपने इसी आरोप के तहत जनता की धार्मिक भावनाओं को भड़काने के ठेकेदार वे स्वयं बन बैठे हैं। भारतीय राजनीति के इतिहास में दक्षिणपंथी भारतीय जनता पार्टी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में साझीदार रह चुकी है। भाजपा के रणनीतिकारों का मानना है कि 542 सदस्यों की लोकसभा में 183 सीटें प्राप्त करने का उसका अब तक का सबसे बड़ा कीर्तिमान केवल रामनाम की राजनीति करने की बदौलत ही संभव हो सका है। ज्ञातव्य है कि रामजन्म भूमि-बाबरी मस्जिद विवाद को लेकर भारतीय जनता पार्टी ने पूरे देश में यह प्रचार किया था कि सत्ता में आने पर वह रामजन्म भूमि मन्दिर का निर्माण कराएंगे। देश के सीधे-सादे रामभक्तों ने इन्हें इसी आस में देश के सबसे बड़े राजनैतिक दल का दर्जा भी दिला दिया।

अफ़सोस की बात है कि भारतीय जनता पार्टी ने अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में केंद्रीय सत्ता संभालने के बाद अपना भगवा रंग ही बदल डाला और कांग्रेस की राह पर चलते हुए तथाकथित धर्म निरपेक्षता की राजनीति करने लगी। उस समय राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार के अन्य सहयोगी दलों ने सरकार बनाने में भारतीय जनता पार्टी का साथ इसी शर्त पर दिया कि वह रामजन्म भूमि, समान आचार संहिता और कश्मीर से धारा 370 हटाए जाने जैसे अपने प्रथम व अग्रणी मुद्दों को त्याग देगी। भाजपा के 'रामभक्तों' ने ऐसा ही किया। उस समय इनके समक्ष दो विकल्प थे। या तो यह राम को चुनते या सत्ता को। इन धर्म के ठेकेदारों ने उस समय सत्ता का स्वाद लेना अधिक ंजरूरी समझा। क्या इन तथाकथित रामभक्तों को उस समय सत्ता को ठोकर मारकर अन्य राजग सहयोगी दलों के समक्ष यह बात पूरी ंजोर-शोर से नहीं रखनी चाहिए थी कि हम रामभक्तों के लिए पहले हमारे वे एजेन्डे हैं जिनके नाम पर हमें सबसे बड़े राजनैतिक दल की हैसियत हासिल हुई है न कि सत्ता। यदि भाजपा उस समय राम मन्दिर के मुद्दे पर सत्ता को ठुकरा देती तो काफ़ी हद तक यह बात स्वीकार की जा सकती थी कि उनमें राम के प्रति लगाव का वास्तविक जज़्बा है परन्तु मन्दिर निर्माण के बजाए सत्ता से चिपकने में दिलचस्पी दिखाकर इन्होंने यह साबित कर दिया कि इनकी नंजर में सत्ता बड़ी है राम नहीं।
एक बार फिर राम के नाम पर यही लोग वोट माँगने की तैयारी कर रहे हैं। इस बार मुद्दा रामजन्म भूमि को नहीं बल्कि रामसेतु को बनाया जा रहा है। भारत-श्रीलंका के बीच बहने वाले समुद्री जल के मध्य ढाई हंजार करोड़ रुपए की लागत से सेतु समुद्रम शिपिंग चैनल परियोजना का निर्माण कार्य किया जाना प्रस्तावित है। 1860 में भारत में कार्यरत ब्रिटिश कमांडर एडी टेलर द्वारा सर्वप्रथम प्रस्तावित की गई इस परियोजना को 135 वर्षों बाद रचनात्मक रूप देने का प्रयास किया जा रहा है। 12 मीटर गहरे और 300 मीटर चौड़े इस समुद्री मार्ग का निर्माण स्वेंज नहर प्राधिकरण द्वारा किया जाना है। यही प्राधिकरण इसे संचालित भी करेगा तथा इसका रख-रखाव भी करेगा।

भारतीय जनता पार्टी इस परियोजना का विरोध कर रही है। भाजपा का यह विरोध इस बात को लेकर है कि चूंकि सेतु समुद्रम परियोजना में उस सेतु को तोड़ा जाना है जिसे कि रामसेतु के नाम से जाना जाता है। हिन्दू मान्यताओं के अनुसार समुद्र के मध्य पुल के रूप में नंजर आने वाली यह आकृति उसी पुल के अवशेष हैं जिसका निर्माण हनुमान जी की वानर सेना द्वारा भगवान राम की मौजूदगी में श्रीलंका पर विजय पाने हेतु किया गया था। नि:सन्देह ऐसी किसी भी विषय वस्तु पर जहां कि किसी भी धर्म विशेष की भावनाओं के आहत होने की संभावना हो, किसी ंकदम को उठाने से पूर्व उस विषय पर गंभीर चिंतन किया जाना चाहिए। ऐसी पूरी कोशिश होनी चाहिए कि किसी भी धर्म विशेष की धार्मिक भावनाएं आहत न होने पाएं। परन्तु भारतीय जनता पार्टी जैसे राजनैतिक दल पर तो क़तई यह बात शोभा नहीं देती कि वह रामसेतु मुद्दे पर आम हिन्दुओं की धार्मिक भावनाओं की संरक्षक, हिमायती अथवा पैरोकार स्वयंभू रूप से बन बैठे।

आज भाजपा द्वारा रामसेतु मुद्दे पर हिन्दुओं की भावनाओं को भड़काने तथा इस परियोजना का ठीकरा वर्तमान संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार विशेषकर कांग्रेस, कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के सिर पर फोड़ने का प्रयास किया जा रहा है। आश्चर्य की बात है कि वह भारतीय जनता पार्टी ऐसे आरोप लगा रही है जिसके अपने शासनकाल में केन्द्र सरकार के 4 मंत्रियों अरुण जेटली, शत्रुघ्न सिन्हा, वेद प्रकाश गोयल व एस त्रिवुनवक्कारासू द्वारा सन् 2002 में सेतु समुद्रम परियोजना को प्रारम्भिक दौर में ही पहली मंजूरी दी गई थी। उसके पश्चात जब परियोजना से सम्बद्ध सभी मंत्रालयों से हरी झंडी मिल गई तब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह द्वारा 2 जुलाई 2005 को इस परियोजना की शुरुआत की गई। यहां भाजपा के विरोध को लेकर एक सवाल और यह उठता है कि उसका यह विरोध 2005 से ही अर्थात् परियोजना पर काम शुरु होने के साथ ही क्यों नहीं शुरु हुआ? आज ही इस विरोध की ज़रूरत क्यों महसूस की जा रही है और वह भी इतने बड़े पैमाने पर कि गत् दिनों भोपाल में आयोजित भाजपा कार्यकारिणी की बैठक में पार्टी को यह घोषणा तक करनी पड़ी कि राम के नाम पर भावनाओं से खिलवाड़ भरतीय जनता पार्टी का चुनावी मुद्दा होगा। क्या दो वर्षों की ख़ामोशी इस बात का सुबूत नहीं है कि भाजपा चुनावों के नज़दीक आने की प्रतीक्षा कर रही थी? इसलिए उसे पिछले दो वर्षों तक इस मुद्दे को हवा देकर अपनी उर्जा नष्ट करने की ज़रूरत नहीं महसूस हुई। भाजपा द्वारा सेतु समुद्रम परियोजना का अब विरोध किए जाने से सांफ जाहिर हो रहा है कि विपक्षी पार्टी के नाते भाजपा इस समय इस परियोजना के काम में न केवल बाधा उत्पन्न करना चाहती है बल्कि इसे अपनी चुनावी रणनीति का एक हिस्सा भी बनाना चाहती है।

आने वाले दिनों में भारतीय जनता पार्टी को उर्जा प्रदान करने वाले राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ, विश्व हिन्दू परिषद तथा दक्षिणपंथी विचारधारा के इनके अन्य कई सहयोगी संगठन इस मुद्दे पर राजनीति करने का प्रयास करेंगे। परियोजना को प्राथमिक मंजूरी देने वाली भाजपा इस परियोजना के नाम पर स्वयं को तो रामभक्त तथा रामसेतु का रखवाला प्रमाणित करने का प्रयास कर रही है जबकि परम्परानुसार सत्तारूढ़ दल विशेषकर कांग्रेस व वामपंथी दलों को भगवान राम का विरोधी बताने की कोशिश में लगी है।
उपरोक्त परिस्थितियाँ यह समझ पाने के लिए काफ़ी हैं कि भाजपा कितनी बड़ी रामभक्त है और कितनी सत्ताभक्त। राम के नाम पर वोट मांगने की क़वायद भाजपा के लिए कोई नई बात नहीं है। हां इतना ज़रूर है कि राम के नाम पर वोट माँगने के बाद राम मन्दिर निर्माण के बजाए सत्ता के पाँच वर्ष पूरे कर चुकी भारतीय जनता पार्टी ने भारतीय मतदाताओं के समक्ष अपनी साख को अवश्य समाप्त कर दिया है। लिहाज़ा सेतु समुद्रम परियोजना को लेकर भाजपा भारतीय मतदाताओं की भावनाओं को पुन: भड़का पाने में कितनी सफलता प्राप्त कर सकेगी और कितनी असफलता यह तो आने वाला समय ही बता सकेगा।
- तनवीर जाफ़री

9/23/2007

संतो की धरतीःछत्तीसगढ़



युधिष्ठिर ने यक्ष के प्रश्न-'कौन सा मार्ग मनुष्य को अनुसरण करना चाहिए', के जवाब में कहा 'संतो दिक्' अर्थात् संतो के द्वारा बताये गए मार्ग का अनुसरण मनुष्य को करना चाहिए। वस्तुत: संत ही वे दीप हैं जो मनुष्यों का पथ प्रदर्शन करते हैं। उनके द्वारा बताये गये मार्ग उनके ध्येय प्राप्त करने में सहायता करते हैं। 'आत्मनो मोक्षाय, जगत हिताय च' संत मोक्ष की कामना के साथ समाज उद्धार की कामना भी करते हैं। यद्यपि संतों का सर्वप्रथम प्रेम ईश्वर के प्रति होता है इसके बावजूद यह समाज की भलाई और सर्वजन कल्याण की भावना से ओतप्रोत होता है। संतों में ज्ञान और पराभक्ति दोनों होता है। संतों का ज्ञान परमात्मा के विषय में निजी अनुभवों से संपृक्त होता है। वह जगत में सर्वत्र भगवान को देखता है। उसका प्रेम मंदिर में स्थित मूर्ति तक सीमित नहीं होता बल्कि समस्त विश्व में प्रवाहित है। उसका प्रेम विश्वजनीन है। उसमें सर्वोच्च दर्शन, तीव्र भक्ति और संपूर्ण अहंकार शून्यता अंतर्निहित है।

छत्तीसगढ़ प्रदेश ऐसे अन्यान्य संतों की जन्मस्थली और कार्यस्थली रही है। सतयुग में महर्षि मतंग ऋषि का गुरूकुल आश्रम शिवरीनारायण क्षेत्र में था। यहाँ शबरी निवास करती थी। उनका उद्धार करने के लिए श्रीराम और लक्ष्मण यहाँ आये थे। उनकी स्मृति में शबरीनारायण बसा है। पंडित मालिकराम भोगहा द्वारा रचित श्री शिवरीनारायण माहात्म्य का एक उध्दरण देखिये :-

जो प्रसन्न तुम मो पर रघुवर देहु मोहि वरदान यही
मेरे नाम सहित प्रभु जी के नाम उचारें सकल मही
कमल नयन ! अब मेरे हित तुम रचहु चिता निज रूचि अनुसार पंचभूत तनु जारि भुवन तुव जाऊं सकल पाप करि छारे॥

महानदी की उद्गम स्थल सिहावा में श्रृंगी ऋषि का आश्रम था जहाँ वे अपनी पत्नी शांता के साथ रहते थे :-

चंदमुखी शांता सुख दायिनि पतीभक्ति नित प्रति पारायनि
सेवा करत सुमति हरषाई श्रृंगी ऋषि की कपट बिहाई
(देश) निकट गिरि कंक सुहाई तहां उटज मुनि सुभग बनाई
शांता सहित रहत सुखदाई नृप आदिक पूजत तहं जाईते॥

इसी प्रकार महानदी के किनारे कसडोल के पास स्थित तुरतुरिया में महर्षि बाल्मिकी का आश्रम था जहाँ लव और कुश का जन्म हुआ था। प्रसिद्ध तीर्थ राजिम भी महर्षि मुचुकुंद की तपस्थली था जहाँ महाराजा सगर के हजारों पुत्र भस्म हो गये थे। कांकेर में कंक ऋषि का आश्रम था। सरगुजा की पहाड़ी में कालिदास के रहने की पुष्टि होती है। प्रसिद्ध दार्शनिक और बौध्द धर्म की महायान शाखा के संस्थापक नागार्जुन भी यहीं हुए थे। तभी तो कवि शुकलाल पांडेय छत्तीसगढ़ गौरव में गाते हैं :-

यहीं हुए भवभूति नाम संस्कृत के कविवर
उत्तार रामचरित्र ग्रंथ है जिनका सुंदर
वोपदेव से यहीं हुए हैं वैयाकरणी
है जिनका व्याकरण देवभाषा निधि तरणी
नागार्जुन जैसे दार्शनिक और सुकवि ईशान से
कोशल विदर्भ के मध्य में हुए उदित शशिभान से।
नागार्जुन :-
नागार्जुन को बौध्द धर्म की महायान शाखा का संस्थापक माना जाता है। उन्हें सम्राट कनिष्क और सातवाहन राजवंश के समकालीन माना जाता है। हुएनसांग ने 'भारत भ्रमण वृत्तांत' में नागार्जुन को कोसल निवासी बताया है। उल्लेखनीय है कि छत्तीसगढ़ को प्राचीन काल में दक्षिण कोसल कहा जाता था। राहुल सांकृत्यायन ने भी 'राहुल यात्रावली' में नागार्जुन को दक्षिण कोसल का निवासी माना है। डॉ. दिनेश चंद्र सरकार और पंडित लोचन प्रसाद पांडेय ने उन्हें छत्तीसगढ़ के श्रीपुर का निवासी माना है। नागार्जुन जिस 'महामयूरी' विद्या के साधक थे, उसका उललेख बस्तर के एक लोकगीत में मिलता है :-

सिरी परवते मयूर डाके, मयूर डाके।
बाई के चलिबो ठोड़िया नाके, ठोड़िया नाके।
गोटे जिया माकू देवी, काय बाई गोटे जिया माकू देवी।
बाई खाये रेखी रेखी काय बाई खाय रेखी रेखी॥

इस लोकगीत में श्री पर्वत मयूर और माकू देवी का उल्लेख है। माकू देवी 'मामकी' का अपभ्रंश है जो रत्नकेतु ध्यानी बुध्द की शक्ति है। मयूर 'महामयूरी' देवी को कहा जाता है। श्रीपर्वत वही स्थान है जहाँ नागार्जुन ने 12 वर्षो तक वट यक्षिणी की साधना करके सिध्दि प्राप्त की थी।श्रीपर्वत (श्रीशैल) बस्तर की सीमा से लगा आंध्र प्रदेश में स्थित है। कदाचित् यह क्षेत्र प्राचीन काल में दक्षिण कोसल अथवा दंडकारण्य का भाग रहा हो। नागार्जुन ने अपने ग्रंथ 'रस रत्नाकर' में इस पर्वत पर सिध्दि प्राप्त करने का उल्लेख किया है :-

श्री शैल पर्वत स्थायी सिध्दो नागार्जुनो महान्।
सर्व सत्वोपकारी च, सर्व भाग्य समन्वित:॥
प्रार्थितो ददते शीघ्र यश्च पश्यति याद्शम्।
दृष्टता त्यागं भोगं च सूतकस्य प्रसादत:॥
सत्वानां भोजनार्थाय सोधिता वट यक्षिणी।
द्वादशानि च वर्षाभि महाक्लेष: कृतोमया॥
तत्कात दृष्ट द्रव्याणं दिव्यावाणी मयाश्रुता।
अदृष्ट प्रार्थिता पश्चात् दृष्टा त्वंभव साम्प्रतम्॥

नागार्जुन एक महान दार्शनिक और प्रखर संत ही नहीं बल्कि रस सिध्दि योगी और आयुर्वेदाचार्य थे। ध्यान के माध्यम से उन्होंने अनेक आध्यात्मिक सिध्दियां प्राप्त की थी। छत्तीसगढ़ में जन्में नागार्जुन को ज्ञान विज्ञान, योग और तंत्र ने अमर बना दिया। उल्लेखनीय है कि छत्तीसगढ़ का प्रसिद्ध धार्मिक नगर शिवरीनारायण प्राचीन काल में प्रसिद्ध तांत्रिक पीठ था।

महाप्रभु बल्लभाचार्य :-
छत्तीसगढ़ के प्रसिद्ध तीर्थ राजिम के उत्तार में 14 कि. मी. पर चम्पारण्य ग्राम स्थित है जहाँ पंचकोशी यात्रा का एक पड़ाव चम्पकेश्वर महादेव का है। महानदी के तट पर मनोरम दृश्य से परिपूर्ण इस ग्राम में महाप्रभु बल्लभाचार्य का जन्म एक दैवीय घटना थी। उत्तार भारत से दक्षिण भारत जाने का मार्ग शिवरीनारायण, राजिम और चम्पारण्य से गुजरता था। श्री लक्ष्मण भट्ट और उनकी गर्भवती पत्नी इल्लमा इस रास्ते से दक्षिण भारत की यात्रा कर रहे थे। तभी उनके गर्भ से बालक बल्लभ का जन्म हुआ। बच्चा निर्जीव प्रतीत हो रहा था। उसे एक पेड़ के नीचे पत्तों पर लिटाकर ईश्वरोपासना में लीन हो गए। प्रात: उन्होंने देखा कि बालक अपने अंगूठे को चूसता हुआ मुस्कुरा रहा था। यही बालक आगे चलकर वैष्णव भक्ति की शुध्दाद्वैत धारा का प्रवर्तक हुआ जिसे आज पुष्टि मार्ग के नाम से जाना जाता है। यही बालक आगे चलकर महाप्रभु बल्लभाचार्य के नाम से विख्यात् हुआ। उन्होंने वेदांत की तर्क संगत सरल व्याख्या की है। उन्हें भगवान विष्णु का अंशावतार माना जाता है। उन्होंने उत्तार भारत में वैष्णव पंरपरा के मार्ग को पुष्ट किया। चम्पारण्य में ''श्रीमद् बल्लभाचार्य धर्म संस्कृति शोध अन्वेषण संस्थान'' की स्थापना पूज्यपाद गोस्वामी मथुरेश्वर द्वारा की गयी है। कवि शुकलाल पांडेय भी गाते हैं :-

जन्मभूमि बल्लभाचार्य की है चम्पाझर
बसे शंभू अभ्यंकर प्रयलंकर शंकर॥

बलभद्रदास :-
रायपुर के दूधाधारी मठ के संस्थापक महात्मा बलभद्र दास थे। चूंकि वे अन्न जल के बजाय केवल दूध ग्रहण किया करते थे अत: उनका नाम 'दूधाधारी' पड़ गया। हालाँकि उनका जन्म राजस्थान के जोधपुर जिलान्तर्गत आनंदपुर (कालू) में पंडित शंभूदयाल गौड़ के पुत्र के रूप में हुआ था, लेकिन उनकी कार्यस्थली छत्तीसगढ़ का रायपुर था। बचपन से ही वे बड़े चमत्कारी थे। वे भ्रमण करते हुए पहले महाराष्ट्र और फिर छत्तीसगढ़ आ गए। उनके चमत्कारों से प्रभावित होकर अनेक राजा-महाराजा उनके शिष्य हो गए। भंडारा जिले के पावनी में महंत गरीबदास द्वारा निर्मित श्रीरामजानकी मंदिर में वे बहुत दिनों तक रहे। यहीं उन्होंने गरीबदास को अपना गुरू बनाया और बालमुकुंद से बलभद्रदास हो गए। उनके पास एक शेर और शेरनी था। शेर का नाम नरसिंह और शेरनी का नाम लक्ष्मी था। 17 वीं शताब्दी के आरंभ में वे रायपुर आ गए। तब यहाँ भोंसलों का शासन था। उनकी चमत्कारी प्रतिभा से प्रभावित होकर उन्हें रायपुर में रहने की प्रार्थना भोंसले राजा ने की और एक मठ का निर्माण सन् 1640 में कराया जिसके वे पहले महंत हुए। इस मठ को 'दूधाधारी मठ' कहा जाता है। लोग उनके संपर्क में आते गये और शिष्य बनते गये। आगे चलकर इस मठ में सेठ दीनानाथ अग्रवाल ने श्रीरामजानकी का भव्य मंदिर बनवाया। छत्तीसगढ़ का यह एकलौता मंदिर है जहाँ श्रीरामजानकी के अलावा लक्ष्मण्, भरत, शत्रुघन और हनुमान की भव्य झांकी है। तब से लेकर आज तक इस मठ के क्रमश: बलभद्रदास, सीतारामदास, अर्जुनदास, रामचरणदास, सरजूदास, लक्ष्मणदास, बजरंगदास, और वैष्णवदास महंत हुए और वर्तमान में राजेश्री रामसुदरदास यहाँ के महंत हैं।

अर्जुनदास :-
स्वामी अर्जुनदास जी शिवरीनारायण मठ के ग्यारहवीं पीढ़ी के महंत थे। वे शिवरीनारायण तहसील के आनरेरी बेंच मजिस्ट्रेट भी थे। बिलासपुर जिलान्तर्गत (वर्तमान रायपुर) ग्राम बलौदा में संवत् 1867 में उनका जन्म हुआ। 18 वर्ष की आयु तक विद्याध्ययन किया और फिर वे मठ मंदिर में पुजारी नियुक्त होकर 23 वर्ष की आयु में इस मठ के महंत बने। वे बड़े आस्तिक थे। बचपन से ही नदी से कंकड़, पत्थर लाकर उनकी पूजा किया करते थे। आपको हनुमान जी की बड़ी कृपा मिली थी। श्रीराम की उपासना में सदा दृढ़ रहते हुए रामायणादि और भगवत्कथा के श्रवण में सदा लीन रहते थे। उनके मुख से निकली हुई हर बात सत्य होती थी। उनके आशीर्वाद से संवत् 1927 में अकलतरा के जमींदार श्री सिदारसिंह और लवन के पंडित सुधाराम को पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई। तत्पश्चात् स्वामी जी की प्रेरणा से सिदारसिंह ने अपने भाई श्री गरूड़सिंह की सहायता से संवत् 1927 में श्रीराम लक्ष्मण और जानकी जी का मंदिर बनवाया। इसी प्रकार पंडित सुधाराम ने भी मठ परिसर में संवत् 1927 में एक हनुमान जी का मंदिर बनवाया। इसी प्रकार श्री रामनाथ साव ने स्वामी जी की प्रेरणा से चंद्रचूड़ महादेव मंदिर के बगल में संवत् 1927 में एक महादेव जी का मंदिर बनवाया। इस मंदिर में भगवान विष्णु की चतुर्भुजी मूर्ति भी है। आज उनके वंशज श्री मंगलप्रसाद, श्री तीजराम और श्री जगन्नाथ प्रसाद केशरवानी इस मंदिर की देखरेख और पूजा-अर्चना कर रहे हैं। स्वामी जी की प्रेरणा से भटगाँव के जमींदार श्री राजसिंह ने मठ प्रांगण में जगन्नाथ मंदिर की नींव संवत् 1927 में डाली, जिसे उनके पुत्र श्री चंदनसिंह ने पूरा कराया और भोग रागादि की व्यवस्था की। इसी समय भटगाँव के जमींदार ने योगी साधु-संतों के निवासार्थ जोगीडीपा में एक भवन का निर्माण कराया जिसे आज जनकपुर के नाम से जाना जाता है। रथयात्रा में आज भी भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा जी एक सप्ताह यहाँ विश्राम करते हैं। संवत् 1928 में यहाँ श्री बैजनाथ साव, चक्रधर, बोधराम और अभयराम ने एक हनुमान जी का भव्य मंदिर बनवाया। महंत अर्जुनदास जी यहाँ एक सुंदर बगीचा लगवाया था। वे यहाँ प्रतिदिन आया करते थे। द्वार पर एक शिलालेख है जिसमें हनुमान मंदिर बनाने का उल्लेख है। उन्होंने संवत् 1923 से 1927 तक नारायण मंदिर के चारों ओर पत्थर से पोख्तगी कराकर मंदिर को मजबूती प्रदान कराया। यही नहीं बल्कि इधर उधर बिखरे मूर्तियों को दीवारों में जड़वाकर सुरक्षित करवा दिया। आज यहाँ का मंदिर परिसर जीवित म्यूजियम जैसा प्रतीत होता है। संवत् 1929 में मठ परिसर में पूर्व महंतों की समाधि में छतरी बनवायी। फाल्गुन शुक्ल पंचमी, संवत् 1944 को रायपुर के छोगमल मोतीचंद ने मठ परिसर में द्वार से लगा एक सूर्य मंदिर का निर्माण कराया। रायपुर के डिप्टी कमिश्नर श्री इलियट साहब ने 12 गाँव की माफी मालगुजारी संवत् 1915 स्वामी जी को दिया। संवत् 1920 में डिप्टी कमिश्नर चीजम साहब की अनुमति से उन्होंने यहाँ एक पाठशाला खुलवाया। यह पाठशाला महानदी के तट पर स्थित माखनसाव के कुलदेव महेश्वर महादेव मंदिर के पास स्थित थी। संवत् 1933 (जनवरी सन् 1877 ई.) में राज राजेश्वरी को महारानी की उपाधि मिलने पर उन्होंने स्वामी जी को एक प्रशंसा पत्र देकर सम्मानित किया था। इस प्रकार 44 वर्ष इस मठ के महंत रहकर 75 वर्ष की आयु में मठ प्रबंधन का सारा भार अपने शिष्य श्री गौतमदास को सौंपकर उन्होंने पौष कृष्ण अष्टमी दिन मंगलवार संवत् 1942 को स्वर्गारोहण किया।

गौतमदास :-
शिवरीनारायण मठ के 12 वें महंत स्वामी गौतमदास जी हुए जो स्वामी अर्जुनदास जी के परम शिष्य थे। वे शिवरीनारायण तहसील के आनरेरी बेंच मजिस्ट्रेट थे। गौतमदास जी का जन्म बिलासपुर (वर्तमान रायपुर) जिलान्तर्गत बलौदा ग्राम में श्री गंगादास और श्रीमती सूर्या देवी के पुत्र रत्न के रूप में माघ शुक्ल द्वादशी संवत् 1892 रविवार को अच्युत गोत्रीय वैष्णव कुल में हुआ। बलौदा इनकी गौटियाई गाँव था जहाँ अच्छी खेती होती थी। 9 वर्ष की आयु तक वे अपने माता पिता के पास रहे। उसके बाद दीक्षित होकर विद्याध्ययन करने के लिए शिवरीनारायण आ गये। उनके गुरू स्वामी अर्जुनदास जी ने उनकी शिक्षा की व्यवस्था मठ में ही करा दी। सात वर्ष तक उनको संस्कृत और नागरी भाषा में शिक्षा मिली। तत्पश्चात् गीतादि और कर्मकांड में शिक्षा ग्रहणकर निपुण हुए। संवत् 1910 में महंत अर्जुनदास जी ने अपना सम्पूर्ण कार्यभार उन्हें सौंप दिया, यहाँ तक कि सरकार के दरबार में भी उन्हें जाने का अधिकार उन्होंने दिया। फिर वे मठ की देखरेख करने लगे। महंत अर्जुनदास जी की प्रेरणा से बनने वाले सभी मंदिर उन्हीं की देखरेख में बने। उन्होंने अपने गुरू का 34 वर्ष तक साथ निभाया। उनके मृत्योपरांत 50 वर्ष की अवस्था में वे संवत् 1936 में इस मठ के महंत बने। उन्होंने शिवरीनारायण में रथयात्रा, श्रावणी, झूलोत्सव, और माघी मेला लगाने की दिशा में समुचित प्रयास किया जिसे उनके शिष्य महंत लालदास जी ने व्यवस्थित रूप प्रदान किया। उन्होंने टुन्ड्रा में एक तालाब खुदवाकर सुन्दर बगीचा लगवाया। इसी प्रकार शिवरीनारायण में प्रमुख बाजार से लगा एक सुन्दर बगीचा लगवाया। इसे ''फुलवारी'' के नाम से जाना जाता है। उनका सम्पूर्ण समय ईश्वरोपासना, श्रीराम के भजन और श्रीहरि कथा श्रवण में व्यतीत होता था। धर्म्म व्यवहार में उनकी इतनी दृढ़ता थी कि अस्वस्थ होने पर भी धर्मानुकूल व्यवहार करने में वे कभी नहीं चुकते थे। वे धर्माभिमानी और धर्मात्मा पुरूष थे। प्रयाग, काशी, गया, जगन्नाथपुरी और अयोध्या आदि तीर्थयात्रा उन्होंने की थी। वे सनातन धर्म के रक्षार्थ निरंतर कटिबध्द रहे। शिवरीनारायण में सबसे पहले उन्होंने ही नाटकों के मंचन को प्रोत्साहित किया जिसे महंत लालदास जी ने प्रचारित कराया। उन्होंने अपने भाई श्री जयरामदास के पुत्र श्री लालदास जी को अपना शिष्य बनाकर मठ का महंत नियुक्त किया।

महंत लालदास जी :-
शिवरीनारायण मठ के 13 वें महंत स्वामी लालदास जी हुए। बिलासपुर (वर्तमान रायपुर) जिलान्तर्गत ग्राम बलौदा के श्री जयरामदास जी के पुत्र के रूप में आषाढ़ शुक्ल 11, संवत् 1936 में उनका जन्म हुआ। वे महंत गौतमदास जी के भतीजे थे। माघ शुक्ल 5, संवत् 1940 को श्री लालदास का विद्याध्ययन आरंभ हुआ और चैत्र शुक्ल 8, संवत् 1945 को संस्कारित होकर विधिवत दीक्षित हुए। वे संत सेवी, भागवत भक्त और समाज के उत्थान के लिए सदैव प्रयत्नशील रहे। यहाँ त्योहारों और पर्वो में विशेष धूम उन्हीं के कारण होने लगी थी। सावन में झूला उत्सव, रामनवमीं, श्रीकृष्ण जन्माष्टमी, रथयात्रा, विजियादशमी यहाँ बड़े धूमधाम से मनाया जाता था जिसमें आस पास के गांवों के बड़ी संख्या में लोग सम्मिलित होते थे। यहाँ रामलीला, कृष्णलीला और नाटक का मंचन बहुत अच्छे ढंग से होता था जिसे देखने के लिए राजा-महाराजा, जमींदार और मालगुजार तक आते थे। महंत गौतमदास जी के समय यहाँ एक ''महानद थियेटिकल कम्पनी'' नाम से नाटक मंडली बनी थी जिसके द्वारा धार्मिक नाटकों का मंचन किया जाता था। इस नाटक मंडली को आर्थिक सहायता मठ के द्वारा मिला था। मठ के मुख्तियार श्री कौशल प्रसाद तिवारी ने भी ''बाल महानद थियेटिकल कम्पनी'' के नाम से एक नाटक मंडली बनायी थी। आगे चलकर महानद थियेटिकल कम्पनी और बाल महानद थियेटिकल कम्पनी को एक करके ''महानद थियेटिकल कम्पनी'' बनी। इस कम्पनी के मैनेजर श्री कौशल प्रसाद तिवारी थे। यहाँ मनोरंजन के यही साधन थे। समय समय पर यहाँ संत समागम, यज्ञ आदि भी होते थे। कदाचित् इन्हीं सब कारणों से महंत लालदास जी सबके आदरणीय और पूज्य थे। वे आयुर्वेद के अच्छे ज्ञाता थे। औषधियों का निर्माण वे स्वयं कराते थे और जरूरत मंद लोगों को नि:शुल्क देते थे। उन्होंने शिवरीनारायण को ''व्यावसायिक मुख्यालय'' बनाने के लिए बड़ा यत्न किया। दूर दराज के व्यावसायियों को आमंत्रित कर यहाँ बसाया और सुविधाएं दी, उन्हें व्यापार हेतु प्रोत्साहित किया। प्रमुख बाजार स्थित दुकानें उनकी दूर दृष्टि का ही परिणाम है। यहाँ के माघी मेला जो पूरी तरह व्यवस्थित होती है, इसे व्यवस्थित रूप प्रदान करने का सारा श्रेय महंत लालदास को ही जाता है। मठ के मुख्तियार श्री कौशलप्रसाद तिवारी महंत जी की आज्ञा से महंतपारा की अमराई में मेला के लिए सीमेंट की दुकानें बनवायी जो आज टूटती जा रही है। उन्होंने महानदी के तट पर संत-महात्माओं के स्नान-ध्यान के लिए अलग ''बावाघाट'' का निर्माण कराया। नि:संदेह ऐसे परम ज्ञानी, संत, कुशल प्रशासक और दूर दृष्टा महंत का यह क्षेत्र सदैव ऋणी रहेगा। उन्होंने दूधाधारी मठ रायपुर के महंत श्री वैष्णवदास जी को अपना शिष्य बनाकर इस मठ का महंत नियुक्त किया जो उनके 24 अगस्त सन् 1958 को मृत्योपरांत मठ का कार्यभार सम्हाला। इस प्रकार शिवरीनारायण मठ और रायपुर के दूधाधारी मठ के बीच एक नया संबंध स्थापित हुआ।

गुरूघासीदास :-
छत्तीसगढ़ में गुरू घासीदास का आविर्भाव उस समय हुआ जब इस क्षेत्र का धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक व्यवस्था पूरी तरह दूषित हो गयी थी। एक ओर जहाँ राजनीतिक एकता का अभाव था, सर्वत्र अशांति थी, वहीं दूसरी ओर सामाजिक विघटन और कटुता भरा वातावरण था। मराठा शासन के कारण चारों ओर भय, आतंक असुरक्षा और अशांति थी। शासन के नाम पर मराठा आततायियों तथा उनके स्थानीय उच्च वर्गीय अनुयायियों का अत्याचार अपनी पराकाष्ठा पर था। धार्मिक, आध्यात्मिक तथा सात्विकता की भावना का पूरी तरह आभाव था। सम्पूर्ण क्षेत्र में विषमता, दमन, अराजकता और मिथ्याभिमान विद्यमान था। ऐसी परिस्थितियों में निश्चित रूप से किसी युग पुरूष की आवश्यकता थी जो इस व्यवस्था में सुधार ला सके। ऐसे समय में गुरू घासीदास का जन्म एक वरदान था। उन्होंने अपने अंतर्मन के विश्वास और सतनाम के दिव्य संदेश से सम्पूर्ण छत्तीसगढ़ के दिग्भ्रमित लोगों को सही रास्ता दिखाया।

रायपुर जिला गजेटियर के अनुसार गुरू घासीदास का जन्म 18 दिसंबर सन् 1756 को एक श्रमजीवी परिवार में बलौदाबाजार तहसील के अंतर्गत महानदी के किनारे बसे गिरौदपुरी ग्राम में हुआ। यह गाँव छत्तीसगढ़ की संस्कारधानी शिवरीनारायण से मात्र 11 कि.मी. दूर है। इनके पिता का नाम मंहगू और माता का नाम अमरौतिन बाई था। घासीदास का विवाह सिरपुर के अंजोरी की पुत्री सफुरा बाई से हुआ था। उनके चार पुत्र क्र्रमश: अमरदास, बालकदास, आगरदास, अड़गड़िया दास और एक पुत्री सुभद्रा थी। अपने पाँचों भाईयों में घासीदास मंझले थे। इनके बचपन का नाम घसिया था। वे संत प्रकृति के थे। उनके साथ अनेक अलौकिक घटनाएं जुड़ी हुई है। प्रारंभ से ही घासीदास का मन घरेलू तथा अन्य सांसारिक कार्यो में नहीं लगता था। फिर भी उन्हें अपने पिता के श्रम में भागीदार बनना ही पड़ता था। एक बार इस क्षेत्र में भीषण आकाल पड़ा जिससे उन्हें अपने परिवार के आजीविका के लिये दर दर भटकना पड़ा। अंत में वे परिवार सहित उड़ीसा के कटक शहर पहुंचे। यहाँ वे मजदूरी करने में अपना मन लगा पाते, इसके पूर्व ही उनकी मुलाकात बाबा जगजीवनदास से हुई। बाबा जगजीवनदास उस समय उड़ीसा के सुप्रसिद्ध संत माने जाते थे। घासीदास ने उनसे सतनाम की शिक्षा ग्रहण की। उन्होंने उनके मन को जगाया और उन्हें बताया कि उनका जन्म सांसारिक कार्यो के लिये बल्कि लोगों को सद्मार्ग दिखाने के लिये हुआ है। कटक से लौटकर घासीदास सोनाखान के बीहड़ वन प्रांतर में जोंक नदी के किनारे तप करने लगे। यहाँ उन्हें सत्य की अनुभूति हुई और उन्हें सिध्दि मिली। इसके पश्चात् वे भंडारपुरी में आश्रम बनाकर सांसारिक भोग विलास का परित्याग कर जन कल्याण में अपना जीवन समर्पित कर दिया।

समकालीन विचार कमजोर और पिछड़े वर्ग के जीवन दर्शन को जितना गुरू घासीदास ने प्रभावित किया है, उतना किसी अन्य ने नहीं किया है। उन्होंने केवल छत्तीसगढ़ ही नहीं बल्कि देश के अन्य भागों में लोगों को जो सतनाम का संदेश दिया है वह युगों युगों तक चिरस्मरणीय रहेगा। इसके अतिरिक्त उन्होंने समता, बंधुत्व, नारी उद्धार और आर्थिक विषमता को दूर करने के लिये एक समग्र क्रांति का आव्हान किया। वे एक समदर्शी संत के रूप में छत्तीसगढ़ में सामाजिक चेतना लाने में अपना सम्पूर्ण जीवन समर्पित कर दिया। उनका आध्यात्मिक और दार्शनिक व्यक्तित्व के बारे में कहा जाता है कि वे हिमालय की भांति उच्च और महान थे। पंथी गीत में भी गाया जाता है :-

श्वेत वरण अंग सो है, सिर कंचन के समान विशाला।
श्वेत साफा, श्वेत अंगरखा, हिय बिच तुलसी के माला।
एहि रूप के नित ध्यान धरौ, मिटे दुख दारूण तत्काला।
श्वांस त्रास जम के फांस मिटावत हे मंहगू के लाला॥

गहिरा गुरू :-
छत्तीसगढ़ के रायगढ़ जिलान्तर्गत लैलूंगा के वनों के बीच स्थित गहिरा ग्राम में संवत् 1966 में बुड़कीनंद व सुमित्रा बाई के पुत्र के रूप में जन्में रामेश्वर कंवर ही आगे चलकर गहिरा गुरू के नाम से प्रसिद्ध हुए। अल्पायु में ही अपने पिता के स्नेह से वंचित रामेश्वर बचपन से ही वनों में समाधि लगाने लगा था। वहाँ न तो स्कूल था न ही कोई शिक्षक, अत: शिक्षा-दीक्षा से वंचित रहा। उन्होंने केवल साधना की और सत्य को जाना। तीन दशक तक साधना के बाद जब वे लोगों के बीच आये तब उन्होंने लोगों को मांस, मदिरा का परित्याग कर सामाजिक सेवा करने का उपदेश दिया। वनवासी धीरे धीरे उनके अनुयायी बनते गये। कैलास गुफा उनका निवास और लोगों के लिए एक तीर्थ बन गया। 35 वर्ष की आयु में वे पूर्णिमा के साथ पाणिग्रहण किया। धीरे धीरे उनकी ख्याति चारों ओर फैल गयी और नेता, अभिनेता सभी उनके दर्शन लाभ के लिए गहिरा आश्रम आने लगे। यहाँ संस्कृत विद्यालय खोला गया। सामर बहार, श्री कैलास नाथेश्वर गुफा और श्री कोट में संचालित संस्कृत विद्यालय में लगभग 800 विद्यार्थी अध्ययनरत हैं। सम्प्रति सांकरवार में इस आश्रम का मुख्यालय है। उनकी सेवा के कारण मध्यप्रदेश शासन द्वारा 1986 में इंदिरा गांधी राष्ट्रीय पुरस्कार तथा 2005 में छत्तीसगढ़ शासन द्वारा सामाजिक सेवा पुरस्कार प्रदान किया है।

अवधूत भगवान राम :-
बिहार प्रांत के भोजपुर जिलान्तर्गत गुण्डी ग्राम में बैजनाथसिंह के पुत्र के रूप में भाद्र शुक्ल सप्तमी, संवत् 1994 को भगवान का जन्म हुआ। उनके जन्म को उनके पिता ने भगवान का अवतरण समझकर उन्हें ''भगवान'' नाम दिया। उनकी प्रवृत्तिायां बाल्यकाल से ही असामान्य थी। सात वर्ष की आयु में उन्होंने घर का परित्याग कर दिया और भिक्षा मांगकर जीवन यापन करने लगा। 15 वर्ष की अल्पायु में उन्होंने महरौड़ा श्मशान में अघोरसिध्दि प्राप्त की। उन्होंने अघोरपीठ क्रीं कुंड वाराणसी के पीठाधीश्वर बाबा रामेश्वर राम से दीक्षा ली। एक बार जशपुर के राजा को वे बनारस में श्मशान में मिल गये। उन्होंने बालक भगवान से जशपुर चलने की प्रार्थना की। पहले तो उन्होंने जशपुर जाने से इंकार कर दिया। लेकिन राजा के बहुत अनुनय विनय करने पर वे जशपुर चलने को राजी हो गये और जशपुर रियासत के नारायणपुर में उनका सर्वप्रथम आश्रम बना। प्राचीन औघड़ संतों ने देश और समाज के सामने जो उग्र रूप प्रस्तुत किया था इससे लोगों के मन में अघोर पंथ के प्रति अनेक भ्रांतियां उत्पन्न हो गयी थी जिससे भय का वातावरण निर्मित हो गया था। अवधूत भगवान राम ने समाज के सामने ऐसा आदर्श प्रस्तुत किया जिससे उनकी न केवल भ्रांतियां दूर हुई बल्कि उनके अनुयायी होते गये। उनके सत्संग से मन के विकार दूर हो जाते और मन को शांति मिलती थी। उन्होंने जीवन के आध्यात्मिक संग्रह को दलित, पीड़ित और शोषित मानवता को समर्पित कर दिया। उनके आशीर्वाद से जशपुर के राजवंश चला। हमारे देश के तत्कालीन प्रधान मंत्री श्री चंद्रशेखर, श्रीमती इंदिरा गांधी और श्री राजीव गांधी उनके भक्त ही नहीं बल्कि अनुयायी भी थे। आगे चलकर उन्होंने जशपुर के गमरीया और सोगड़ा में अपना आश्रम बनाया। उन्होंने 1961में 'श्री सर्वेश्वरी समूह' और 1962 में 'अवधूत भगवान राम कुष्ठ आश्रम' की स्थापना की। वे अघोरेश्वर थे। वे हमेशा कहते थे-'औघड़ वह भूना हुआ बीज है जो कभी अकुंरित नहीं होता। इसलिए मैं किसी देव का अवतार नहीं हूँ। आप जितना जानते हैं उसी पर अमल करें तो बहुत अच्छा होगा।' इसी उद्धोष के साथ उन्होंने 29 नवंबर 1992 को महानिर्वाण किया।

राजमोहिनी देवी :-
सरगुजा का प्राकृतिक सौंदर्य ऋषि-मुनियों की कार्यस्थली के रूप में प्रख्यात् रही है। रामगिरी की पहाड़ी में कालीदास ने अन्यान्य रचनाओं का सृजन किया था। यहीं सरगुजा की माता के नाम से राजमोहिनी देवी ने भी ख्याति प्राप्त की है। सरगुजा जिला मुख्यालय अम्बिकापुर से 85 कि. मी. दूर गोविंदपुर में विवाहोपरांत राजमोहिनी देवी का पदार्पण हुआ। जंगली फल-फूल, कंद मूल आदि के उपर उनका जीवन आधारित था। जंगल से लकड़ी इकठ्ठा करके उसे बाजार में बेचकर जीवन की नैया जैसे तैसे चल रही थी। इसी बीच उनके दो पुत्र बल्देव और मनदेव तथा एक पुत्री राम बाई का जन्म हुआ। पति रणजीतसिंह का 1986 में देहावसान हो गया।

दैनिक जीवन की आवश्यकताओं को पूरा करते उन्हें दिव्य अनुभूतियां हुई और उनका झुकाव साधना की बढ़ने लगा और उन्हें अंतत: सत्य की प्राप्ति हुई। एक घटना का उल्लेख करते हुए उन्होंने बताया कि पानी नहीं बरसने के कारण अकाल की स्थिति निर्मित हो गयी। लोग दाने दाने के लिए मोहताज होने लगे। कुछ लोग गाँव से पलायन करने की तैयारी करने लगे। मैं जंगल में लकड़ी इकठ्ठा कर रही थी तभी मुझे एक साधु मिले। कुशल क्षेम पूछने के बाद उन्होंने मुझे कहा कि तुम्हारा जन्म लकड़ी इकठ्ठा करने के लिए नहीं हुआ है, तुम्हे घर घरमें सादगी का अलख जगाना है, मांस-मदिरा से मुक्त समाज बनाना है...इनमें जागृति लाना है। जब तक उनकी बातों को समझ पाती,वे अंतर्ध्यान हो गये। मैं घर न लौटकर गाँव के बाहर एक पेड़ के नीचे बैठकर ध्यानस्थ हो गयी। मेरा ध्यान तब टूटा जब गाँव के सभी स्त्री पुरूष और बच्चे वहाँ इकठ्ठा होकर मुझे गाँव चलने को कह रहे थे, उनमें मेरे बच्चे भी थे। लेकिन मैं तो मोह माया से बहुत दूर हो गयी थी। मेरे मांस-मदिरा का परित्याग और सादगीपूर्ण जीवन जीने की बात कहने पर सबने अकाल से छुटकारा दिलाने की बात कही। ईश्वर की कृपा हुई और झमाझम पानी गिरने लगा और समय आने पर अच्छी फसल हुई। सबने मेरी बात मान ली और मांस मदिरा छोड़कर सादगी से जीवन यापन करने लगे। इस घटना से प्रभावित होकर दूसरे गाँव वाले भी साथ होने लगे। इस प्रकार उनके अनुयायियों की संख्या बढ़ने लगी। गुनपुर गाँव के किसान रामकिशन और रामगहन द्वारा दी गयी तीन एकड़ पच्चीस डिसमिल जमीन में उनका आदिवासी सेवा आश्रम स्थित है। सरगुजा के अलावा रायगढ़, बिलासपुर, शहडोल, पेंड्रारोड, सीधी और छोटा नागपुर के पलामू तक उनके अनुयायी फैले हुए हैं। उन्हें भारत सरकार द्वारा ''पद्मश्री'' की उपाधि प्रदान की गयी है। लोग उन्हें ''माता जी'' के नाम से संबोधित करते हैं। 07 जनवरी 1994 को वह ब्रह्यलीन हो गयी मगर उनका प्रेरणादायी संदेश आज भी उन सबका पथ प्रदर्शन कर रही है।

तपसी बाबा :-
उत्तारप्रदेश के ग्राम गुरूद्वारा, जिला देवरिया में 1838 ईसवीं में जन्में बालमुकुन्ददास जी अल्पायु में चमत्कारों से परिपूर्ण थे। बचपन से ही उन्होंने अपने घर का परित्याग कर संतों का सत्संग करने लगे। तीर्थाटन करते हुए वे चांपा आ गए। यहाँ उन्होंने हसदो नदी के तट पर श्मशान में स्थित एक छोटे से मंदिर को अपना निवास बनाया। उस समय यहाँ के जमींदार दादू रूद्रशरणसिंह थे। उनकी चमत्कारों से अन्यान्य लोग प्रभावित हुए और धीरे धीरे उनसे जुड़ने लगे। सर्वप्रथम उन्होंने हनुमान जी का मंदिर श्री नकछेड़ साव के सहयोग से बनवाया। नगर के प्रसिद्ध सेठ जगन्नाथ प्रसाद डिडवानिया तपसी बाबा की प्रेरणा से धर्मशाला, कुंआ, बगीचा और जगमोहन मंदिर का निर्माण कराया। मंदिर में बिना भोग लगे वे अन्न-जल ग्रहण नहीं करते थे। राय साहब बनवारीलाल को नया जीवन तपसी बाबा से ही मिला था। उन्होंने उनकी प्रेरणा से संत निवास का निर्माण कराया। उनकी प्रेरणा से ही डोंगाघाट का फर्शीकरण संभव हो सका।

तपसी बाबा विद्वान, परोपकारी और भविष्य दृष्टा थे। हनुमान और अन्नपूर्णा जी की विशेष कृपा थी। श्रध्दालु भक्त, दर्शनार्थी, भूखे, भूले भटके लोगों को आप अवश्य सहायता करते थे। अन्नपूर्णा जी की कृपा से आपका भंडार कभी खाली नहीं होता था। हनुमान जी का चरणामृत सबके लिए अमृत तुल्य और संजीवनी था। आपके दर्शन लाथ करने वालों में म. प्र. के तत्कालीन मुख्य मंत्री द्वय श्री कैलासनाथ काटजू और श्री भगवंतराव मंडलोई, सांसद श्री अमर सहगल, श्री बिसाहूदास महंत, श्री बलिहास सिंह, जीवनलाल साव आदि थे। तपसी बाबा की प्रेरणा से उन्होंने बापू बालोद्यान का निर्माण कराया। उनका अधिकांश समय ध्यान, योग और भगवत्भजन में व्यतीत होता था। अपने चेले श्री शंकरदास को मंदिर का दायित्व सौंपकर 21 मई 1967 को चिर निद्रा में लीन हो गए। श्रध्दालुओं ने उनकी मूर्ति बनवाकर मंदिर परिसर में स्थापित करायी तथा उनकी समाधि स्थल को केराझरिया के रूप में विकसित कराय जो आज एक पर्यटक के रूप में विकसित होते जा रहा है।

ऐसे अन्यान्य संतों ने छत्तीसगढ़ की पावन भूमि को अपनी तपस्थली और कार्यस्थली बनाया है। तभी तो पंडित शुकलाल पांडेय ने 'छत्तीसगढ़ गौरव' में गाते हैं :-

धर्मात्मा-हरिभक्त जितेन्द्रिय पर उपकारी
यथालाभ संतोष शील मुनिगण पथचारी
निर्लोभी गत बैर ग्राम उपदेशक वन्दित
सदाचरण रत शान्त तपस्वी सद्गुण मंडित
वाग्मी सुविवेकी नीतिरत मातामर्ष साधव महा
छलकपट हीनऔ दम्भगत ब्राह्यण बसते यहाँ ॥


प्रो. अश्विनी केशरवानी
राघव, डागा कालोनी,
चांपा-495671 (छ.ग.)

केवल भारत ही नहीं 'बाज़ीगरों' का देश

भारतवर्ष को स्वाधीन हुए हालाँकि 60 वर्ष बीत चुके हैं परन्तु अभी भी इस देश में ऐसी अनेकों घटनाएं होती रहती हैं जोकि हमारी नीयत, कार्यक्षमता, कार्यशैली यहाँ तक कि हमारी राष्ट्रभक्ति तक पर प्रश्चिह्न लगाती हैं। उदाहरण के तौर पर सरकारी प्रबंधन की कमियों के चलते किन्हीं क्षेत्रों में यदि बाढ़ या सूखे जैसे प्रकोप की स्थिति उत्पन्न होती है तथा उस स्थिति का सामना करने के लिए सरकार अथवा ग़ैर सरकारी संगठनों द्वारा बाढ़ या सूखा पीड़ित लोगों की सहायतार्थ कुछ राहत सामग्री अथवा धनराशि मुहैया कराई जाती है तो अधिकांशत: ऐसे स्थानों से यह समाचार सुनने को मिलता है कि राहत सामग्री अथवा नकद धनराशि के आबंटन में सरेआम धांधलीबाज़ी की जा रही है। दुर्भाग्यपूर्ण है कि इस देश में भ्रष्टाचार की जड़ें इतनी गहरी हो चुकी हैं कि भ्रष्टाचार में लिप्त लोगों को यह तक दिखाई नहीं देता कि प्रभावित व्यक्ति किस हद तक ज़रूरतमंद है।

भ्रष्टाचार की इसी प्रवृत्ति ने देश में मिलावट का ज़हर भी घोल रखा है। खाने-पीने की वस्तुओं से लेकर जीवन रक्षक दवाईयाँ, रोंजमर्रा प्रयोग में आने वाली तमाम वस्तुएं, मशीनरी के कलपुर्ज़े आदि सभी में मिलावट तथा नकली सामानों की भरमार देखी जा रही है। भ्रष्टाचार की यह बेल काफ़ी समय से निर्माण कार्यों में भी प्रवेश कर चुकी है। सड़कें, पुल व सरकारी इमारतों आदि में खुलमखुल्ला भ्रष्टाचार की ख़बरें अक्सर सुनाई देती हैं। इसके परिणामस्वरूप न सिर्फ़ देश को आर्थिक क्षति होती है बल्कि कभी-कभार भ्रष्टाचार के इन कारनामों के परिणामस्वरूप आम लोगों को अपनी जानें भी गंवानी पड़ जाती हैं।

भ्रष्टाचार के अतिरिक्त भी कभी-कभी कुछ ऐसी घटनाएं इस देश में घटित होती हैं जो वास्तव में इन्सान को आश्चर्य में डाल देती हैं। जैसे कि 12 नवम्बर 1996 को हरियाणा राज्य के चरखी दादरी नामक कस्बे के आकाश में 14000 फ़ीट की ऊंचाई पर सऊदी एयरलाईन्स जम्बोजेट और कंजाक एयरवेंज इल्यूशिन चार्टर प्लेन का आकाश में ही आमने-सामने से टकरा जाना। ज्ञातव्य है कि इस आश्चर्यजनक हादसे में 351 लोग मारे गए थे। मुख्य मार्गों पर चलने वाली कारों, ट्रकों तथा बसों की आमने-सामने से होने वाली टक्कर तो केवल भारत की ही नहीं बल्कि इसे वैश्विक समस्या माना जा सकता है। परन्तु दो बड़े यात्री विमानों का 14000 फ़ीट की ऊंचाई पर आमने-सामने से टकरा जाना वास्तव में एक हैरतअँग्रेज़ घटना है। परन्तु इस दुर्घटना के पीछे का सत्य यह था कि दुर्घटना के दिनों में भारतीय पायलट हड़ताल पर थे। विदेशी पायलट्स को भारतीय विमान कम्पनियों द्वारा अपने विमान उड़ाने हेतु बुलाया गया था। विदेशी विमानों के पायलट तथा ट्रैंफिक कन्ट्रोल के मध्य भाषा व संदेशों को समझने में आने वाली समस्या काफ़ी रुकावट डाल रही थी। इसी के परिणामस्वरूप यह दुर्घटना घटित हुई। अर्थात् ए टी सी से संदेश कुछ और दिया गया तथा इत्तेंफांक से दोनों ही पायलटों द्वारा भ्रांतिवश उसी संदेश को कुछ और समझा गया। परन्तु इस दुर्घटना के तुरन्त बाद ही पश्चिमी देशों द्वारा भारतीय विमानन व्यवस्था का मंजाक उड़ाया जाने लगा। यहाँ तक कि कई पश्चिमी देशों के समाचार पत्रों में भारत को 'बाज़ीगरों', 'जादूगरों' व 'सपेरों' का देश कहकर सम्बोधित किया गया। और इसी विमान दुर्घटना की आड़ में कई तथाकथित आधुनिक देशों ने एयर ट्रैंफिक कन्ट्रोल से संबंधित अपनी करोड़ों रुपए की कई आधुनिक मशीनें, सिग्ल सिस्टम आदि भारत को बेच डाले।

इस प्रकार भारत के पंजाब राज्य में अभी मात्र तीन वर्ष पूर्व ही दो रेलगाड़ियों की भिड़ंत आमने-सामने से हो गई। दोनों ही रेलगाड़ियाँ एक ही पटरी पर परस्पर विपरीत दिशा से दनदनाती हुई चली आ रही थीं और वे आपस में टकरा गईं। इस हादसे में जान व माल की भारी क्षति हुई थी। पश्चिमी मीडिया में इस हादसे का भी मज़ाक उड़ाया गया था। वास्तव में यह हादसा था भी रेलकर्मियों की घोर लापरवाही व ग़ैर ज़िम्मेदारी को उजागर करने वाला। परन्तु भारत जैसे उस विशाल देश में जहाँ कि विश्व का सबसे बड़ा रेल जाल फैला हो, इस प्रकार के इक्का-दुक्का हादसे क्या इस बात के लिए काफ़ी होते हैं कि ऐसे हादसों के बाद तत्काल पूरे देश को 'सपेरों' या 'बाज़ीगरों' का देश कहकर पुकारा जाने लगे? क्या लापरवाही, निठल्लेपन या अयोग्यता के यह नज़ारे केवल भारत में ही दिखाई देते हैं, अन्य देशों में नहीं? भारत के पड़ोसी देश पाकिस्तान से लेकर विश्व के सबसे आधुनिक, शक्तिशाली व महान समझे जाने वाले अमेरिका जैसे देश में भी ऐसी तमाम घटनाएं होती रहती हैं जिन्हें देखकर हम भी यह कह सकते हैं कि भारत ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया ही 'सपेरों' या 'बाज़ीगरों' की दुनिया है।

अभी कुछ दिन पूर्व ही पाकिस्तान के कराची नगर में यातायात का एक बड़ा पुल उद्धाटन होने के मात्र एक सप्ताह के भीतर ही ढह गया। इस पुल का उद्धाटन पाक राष्ट्रपति परवेंज मुशर्रंफ द्वारा किया गया था। इस विशाल पुल के निर्माण में भारी लागत आई थी तथा प्रतिष्ठित सेतु निर्माण कम्पनी द्वारा इसे बनाया गया था। अचानक हुई इस दुर्घटना में कई लोग मारे भी गए थे। अब ऐसे सेतु निर्माण को जोकि 100 वर्षों के बजाए मात्र एक सप्ताह के भीतर ही अपनी आयु पूरी कर चुका हो इसे क्या कहा जाना चाहिए? क्या यह 'बाज़ीगरी' का एक नमूना कहा जाए? इसी प्रकार गत 1 अगस्त को अमेरिका के मिनिएपोलिस में मिसीसिपी नदी पर बना एक पुल अचानक ढह गया। इसमें भी काफ़ी लोग हताहत हुए। कहा जाता है कि अमेरिका, ब्रिटेन व और कई ऐसे सम्पन्न देश इस प्रकार के निर्माण के पूरा होने के समय ही निर्माण किए गए प्रोजेक्ट पर उसके समाप्त या अयोग्य होने की तिथि भी अंकित कर देते हैं। आख़िर मिसीसिपी के हादसे में ऐसा क्यों नहीं हो पाया? अमेरिका जैसे देश को स्वयं 'बाज़ीगरों' व 'सपेरों' जैसी राह क्यों तय करनी पड़ी? अमेरिका तो स्वयं को 'त्रिकालदर्शी' मानता है। फिर आख़िर उस 'त्रिकालदर्शी' को इस बात का अंदाज़ा क्यों नहीं हो सका कि मिसीसिपी नदी पर बना यह ऐतिहासिक पुल जिसपर कि लगभग 5 लाख वाहन प्रतिदिन गुंजरते हैं, अचानक किसी भी समय ढह सकता है।

यह तो था अमेरिका महान की इंजीनियरिंग 'बाज़ीगरी' का एक छोटा सा उदाहरण। राहत पहुँचाने व दैवी विपदाओं का सामना करने में भी अमेरिका कोई नेपाल या बंगलादेश से अधिक आधुनिक नहीं है। गत् कुछ वर्षों में अमेरिका ने कैटरीना व रीटा जैसे कई समुद्री तूंफानों का सामना किया है। इन तूफ़ानों की पूर्व सूचना मिलने के बाद भी अमेरिका अपने देशवासियों को इस प्राकृतिक विपदा के क़हर से बचा न सका। यहाँ तक कि हंजारों तूंफान पीड़ितों के मकान उजड़ गए। तमाम लोग घर से बेघर हो गए। अनेकों अपने रोंजगार गंवा बैठे। आज 4 वर्ष बीत जाने के बावजूद उन तूफ़ानों से प्रभावित व पीड़ित लोगों को न तो ठीक से राहत पहुँच पाई है न ही वे आत्मनिर्भर हो सके हैं। यहाँ तक कि कैटरीना व रीटा के बाद और भी तूंफानों का सिलसिला अमेरिका में जारी है परन्तु प्रभावितों को राहत के नाम पर वही 'बाज़ीगरों' व 'सपेरों' के देश जैसी कारगुज़ारियाँ।

ऐसी और भी तमाम बातें हैं जो हमें यह सोचने को बाध्य करती हैं कि केवल भारत को ही 'बाज़ीगरों' व 'सपेरों' का देश नहीं कहा जा सकता बल्कि स्वयं अमेरिका 'महान' भी इन्हीं देशों की सूची में आता है। अत: इस प्रकार के व्यंग्यबांण चलाने से पहले ज़रूरी है कि महान देशों द्वारा अपने देश की व्यवस्थाओं पर भी समुचित नज़र डाली जाए।

निर्मल रानी

सेतु समुद्रम परियोजना और भगवा राजनीति

अयोध्या स्थित राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद जैसे विवादित मुद्दे को हवा देकर तथा 6 दिसम्बर 1992 को इस स्थल को बलपूर्वक ध्वस्त करने के बाद सत्ता तक पहुंचे देश के दक्षिणपंथी संगठनों द्वारा एक बार फिर सत्ता का लक्ष्य हासिल करने के लिए सेतु समुद्रम परियोजना के मुद्दे को भावनात्मक रंग देने की कोशिश की जा रही है। 2004 में हुए लोकसभा के आम चुनावों में भारतीय मतदाताओं द्वारा राम मन्दिर मुद्दे को नकार दिए जाने के बाद चूंकि अब दक्षिणपंथी संगठनों के पास कोई ऐसा भावनात्मक मुद्दा शेष नहीं रह गया था जिसे उभारकर जनमत को अपने पक्ष में किया जा सके। अत: अवसर की तलाश में बैठी भारतीय जनता पार्टी व उनके सहयोगी समान विचार वाले संगठनों को बैठे बिठाए सेतु समुद्रम परियोजना का मुद्दा मिल गया है। बड़े हैरत की बात है कि आज इन्हीं दक्षिणपंथी संगठनों द्वारा जिस सेतु समुद्रम परियोजना का विरोध करते हुए केंद्र की यू पी ए सरकार को निशाना बनाया जा रहा है तथा उसे हिन्दू विरोधी प्रमाणित करने की पुरज़ोर कोशिश की जा रही है। वास्तव में भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में सत्ता में रह चुकी पिछली राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार के कार्यकाल में अर्थात् तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के शासनकाल में ही इस परियोजना को मंजूरी मिल चुकी थी। उस समय इन तथाकथित राम भक्तों द्वारा अपनी सरकार का विरोध नहीं किया गया था।

भारत व श्रीलंका के बीच समुद्र में सेतु के रूप में दिखाई देने वाले लगभग 48 कि.मी. लम्बे मार्ग की प्राकृतिक संरचना कुछ अजीबोग़रीब सी है। इसका काफ़ी बड़ा हिस्सा तो समुद्र में ही समाया हुआ है जबकि कुछ हिस्सा तीन फीट से लेकर 10 फीट समुद्री जल में डूबा हुआ है। इसका कुछ भाग बिल्कुल छिछला भी है जिसपर चहलक़दमी भी की जा सकती है।

वैज्ञानिकों का मानना है कि 48 किलोमीटर लम्बा यह सेतुनुमा ढांचा मानव निर्मित नहीं है बल्कि यह लाईमस्टोन की रेत व समुद्री तलछट का मिश्रण है जो समुद्र में होने वाले प्राकृतिक मंथन व अन्य समुद्री प्रक्रियाओं के परिणामस्वरूप अस्तित्व में आया है। सेतु समुद्रम परियोजना के तहत इस सेतु का तीन सौ मीटर चौड़ा व बारह मीटर गहरा भाग इस परियोजना में सांफ किया जाना है। सेतु समुद्रम् परियोजना का मंकसद भारत के पूर्वी तट व पश्चिमी तट के मध्य चलने वाले समुद्री जहाँ जों के लिए वर्तमान लम्बे रास्ते को कम कर उसे छोटा करना है। इस योजना के पूरी होने के बाद जहाँ जों की वर्तमान यात्रा में 36 घण्टे का कम समय लगेगा तथा लगभग 780 कि.मी. की यात्रा भी कम हो जाएगी। इस योजना के पूरा होने के बाद दूरी घटने की वजह से भाड़ा भी कम लगेगा, ईंधन का ख़र्च भी कम होगा। माल का आवागमन भी वर्तमान निर्धारित समय से 36 घण्टा पहले हो जाया करेगा। इन कारणों के चलते सरकार इस परियोजना को देश के आर्थिक विकास से जोड़कर देख रही है।

ऐसा भी नहीं है कि इस परियोजना के सारे परिणाम सकारात्मक ही हों, इस परियोजना के कुछ नुक़सान भी बताए जा रहे हैं। कहा जा रहा है कि इस स्थान पर समुद्र की गहराई बढ़ाने से उच्च ज्वार भाटे पैदा होंगे जिससे समुद्री तटों के कटाव की सम्भावना बनेगी। इस क्षेत्र में मछलियों के घटने तथा मछुआरों पर संकट आने की भी संभावना है। कुछ विशेषज्ञों का तो यह भी मानना है कि उस क्षेत्र के भूगर्भ में पाए जाने वाले कुछ परमाणु भण्डार भी इस परियोजना से प्रभावित हो सकते हैं तथा उन्हें नुक़सान पहुँच सकता है। इस प्रकार कई पर्यावरणविद ऐसे संभावित दुष्प्रभावों के कारण इस परियोजना का विरोध कर रहे हैं। परन्तु इस परियोजना को प्रारम्भिक मंजूरी देने वाली भारतीय जनता पार्टी का वर्तमान विरोध पूरी तरह से धार्मिक मतदाताओं को आधार बनाकर किया जा रहा है। इन तथाकथित राजनैतिक राम भक्तों का आज यह कहना है कि इस सेतु को क़तई नहीं तोड़ा जाना चाहिए क्योंकि यह वही सेतु है जिसका निर्माण भगवान राम की वानर सेना द्वारा किया गया था। इसी सेतु को पार कर भगवान राम ने अपनी सेना के साथ लंका में प्रवेश किया था तथा रावण पर विजय प्राप्त की थी। प्रश् यह है कि जब दक्षिणपंथी विचारधारा के संगठन इस सेतु के प्रति इस प्रकार का धार्मिक विश्वास वास्तव में रखते थे तथा वे नहीं चाहते कि इस परियोजना के अन्तर्गत इस ऐतिहासिक महत्व वाले प्राचीन सेतु को क्षति पहुँचाई जाए फिर आख़िर वाजपेयी के शासनकाल में इस परियोजना को शुरुआती दौर में ही मंजूरी क्योंकर दी गई?

हाँ, इस प्रकरण को लेकर केन्द्र सरकार के भारतीय पुरातत्व विभाग द्वारा जो हलफ़नामा सर्वोच्च न्यायालय में दायर किया गया था जिसमें कि राम के अस्तित्व व राम-रावण युद्ध की घटना से ही इन्कार किया गया था वह अवश्य निंदनीय है। दरअसल किसी भी धर्म की धार्मिक मान्यताओं को वैज्ञानिक तर्कों से तोला नहीं जा सकता। धर्म पूर्णतय: विश्वास पर आधारित विषय वस्तु है। इतनी अधिक कि इसी विश्वास के गर्भ से ही अंधविश्वास भी जन्म लेता है। यह धार्मिक विश्वास प्राय: सभी सीमाओं को पार कर जाता है और सीधे तौर पर किसी भी व्यक्ति की भावनाओं से जुड़ जाता है। ऐसे में किसी भी व्यक्ति, संगठन या विभाग को यह अधिकार हरगिज़ नहीं पहुँचता कि वह किसी के विश्वास अथवा उसकी आस्थाओं पर अपनी बातों या तर्कों से ठेस पहुँचाए। ख़ासतौर पर दक्षिण एशियाई देशों में तो इस बात पर क़तई एहतियात बरते जाने की ज़रूरत होती है जहाँ कि राजनैतिक संगठन ऐसे मुद्दों को हवा देने तथा इन पर हंगामा बरपा करने की प्रतीक्षा में लगे रहते हैं।

हालाँकि इस आपत्तिजनक हलफ़नामा पर कड़ा रुख़ अख्तियार करते हुए भारतीय पुरातत्व मंत्रालय द्वारा अपने विभाग के दो ऐसे उच्चाधिकारियों को बंर्खास्त कर दिया गया है जो इस विवादित हलफ़नामा को तैयार करने के लिए ज़िम्मेदार थे। उसके बावजूद इस मुद्दे को समाप्त करने के बजाए इसे और अधिक हवा देने की पुरज़ोर कोशिश की जा रही है। इस परियोजना को पहली मंजूरी देने वाले लोग व संगठन अब इसी सेतु के माध्यम से सत्ता का संफर तय करने की कोशिश कर रहे हैं। 2004 में ऐसी ही परियोजनाओं की बदौलत इन्हें इण्डिया शाईनिंग होता हुआ नज़र आ रहा था तथा भारतीय जनता को यही संगठन जबरन 'फ़ील गुड' का एहसास कराने पर तुले थे। परन्तु आज जब उसी परियोजना को राष्ट्रीय विकास नीति के अन्तर्गत रचनात्मक स्वरूप प्रदान किए जाने की कोशिश की जा रही है तो इन तथाकथित राम भक्तों को पुन: भगवान राम याद आने लगे हैं।

निश्चित रूप से किसी की धार्मिक भावनाओं को आहत करने का अधिकार न तो किसी को है और न किसी को होना चाहिए। और यदि कोई ऐसा प्रयास करे तो उसे दण्डित भी किया जाना चाहिए। परन्तु अपने राजनैतिक स्वार्थवश किसी भी धर्म अथवा सम्प्रदाय की धार्मिक भावनाओं को भड़काने व उकसाने की आज़ादी भी किसी को हरगिज़ नहीं होनी चाहिए। भागवान राम देश के किसी राजनैतिक संगठन विशेष की अमानत नहीं हो सकते। इस प्रकार का राजनैतिक प्रपंच कर, लोगों की धार्मिक भावनाओं को भड़का कर धर्म के आधार पर मतों के ध्रुवीकरण का जो घिनौना प्रयास किया जा रहा है, यह देश की राजनीति को ग़लत दिशा प्रदान कर रहा है। ज़रूरत इस बात की है कि सेतु समुद्रम मुद्दे पर जनता अपनी पैनी नज़र रखे तथा कथित राम भक्तों के राजनैतिक हथकण्डों से ख़बरदार रहे।
-तनवीर जाफ़री
(सदस्य, हरियाणा साहित्य अकादमी)
22402, नाहन हाऊस
अम्बाला शहर। हरियाणा

9/17/2007

सितारों को मिला सही सबक


-संजय द्विवेदी

फिल्मी परदे के नायकों की खलनायकों के रूप में वापसी देखकर लोग हैरत में हैं। मीडिया इन नायकों की बेबसी पर आंसू बहा रहा है। वह चाहता है कि पूरा देश भी इनके दु:ख में टेसुए बहाए। नायकों का भारतीय दंड संहिता के उल्लघंन में जेलों में आना-जाना देखकर इलेक्ट्रोनिक मीडिया के जज्बात छलक-छलक पड़ते हैं। किसी को गांधीजी का कलयुगी अवतार और किसी को लवगुरु बताता मीडिया चाहता है कि दुनिया का मनोरंजन करने वालों को आखिर सताया क्यों जा रहा है। जैसे उनका जेल आना-जाना या अपराधकर्म में लिप्त होना उनके नायकत्व का ही हिस्सा हो।

क्या इसलिए बख्श दें उन्हें
एके -56 खरीदने वालों को इसीलिए बख्स दो जज साहब क्योंकि गांधीजी की आत्मा अब इन में प्रवेश कर गई है। ये अब वैसे नहीं रहे, बहुत बदल गए हैं और सलमान खान, पूरी फिल्म इंडस्ट्री इन्हीं पर टिकी है। एकाध शिकार कर लिया तो क्या बड़ी बात है। शिकार तो राजाओं का शौक रहा है। हमारे हीरो ने एक हिरन क्या मार लिया क्यों हाय तौबा मचा रखी है। पूरी दुनिया को अपनी बॉडी दिखाकर ये आदमी आप सबका मनोरंजन भी तो करता है। एक हिरन की मौत के लिए क्या इंडस्ट्री पर ताले डलवावोगे।

कलाकारों का महिमामंडन
यह साधारण नहीं है कि अपराध कर्मों के लिए मीडिया किस कदर इन नायकों का महिमा मंडन कर रहा है। मोनिका बेदी से लेकर सलमान, संजय दत्त या अमिताभ बच्चन, सब इस समय टीवी चैनलों के दुलारे हैं। इसलिए नहीं कि इन्होंने फिल्मी पर्दे पर अपना जादू दिखाया है बल्कि इसलिए कि वे निजी जिंदगी में भी कुछ ऐसा कर रहे हैं जिसकी उम्मीद इनसे नहीं की जाती। 'लगे रहो मुन्नाभाई' नामक फिल्म की सफलता के बाद जिस तरह संजय दत्त की छवि को बदलने के सचेतन प्रयास किए गए, वह आश्चर्यचकित करता हैं।

गांधी की आड़ सही नहीं
पर्दे पर गांधीगिरी दिखाने वाले हीरो की निजी जिंदगी में घटी घटनाएं क्या बिसरा दी जाएंगी। अंडरवर्ल्ड से उनके रिश्ते क्या गांधीवाद की आड़ में भुला दिए जाने चाहिए। अपराध से बचने के लिए राष्ट्रपिता के नाम का ऐसा इस्तेमाल शायद ही पहले कभी किया गया हो। मंदिर-मंदिर भटक रहे और अचानक पुण्यात्मा के रूप में तब्दील हो गए इन सिने कलाकारों की मजबूरी और बेबसी समझी जा सकती है। पर अफसोस कि हमारा मीडिया भी इनके साथ भक्ति भाव में झूम रहा है। गलत करना, फिर मन्नतें करना और भगवान को मोटा चढ़ावा चढ़ाना ये सारी खबरें क्यों और किसलिए सुनाई जा रही हैं। इसे समझ पाना बहुत कठिन नहीं है।

आम आदमी के आंसू नहीं दिखते
जेल जाते ही बीमार हो जाना और वहां से अस्पताल में शिफ्ट हो जाने जैसी नौटंकियों को बड़ा हृदयविदारक दृश्य मानकर परोसा जा रहा है। गांधी के विचारों से प्रभावित व्यक्ति प्रायश्चित के लिए खुशी-खुशी सजा को स्वीकार करता है ना कि अलग-अलग तरह की नौटंकियों से अदालती कार्रवाई को प्रभावित कर समाज की सहानुभूति पाने का प्रयास करता है। कानून का राज क्या इसी तरह चलेगा? मन और विचारों को बदलने के बजाए नई-नई खबरें फैलाई जा रहीं है कि उन्हें रात भर नींद नहीं आई, करवटें बदलते रहे, आंसू बहाते रहे, रिश्तेदार तड़पते रहे। क्या ये सारा कुछ सिर्फ हाई प्रोफाइल अपराधियों के साथ ही होता है। क्या गरीब आदमी या रोटी के संघर्ष में जेल जा रहे लोगों की परिवार नहीं होते। किन्तु उनके पीछे कैमरे नहीं होते, आंसू बहाने वाला मीडिया नहीं होता, समर्थन में बयान दे रहे केंद्र सरकार के मंत्री नहीं होते।

घटनाओं को भुनाता मीडिया
मिलने के लिए जेल जा रहे चमकीले चेहरे नहीं होते। जेल से निकलकर अपने घर पहुंचकर जब वे अपने मकान की बुर्ज पर निकलकर हाथ हिलाकर लोगों का अभिवादन करते हैं तो मीडिया बाग-बाग हो जाता है। वाह ! मेरा हीरो और उस पर फिदा कैमरे। राखी के त्यौहार को ही इस प्रसंग पर भुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी गई। परिवार, भावनाएं, व्यवसाय और रिश्ते सब के साथ जुड़े हैं। इसके नाते किसी को विशेषाधिकार नहीं मिल जाते। किन्तु मीडिया द्वारा किसी के अपराधकर्म पर ऐसा वातावरण बनाना जिससे उन्हें निर्दोष बरी कराया जा सके उचित नहीं कहा जा सकता।

तारीफे काबिल न्यायपालिका
बावजूद उसके हमारी न्यायपालिका ने पूरा संयम रखते हुए जिस तरह से फैसले किए हैं उसकी तारीफ की जानी चाहिए। इन मासूम तर्कों के आधार पर वह न झुकी न प्रभावित हुई, शायद यही कानून की ताकत है जिसने ताकतवर लोगों को भी समय-समय पर अच्छा पाठ पढ़ाया है। आरोप साबित होने पर दंड का विधान है यदि उसे भावनाओं और मीडिया ट्रायल के आधार पर हल किया जाएगा तो देश में कानून का राज कैसे बचेगा। हाई प्रोफाइल लोग वैसे भी कानून को बंधक बनाने के लिए मशहूर हैं। ऐसे छोटे-छोटे फैसले अगर कानून में थोड़ी बहुत आस्था बचा कर रख रहे हैं तो उसे बचाए और बनाए रखना हम सब की जिम्मेदारी है। आपकी, हमारी, हम सबकी।

(लेखक दैनिक हरिभूमि, रायपुर के स्थानीय संपादक हैं। )

छत्तीसगढ़: आशियाना बचाने में जुटा 'परिवार'


-संजय द्विवेदी-

छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के भाजपा मुख्यालय एकात्म परिसर में चार दिन चली विचार मंथन बैठक में भाजपा के जन प्रतिनिधि जार-जार रोते रहे और उनके नेता उन्हें ढाढस बंधाते रहे। सत्तारूढ़ दल के जन प्रतिनिधियों की ऐसी बेबसी शायद पहली बार देखी और सुनी गई। पिछले दिनों चंपारण्य में हुई बैठक में जब भाजपा के दिग्गज नेताओं को असंतोष के सिर से ऊपर निकल जाने का अहसास हुआ तभी यह तय हो गया था कि समय रहते आपदा प्रबंधन कर लेना उचित होगा। इसके दो फायदे थे पहला बैठक के बहाने वे चेहरे सामने आ जाएंगे, जो अपनी सरकार से कुछ ज्यादा ही संतप्त हैं। दूसरा नाराज कार्यकर्ता पार्टी नेताओं के सामने अपना गुस्सा निकालकर थोड़े ठंडे भी हो जाएंगे। नाराजगी को एक सही फोरम भी मिलेगा और चौक-चौराहों पर अपनी ही सरकार के खिलाफ आग उगलते कार्यकर्ता थोड़े शांत हो जाएंगे। जाहिर है भाजपा की यह रणनीति कामयाब रही और भाजपा संगठन यह संदेश देने में कामयाब रहा कि उन्हें कार्यकर्ताओं की भी चिंता है। चार दिन चली बैठक के निष्कर्षों के आधार पर कोई कार्रवाई हो या न हो पर भाजपा के आला नेताओं को फीडबैक तो मिल ही गया है। भाजपा के चार दिन चले विचार मंथन में केवल और केवल आर्तनाद और चीख-पुकारें सुनाई देती रहीं। विधायकों से लेकर मंडी अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, नगर निगम, पालिकाओं के प्रतिनिधि सिर्र्फऔर सिर्फ शिकायतें करते रहे। निर्वाचित जन प्रतिनिधियों की ऐसी दीनता देखने लायक थी, वह भी तब, जब पिछले साढ़े तीन सालों से उनकी सरकार सत्ता में है।

भाजपा शासित अन्य राज्यों के मद्देनजर छत्तीसगढ़ में सत्ता और संगठन में एक गजब किस्म का तालमेल दिखता है और यहां असंतोष कभी भी एक सीमा से बाहर नहीं जा सका। बावजूद इसके पार्टी के निर्वाचित प्रतिनिधियों में असुरक्षा बोध के साथ निराशा भी घर कर गई है। किसी भी राजनैतिक कार्यकर्ता का अधिकतम सपना सांसद या विधायक बनने का ही होता है। यहां हालात यह हैं कि भाजपा के सांसद और विधायक ही स्वयं को सर्वाधिक उपेक्षित मानते हैं। ऐसे में आम कार्यकर्ताओं के मानस को समझा जा सकता है। यह बात जब भारतीय जनता पार्टी जैसे काडर बेस दल में घटित हो रही हो तो खतरा बढ़ ही जाता है। जन प्रतिनिधियों के तेवरों पर नजर डालें तो निशाने पर भाजपा की सरकार और मुख्यमंत्री कम, नौकरशाही और कुछ मंत्री ज्यादा हैं। यह असंतोष मिल-जुलकर भाजपा सरकार के लिए संकट का सबब बन गया है। यह बहुत अच्छी बात है कि इस खतरे को भाजपा और उसके मुख्यमंत्री ने चुनाव से बहुत पहले पहचान लिया है और इस तरह की बैठकों का सिलसिला शुरू कर कार्यकर्ताओं को अपनी बात कहने का मौका दिया जा रहा है। पंचायत प्रतिनिधियों के तीखे तेवरों से जब पार्टी के दिग्गज हलाकान हो गए तो डा. रमन सिंह ने मोर्चा संभाला। उन्होंने कहा कि पंचायत प्रतिनिधियों का मानदेय बहुत कम है, इसे बढ़ाया जाएगा। साथ ही पंचायतों के अधिकार भी बढ़ाए जाएंगे। वहीं पार्टी के प्रभारी धर्मेंद्र प्रधान ने भी कार्यकर्ताओं की दुखती रग पर हाथ रखा और यह कहकर माहौल को संभालने की कोशिश की कि भाजपा की सरकार कार्यकर्ताओं की सरकार है। अफसरों को यह भूल जाना चाहिए कि उनकी कार्यशैली वैसी ही बनी रहेगी, जो खुद को नहीं बदलेंगे, उसे सरकार बदल देगी। जाहिर है पार्टी नेताओं के तेवर कार्यकर्ताओं को दिलासा दिलाने में तो सफल रहे पर आने वाले दिनों में ये क्या रूप लेते हैं, इसे देखना शेष है।

लगभग सभी स्तरों पर नौकरशाही के खिलाफ जिस तरह का असंतोष उभरकर आया है, उसे सरकार महसूस कर रही है। यह ताप संगठन ने भी महसूस किया। धर्मेंद्र प्रधान के आश्वासन में भी इस पीड़ा से निजात पाने की ही इच्छा नजर आई। नौकरशाही का बेलगाम हो जाना और एक लंबे समय तक उस पर लगाम न लगा पाना भाजपा सरकार के लिए एक बड़ी चुनौती है। जिसका सीधा शिकार पंचायतों के प्रतिनिधि ही हुए हैं। इसके साथ ही सांसद, विधायक भी अपनी सुनवाई न होने से खासे नाराज हैं। मंत्रियों को लेकर भी यही रोना रहा। शुरू के डेढ़-दो साल कई चुनाव लड़ते और यह कहते बीत गए कि मंत्रियों में ज्यादातर अनुभवहीन हैं और समय के साथ वे नौकरशाही पर सवारी करना सीख जाएंगे पर कार्यकर्ता मानते हैं कि ऐसा कुछ नहीं हुआ और मंत्रियों पर संगठन का कोई प्रभाव नहीं दिखता। सब 'अपनी ढपली-अपना राग' की तर्ज पर काम कर रहे हैं।

भाजपा का यह द्वंद सिर्फ सत्ता में बने रहने का द्वंद नहीं है। यह भ्रष्टाचार और गुटबाजी को स्वीकार न कर पाने का भी द्वंद है। सत्ता में आते ही भाजपा को इन संकटों से दो-चार होना पड़ता है। जबकि प्रतिपक्ष में रहते हुए ये चीजें सतह पर नहीं दिखतीं। भाजपा का यह संकट दरअसल सिर्र्फछत्तीसगढ़ केंद्रित नहीं है, बल्कि यह द्वंद दो संस्कृतियों का द्वंद है और राष्ट्रीय स्तर पर भी पार्टी इससे दो-चार हो रही है। यह द्वंद भाजपा के कांग्रेसीकरण और जनसंघ बने रहने के बीच में है। जनसंघ यानी भाजपा की पारंपरिक पहचान, जिसमें सत्ता से ज्यादा विचार की महत्ता है और भ्रष्टाचार तथा गुटबाजी के लिए कोई जगह नहीं है। लंबे संघर्ष के बाद कई राज्यों तथा केंद्र में सत्ता में आई भाजपा में चुनाव जीतकर आने वालों की तलाश बढ़ गई है। साधन, पैसे, ताकत, जाति सारे मंत्र आजमाए जाने लगे हैं। केंद्र में सरकार बनी तो गठबंधन के मंत्र ने भाजपा के सैद्धांतिक आग्रहों को भी शिथिल किया। इसने भाजपा के आत्मविश्वास, नैतिक राजनीति और संकट में एकजुट होकर संघर्ष करने की शक्ति को कम कर दिया। जिसका परिणाम यह है कि सत्ता में रहने पर भाजपा का काडर ही अपने आपको सबसे अधिक संतप्त अनुभव करता है। भ्रष्टाचार को खुले तौर पर भाजपा में स्वीकृति नहीं है, जबकि कांग्रेस ने इसे अपनी राजनीति का हिस्सा बना रखा है। राजनीतिक स्तर पर भ्रष्टाचार के सवाल पर सहज रहने के कारण कांग्रेस में यह मुद्दा कभी आपसी विग्रह का कारण नहीं बनता, बल्कि नेता व कार्यकर्ताओं के बीच में रिश्तों को मधुर बनाता है। कांग्रेस अपने सत्ता केंद्रित, कमीशन केंद्रित कार्य व्यवहार में अपने कार्यकर्ता को भी शामिल करती है, जबकि इसके उलट भाजपा में इसे लेकर बहुत द्वंद की स्थिति है। वहां भ्रष्टाचार तो है पर उसे मान्यता नहीं है। इसके चलते भाजपा का नेता भ्रष्टाचार करते हुए कार्यकर्ताओं और जनता में दिखना नहीं चाहता। नैतिक आवरण ओढ़ने की जुगत में वह अपने काडर से दूर होता चला जाता है। उसकी सारी कोशिशें यही होती हैं कि वह किस तरह से अपने कार्यकर्ताओं, जनता और संघ परिवार के तमाम संगठनों की नजर में पाक-साफ रह सके। इसके चलते परिवार सी दिखने वाली पार्टी में घमासान शुरू होकर महाभारत में बदल जाता है। राजनैतिक तौर पर प्रशिक्षित न होने के कारण भाजपा के कार्यकर्ता भावनात्मक आधार पर कार्य करते हैं। जरा से अपमान से आहत होकर या अपने नेताओं का अहंकार देखकर वे घर बैठ जाते हैं या अपनी ही पार्टी की सार्वजनिक छवि को मटियामेट करने में जुट जाते हैं। भाजपा पूरे देश में इसी संकट से जूझ रही है। ऐसा ही मामला गुटबाजी को लेकर है। कांग्रेस में एक आलाकमान है, जिस पर सबकी सामूहिक आस्था है। इसके बाद कांग्रेस विभिन्न क्षत्रपों में बंटी हुई है। गुटबाजी को कांग्रेस में पूरी मान्यता है। यह गुटबाजी कई अर्थों में कांग्रेस को शक्ति भी देती है। इस नेता से नाराज कार्यकर्ता दूसरे गुट के नेता को अपना नेता बनाकर पार्टी में अपना अस्तित्व बनाए रख सकते हैं। 'प्रथम परिवार' के अलावा उनमें किसी के प्रति कोई लिहाज नहीं है। लोकतंत्र ऐसा कि अदना सा कांग्रेस कार्यकर्ता किसी दिग्गज का इस्तीफा मांगता, पुतला जलाता दिख जाएगा। भाजपा का चरित्र इस अर्थ में बहुत आडंबरवादी है। यहां पार्टी राष्ट्रीय स्तर पर ऊपर से नीचे तक बंटी हुई है पर इस प्रगट गुटबाजी के बावजूद इसे संगठन के स्तर पर मान्यता नहीं है। गुटबाजी और असहमति को मान्यता न देने के कारण भाजपा में षडयंत्र होते हैं। एक-दूसरे के खिलाफ दुष्प्रचार, मीडिया में आफ द रिकार्र्ड ब्रीफिंग, कानाफूसी आम बाते हैं। उमा भारती, कल्याण सिंह, शंकर सिंह बाघेला, मदनलाल खुराना, बाबूलाल मरांडी जैसे प्रकरणों में ये बातें उजागर हो चुकी हैं। जिससे अंतत: भाजपा को हानि ही उठानी पड़ती है। कांग्रेस में जो गुटबाजी है, वह तो उसे शक्ति देती है, वहीं भाजपा की गुटबाजी षडयंत्र का रूप लेकर कलह को स्थायी भाव दे देती है।

यह बहुत महत्वपूर्ण है कि ऐसे संकटों में भी छत्तीसगढ़ भाजपा में विग्रह एक सीमा से बाहर जाते नहीं दिखते। राज्य के पार्टी नेताओं और मुख्यमंत्री की सौजन्यता के चलते संवाद का मार्ग कहीं बंद नहीं हुआ। यही कारण है कि पानी सिर से ऊपर जाता देख पार्टी ने अलग-अलग तरह की बैठकों के माध्यम से कार्यकर्ताओं के मन को टटोलना शुरू कर दिया है। अभी जबकि चुनाव में काफी वक्त है, भाजपा के लिए अपनी सत्ता की वापसी के सपने देखना गलत नहीं है। सही रणनीति और निर्वाचित जन प्रतिनिधियों के साथ-साथ कार्यकर्ताओं को यदि सत्ता और संगठन में सही भागीदारी मिलती है तो कोई कारण नहीं कि भाजपा बेहतर परिणाम ला सकती है। राज्य में पस्तहाल पड़ी कांग्रेस अभी तक राज्य सरकार के खिलाफ कोई निर्णायक आंदोलन नहीं छेड़ सकी है। हाल में हुए दो उपचुनाव को जीतकर भाजपा ने अपनी संगठनात्मक क्षमता और सामाजिक समीकरणों को समझकर कदम उठाने की अपनी इच्छाशक्ति भी प्रदर्शित की है। आदिवासी वर्ग सहित हर वर्ग से भाजपा के पास प्रखर नेतृत्व सामने आ रहा है, जिसकी जनता में एक पहचान बन रही है। चिंतन शिविर और मंथन बैठकों के माध्यम से कितना अमृत और कितना विष निकला है, यह तो भाजपा के नेता ही बताएंगे। इस अमृत मंथन से यदि वे अपने संगठन में जोश फूंक पाते हैं और सत्ता के माध्यम से जनता का कुछ भला कर पाते हैं, तो आने वाले समय में फिर से लोग उन्हें सेवा का एक अवसर दे सकते हैं। बशर्ते वे इस दौर में भी 'सेवा' ही करते दिखें।

(लेखक दैनिक हरिभूमि, रायपुर के स्थानीय संपादक हैं। )

9/13/2007

‘हिंदुस्तानी कौम’ की जबान



हिंदी दिवस पर खास आलेख


देश के बंटवारे ने सिर्फ हिंदुस्तान का भूगोल भर नहीं बदला, उसने इस विशाल भू-भाग पर पलने और धड़कने वाली गंगा-जमुनी संस्कृति को भी चोट पहुंचाई। हमारी संवेदनाओं, भावनाओं, बोलियों और भाषाओं को भी तंगनज़री का शिकार बना दिया । उर्दू 1947 में घटे इस अप्राकृतिक विभाजन का दंश आज तक झेल रही है। जब वह एक सभ्यता को स्वर देने वाली भाषा नहीं रही । बल्कि एक ‘कौम’ की भाषा बनकर रह गई। तब से आज तक वह सियासत दानों के लिए ‘फुटबाल’ बनकर रह गई है।भारतीय उपमहाद्वीप में जन्मी-पली और बढ़ी यह भाषा जो यहां की तहजीब और सभ्यता को स्वर देती रही, विवादों का केंद्र बन गई। गैर भाषाई और गैर सांस्कृतिक सवालों की बिना पर उर्दू को अनेक स्तरों पर विवाद झेलने पड़े और इसमें जहां एक ओर उग्र उर्दू भाषियों की हठधर्मिता रही तो दूसरी ओर उर्दू विरोधियों के संकुचित दृष्टिकोण ने भी उर्दू की उपेक्षा के वातावरण की सृजन किया।हमारे समाज के बदलते रंग-रूप उसकी सभ्यता की विकासयात्रा में उर्दू साहित्य ने कई आयाम जोड़े हैं। अमीर खुसरो, मीर तकी मीर, गालिब की परंपरा से होती हुई जो उर्दू फैज अहमद ‘फैज’, अली सरदार जाफरी, कैफी आजमी या बशीर बद्र तक पहुची है, वह एक दिन की यात्रा नहीं है। एक लंबे कालखंड में एक देश और उसके समाज से सतत संवाद के सिलसिले ने उर्दू को इस मकाम पर पहुंचाया है। इस योगदान के ऊपर अकेले 1947 के विभाजन ने पानी फेर दिया। सामाजिक जनजीवन में भी यही घटना घट रही थी। मुस्लिम मुहल्ले-हिंदू मुहल्ले अलग-अलग सांस ले रहे थे, पूरे अविश्वास के साथ । दोनों वर्गों को जोड़ने वाले चीजें नदारद थीं। भाषा (उर्दू) तो पहले ही ‘शहीद’ हो चुकी थी। ऐसे में जब संवेदनाओं का श्रोत सूख रहा हो। हमने अपने-अपने ‘कठघरे’ बना रखे हों-जहां हम व्यक्तिगत सुख-दुख तक की बातें एक-दूसरे से नहीं बांट पा रहे हों-तो भाषा व लिपि को लेकर समझदारी कहां से आती ?उर्दू को लेकर काम कर रहे लोग भी बंटे दिखे। तंगनजरी का आलम यह कि हिंदू उर्दू, मुस्लिम उर्दू तक के विभाजन साफ नजर आने लगे। दिल्ली व पंजाब के जिन उर्दू अखबारों के मालिक हिंदू थे, जैसे हिंद समाचार, प्रताप, मिलाप आदि उन्हें देख कर ही पता चल जाता था कि यह हिंदू अखबार है। जबकि मुस्लिम मालिक-संपादक के अखबार बता देते हैं कि वह मुस्लिम अखबार है। यह कट्टरपन अब साहित्यिक क्षेत्रों (शायरी व कहानी) में भी देखने लगा है। जाहिर है ये बातें ‘उर्दू समाज’ बनाने में बाधक हैं। उर्दू के सुनहरे अतीत पर गौर करें तो रघुपति सहाय फिराक, कृश्नचंदर, आदत हसन मंतो, राजेंद्र सिंह बेदी, प्रेमचंद, कुरतुल एन हैदर, ख्वाजा अहमद अब्बास, अहमद नदीम का सभी ने जो साहित्य रचा है-वह भारतीय समाज के गांवों एवं शहरों की धड़कनों का गवाह है। वहीं उर्दूं शायरी ने अपने महान शायरों की जुबान से जिंदगी के हर शै का बयान किया है। यह परंपरा एक ठहराव का शिकार हो गई है। नए जमाने के साथ तालमेंल मिलाने में उर्दू के साहित्यकार एवं लेखक शायद खुद को असफल पा रहे हैं।उर्दू एक मंझी हुई संस्कृति का नाम है। हालत बताते हैं कि उसे आज सहारा न दिया गया तो वह अतीत की चीज बनकर रह जाएगी। आज अहम सवाल यह है कि किसी मुसलमान या हिंदू को उर्दू सीखकर क्या मिलेगा ? हर चीज रोजगार एवं लाभ के नजरिए से देखी जाने लगी है। ऐसे में उर्दू आंदोलन को सही रास्तों की तलाश करनी होगी। सिर्फ मदरसों एवं कौमी साहित्य की पढ़ाई के बजाए उर्दू को नए जमाने की तकनीक एवं साईंस की भी भाषा बनना होगा। साहित्य में वह अपनी सिद्धता जाहिर कर चुकी है-उसे आगे अभी हिंदुस्तान की कौम का इतिहास लिखना है। ये बातें अब दफन कर दी जानी चाहिए की उर्दू का किसी खास मजहब से कोई रिश्ता है। यदि ऐसा होता तो बंगलादेश- ‘बंगला’ भाषा की बात पर अलग न होता और पाकिस्तान के ही कई इलाकों में उर्दू का विरोध न होता । इसके नाते उर्दू को किसी धर्म के साथ नत्थी करना बेमानी है। उर्दू सही अर्थों में ‘हिन्दुस्तानी कौम’ की जबान है और हिंदुस्तान की सरजमी पर पैदा हुई भाषा है। आज तमाम तरफ से उर्दू को देवरागरी में लिखने की बातें हो रही हैं-और इस पर लंबी बहसें भी चली हैं। लोग मानते हैं कि इससे उर्दू का व्यापक प्रसार होगा और सीखने में लिपि के नाते आने वाली बाधाएं समाप्त होंगी । लेकिन कुछ विद्वान मानते कि रस्मुलखत (लिपि) को बदलना मुमकिन नहीं है । क्योंकि लिपि ही भाषा की रूह होती है। वे मानते हैं कि देवनागरी में उर्दू को लिखना खासा मुश्किल होगा, क्योंकि आप जे, जल, जाय, ज्वाद के लिए भी हिंदी में ‘ज’लिखेंगे । जबकि सीन, से, स्वाद के लिए ‘स’ लिखेंगे। ऐसे में उनका सही उच्चारण (तफज्जुल) मुमकिन न होगा और उर्दू की आत्मा नष्ट हो जाएगी । ऐसे विवादों-बहसों के बीच भी उर्दू की हिंदुस्तानी सरजमीं पर एक खास जगह है । भारत की ढेर-सी भाषाओं एवं उसके विशाल भाषा परिवार की वह बेहद लाडली भाषा है । गीत-संगीत, सिनेमा-साहित्य हर जगह उर्दू का बढ़ता इस्तेमाल बताता है कि उर्दू की जगह और इज्जत अभी और बढ़ेगी है।



० संजय द्विवेदी

संपादक, हरिभूमि

रायपुर, छत्तीसगढ़

9/12/2007

चाम्पा में गणेश उत्सव की प्राचीन परंपरा



चाम्पा, छत्तीसगढ़ प्रदेश के जांजगीर-चांपा जिलान्तर्गत दक्षिण पूर्वी रेल्वे का एक महत्वपूर्ण जंक्शन है जो 22.2 अंश उत्तरी अक्षांश और 82.43 अंश पूर्वी देशांश पर स्थित है। समुद्र सतह से 500 मीटर की ऊँचाई पर स्थित हसदो नदी के तट पर बसा यह नगर अपने प्राकृतिक सौंदर्य से परिपूर्ण है। कोरबा रोड में मड़वारानी की पहाडि़याँ, मदनपुर की झांकियाँ, बिछुलवा नाला, केरा झरिया, हनुमानधारा और पीथमपुर के छोटे-बड़े मंदिर चाम्पा को दर्शनीय बनाते हैं। यहाँ का रामबांधा देव-देवियों के मंदिरों से सुशोभित और विशाल वृक्षों से परिवेष्ठित और राजमहल का मनोरम दृश्य है। यहाँ मित्रता के प्रतीक समलेश्वरी देवी और जगन्नाथ मठ उडि़या संस्कृति की साक्षी हैं। डोंगाघाट स्थित श्रीराम पंचायत, वीर बजरंगबली, राधाकृष्ण का भव्य मंदिर, तपसी बाबा का आश्रम, मदनपुर की महामाया और मनिकादेवी, हनुमानधारा में हनुमान मंदिर, पीथमपुर का कलेश्वरनाथ का मंदिर और कोरबा रोड में मड़वारानी का मंदिर छत्तीसगढ़ी संस्कृति कर जीता जागता उदाहरण है। कवि श्री विद्याभूषण मिश्र की एक बानगी पेश है :-

जहाँ रामबांधा पूरब में लहराता है
पश्चिम में केराझरिया झर झर गाता है।
जहाँ मूर्तियो को हसदो है अध्र्य चढ़ाती
भक्ति स्वयं तपसी आश्रम में है इठलाती
सदा कलेश्वरनाथ मुग्ध जिस पर रहते हें
तपसी जी के आशीर्वचन जहाँ पलते हैं
वरद्हस्त समलाई देवी का जो पाते
ऐसी नगर की महिमा क्या भूषण गाये।

प्राचीन काल में चाम्पा एक जमींदारी थी। जमींदार स्व. नेमसिंह के वंशज अपनी जमींदारी का सदर मुख्यालय मदनपुरगढ़ से चाम्पा ले आये थे। रामबांधा, लच्छीबांधा और दोनों ओर से हसदो नदी से घिरा सुरक्षित महल का निर्माण के साथ चांपा जमींदारी का अपना एक उज्ज्वल इतिहास है। यहाँ के जमींदार शांतिप्रिय, प्रजावत्सल और संगीतानुरागी थे। धार्मिक और उत्सवप्रिय तो वे थे ही, कदाचित् यही कारण है कि चांपा में नवरात्रि में समलेश्वरी, मदनपुर में महामाया देवी और मनिका माई, रथ द्वितीया में भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा जी की रथयात्रा, जन्माष्टमी में श्रीकृष्ण जन्मोत्सव, रासलीला और गणेश चतुर्थी से गणेश पूजा उत्सव बड़े धूमधाम से मनाया जाता रहा है। गणेश पूजा उत्सव रायगढ़ के गणेश मेला के समान होेता है जो पूरे छत्तीसगढ़ में अनूठा होता है। यहाँ का ``रहस बेड़ा´´ उस काल की कलाप्रियता का साक्षी है। पहले गणेश उत्सव रहसबेड़ा में ही होता था। यूं तो रहसबेड़ा चांपा के आसपास अनेक गाँव में है जहाँ भगवान श्रीकृष्ण की रासलीला का मंचन होता है। लेकिन जमींदारी का सदर मुख्यालय होने के कारण यहाँ का रहसबेड़ा कलाकारों को एक मंच प्रदान करता था जहाँ कलाकार अपनी कला का प्रदर्शन करके पुरस्कृत होता था। यहाँ पर अनेक प्रकार के गम्मत, रामलीला, रासलीला, नाटक, नृत्य आदि का आयोजन किया जाता था। आज इस प्रकार के आयोजन गली-मुहल्ले, चौराहों में बेतरतीब ढंग से होता है। आपपास के गाँवों से हजारों लोग इसे देखने आते हैं। भीड़ इतनी अधिक होती है कि पैदल चलना दूभर हो जाता है। खासकर अनंत चौदस को तो रात भर अन्यान्य कार्यक्रम होते हैं।

चाम्पा में गणेश उत्सव की शुरूवात जमींदार श्री नारायण सिंह के शासन काल में शुरू हुआ। वे संगीतानुरागी, धर्मप्रिय और प्रजावत्सल थे। उन्होंने ही यहाँ जगन्नाथ मंदिर का निर्माण आरंभ कराया जिसे उनके पुत्र प्रेमसिंह ने पूरा कराया। इनके शासनकाल में ही यहाँ रायगढ़ के गणेश मेला के बाद सम्पूर्ण छत्तीसगढ़ का दूसरा बड़ा गणेश उत्सव होता था। नारायण सिंह के बाद प्राय: सभी जमींदारों ने इस उत्सव को जारी रखा। उस काल के गणेश उत्सव का बखान लोग आज भी करते नहीं अघाते। महल परिसर में गणेश जी की भव्य प्रतिमा की प्रतिष्ठा की जाती थी। इसके अलावा सोनारपारा, देवांगनपारा के चौराहों में गणेश जी की प्रतिमा रखी जाती थी। आसपास के गाँवों की गम्मत पार्टी, नृत्य मंडली, रामलीला और रासलीला की मंडली यहाँ आती थी। अनेक सांस्कृतिक कार्यक्रम होते थे। लगभग 15 दिन तक उत्सव का माहौल होता था। उस समय यहाँ दुर्ग, राजनांदगाँव, रायपुर, कमरीद, बलौदा, अकलतरा, नरियरा, कोसा, कराईनारा, रायखेड़ा, गौद, पिसौद और शिवरीनारायण आदि अनेक स्थानों से सांस्कृतिक मंडलियाँ यहाँ आती थी। कमरीद के बिजली बेलन गम्मत मंडली के प्रमुख धरमलाल गीतकार ही नहीं बल्कि एक अच्छे कलाकार भी थे। वे अक्सर गाते थे :-

` ए हर नोहे कछेरी,
हाकि मन बैठे बैठे खेलत हेगरि...।´

इस प्रकार उनकी गीतों में व्यंग्य का पुट होता था। दादू सिंह का रासलीला और गम्मत यहाँ बहुत सराहे जाते थे। नरियरा के ठाकुर विशेश्वरसिंह, रायगढ़ के भीखमसिंह, पंडित कार्तिकराम और बर्मनलाल जैसे चोटी के कलाकार, कत्थक नर्तक, तबला वादक और संगीतकार यहाँ शिरकत करने आते थे। इस आयोजन का पूरा खर्च जमींदार अपने खजाने से वहन करते थे। चाम्पा के जमींदार श्री रामशरणसिंह के शासनकाल में यहाँ का गणेश उत्सव चरम सीमा पर था। इस आयोजन में इतना खर्च हुआ कि सन् 1926 में चाम्पा जमींदारी को ``कोर्ट ऑफ वार्ड्स´´ घोषित कर दिया गया। उन्होंने ही यहाँ `रहस बेड़ा´ का निर्माण कराया था। अनंत चतुर्दशी को विसर्जन पूजा के बाद नगर की सभी गणेश प्रतिमाएं महल में लायी जाती थी और एक साथ बाजे-गाजे और करमा नृत्य मंडली के नृत्य के साथ पूरे नगर का भ्रमण करती हुई डोंगाघाट पहुँचकर हसदो नदी में विसर्जित कर दी जाती थी। आज भी यहाँ बहुत संख्या में नृत्य मंडली, गम्मत पार्टी, आर्केस्ट्रा और छत्तीसगढ़ी नाचा आदि का आयोजन होता है। इस आयोजन से आवागमन पूरी तरह से अवरूद्ध हो जाता है। स्थानीय सांस्कृतिक, सामाजिक संस्थाएं और प्रशासन के संयुक्त प्रयास से इसका व्यवस्थित रूप से आयोजन एक सार्थक प्रयास होगा...।

- प्रो. अश्विनी केशरवानी
राघव डागा कालोनी,
चाम्पा-495671 ( छत्तीसगढ़ )

9/10/2007

चिट्ठे : वेब पत्रकारिता के आधुनिक स्वरुप




इक्कीसवीं सदी की दुनिया बदल चुकी है. आज के व्यक्ति की मूलभूत आवश्यकताओं में रोटी कपड़ा और मकान के साथ-साथ इंटरनेट भी सम्मिलित हो चुका है. मोबाइल उपकरणों पर इंटरनेट की उपलब्धता और प्रयोक्ताओं की इंटरनेट पर निर्भरता ने इस विचार की सत्यता पर मुहर-सी लगा दी है. ऐसे में, इंटरनेट पर विविध रूपों में वेब पत्रकारिता भी उभर रही है. चिट्ठा यानी ब्लॉग को भी वेब पत्रकारिता का आधुनिक स्वरूप माना जा सकता है.

चिट्ठे – हर संभव विषय पर

यूं तो चिट्ठों का जन्म ऑनलाइन डायरी लेखन के रूप में हुआ और इसकी इस्तेमाल में सरलता, सर्वसुलभता और विषयों के फैलाव ने इसे लोकप्रियता की उच्चतम मंजिल पर चढ़ा दिया. आज इंटरनेट पर व्यक्तिगत स्तर पर लिखे जा रहे कुछ चिट्ठों की पाठक संख्या लाखों में है जो कि बहुत से स्थापित और प्रचलित पारंपरिक पत्र-पत्रिकाओं की प्रसार संख्या से भी ज्यादा है. चिट्ठों में इनपुट नगण्य-सा है और आउटपुट अकल्पनीय. चिट्ठों में एक ओर आप किसी चिट्ठे पर लेखक के - सुबह किए गए नाश्ते का विवरण या फिर वो चाय किस तरह, किस बर्तन में बनाता है - जैसा बहुत ही साधारण और व्यक्तिगत विवरण पढ़ सकते हैं तो दूसरी ओर किसी अन्य चिट्ठे पर नेताजी सुभाष चंद्र बोस की असामयिक-रहस्यमय मृत्यु पर शोघ परक आलेख भी. इंटरनेट पर तकनीकी व विज्ञान से संबंधित आलेखों की उपलब्धता का एकमात्र सर्वश्रेष्ठ साधन (हिन्दी में अभी नहीं, परंतु अंग्रेज़ी में) आज के समय में ब्लॉग ही हैं.

इंडिया ब्लॉग्स (http://www.labnol.org/india-blogs.html) में कुछ बेहद सफल भारतीय ब्लॉगरों की विषय-वार सूची दी गई है जिसमें व्यक्तिगत, साहित्य, हास्य-व्यंग्य, समीक्षा, फ़ोटोग्राफ़ी, फ़ाइनेंस, प्रबंधन, टीवी, बॉलीवुड, तकनॉलाज़ी, मीडिया, यात्रा, जीवन-शैली, भोजन, कुकिंग, तथा गीत-संगीत जैसे तमाम संभावित विषयों के ब्लॉग सम्मिलित हैं. यानी हर विषय पर हर रंग के लेख-आलेख और रचनाएँ ब्लॉगों में आपको मिल सकती हैं. सामग्री भी अंतहीन होती है. ब्लॉग की सामग्री किसी पृष्ठ संख्या की मोहताज नहीं है. यह अनंत और अंतहीन हो सकती है, और चार शब्दों की भी. यह बहुआयामी और बहुस्तरीय हो सकती है. फिर, यहाँ किसी मालिकाना-प्रबंधन की संपादकीय कैंची जैसी किसी चीज का अस्तित्व भी नहीं है – इसीलिए चिट्ठों में अकसर भाषा बोली के बंधन से अलग, एक कच्चे आम की अमिया का सा ‘रॉ’ स्वाद होता है.

चिट्ठे – द्वि-स्तरीय, तत्क्षण संवाद

पारंपरिक पत्रकारिता की शैली में संवाद प्रायः एक तरफा होता है, और विलम्ब से होता है. कोई भी रपट, पाठक के पास, तैयार होकर, संपादकीय टेबल से सरक कर सिस्टम से गुजर कर आती है. प्रिंट मीडिया में – जैसे कि अख़बार में - किसी कहानी के पाठक तक आने में न्यूनतम बारह घंटे तक लग जाते हैं. फिर, रपट को पढ़कर, सुनकर या देखकर पाठक के मन में कई प्रश्न और उत्तर अवतरित होते हैं. वह उत्तर देने को कुलबुलाता है, प्रश्न पूछने को आतुर होता है. मगर उसके पास कोई जरिया नहीं होता. उसके प्रश्न अनुत्तरित रह जाते हैं और वह एक तरह से भूखा रह जाता है. चिट्ठों में ऐसा नहीं है. चिट्ठों में रपट तत्काल प्रकाशित की जा सकती है. उदाहरण के लिए, मोबाइल ब्लॉगिंग के जरिए आप किसी जाम में फंसकर वहाँ का हाल सीधे वहीं से प्रकाशित कर सकते हैं. ऊपर से यहाँ संवाद दो-तरफ़ा होता है. आप कोई रचना या कोई रपट या कोई अदना सा खयाल किसी चिट्ठे में पढ़ते हैं और तत्काल अपनी टिप्पणी के माध्यम से तमाम प्रश्न दाग सकते हैं. चिट्ठे पर लिखी सामग्री की बखिया उधेड़ कर रख सकते हैं. वह भी सार्वजनिक-सर्वसुलभ, और तत्क्षण. चिट्ठा मालिक आपके प्रश्नों का जवाब देता है तो दूसरे पाठक भी आपके प्रश्नों के बारे में अपने प्रति-विचारों को वहीं लिखते हैं. विचारों को प्रकट करने का इससे बेहतरीन माध्यम आज और कोई दूसरा नहीं हो सकता.

चिट्ठे – विविधता युक्त, लचीला माध्यम

पारंपरिक पत्रकारिता में लचीलापन प्राय: नहीं ही होता. माध्यम अकसर एक ही होता है. यदि पत्र-पत्रिका का माध्यम है तो उसमें चलचित्र व दृश्य श्रव्य माध्यम का अभाव होता है. रेडियो में सिर्फ श्रव्य माध्यम होता है व क्षणिक होता है तो टीवी में दृश्य श्रव्य माध्यम होता है परंतु पठन सामग्री नहीं होती और यह भी क्षणभंगुर होता है. किसी खबर का कोई एपिसोड उस खबर के चलते तक ही जिंदा रहता है उसके बाद वह दफ़न हो जाता है. दर्शक के मन से उतर जाता है. चिट्ठों में ये सारे माध्यम अलग-अलग व एक साथ रह सकते हैं. किसी घटना की विस्तृत रपट आलेख के साथ, चित्रों व आडियो-वीडियो युक्त हो सकते हैं, और दूसरे अन्य कड़ियों के साथ हो सकते हैं जहाँ से और अधिक जानकारी प्राप्त की जा सकती है. और ये इंटरनेट पर हर हमेशा, पाठक के इंटरनेट युक्त कम्प्यूटर से सिर्फ एक क्लिक की दूरी पर उपलब्ध रहते हैं.

चिट्ठे – व्यावसायिक पत्रकारिता के नए पैमाने

गूगल के एडसेंस जैसे विचारों ने चिट्ठों में व्यावसायिक पत्रकारिता के नए पैमाने संभावित कर दिए हैं. पत्रकार के पास यदि विषय का ज्ञान है, वह गंभीर है, अपने लेखन के प्रति समर्पित है, तो उसे अपनी व्यावसायिक सफलता के लिए कहीं मुँह देखने की आवश्यकता ही नहीं है. चिट्ठों के रूप में उसे अपनी पत्रकारिता को परिमार्जित करने का अवसर तो मिलता ही है, उसका अपना चिट्ठा उसकी आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने में भी सक्षम होता है. और, इसके एक नहीं अनेकानेक, सैकड़ों उदाहरण हैं.

निकट भविष्य में चिट्ठे पारंपरिक पत्रकारिता को भले ही अप्रासंगिक न बना पाएँ, परंतु यह तो तय है कि आने वाला भविष्य वेब-पत्रकारिता का ही होगा और उसमें चिट्ठे प्रमुख भूमिका निभाएंगे.


- रविशंकर श्रीवास्तव

हर शब्द

हर शब्द
एक मुसलसिल सफर है
स्याह और ठोस चट्टानों से
धुवान्तों की बर्फीली चोटियों तक

हर शब्द
एक लक्ष्य बेधी बाण है
कमान से छूटा
पेड पर बैठी चिडिया की आँख से
मैदानों, पहाडों और क्षितिजों तक

जिन्दगी


जिन्दगी जैसी कोई चीज
मेरे पास आई
बोली मुझे छुओ

अपना क्या
अपना तो छूने का लम्बा इतिहास है
पत्थर को छू दें तो लहरीली नदिया हो जाये
उससे रिसने लगें कविताएँ
इसलिए उसे- जी भरकर छुआ खूब...

तब कहा उसने यों-
“देखोगे नहीं मुझे”
कहा मैंने- क्यों नहीं- जिसको भी देखा है
दृष्टि-त्राटक से खिंचा चला आया वह...

बोली वह- पिर से जियो मुझे
मैंने शुरू किया जीना जैसे ही
तो मैं वहाँ था- दिक्कतों के बीच हातिमताई होते हुए
इधर पानी तेजाब था
हर सुख पहाड
सहानुभूति काँटों की बागुड और

प्यार नफरत का संसार
फिर भी इन सबके बीच
जीना शुरू किया उसे
समय को रेशा-रेशा करते हुए...

प्रस्ताव

ऊँघती पहाडियों का उठकर
सूरज की किरन से मुँह धोना और
नदी से नहाकर लौटी सडक का
सुबह-सुबह
अपने बीच से गुजरना कैसा लगता है ?

आओ उन पहाडियों को समर्पित हो लें
चोटियों पर खडा हरकारा
आवाज दे रहा है

अब छत की तरफ देखने का वक्त नहीं
आओ एक साथ
बँधी मुट्ठियाँ खोलें
पहाडियों को समर्पित हो लें

चाणक्य से

शिखा पर गाँठे बाँधने वाले
तुम्हारे प्रतिज्ञा भाव को
तुम्हारे ही चेले चाँटियों ने
उस्तरे की परम्परा में बदलकर रख दिया है

और अब कु-शासन पर बैठकर
सबके सब अपनी गरदनें लटकाये
मुण्डन करवा रहे हैं

जरा सी भूल ने इन्हें
क्या से क्या बना दिया

और उधर मैदानों-टीलों में
ठाट से कुशारोपण में लगे हैं सब

तुम्हारे ही प्रतिशोध की
यान में झूमते हुए
सीटियाँ बजा- बजाकर
नाचते गाते अपने इन चन्द्रगुप्तों को
एक बार इनके हाल पर
ऊपर से नीचे तक देख तो लेते तुम

नर्मदा की सुबह


कुहरे का धुमैला वस्त्र फेंककर
नींद से उठी सुबह
नहाने लगी नर्मदा में धँसकर

पानी के छीटों से अलसाये तट हडबडा गये
कुनमुनाकर जाग गई ठण्डी रेत

आसमान पर किलोलें करने लगे
चितकबरे हरिण मेघ

असंख्य श्वेत अश्वों वाला रथ
तेजोमय प्रभामंडल बनाता
हरहराकर चल पडा

जिसके स्वागत में
सुबह ने बिछा दिये – असंख्य फूल
फिर आरती का थाल सम्हाले वह
धूप के टुकडों से गीली लटें सुखाती
धरा सखी के श्यामल कपोलों पर
गुलाबी चुम्बन रखती – चल पडी जगह-जगह
नर्मदा की सुबह

मेरा बेटा

मेरा बेटा मन ही मन
मेरी कीमत आँक रहा है

मुझमें उसे मुद्राओं की फसलें दिखाई देती हैं
जबकि तथ्य यह है कि मैं
घर, घूरे, सडक या दफ्तर में
ठोकरें खा-खाकर
इधर-उधर हवा के रूख पर उडने बाला
रद्दी कागज का एक टुकडा भर हूँ
मैदानों से पर्वतों की चोटियों तक

तब तक

जब भी चलता हूँ
लगता है मेरे कदम किसी क्रान्ति उत्सव में शामिल होने के लिए बढ रहे हैं
किन्तु तब तक आफिस आ जाता है

वहाँ से लौटते हुए तय करता हूँ
कि समाज की टूटन को
जोडकर ही दम लूँगा

घर आकर खुद ही
रेत-सा बिखर जाता हूँ टूटकर

पहाड से बातचीत


पहाड
तुझ पर क्या टूट पडा है
कि तेरी चट्टानें
पहले से ज्यादा
भयावह लगने लगी हैं

इनके इर्द गिर्द और ऊपर
संतरियों- से खडे पेड
कुल्हाडियों की –
अदाकारी में मारे गये

तुझ पर
क्या टूट पडा है आखिर ?

( श्री रघुवंशी सेवानिवृत प्राध्यापक हैं । इन्हें हिन्दी की दुनियावाले गीतकार, कवि और आलोचक के रूप में जानते हैं । आकार लेती यात्राएँ, पहाडों के बीच, अँजुरी भर घाम, सतपुडा के शिखरों से आदि उनकी चर्चित कृतियाँ हैं । हाल ही में उन्हें छत्तीसगढ राज्य की महत्वपूर्ण साहित्यिक संस्था “सृजन-सम्मान” द्वारा अखिल भारतीय साहित्यमहोत्सव में राज्य के गवर्नर महामहिम के. एम. सेठ ने उनकी आलोचनात्मक कृति नवगीतः स्वरूप विश्लेषण पर वर्ष 2004-05 का प्रमोद वर्मा सम्मान से अलंकृत किया है-संपादक )

चुनौतीपूर्ण है तालिबानों का पुन: संगठित होना


अफगानिस्तान में कट्टरपंथी इस्लाम का प्रतिनिधित्व करने वाले तालिबानी पुन: सक्रिय हो उठे हैं। तालिबानों ने अफगानिस्तान में अपनी माँगें पूरी करवाने हेतु इन दिनों अपहरण का साम्राज्य स्थापित कर रखा है। अफगानिस्तान की सरकार के सदस्य हों या वहाँ के विकास हेतु काम करने वाले विदेशी संस्थानों के लोग, पत्रकार हों या स्वयं सेवी संगठनों के सदस्य सभी इनके निशाने पर हैं। तालिबनों द्वारा इन लोगों का अपहरण कर इन्हें मानव ढाल के रूप में प्रयोग किया जा रहा है तथा इनके दम पर अपनी माँगें पूरी कराने की कोशिश की जा रही है। इस प्रकार के अपहरण के पश्चात तालिबानी लड़ाके आमतौर पर अपने गिरंफ्तार किए गए तालिबानी विद्रोहियों को रिहा किए जाने की शर्त रखते हैं। इनका हौसला उस समय और बढ़ गया जबकि इनके द्वारा एक इतालवी पत्रकार को उसके ड्राईवर के साथ गत् 6 मार्च को हेलमंद नामक स्थान से अपहृत किया गया तथा अपने 5 सहयोगी तालिबानों की रिहाई के बदले में इतालवी पत्रकार को रिहा कर दिया गया। इसी पत्रकार के साथ अजमल नक्शबंदी नामक एक अफगानिस्तानी पत्रकार का भी अपहरण किया गया था। परन्तु चूंकि सरकार ने अजमल की रिहाई के बदले में तालिबानी विद्रोहियों को रिहा नहीं किया इसलिए अजमल को तालिबानों द्वारा मार डाला गया।

क्रूर तालिबानों द्वारा अपनी माँगें मानवाए जाने हेतु अपहरण किए जाने जैसा गैर इस्लामी व गैर मानवीय सिलसिला लगातार जारी है। गत् 19 जुलाई को तालिबानों द्वारा 23 दक्षिण कोरियाई ईसाई सहायता कर्मियों का अपहरण कर लिया गया था जिनमें अधिकांश औरतें व बच्चे शामिल हैं। अभी तक इनमें से दो कोरियाई नागरिकों 42 वर्षीय पादरी वे ह्वूग कू तथा 29 वर्षीय सिम शंगु मिन की निर्मम हत्या की जा चुकी है। इन अपहृत कोरियाई नागरिकों की रिहाई के बदले में तालिबानों द्वारा अपने 8 सहयोगी लड़ाकुओं की रिहाई की मांग की जा रही है। इसके पूर्व निमरोंज प्रान्त में 2 फ्रांसीसी राहतकर्मियों का अपहरण कर लिया गया था। यह फ्रांसीसी अफगानिस्तान में शिक्षा से संबंधित एक गैर सरकारी संस्था में कार्य कर रहे थे।

दक्षिण कोरियाई स्वयं सेवकों के अपहरण के ठीक अगले दिन यानि 20 जुलाई को अफगानिस्तान के 4 न्यायाधीशों का अपहरण कर लिया गया था। बाद में इन चारों बंधक न्यायाधीशों की लाशें ग़जनी प्रांत के देहमाक जिले से प्राप्त हुईं। इनकी हत्या की जिम्मेदारी भी तालिबानी विद्रोहियों द्वारा स्वीकार की गई। इसी प्रकार गत् माह दक्षिण अफगानिस्तान के कंधार प्रांत के पंजवई जिले में तालिबानी विद्रोहियों द्वारा जस्टिस क़ाजी नेमतुल्ला की गोली मारकर हत्या कर दी गई। तालिबानी लड़ाकुओं द्वारा क्रूरता एवं अमानवीयता की हदें यहीं समाप्त नहीं होतीं। इन्होंने अपने ही लिए काम करने वाले तथा मूल रूप से पाकिस्तान के रहने वाले एक तालिबानी गुलाम नबी की गला रेतकर हत्या कर डाली। तालिबानी लड़ाकुओं को संदेह था कि गुलाम नबी तालिबानों के साथ रहकर अमेरिकी सेनाओं को तालिबान के कमांडरों के बारे में महत्वपूर्ण एवं गोपनीय सूचनाएं दे रहा है। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि तालिबानों द्वारा गुलाम नबी का गला काटने के लिए 12 वर्षीय मासूम बच्चे का प्रयोग किया गया जिसके हाथों में तलवार देकर गुलाम नबी की गला रेतकर हत्या कराई गई। तालिबानों द्वारा इस वीभत्स घटना का वीडियो टेप भी जारी किया गया था।

दिन-प्रतिदिन अफगानिस्तान में बिगड़ते जा रहे इन हालात से न केवल अमेरिका या अफगानिस्तान की हामिद क़रंजई सरकार चिंतित है बल्कि तालिबानियों का क्रूरतापूर्ण व इस्लाम विरोधी व्यवहार पूरे मुस्लिम जगत के लिए चिंता का विषय बना हुआ है। तालिबानों का मत है कि अफगानिस्तान व इराक पर अमेरिका अपना कब्जा जमाए हुए है जिसे वे कभी बर्दाश्त नहीं कर सकते। उनका कहना है कि जब तक विदेशी सेनाएं यहाँ मौजूद रहेंगी तब तक उनका खूनी संघर्ष इसी प्रकार जारी रहेगा। तालिबानों के अनुसार अमेरिकी सेना अथवा अमेरिका के इशारों पर चलने वाली अफगान सरकार के लिए काम करने वाले सभी लोग तालिबानों के दुश्मन हैं। यहाँ तक कि तालिबानी लड़ाके पड़ोसी देश पाकिस्तान की परवेज़ मुशर्रफ़ सरकार के विरुद्ध भी जेहाद का उदघोष कर चुके हैं। तालिबानों का मत है कि जनरल मुशर्रफ़ पाकिस्तान व पाकिस्तान से लगे क़बाईली क्षेत्र में अमेरिकी नीतियाँ लागू करने का जबरदस्त प्रयास कर रहे हैं जिसे वे सहन नहीं करेंगे।

दूसरी ओर संयुक्त राष्ट्र संघ से लेकर अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश तक के लिए तालिबानी लड़ाकुओं का पुन: संगठित होना चिंता का विषय बना हुआ है। एक अनुमान के अनुसार इन हथियारबंद तालिबानों की संख्या लाखों में पहुंच गई है। राष्ट्रपति जार्ज बुश ने अफगानिस्तान के तांजातरीन बिगड़ते हुए हालात पर चर्चा करने हेतु गत् दिनों अमेरिकी राष्ट्रपति की आरामगाह कैंप डेविड में अफगानिस्तान के राष्ट्रपति हामिद क़रंजई से मुलाकात की। बुश पहले ही यह कह चुके हैं कि अमेरिका आतंकवादियों को ढूँढने में आकाश व पाताल दोनों एक कर देगा। बुश यह चेतावनी भी दे चुके हैं कि यदि आवश्यकता पड़ी तो अमेरिकी सेना पाकिस्तान के संदिग्ध आंतरिक क्षेत्रों में सैन्य कार्रवाई करने से भी नहीं चूकेगी।

तालिबानी लड़ाकों की अमानवीय हरकतों के बीच कुछ परस्पर विरोधी बातें भी सामने आ रही हैं। उदाहरण के तौर पर तालिबानों व अमेरिकी नेतृत्व के मध्य जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ फंसे दिखाई दे रहे हैं। अर्थात् तालिबानों द्वारा मुशर्रफ़ को तो अमेरिका के पिट्ठु के रूप में देखा जा रहा है तथा उनके विरुद्ध भी जेहाद का नारा बुलन्द किया जा चुका है। जबकि अमेरिका द्वारा मुशर्रफ़ पर तालिबानों के प्रति नरमी व हमदर्दी बरतने का आरोप लगाया जा रहा है। इसी प्रकार राष्ट्रपति बुश व क़रंजई की मुलाकात में हामिद करंजई ने तो यह स्वीकार किया है कि ईरान अफगानिस्तान में शांति स्थापित करने में अफगान सरकार के साथ एक अच्छे सहयोगी की भूमिका अदा कर रहा है जबकि अमेरिका अफगानिस्तान के इस मत का विरोधी है। बुश प्रशासन का आरोप है कि ईरान अफगानिस्तान में अस्थिरता पैदा करने हेतु तालिबानी विद्रोहियों की सहायता कर रहा है। इसी प्रकार दक्षिण कोरियाई नागरिकों के अपहरण को लेकर दक्षिण कोरिया में तरह-तरह के मत व्यक्त किए जा रहे हैं। जहां अपहरण हेतु तालिबानी विद्रोहियों की समग्र निंदा की जा रही है वहीं एक बड़ा वर्ग ऐसा भी है जो कोरियाई नागरिकों के अपहरण के लिए अमेरिका व उसकी नीतियों को ही जिम्मेदार मान रहा है। इस मत के पक्षधर कोरियाई नागरिकों का मानना है कि संकट की इस घड़ी में अमेरिका को ही सबसे आगे आना चाहिए तथा दक्षिण कोरियाई नागरिकों की रिहाई सुनिश्चित करनी चाहिए।

हालांकि अमेरिका द्वारा अफगानिस्तान को इस वर्ष दस अरब डॉलर की सहायता दी जा रही है। जिसका उद्देश्य अफगानिस्तान में सुरक्षा उपायों व सुरक्षातंत्रों को और अधिक सुदृढ़ करना है। परन्तु इस बात से भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि अफगानिस्तान में चरमपंथी हमलों की संख्या में भी दिन प्रतिदिन बढ़ोत्तरी होती जा रही है। निर्दोष लोगों की मृत्यु दर भी लगातार बढ़ रही है। परन्तु इसके बावजूद सुखद समाचार यह आ रहे हैं कि अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर मुस्लिम जगत में तालिबानों, इस्लामी आतंकवादियों, अलंकायदा आदि के प्रति आम मुसलमानों की हमदर्दी व समर्थन में असाधारण कमी आती जा रही है। पाकिस्तान के हाल के लाल मस्जिद घटनक्रम में भी यह देखा गया कि वहाँ कट्टरपंथी नेटवर्क से जुड़े सक्रिय रूढ़ीवादी लोगों द्वारा तो लाल मस्जिद पर पाकिस्तानी सैन्य कार्रवाई का विरोध किया गया जबकि आम पाकिस्तानी नागरिक इस आतंकवाद विरोधी कार्रवाई को देखता रहा।

वास्तव में यदि दुनिया में मानवता, शांति व सद्भाव को कायम रखना है, वास्तविक इस्लाम को जिंदा रखना है तो हथियारबंद लड़ाकों के हाथों में इस्लाम की बागडोर को जाने से हरगिज रोकना होगा। तालिबानी विचारधारा या तालिबानों के क्रूरतापूर्ण कृत्य तंजीदियत या शैतानियत के तो प्रतिनिधि हो सकते हैं, सच्चे इस्लाम के प्रतिनिधि हरगिज नहीं।



तनवीर जाफ़री
(सदस्य, हरियाणा साहित्य अकादमी)
22402, नाहन हाऊस
अम्बाला शहर। हरियाणा

आतंकवादियों ने फिर किया साम्प्रदायिक सौहार्द्र बिगाड़ने का दुष्प्रयास


दक्षिण भारत के समृद्ध राज्य आंध्रप्रदेश की राजधानी हैदराबाद गत् 25 अगस्त की शाम को उस समय फिर दहल उठी जबकि आतंकवादियों द्वारा इस प्राचीन एवं ऐतिहासिक शहर में एक साथ दो स्थानों पर बम विस्फोट कर लगभग 45 बेकुसूर लोगों को मार दिया गया। इस हादसे में लगभग 50 लोग बुरी तरह घायल भी हो गए। ऐसा लगता है कि यह विस्फोट 18 मई को मक्का मस्जिद में हुए उस बम विस्फोट के ठीक 100 दिन पूरे होने के अवसर पर आतंकवादियों द्वारा पूरे योजनाबद्ध तरीके से किए गए थे जिसमें कि 11 लोग मारे गए थे। 25 अगस्त को हुए इस ताजातरीन विस्फोट में एक हादसा लुम्बिनी पार्क नामक स्थान पर हुआ जहां एक ऑडिटोरियम में पर्यटक तथा स्थानीय लोग एक लेंजर शो का आनन्द ले रहे थे। शो के दौरान अचानक उसी हॉल में विस्फोट की घटना घटी। इसमें 10 लोग मारे गए। इसी प्रकार ठीक उसी समय हैदराबाद के सुप्रसिद्ध गोकुल चाट भण्डार पर एक दूसरा बड़ा धमाका हुआ जिसमें पैंतीस लोग अपनी जान से हाथ धो बैठे। उसी समय इन दो बम धमाकों के अतिरिक्त भी हैदराबाद शहर में दो अन्य स्थानों से सुरक्षाबलों द्वारा ऐसे विस्फोटक बरामद किए गए हैं जोकि इन विस्फोटों के कुछ देर बाद रात साढ़े दस बजे विस्फोट होने वाले थे जिनसे और भी अधिक तबाही हो सकती थी।

हैदराबाद जैसे साम्प्रदायिक सद्भाव की मिसाल पेश करने वाले इस शहर पर तीन महीने में दूसरी बार आतंकवाद के प्रहार की यह दूसरी बड़ी घटना है। वैसे तो 1998 से ही दक्षिण भारत में कहीं न कहीं आतंकवादी गतिविधियां चलती रही हैं। परन्तु इस प्रकार की लगातार होने वाली घटनाओं से यही लगता है कि अब आतंकवादियों की नज़रें दक्षिण भारत में फल-फूल रहे साम्प्रदायिक सद्भाव के सौहार्द्रपूर्ण वातावरण को आघात पहुंचाने में पूरी तरह लग गई हैं। इस हादसे ने एक बार फिर न सिर्फ हैदराबाद अथवा दक्षिण भारत बल्कि पूरे भारतवासियों को व समूचे मानवता प्रेमियों को यह सोचने को विवश कर दिया है कि आंखिर यह मुट्ठी भर दहशतगर्द इसी प्रकार कब तक बेगुनाहों के खून से अपने नापाक हाथों को लथपथ करते रहेंगे? यह भाड़े के आतंकवादी आंखिर यह क्यों नहीं समझ पाते कि इनकी इस प्रकार की शैतानी हरकतों से भारत जैसे विशाल देश के साम्प्रदायिक सद्भावपूर्ण वातावरण का कुछ बिगड़ने वाला नहीं है। खासतौर पर हैदराबाद जैसा शहर जोकि पूरे भारत में हिन्दू-मुस्लिम एकता की एक मिसाल पेश करने वाले शहर के रूप में जाना जाता है, कभी भी आतंकवादियों की नापाक मंशा को पूरा नहीं कर सकता।


इसके पूर्व 18 मई को हैदराबाद की प्रसिद्ध मक्का मस्जिद में हुए विस्फोट में मारे गए सभी लोग वे मुसलमान नमांजी थे जोकि मक्का मस्जिद में शुक्रवार की नमांज अदा करने गए हुए थे। इस विस्फोट को अन्जाम देकर आतंकवादी भारत के मुसलमानों का ध्यान किसी अन्य दिशा में बांटना चाह रहे थे। उनकी कोशिश थी कि भारत के मुसलमानों में इन विस्फोटों के बाद ग़म और ग़ुस्सा पैदा हो तथा देश के साम्प्रदायिक सौहार्द्र को आहत करने में यह अपनी नकारात्मक भूमिका अदा करें। परन्तु हैदराबाद के लोगों को विशेषकर वहाँ के मुसलमानों को यह समझने में देर न लगी कि यह उन्हीं पेशेवर आतंकवादियों के कारनामे हैं जो कभी रघुनाथ मन्दिर को अपना निशाना बनाते हैं तो कभी संकटमोचन मन्दिर अथवा अक्षरधाम मन्दिर को। हैदराबाद के अमन पसन्द लोगों ने मक्का मस्जिद विस्फोट के बाद यह समझ लिया कि मालेगांव के कब्रिस्तान को अपनी नापाक हरकतों से अपवित्र करने वाली ताकतों ने ही मक्का मस्जिद को भी अपवित्र करने का दुस्साहस किया है।

अब यह आतंकवादी इस बात को भली-भांति समझ चुके हैं कि चूंकि भारत में साम्प्रदायिक दुर्भावना फैलाने के उनके सभी प्रयासों को इस देश की साम्प्रदायिक एकता ने परवान नहीं चढ़ने दिया लिहाज़ा अब उन्हीं दहशतगर्दों ने धर्मस्थलों को निशाना बनाने के बजाए अथवा धार्मिक स्थानों में विस्फोट करने के बजाए पुन: भीड़-भाड़ भरे सार्वजनिक स्थलों को निशाना बनाने की रणनीति अख्तियार की है। हैदराबाद में गत् दिनों हुए दो विस्फोटों में हिन्दू व मुसलमान दोनों ही समुदायों के लोग मारे गए हैं जिनमें औरतें व बच्चे भी शामिल हैं।

इस घटना पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए भारत की राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा पाटिल ने भी इसी बात का अंदेशा ज़ाहिर किया है कि यह विस्फोट शहर की शांति भंग करने की नीयत से किए गए हैं। आंध्र प्रदेश राज्य के मुख्यमंत्री वाई एस आर राजशेखर रेड्डी ने भी इस घटना को आतंकवादी घटना बताया तथा आम लोगों से राज्य में अमन कायम रखने की अपील की। इस हादसे के बाद पूरे राज्य में रेड एलर्ट जारी कर दिया गया है। इस घटना से एक सवाल यह भी पैदा होता है कि आतंकवादियों द्वारा तीन माह के भीतर ही दक्षिण भारत के इस सबसे प्रसिद्ध नगर हैदराबाद को ही पुन: निशाना बनाने की आंखिर क्या ज़रूरत थी? केवल शहर के साम्प्रदायिक सौहार्द्र को छिन्न-भिन्न करने का ही यह एक घिनौना प्रयास था या फिर इसके पीछे और भी कोई सांजिश हो सकती है। इस विषय पर कुछ विशेषज्ञों की राय है कि आतंकवादियों द्वारा हैदराबाद को लगातार दो बार निशाना बनाए जाने का मंकसद साम्प्रदायिक सद्भाव को चोट पहुंचाना तो है ही साथ-साथ इसके पीछे एक और गहरी साज़िश यह भी काम कर रही है कि ऐसे हादसे अंजाम देकर यह भारत विरोधी शक्तियां उन विदेशी निवेशकों के मध्य भी दहशत का माहौल पैदा करना चाहती हैं जो दक्षिण भारत में पूंजी निवेश किए जाने की योजना बना रहे हैं या बना चुके हैं। ज्ञातव्य है कि सूचना एवं प्रोद्यौगिकी की भारत में आई जबरदस्त क्रांति का केन्द्र इस समय दक्षिण भारत के दो प्रमुख नगर हैदराबाद व बैंगलोर ही हैं। इन दोनों स्थानों पर स्वदेशी तथा विदेशी निवेशकों द्वारा जबरदस्त पूंजी निवेश सूचना एवं प्राद्यौगिकी के क्षेत्र में किया जा रहा है। ऐसे बम विस्फोटों के द्वारा आतंकवादी उन निवेशकों को भी डराना चाहते हैं जोकि दक्षिण भारत में सफल व्यापार की संभावनाएँ तलाश रहे हैं।

इन बम विस्फोटों के विषय में कुछ जानकारों का यह भी मत है कि इस्लाम के नाम पर अपनी आतंकवादी गतिविधियां चलाने वाली कुछ शैतानी ताकतें पूरे भारत में हिन्दुओं व मुसलमानों के मध्य खुला टकराव कराना चाहती हैं। ठीक उसी तरह जैसे कि भारत में सक्रिय कुछ हिन्दुत्ववादी शक्तियां भी ऐसी ही विचारधारा का पोषण करती हैं। परन्तु अमन पसन्द भारतीय जनता, साम्प्रदायिकता फैलाने वाली इन शक्तियों के इरादों को बंखूबी भांप चुकी है। भारत की अधिकांश जनता धार्मिक भावनाओं में बहने के बजाए अमन व शांति के मार्ग पर चलना अधिक पसन्द करती है। इस देश में मन्दिरों व मस्जिदों में, बाजारों, पार्कों व अन्य कई सार्वजनिक स्थलों में आतंकवादियों द्वारा बेगुनाह लोगों की हत्याएँ किए जाने के कई हादसे हो लिए। परन्तु इस देश के साम्प्रदायिक सद्भाव को कोई आंच नहीं आई। लिहाज़ा अब दक्षिण भारत पर अपनी गतिविधियां केन्द्रित कर यह आतंकवादी भारत की अर्थव्यवस्था तथा भारत में होने वाले पूंजी निवेश को प्रभावित करने का दुष्प्रयास करने लगे हैं।

हम सभी अमन पसंद भारतवासियों का यह फ़र्ज है कि हम सब मिलजुल कर इन आतंकवादियों के सभी नापाक इरादों को नाकाम करें। हमारी एकता व सद्भाव इन आतंकवादियों के इरादों पर उससे भी बड़ा प्रहार करती है जोकि इनके द्वारा बम विस्फोट जैसी घटनाओं को अंजाम देकर तथा बेगुनाहों की जान लेकर किए जाते हैं। हमें आतंकवादियों के नापाक इरादों को पहले की ही तरह हर बार बारीकी से समझने की तथा अपनी एकता व सहनशीलता से इनके प्रत्येक प्रहारों का जवाब दिए जाने की सख्त ज़रूरत है।



तनवीर जाफ़री

हरियाणा

मैं सत्ता और पत्रकारिता की दोस्ती नहीं चाहता


-साक्षात्कार-


युवा पत्रकार एवं दैनिक हरिभूमि-रायपुर के स्थानीय संपादक संजय द्विवेदी से चंदना घटक की बातचीत




संजय द्विवेदी ने कम समय में ही पत्रकारिता के क्षेत्र में एक गंभीर राजनीतिक-सामाजिक विश्लेषक के रूप में अपनी पहचान बना ली है। दैनिक भास्कर, स्वदेश, नवभारत, इन्फो इंडिया डॉट कॉम और हरिभूमि जैसे संस्थानों में महत्वपूर्ण पदों पर कार्य करते हुए पत्रकारिता के विविध संदर्भों पर पांच पुस्तकें प्रकाशित। कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय, रायपुर में रीडर रह चुके श्री द्विवेदी संप्रति छत्तीसगढ़ के महत्वपूर्ण हिन्दी दैनिक समाचार पत्र हरिभूमि के स्थानीय संपादक हैं। साथ ही इंडियन मीडिया कांग्रेस के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष के रूप में भी इनकी अलग पहचान है। प्रस्तुत है मीडिया के सामयिक संदर्भों पर उनसे खास बातचीत :-
प्रश्न : आपने लिखना कब शुरू किया और पत्रकारिता की ओर रूचि कैसे बनी?
उत्तर : मेरे पूज्य पिताजी डा। परमात्मानाथ द्विवेदी, हिंदी के प्राध्यापक हैं, सो घर में पढ़ने-पढ़ाने का रूझान था। साहित्य में मेरी गति बहुत नहीं है किंतु इन्हीं संस्कारों के नाते पत्रकारिता में जरूर आ गया। अब आ गया तो कोशिश है कि पत्रकारिता में आम आदमी की आवाज बनकर काम करूं। उन मूल्यों के साथ जीने की कोशिश करूं जो आज बहुत प्रासंगिक तो नहीं रहे लेकिन मनुष्य की मुक्ति के लिए जरूरी हैं।


प्रश्न: राजनीति और पत्रकारिता के रिश्तों पर आप क्या सोचते हैं?
उत्तर: एक लोकतांत्रिक समाज में रहते हुए राजनीति को छोड़कर चल या सोच पाना कठिन है। बावजूद इसके मैं पत्रकारिता और सत्ता की दोस्ती के पक्ष में नहीं हूं। सत्ता के साथ पत्रकारिता का रिश्ता आलोचनात्मक विमर्श का होना चाहिए। पत्रकारिता एक सामाजिक दंडशक्ति के रूप में काम करे, यही सपना पत्रकारिता के महानायकों ने देखा था। हमारी पीढ़ी इस सपने के साथ बहुत न्याय नहीं कर पा रही है। इसके कई कारण हैं जिनकी व्याख्या समय-समय पर होती रहती है।


प्रश्न : पत्रकारिता में आज संपादक का वह महत्व नहीं रहा, वह अपनी शक्ति खोता जा रहा है?
उत्तर: हर समय अपने नायक तलाशता है। अब शायद हमारे लिए विष्णुराव पराड़कर, माधवराव सप्रे, गणेशशंकर विद्यार्थी, माखनलाल चतुर्वेदी जैसे संपादकों की जरूरत नहीं है। सो वे हमारे पास नहीं हैं। पर आजादी के बहुत बाद के दौर में भी हमने राजेन्द्र माथुर, धर्मवीर भारती,गिरिलाल जैन, अरूण शौरी,शामलाल, अज्ञेय, रघुवीर सहाय, कमलेश्वर,राहुल बारपुते, प्रभाष जोशी, विनोद मेहता जैसे तमाम संपादकों को पाया। इसलिए मैं बहुत निराश नहीं हूं। देश को जब भी नायकों की जरूरत होगी, वह हर क्षेत्र से अपने नायक तलाश लेगा। राजनीति भी नेहरूजी, शास्त्री जी के बिना चल रही है, सो पत्रकारिता में भी कुछ बौनापन आया है। समाज जीवन के हर क्षेत्र की तरह पत्रकारिता में भी थोड़ी गिरावट आयी है। वह गिरावट भी प्रसार,कटेंट,विचार, समाचार के स्तर और प्रस्तुतिकरण में नहीं, मूल्यों के स्तर पर ज्यादा है।


प्रश्न : आज देश के किन संपादकों को आप आशा से देखते हैं?
उत्तर : देखिए, नाम गिनाना तो बहुत मुश्किल में डालता है और विवाद में भी। सूची कैसी भी बने वह अधूरी रह जाती है। आज की पत्रकारिता मुंबई ,दिल्ली या कलकत्ता केंद्रित नहीं रही, उसका छोटे-छोटे केंद्रों में विस्तार हुआ है। इन बेहद छोटे स्थानों से बहुत महत्वपूर्ण अखबार निकल रहे हैं। जिनकी चर्चा प्राय: नहीं होती। इसी तरह हिंदी,अंग्रेजी के अलावा क्षेत्रीय भाषाओं की पत्रकारिता में भारी प्रसार संख्या वाले महत्वपूर्ण अखबार निकल रहे हैं। ये अखबार तकनीक, प्रभाव, खबरों और अपनी प्रस्तुति के लिहाज से हिदी और अंग्रेजी के तमाम अखबारों पर भारी पड़ते हैं। इनके संपादकों का अपने क्षेत्र में व्यापक प्रभाव और सामाजिक प्रतिष्ठा है। रांची का प्रभात खबर, भोपाल का दैनिक भास्कर, राजस्थान का राजस्थान पत्रिका, कानपुर का दैनिक जागरण, आगरा का अमर उजाला आज हिंदी क्षेत्र में एक क्रांति के प्रतीक हैं। बहुत छोटे स्थानों से निकले ये अखबार आज भारत जैसे महादेश को अपनी भाषा में ही संबोधित कर रहे हैं।


प्रश्न : प्रिंट मीडिया पर इलेक्ट्रानिक मीडिया के प्रभाव को आप किस तरह महसूस करते हैं?
उत्तर -प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया में कथ्य के स्तर पर एक समय में भारी अंतर दिखता था। लेकिन आत्मविश्वास से हीन संपादक अब इलेक्ट्रानिक मीडिया से होड लेने पर आमादा हैं। प्रिंट मीडिया जो पहले अपने दैहिक विमर्शों के लिए ''प्लेबाय'' या ''डेबोनियर'' तक सीमित था। अब दैनिक अखबारों से लेकर हर पत्र पत्रिका में अपनी जगह बना चुका है। अखबारों में ग्लैमर वर्ल्ड के कालम ही नहीं, खबरों के पृष्ठों पर भी लगभग निर्वसन विषकन्याओं का कैटवॉग खासी जगह घेर रहा है। यह पूरा हल्लाबोल चौबीस घंटे के चैनलों के कोलाहल और सुबह के अखबारों के माध्यम से दैनिक होकर जिंदगी में अपनी जगह बना चुका है।


प्रश्न : इस पूरे परिदृश्य का सामाजिक जीवन पर क्या प्रभाव पड रहा है?
उत्तर -मुझे लगता है कि इस पूरे बाजारवादी षडयंत्र के केंद्र में भारतीय स्त्री है। इन शक्तियों का उद्देश्य भारतीय स्त्री की शुचिता का अपहरण है। सेक्स सांस्कृतिक विनिमय की पहली सीढ़ी है। शायद इसीलिए जब कोई भी हमलावर किसी भी जातीय अस्मिता पर हमला बोलता है तो निशाने पर सबसे पहले उसकी औरतें होती हैं। यह बाजारवाद अब भारतीय अस्मिता के अपहरण में लगा हुआ है। निशाना भारतीय औरतें हैं। भारतीय स्त्री के सौंदर्य पर विश्व का अचानक मुग्ध हो जाना, देश में मिस यूनिवर्स, मिस वर्ल्ड की कतार लग जाना, खतरे का ही संकेतक था। हम उस षडयंत्र को भांप नहीं पाये। अमरीकी बाजार का यह अश्वमेघ हमारी अस्मिता का अपहरण कर ले गया। इसके सामाजिक प्रभाव यह हैं कि इतिहास की इस घड़ी में हमारे पास साइबर कैफे हैं, जो इलेक्ट्रानिक चकलाघरों में तब्दील हो गये हैं। हमारे बेटे-बेटियां यहां अपने साइबर फ्रैंड्स से चर्चाओं में मशगूल हैं। कण्डोम के रास्ते गुजरकर आता हुआ प्रेम है। अब सुंदरता परिधानों में नहीं उन्हें उतारने में है। कुछ साल पहले स्त्री को सबके सामने छूते समय हाथकांपते थे अब उसे चूमे बिना बात नहीं बनती। कलंक अब पब्लिसिटी के काम आते हैं। जीवनशैली, लाइफ स्टाइल में बदल गई है। मेगा माल्स, ऊंची-ऊंची इमारतें, डिजाईनर कपड़ों के विशाल शो-रूम, रातभर चलने वाली मादक पार्टियां और बल्लियों उछलता नशीला उत्साह। यह वर्तमान का चेहरा है। इससे विद्रूप अगर कुछ हो सकता है तो वह भी सामने आएगा। इस दुनिया को ऐसा बनाने में हम सब भी शामिल हैं, ऐसा ना चाहते हुए भी।
प्रश्न : आपके विश्लेषण के मुताबिक तो चित्र बहुत भयावह है फिर मीडिया की प्राथमिकताएं बदलती क्यों नहीं?
उत्तर -मीडिया अब किसी सामाजिक उत्तरदायित्व के दबाव में नहीं बल्कि बाजार के दबाव में हैं। यही कारण है कि महानगरों में लोगों की सेक्स हैबिट्स को लेकर भी मुद्रित माध्यमों में सर्वेक्षण छापने की होड़ है। वे छापते हैं 8 0 प्रतिशत महिलाएं शादी के पूर्व सेक्स के लिए सहमत हैं। दरअसल यह छापा गया सबसे बड़ा झूठ है। ये पत्र-पत्रिकाओं के व्यापार और पूंजी गांठने का एक नापाक गठजोड़ और तंत्र है। सेक्स को बार-बार कवर स्टोरी का विषय बनाकर ये उसे रोजमर्रा की चीज बना देना चाहते हैं। इस षडयंत्र में शामिल मीडिया बाजार की बाधाएं हटा रहा है। फिल्मों की जो गंदगी कही जाती थी वह शायद उतना नुकसान न कर पाए जैसा धमाल इन दिनों मुद्रित माध्यम मचा रहे हैं। कामोत्तेजक वातावरण को बनाने और बेचने की यह होड़ कम होती नहीं दिखती। मीडिया का हर माध्यम एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ में है। यह होड़ है नंगई की। उसका विमर्श है - देह। 'जहर', 'मर्डर,' 'कलियुग', 'गेंगस्टर', 'ख्वाहिश', 'जिस्म' जैसी तमाम फिल्मों ने बाजार में एक नई हिंदुस्तानी औरत उतार दी है। जिसे देखकर समाज चमत्कृत है। कपडे उतारने पर आमादा इस स्त्री के दर्शन ने मीडिया प्रबंधकों के आत्मविश्वास को हिलाकर रख दिया है। एड्स की बीमारी ने पूंजी के ताकतों के लक्ष्य संधान को और आसान कर दिया है। अब सवाल रिश्तों की शुचिता का नहीं, विश्वास का नहीं, साथी से वफादारी का नहीं - कंडोम का है। कंडोम ने असुरक्षित यौन के खतरे को एक ऐसे खतरनाक विमर्श में बदल दिया है, जहां व्यवसायिकता की हदें शुरू हो जाती हैं। अब इस मीडिया को कैसे और कितना संभाला जा सकता है इसका उत्तर तो समाज ही तलाशेगा।


प्रश्न : आपकी नजर में इस समय मीडिया में सबसे लोकप्रिय विमर्श क्या है?
उत्तर -औरत की देह इस समय मीडिया का सबसे लोकप्रिय विमर्श है। सेक्स और मीडिया के समन्वय से जो अर्थशास्त्र बनता है उसने सारे मूल्यों को शीर्षासन करवा दिया है। शायद इसीलिए इंटरनेट के माध्यम से चलने वाला ग्लोबल सेक्स बाजार करीब 6 0 अरब डॉलर तक जा पहुंचा है। मोबाइल के नए प्रयोगों ने इस कारोबार को शक्ति दी है। एक आंकडे क़े मुताबिक मोबाइल पर अश्लीलता का कारोबार भी पांच सालों में 5 अरब डालर तक जा पहुंचेगा। इस पूरे वातावरण को इलेक्ट्रानिक टीवी चैनलों ने आंधी में बदल दिया है। प्रिंट मीडिया अब इससे होड़ ले रहा है। इंटरनेट ने सही रूप में अपने व्यापक लाभों के बावजूद सबसे ज्यादा फायदा सेक्स कारोबार को पहुंचाया। पूंजी की ताकतें सेक्सुएलिटी को पारदर्शी बनाने में जुटी हैं। मीडिया इसमें उनका सहयोगी बना है। अश्लीलता और सेक्स के कारोबार को मीडिया किस तरह ग्लोबल बना रहा है इसका उदाहरण पिछले दिनों हुआ विश्वकप फुटबाल है। मीडिया रिपोर्ट्स से ही हमें पता चला कि जर्मनी के तमाम वेश्यालय इसके लिए तैयार हैं और दुनिया भर से वेश्याएं वहां पहुंच रही हैं। कुछ विज्ञापन विश्व कप के इस पूरे उत्साह को इस तरह व्यक्त करते हैं 'मैच के लिए नहीं, मौज के लिए आइए'। जाहिर है मीडिया ने हर मामले को ग्लोबल बना दिया है। हमारे 'गोपन विमर्शों' को 'ओपन' करने में मीडिया का एक खास रोल है। शायद इसीलिए मीडिया के कंधों पर सवार यह सेक्स कारोबार तेजी से ग्लोबल हो रहा है।


प्रश्न : मीडिया की इतनी प्रभावकारी भूमिका के बावजूद उसके व्यापक दुरूपयोग की ओर आपने इशारा किया, क्या इस माध्यम पर नैतिक नियंत्रण नहीं लगाये जा सकते?
उत्तर -पिछले कुछ समय में जिस तरह मीडिया का सर्वव्यापी और सर्वग्रासी विस्तार हुआ है उससे समाज और मानस स्तंभित है। सर्वव्यापी शब्द पर जिस तरह प्रसन्नता के भाव उपजेंगे उसी तरह सर्वग्रासी शब्द पर चिंता की लकीरें भी उठना स्वाभाविक है। लेकिन इस बात से कौन इंकार कर सकता है कि इधर कुछ वर्षों में मीडिया ने हमारे जीवन को काफी हद तक प्रभावित किया है। हमारा चिंतन, हमारा रहन-सहन, हमारे विचार, हमारी संस्कृति यहां तक कि हमारी निहायत व्यक्तिगत जिंदगी को भी मीडिया ने बदलने की भरपूर कोशिश की है। बहुत हद तक मीडिया इसमें सफल भी रहा है। पहले मीडिया की भूमिका सूचनाओं और समाचारों के संप्रेषण मात्र में हुआ करती थी। साथ ही ज्ञान का प्रसार करना और समाज को मनोरंजन प्रदान करना भी मीडिया के दायित्वों में शुमार था। आज स्थिति इससे बिल्कुल अलग है। आज मीडिया सूचनाओं और समाचारों के संप्रेषण तक सीमित नहीं है। मीडिया उनका भागीदार भी है और कारक भी। प्रतिस्पर्धा के इस दौर में उसके जनक बनने की भी संभावना पर्याप्त नजर आती है। मीडिया सिर्फ ज्ञान के प्रसार तक ही सीमित नहीं है, बल्कि ज्ञान की खोज और ज्ञान के भंडार के रूप में भी मीडिया आज हमारे सामने है। मनोरंजन का तो पूरा उद्योग ही मीडिया के जरिए स्थापित है, जिसे आज सिर्फ मन बहलाने का शगल मानकर दरकिनार नहीं किया जा सकता। इस माध्यम में सबकुछ बुरा-बुरा ही है, ऐसा कहना ठीक नहीं। बावजूद इसके मुख्यधारा का मीडिया निश्चय ही सामाजिक उत्तरदायित्व को भूल रहा है। शायद इसी के चलते उसकी आलोचना का स्वर इतना तीखा है। आलोचना उसी की होती है जिससे उम्मीद होती है। आज जबकि भारत जैसे देश में हम तीनों संवैधानिक तंत्रों से निराश हो चले हैं तो लोकतंत्र के चौथे स्तंभ मीडिया से हमारी अपेक्षाएं बहुत बढ़ गई हैं। वह भी जब अपेक्षाओं को पूरा करता नहीं दिखता या अपने सामाजिक उत्तरदायित्व से विमुख होता है तो आलोचना स्वाभाविक है।

प्रश्न : आज की नई पत्रकार पीढ़ी के लिए आप क्या संदेश देना चाहेंगे?
उत्तर- मैं अभी संदेश देने की स्थिति में नहीं हूं पर इतना कहना चाहता हूं कि हमारे दायित्वों का खाता अभी भरा नहीं है। मूल्यों की बात बहुत दूर लगने लगी है। हमारा वर्चस्व और सामाजिक सम्मान तो बढ़ा है लेकिन हम अपने दायित्व बोध से पीछे हटे हैं। जाहिर है ऐसे में पत्रकारिता एवं पत्रकारों के प्रति जनता की राय बिगड़ते देर नहीं लगेगी। आज हमें अगर लोग बहुत उम्मीदों से देखते हैं तो हमें भी उनकी उम्मीदों पर खरा उतरने के लिए बेचैन होना और दिखना चाहिए। तकनीकी और बाजार के अपने मूल्य हैं लेकिन उसने हमें अपार अवसर भी उपलब्ध कराए हैं। सूचनाओं के इतने मंच और इतने फोरम हैं कि कोई भी खबर अब दबाई या छिपाई नहीं जा सकती। बावजूद इसके बहुत सारी खबरें लोगों तक नहीं पहुंच पाती। निश्चय ही यह हमारी पीढ़ी की काहिली और एक नाजायज किस्म का ओढ़ा हुआ दबाव है जिससे मुक्त होना ही होगा। संवाद की दुनिया में प्रिंट, इलेक्ट्रानिक, इंटरनेट और इंटरनेट पर भी ब्लॉग्स के माध्यम से सूचना का लोकतंत्र आ रहा है। सवाल यह है कि क्या हम इन साधनों का इस्तेमाल कर आखिरी आदमी के चेहरे पर खुशी लाना चाहते हैं?