9/26/2007

सत्ता बड़ी या राम

भारात में धार्मिक भावनाओं को भड़का कर राजनीति करने में महारत रखने वाले लोग एक बार फिर अपने असली चेहरे के साथ सक्रिय हो उठे हैं। मज़े की बात तो यह है कि इस बार वे धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाने का आरोप तो भारत की सत्तारूढ़ केन्द्र सरकार पर लगा रहे हैं जबकि अपने इसी आरोप के तहत जनता की धार्मिक भावनाओं को भड़काने के ठेकेदार वे स्वयं बन बैठे हैं। भारतीय राजनीति के इतिहास में दक्षिणपंथी भारतीय जनता पार्टी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में साझीदार रह चुकी है। भाजपा के रणनीतिकारों का मानना है कि 542 सदस्यों की लोकसभा में 183 सीटें प्राप्त करने का उसका अब तक का सबसे बड़ा कीर्तिमान केवल रामनाम की राजनीति करने की बदौलत ही संभव हो सका है। ज्ञातव्य है कि रामजन्म भूमि-बाबरी मस्जिद विवाद को लेकर भारतीय जनता पार्टी ने पूरे देश में यह प्रचार किया था कि सत्ता में आने पर वह रामजन्म भूमि मन्दिर का निर्माण कराएंगे। देश के सीधे-सादे रामभक्तों ने इन्हें इसी आस में देश के सबसे बड़े राजनैतिक दल का दर्जा भी दिला दिया।

अफ़सोस की बात है कि भारतीय जनता पार्टी ने अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में केंद्रीय सत्ता संभालने के बाद अपना भगवा रंग ही बदल डाला और कांग्रेस की राह पर चलते हुए तथाकथित धर्म निरपेक्षता की राजनीति करने लगी। उस समय राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार के अन्य सहयोगी दलों ने सरकार बनाने में भारतीय जनता पार्टी का साथ इसी शर्त पर दिया कि वह रामजन्म भूमि, समान आचार संहिता और कश्मीर से धारा 370 हटाए जाने जैसे अपने प्रथम व अग्रणी मुद्दों को त्याग देगी। भाजपा के 'रामभक्तों' ने ऐसा ही किया। उस समय इनके समक्ष दो विकल्प थे। या तो यह राम को चुनते या सत्ता को। इन धर्म के ठेकेदारों ने उस समय सत्ता का स्वाद लेना अधिक ंजरूरी समझा। क्या इन तथाकथित रामभक्तों को उस समय सत्ता को ठोकर मारकर अन्य राजग सहयोगी दलों के समक्ष यह बात पूरी ंजोर-शोर से नहीं रखनी चाहिए थी कि हम रामभक्तों के लिए पहले हमारे वे एजेन्डे हैं जिनके नाम पर हमें सबसे बड़े राजनैतिक दल की हैसियत हासिल हुई है न कि सत्ता। यदि भाजपा उस समय राम मन्दिर के मुद्दे पर सत्ता को ठुकरा देती तो काफ़ी हद तक यह बात स्वीकार की जा सकती थी कि उनमें राम के प्रति लगाव का वास्तविक जज़्बा है परन्तु मन्दिर निर्माण के बजाए सत्ता से चिपकने में दिलचस्पी दिखाकर इन्होंने यह साबित कर दिया कि इनकी नंजर में सत्ता बड़ी है राम नहीं।
एक बार फिर राम के नाम पर यही लोग वोट माँगने की तैयारी कर रहे हैं। इस बार मुद्दा रामजन्म भूमि को नहीं बल्कि रामसेतु को बनाया जा रहा है। भारत-श्रीलंका के बीच बहने वाले समुद्री जल के मध्य ढाई हंजार करोड़ रुपए की लागत से सेतु समुद्रम शिपिंग चैनल परियोजना का निर्माण कार्य किया जाना प्रस्तावित है। 1860 में भारत में कार्यरत ब्रिटिश कमांडर एडी टेलर द्वारा सर्वप्रथम प्रस्तावित की गई इस परियोजना को 135 वर्षों बाद रचनात्मक रूप देने का प्रयास किया जा रहा है। 12 मीटर गहरे और 300 मीटर चौड़े इस समुद्री मार्ग का निर्माण स्वेंज नहर प्राधिकरण द्वारा किया जाना है। यही प्राधिकरण इसे संचालित भी करेगा तथा इसका रख-रखाव भी करेगा।

भारतीय जनता पार्टी इस परियोजना का विरोध कर रही है। भाजपा का यह विरोध इस बात को लेकर है कि चूंकि सेतु समुद्रम परियोजना में उस सेतु को तोड़ा जाना है जिसे कि रामसेतु के नाम से जाना जाता है। हिन्दू मान्यताओं के अनुसार समुद्र के मध्य पुल के रूप में नंजर आने वाली यह आकृति उसी पुल के अवशेष हैं जिसका निर्माण हनुमान जी की वानर सेना द्वारा भगवान राम की मौजूदगी में श्रीलंका पर विजय पाने हेतु किया गया था। नि:सन्देह ऐसी किसी भी विषय वस्तु पर जहां कि किसी भी धर्म विशेष की भावनाओं के आहत होने की संभावना हो, किसी ंकदम को उठाने से पूर्व उस विषय पर गंभीर चिंतन किया जाना चाहिए। ऐसी पूरी कोशिश होनी चाहिए कि किसी भी धर्म विशेष की धार्मिक भावनाएं आहत न होने पाएं। परन्तु भारतीय जनता पार्टी जैसे राजनैतिक दल पर तो क़तई यह बात शोभा नहीं देती कि वह रामसेतु मुद्दे पर आम हिन्दुओं की धार्मिक भावनाओं की संरक्षक, हिमायती अथवा पैरोकार स्वयंभू रूप से बन बैठे।

आज भाजपा द्वारा रामसेतु मुद्दे पर हिन्दुओं की भावनाओं को भड़काने तथा इस परियोजना का ठीकरा वर्तमान संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार विशेषकर कांग्रेस, कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के सिर पर फोड़ने का प्रयास किया जा रहा है। आश्चर्य की बात है कि वह भारतीय जनता पार्टी ऐसे आरोप लगा रही है जिसके अपने शासनकाल में केन्द्र सरकार के 4 मंत्रियों अरुण जेटली, शत्रुघ्न सिन्हा, वेद प्रकाश गोयल व एस त्रिवुनवक्कारासू द्वारा सन् 2002 में सेतु समुद्रम परियोजना को प्रारम्भिक दौर में ही पहली मंजूरी दी गई थी। उसके पश्चात जब परियोजना से सम्बद्ध सभी मंत्रालयों से हरी झंडी मिल गई तब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह द्वारा 2 जुलाई 2005 को इस परियोजना की शुरुआत की गई। यहां भाजपा के विरोध को लेकर एक सवाल और यह उठता है कि उसका यह विरोध 2005 से ही अर्थात् परियोजना पर काम शुरु होने के साथ ही क्यों नहीं शुरु हुआ? आज ही इस विरोध की ज़रूरत क्यों महसूस की जा रही है और वह भी इतने बड़े पैमाने पर कि गत् दिनों भोपाल में आयोजित भाजपा कार्यकारिणी की बैठक में पार्टी को यह घोषणा तक करनी पड़ी कि राम के नाम पर भावनाओं से खिलवाड़ भरतीय जनता पार्टी का चुनावी मुद्दा होगा। क्या दो वर्षों की ख़ामोशी इस बात का सुबूत नहीं है कि भाजपा चुनावों के नज़दीक आने की प्रतीक्षा कर रही थी? इसलिए उसे पिछले दो वर्षों तक इस मुद्दे को हवा देकर अपनी उर्जा नष्ट करने की ज़रूरत नहीं महसूस हुई। भाजपा द्वारा सेतु समुद्रम परियोजना का अब विरोध किए जाने से सांफ जाहिर हो रहा है कि विपक्षी पार्टी के नाते भाजपा इस समय इस परियोजना के काम में न केवल बाधा उत्पन्न करना चाहती है बल्कि इसे अपनी चुनावी रणनीति का एक हिस्सा भी बनाना चाहती है।

आने वाले दिनों में भारतीय जनता पार्टी को उर्जा प्रदान करने वाले राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ, विश्व हिन्दू परिषद तथा दक्षिणपंथी विचारधारा के इनके अन्य कई सहयोगी संगठन इस मुद्दे पर राजनीति करने का प्रयास करेंगे। परियोजना को प्राथमिक मंजूरी देने वाली भाजपा इस परियोजना के नाम पर स्वयं को तो रामभक्त तथा रामसेतु का रखवाला प्रमाणित करने का प्रयास कर रही है जबकि परम्परानुसार सत्तारूढ़ दल विशेषकर कांग्रेस व वामपंथी दलों को भगवान राम का विरोधी बताने की कोशिश में लगी है।
उपरोक्त परिस्थितियाँ यह समझ पाने के लिए काफ़ी हैं कि भाजपा कितनी बड़ी रामभक्त है और कितनी सत्ताभक्त। राम के नाम पर वोट मांगने की क़वायद भाजपा के लिए कोई नई बात नहीं है। हां इतना ज़रूर है कि राम के नाम पर वोट माँगने के बाद राम मन्दिर निर्माण के बजाए सत्ता के पाँच वर्ष पूरे कर चुकी भारतीय जनता पार्टी ने भारतीय मतदाताओं के समक्ष अपनी साख को अवश्य समाप्त कर दिया है। लिहाज़ा सेतु समुद्रम परियोजना को लेकर भाजपा भारतीय मतदाताओं की भावनाओं को पुन: भड़का पाने में कितनी सफलता प्राप्त कर सकेगी और कितनी असफलता यह तो आने वाला समय ही बता सकेगा।
- तनवीर जाफ़री

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