छत्तीसगढ राज्य की बहुआयामी सांस्कृतिक संस्था “सृजन-सम्मान ” की प्रादेशिक कार्यालय द्वारा साहित्य, संस्कृति, भाषा एवं शिक्षा की विभिन्न 28 विधाओं में प्रतिष्ठित रचनाकारों को पिछले 7 वर्षों से प्रतिवर्ष दिये जाने वाले सम्मान हेतु प्रविष्टियाँ आमंत्रित की गई हैं । प्रविष्टि भेजने की अंतिम तिथि 15 फरवरी 2008 है।
छत्तीसगढ राज्य के गौरव पुरुषों की स्मृति में दिये जाने वाले यह सम्मान प्रतिवर्ष आयोजित 2 दिवसीय अखिल भारतीय साहित्य महोत्सव में प्रदान किये जाते हैं । संस्था द्वारा सम्मान स्वरुप रचनाकारों को 21, 11, 5, हजार नगद, प्रशस्ति पत्र, प्रतीक चिन्ह, शॉल, श्रीफल एवं 500 रुपयों की कृतियाँ प्रदान की जाती हैं ।
पुरस्कारों का विवरण निम्नानुसार है –
01. हिंदी गौरव सम्मान – हिंदी वेबसाइट संपादक/ब्लॉगर
02. पद्मश्री मुकुटधर पांडेय सम्मान – लघुपत्रिका संपादक
03. पद्मभूषण झावरमल्ल शर्मा सम्मान – पत्रकारिता हेतु समर्पित
04. महाराज चक्रधर सम्मान – ललित निबंध
05. मंहत बिसाहू दास सम्मान – कबीर साहित्य
06. पं. गोपाल मिश्र सम्मान- कविता
07. नारायण लाल परमार सम्मान - नवगीत/ गीत/ बालसाहित्य
08. डॉ.बल्देव प्रसाद मिश्र सम्मान - कहानी
09. माधव राव सप्रे सम्मान – लघुकथा
10. दादा अवधूत सम्मान – शैक्षिक लेखन
11. प्रमोद वर्मा सम्मान - हिंदी आलोचना
12. रामचंद्र देशमुख सम्मान – लोक लेखन/ प्रस्तुति
13. प्रवासी सम्मान - विदेश में रहकर हिन्दी सेवा
14. समरथ गंवईहा सम्मान – व्यंग्य लेखन
15. विश्वम्भर नाथ सम्मान – छांदस विधा
16. मावजी चावडा सम्मान – बाल साहित्य/समीक्षा/ शोध/पत्रकारिता
17. मुस्तफा हुसैन सम्मान – ग़ज़ल लेखन
18. राजकुमारी पटनायक सम्मान - भाषा एवं लोकभाषा के विशेषज्ञ
19. हरि ठाकुर सम्मान- समग्र व्यक्तित्व एवं कृतित्व
20. अनुवाद सम्मान- अनुवाद के क्षेत्र में विशेष - कार्य
21. अहिन्दीभाषी सम्मान – ग़ैरहिंदी भाषी द्वारा हिंदी सेवा
22. प्रथम कृति सम्मान – पहली प्रकाशित कृति
23. कृति सम्मान - प्रकाशित पांडुलिपि
24. महेश तिवारी सम्मान – वैचारिक लेखन
25. सृजनश्री – प्रकाशित कृति
नियमः-
१.प्रथम कृति सम्मान के अंतर्गत चयनित अप्रकाशित पांडुलिपि को प्रकाशित कर 100 प्रतियाँ रचनाकार को प्रदान की जायेगी । इसमें इस वर्ष आलोचना/समीक्षा विधा पर ही विचार किया जायेगा ।
२-कृति सम्मान हेतु किसी वरिष्ठ रचनाकार की प्रकाशित या अप्रकाशित किन्तु अत्यंत महत्वपूर्ण पांडुलिपि को चयनोपरांत प्रकाशित की जायेगी, जिसकी 100 प्रतियाँ रचनाकार को प्रदान की जायेगी। इसमें इस वर्ष आलोचना विधा पर ही विचार किया जायेगा ।
३-हिन्दी गौरव सम्मान हेतु अपने बेबसाईट या ब्लाग का विस्तृत विवरण, तकनीकी पक्ष, प्रबंधन, पता, ई-मेल आदि हमारे पते पर भेजना होगा ।
४- प्रविष्टि में रचनाकार स्वयं या अनुशंसा करने वाले को रचनाकार का बायोडाटा, 1 छायाचित्र, कृति की दो प्रतियाँ अनिवार्यतः भेजनी होगी ।
5-प्रविष्टि वाले डाक में सम्मान का नाम एवं वर्ष – 2008 लिखा होना अपेक्षित रहेगा ।
६- उच्च स्तरीय चयन मंडल का निर्णय सर्वमान्य होगा ।
प्रविष्टि हेतु संपर्कः-
जयप्रकाश मानस
संयोजक, चयन समिति,
सृजन – सम्मान,
छत्तीसगढ माध्यमिक शिक्षा मंडल, आवासीय परिसर,
पेंशनवाडा, रायपुर, छत्तीसगढ, पिन-492001,
मोबाइल नं. 94241-82664
ई-मेल – srijan2samman@gmail.com
12/12/2008
11/29/2008
इधर देश है
इधर
दहशतगर्दी थे ही नहीं
फिर भी उभर रहे थे जगह-जगह खूनी पंजे
इधर
न गोली चल रही थी न ग्रेनेड
फिर भी हताहत हो रहे थे लोग
इधर
ख़ौफ़ का कोई भी संकेत नहीं था
फिर भी सारे लोग सकते में थे
इधर
सबकुछ था शांत निःस्तब्ध
फिर भी सभी तैयार हो रहे थे युद्ध के लिए
उधर मुंबई है
इधर देश है
दहशतगर्दी थे ही नहीं
फिर भी उभर रहे थे जगह-जगह खूनी पंजे
इधर
न गोली चल रही थी न ग्रेनेड
फिर भी हताहत हो रहे थे लोग
इधर
ख़ौफ़ का कोई भी संकेत नहीं था
फिर भी सारे लोग सकते में थे
इधर
सबकुछ था शांत निःस्तब्ध
फिर भी सभी तैयार हो रहे थे युद्ध के लिए
उधर मुंबई है
इधर देश है
11/28/2008
मुंबई : दो कविताएँ
देखते ही देखते
पानी के रास्ते से छिपते-छिपाते आया हुआ आंतक
मिट जायेगा बुलबुले की तरह
बारुदी गंध की बंधक हवा को
चीरते हुए लौट आयेंगे पंछी ठीहे में
खैनी की तरह दबा देगा सारे ख़ौफ़
वह पानपुरी वाला
गलियों में बेहिचक गेंद उछालेंगे छोटे-छोटे सचिन
ख़ुशनुमा तासीर वाली मुंबई
भूला जायेगी सबकुछ एक दुःस्वप्न की तरह
सब कुछ अपने होने के अंदाज़ में
होंगे सही सलामत फिर से
देखते-ही-देखते
पहले की तरह
पहले की तरह
कुछ नहीं होंगे तो सिर्फ वे ही
जो सबको बचाते हुए चले गये थे
हर बार की तरह
देखते-ही-देखते
0000
सारे-के-सारे इंसान थे
देखते ही देखते
पानी के रास्ते से छिपते-छिपाते आया हुआ आंतक
मिट जायेगा बुलबुले की तरह
बारुदी गंध की बंधक हवा को
चीरते हुए लौट आयेंगे पंछी ठीहे में
खैनी की तरह दबा देगा सारे ख़ौफ़
वह पानपुरी वाला
गलियों में बेहिचक गेंद उछालेंगे छोटे-छोटे सचिन
ख़ुशनुमा तासीर वाली मुंबई
भूला जायेगी सबकुछ एक दुःस्वप्न की तरह
सब कुछ अपने होने के अंदाज़ में
होंगे सही सलामत फिर से
देखते-ही-देखते
पहले की तरह
पहले की तरह
कुछ नहीं होंगे तो सिर्फ वे ही
जो सबको बचाते हुए चले गये थे
हर बार की तरह
देखते-ही-देखते
0000
देवता
सारे-के-सारे इंसान थे
जो बेमुरव्वत मार रहे थे
वे भी इंसान हो सकते थे
सिर्फ़ मरने-मारने की नहीं
बात उसकी हो रही है
जोमरने-मारने वालों को बचाने के लिए मर रहा था
बात उसकी नहीं हो रही
कि मरने-मारने वालों से कौन जन्नत पायेगा
बात सिर्फ उसकी ही हो रही है
जो बचे हुए लोगों को जन्नत सौंपकर
रूख़सत हुए हैं
बिलकुल अभी-अभी
बात देवता की हो रही है ।
11/26/2008
दिनकर की उपेक्षा देशहित में नहीं
अभी-अभी समाचार मिला है कि हमारे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की जन्मशती मनाने के लिए राष्ट्रीय समिति गठित करने की माँग ठुकरा दी है। बाकायदा प्रधानमंत्री कार्यालय ने संस्कृति मंत्रालय को इसकी लिखित जानकारी भी भिजवा दी है । जबकि इसके पहले प्रधानमंत्री ने संस्कृति मंत्री अंबिका सोनी से व्यक्तिगत तौर पर दिनकर की जन्मशती मनाने के प्रसंग में विचार-विमर्श भी किया था। अब प्रधानमंत्री कार्यालय द्वारा कहा जा रहा है कि प्रधानमंत्री ने दिनकर के लिए राष्ट्रीय समिति गठित करने का प्रस्ताव मंजूर नहीं किया।
उल्लेखनीय है कि कई साहित्यिक और सामाजिक संस्थाओं सहित सांसदों ने भी राष्ट्रकवि की जन्मशती राष्ट्रीय स्तर पर मनाने के लिए प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में एक राष्ट्रीय समिति गठित करने का मुद्दा उठाया था । इस क्रम में पूर्व मानव संसाधन विकास मंत्री मुरली मनोहर जोशी के नेतृत्व में सांसदों को भी गिनाया जा सकता है जिन्होंने प्रतिनिधिमंडल के रूप में प्रधानमंत्री से मुलाकात कर यह मांग की थी। सूचना के अनुसार इसी विषय पर जद-यू के पूर्व सांसद वशिष्ठ नारायण सिंह के आवास पर एक बैठक भी हुई थी । संस्कृति मंत्रालय किसी महापुरुष की जन्मशती उनकी सौवीं जयंती के बाद ही मनाता है। ज्ञातव्य हो कि दिनकर की सौवीं जयंती गत 23 सितंबर को थी।
रामधारी सिंह दिनकर हिन्दी के एक प्रमुख लेखक थे। राष्ट्र कवि दिनकर आधुनिक युग के श्रेष्ठ वीर रस के कवि के रूप में स्थापित हैं। बिहार प्रांत के बेगुसराय का सिमरिया घाट कवि दिनकर की जन्मस्थली है। इन्होंने इतिहास, दर्शनशास्त्र और राजनीति विज्ञान की पढ़ाई पटना विश्वविद्यालय से की। साहित्य के रूप में इन्होंने संस्कृत, बंग्ला, अंग्रेजी और उर्दू का गहन अध्ययन किया था।
रामधारी सिंह दिनकर स्वतंत्रता पूर्व के विद्रोही कवि के रूप में स्थापित हुए और स्वतंत्रता के बाद राष्ट्रकवि के नाम से जाने जाते रहे। वे छायावादोत्तर कवियों की पहली पीढ़ी के कवि थे। एक ओर उनकी कविताओ में ओज, विद्रोह, आक्रोश और क्रांति की पुकार है, तो दूसरी ओर कोमल श्रृँगारिक भावनाओं की अभिव्यक्ति है। इन्हीं दो प्रवृत्तियों का चरम उत्कर्ष हमें कुरूक्षेत्र और उवर्शी में मिलता है।
दिनकर 1952 में राज्यसभा के मनोनीत सदस्य थे और 1959 में उन्हें पद्मभूषण मिला था। उन्हें संस्कृति के चार अध्याय पुस्तक पर साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिला था, जिसकी भूमिका पंडित जवाहर लाल नेहरू ने लिखी थी। उन्हें ऊर्वशी पर ज्ञानपीठ पुरस्कार भी मिला था।
पटना विश्वविद्यालय से बी. ए. की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद वे एक विद्यालय में अध्यापक हो गए। १९३४ से १९४७ तक बिहार सरकार की सेवा में सब-रजिस्टार और प्रचार विभाग के उपिनदेशक पदों पर कार्य किया। १९५० से 1९५२ तक मुजफ्फरपुर कालेज में हिन्दी के विभागाध्यक्ष रहे, भागलपुर विश्वविद्यालय के उपकुलपति के पद पर कार्य किया और इसके बाद भारत सरकार के हिन्दी सलाहकार बने। उन्हें पदमविभूषण की से भी अलंकृत किया गया। पुस्तक संस्कृति के चार अध्याय के लिये आपको साहित्य अकादमी पुरस्कार तथा उर्वशी के लिये भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कर प्रदान किये गए। अपनी लेखनी के माध्यम से वह सदा अमर रहेंगे।
उनकी प्रमुख कृतियाँ है - गद्य रचनाएं - मिट्टी की ओर, रेती के फूल, वेणुवन, साहित्यमुखी, काव्य की भूमिका, प्रसाद पंत और मैथिलीशरणगुप्त, संस्कृति के चार अध्याय। पद्य रचनाओं में रेणुका, हुंकार, रसवंती, कुरूक्षेत्र, रश्मिरथी , परशुराम की प्रतिज्ञा, उर्वशी, हारे को हरिनाम आदि महत्वपूर्ण कृतियों के रूप में समादृत होती रही हैं ।
प्रमुख आलोचक एवं साहित्य अकादमी के वरिष्ट सदस्य श्री विश्वनाथ प्रसाद तिवारी एवं गिरीश पंकज ने बताते है कि साहित्य अकादमी ने अगले वर्ष फरवरी के प्रथम सप्ताह में दिनकर पर अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी करने का निर्णय लिया है। साहित्य अकादमी दिनकर के जीवन एवं कृतित्व पर एक वृत्तचित्र का निर्माण भी कर रही है। पिछले दिनों उसने दिनकर संचयन प्रकाशित किया है। यह अलग बात है । किसी राष्ट्रकवि की जन्मशती वर्ष नहीं मनाना समझ से परे है । वह भी ऐसी परिस्थितियों में जब चारों और आंतकवाद पाँव पसार रहा है । राष्ट्रीयता की भावना लगातार कम होती जा रही है । साहित्य और संस्कृति को तिलाजंलि देकर आम भारतीय स्वार्थ के अंधकूप में स्वयं को डालता जा रहा है । राष्ट्र, राष्ट्रीयता और देशप्रेम को स्वार्थ के आगे नतमस्तक होना पड़ रहा है एक यही तो क्षेत्र बचता है कि पुरखों की याद कर फिर से देशवासी को स्मरण कराया जाय कि यह दिनकर का देश है, भूषण का देश है, सेनापति का देश है, अब्दूल रहीम खानखाना का देश है जो युद्ध क्षेत्र में भी जाते थे और अपनी ओजस्वी कविता से मन प्राण को भी जीवंत बनाये रखते थे । यदि ऐसे कवियों को किसी दल या किसी राजनीति के कारण उपेक्षित किया जाय तो यह गंभीर दिशा का परिचायक ही है । राजनीति कम से कम साहित्यकारों, कलाकारों के नाम पर नहीं होना चाहिए । राष्ट्रभक्ति सिर्फ़ भाजपा का विषय नहीं । वह केवल कांग्रेस का विषय नहीं । न ही मार्क्सवादियों का । उसे सभी का विषय बनाया जाना चाहिए । उसे समस्त जनता और उसकी मनीषा के अनुरूप विचार किया जाना चाहिए । यह दीगर बात है कि ऐसी जयंतियों, समारोहों के पीछे सिर्फ़ दिल्ली या बड़ी राजधानियों के दलाल किस्म के साहित्यकार या उनके गुर्गे ही अधिक सक्रिय रहते रहे हों, पर उसे वास्तविक रूप से गाँव गलियों के जनता तक पहुँचाने केलिए ऐसे आयोजनों पर ज़रूर विचार किया जाना चाहिए । एक प्रधानमंत्री से वह भी अधिक ईमानदार और तटस्थ व्यक्ति से ऐसी आशा तो की ही जा सकती है ।
बहरहाल हम अपने प्रधानमंत्री से सिर्फ़ गुजारिश ही तो कर सकते हैं । मानना न मानना तो उनके वश की बात है । उनकी इच्छा वे ही जाने । पर एक साहित्यकार के नाते तो हम ऐसी हरकतों का विरोध करना चाहते हैं दिनकर की पंक्तियों को ही याद करते हुए –
सच है सत्ता सिमट-सिमटजिनके हाथों में आयी,
शान्तिभक्त वे साधु पुरुषक्यों चाहें कभी लड़ाई ?
सुख का सम्यक-रूप विभाजन
जहाँ नीति से, नय से
संभव नहीं; अशान्ति दबी हो
जहाँ खड्ग के भय से,
जहाँ पालते हों अनीति-पद्धतिको सत्ताधारी,
सुख का सम्यक-रूप विभाजन
जहाँ नीति से, नय से
संभव नहीं; अशान्ति दबी हो
जहाँ खड्ग के भय से,
जहाँ पालते हों अनीति-पद्धतिको सत्ताधारी,
जहाँ सूत्रधर हों समाज केअन्यायी, अविचारी;
नीतियुक्त प्रस्ताव सन्धि के
जहाँ न आदर पायें;
जहाँ सत्य कहने वालों के
सीस उतारे जायें;
जहाँ खड्ग-बल एकमात्रआधार बने शासन का;
नीतियुक्त प्रस्ताव सन्धि के
जहाँ न आदर पायें;
जहाँ सत्य कहने वालों के
सीस उतारे जायें;
जहाँ खड्ग-बल एकमात्रआधार बने शासन का;
दबे क्रोध से भभक रहा हो
हृदय जहाँ जन-जन का;
सहते-सहते अनय जहाँ
मर रहा मनुज का मन हो;
समझ कापुरुष अपने को
धिक्कार रहा जन-जन हो;
सहते-सहते अनय जहाँ
मर रहा मनुज का मन हो;
समझ कापुरुष अपने को
धिक्कार रहा जन-जन हो;
जयप्रकाश मानस
लेबल:
आज का चिंतन,
राजनीति,
विचार,
समाचार,
सम्मान
10/14/2008
प्रमोद वर्मा पर केंद्रित दो दिवसीय राष्ट्रीय आयोजन
1800 पृष्ठीय प्रमोद वर्मा समग्र का प्रकाशन
श्रेष्ठ आलोचक को प्रतिवर्ष सम्मान
श्रेष्ठ आलोचक को प्रतिवर्ष सम्मान
रायपुर । हिंदी के प्रखर आलोचक और कवि प्रमोद वर्मा पर अभिकेंद्रित दो दिवसीय राष्ट्रीय आयोजन आगामी फरवरी-मार्च माह में किया जायेगा, जिसमें देश के प्रमुख आलोचकों, संपादकों, साहित्यकारों के अलावा विदेश के साहित्यकारों को आमंत्रित किया जा रहा है । यह महती आयोजन छत्तीसगढ़ के बहुमुखी प्रतिभा के धनी एवं राष्ट्रीय स्तर पर राज्य का नाम उजागर करने वाले विभूतियों की स्मृति को चिरस्थायी बनाने की दिशा में सतत् क्रियाशील एवं राज्य की बहुआयामी सांस्कृतिक संस्था सृजन-सम्मान की राज्य इकाई और नव गठित प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान के बैनर तले किया जायेगा । उक्त अवसर पर प्रमोद वर्मा समग्र साहित्य एवं उन पर केंद्रित ग्रंथ का विमोचन भी किया जायेगा। इसके अलावा उनकी स्मृति को चिरस्थायी बनाने के लिए देश के एक वरिष्ठ कवि आलोचक को प्रतिवर्ष दिये जाने वाला प्रमोद वर्मा स्मृति राष्ट्रीय सम्मान भी प्रारंभ किया जा रहा है ।
प्रमोद वर्मा समग्र का संपादन उनके मित्र और वरिष्ठ कवि श्री विश्वरंजन कर रहे हैं । इस संकलन में श्री प्रमोद वर्मा द्वारा लिखित सभी 17 काव्य संग्रह, निबंध, आलोचना, मोनोग्राफ, यात्रा-संस्मरण, डायरी, नाटक सहित अप्रकाशित कृतियों का प्रकाशन भी किया जा रहा है । इसमें साहित्य रूप और सृजन-प्रक्रिया के संदर्भ, अँगरेज़ी की स्वच्छंद कविता, रोमान की वापसी, हलफ़नामा, कविता दोस्तों में बुलाने से नहीं आती नदी, मुक्तिबोध पर मोनोग्राफ़, कल और आज के बीच, लंबा मारग दूरी घर, कदाचित् संदर्शन प्रकाशित संग्रह हैं और यूरोप प्रवास पर एक डायरी, सामारुमा एवं अन्य कविता, समालोचना तथा नाटक की एक-एक अप्रकाशित कृतियाँ समादृत की जा रही हैं । यह समग्र कुल 1800 पृष्ठों का होगा जिसमें 2 खंड होंगे। इसमें उनकी 4 अप्रकाशित पांडुलिपियाँ भी सम्मिलित हैं जिसे उनकी धर्मपत्नी श्रीमती कल्याणी वर्मा सौजन्यवश उपलब्ध करा रही हैं । इसके अलावा स्व। प्रमोद वर्मा पर केंद्रित एक किताब भी 'न होना प्रमोद वर्मा का' के नाम से से प्रकाशित की जा रही है । इसका संपादन युवा साहित्यकार जयप्रकाश मानस एवं सुरेन्द्र वर्मा कर रहे हैं । इस कृति में श्री वर्मा जी के समकालीन रचनाकारों के मध्य हुए पत्राचारों, उन्हें लेकर रचनाकारों के संस्मरणों, आलोचनात्मक लेखों, फ़ोटोग्राफ आदि समादृत की जा रही है ।
सृजन-सम्मान के महासचिव राम पटवा द्वारा जारी विज्ञप्ति में रचनाकारों से आग्रह किया गया है कि श्री प्रमोद वर्मा से जुड़े संस्मरण, तस्वीरें, आलोचनात्मक लेख आदि जयप्रकाश मानस, सृजन-सम्मान, एफ-3, छग माध्यमिक शिक्षा आवासीय कॉलोनी, पेंशनवाड़ा, रायपुर के पते पर भेज सकते हैं ।
7/12/2008
समकालीन साहित्य सम्मेलन का 30 वाँ अंतरराष्ट्रीय अधिवेशन दुबई में
मुंबई । समकालीन साहित्य सम्मेलन का 30 वाँ अंतरराष्ट्रीय अधिवेशन संयुक्त राज्य अमीरात के दुबई में होने जा रहा है । मुख्य सम्मेलन 29 जुलाई से 3 अगस्त 2008 तक होगा । ज्ञातव्य हो कि इस संगठन का गठनम धर्मयुग के पूर्व उप संपादक और वरिष्ठ रचनाकार श्री महेन्द्र कार्तिकेय ने किया था । विगत सम्मेलन ब्रिटेन में किया गया था जिसमें अनेक देशों के शताधिक रचनाकारों ने अपना हस्तेक्षेप किया था ।
इस सम्मेलन में विश्व भर के 200 से अधिक अधिक साहित्यकार, हिंदी सेवी, प्रचारक और शिक्षाविद् सम्मिलित हो रहे हैं । सम्मेलन में कई विषयों पर संगोष्ठी होगी जिसमें 1. हिंदी भाषा का साहित्य का अतंरराष्ट्रीय परिदृश्य 2. हिंदी काव्य एवं साहित्य में नारीवाद (उपन्यास एवं कहानी के संदर्भ में) 3. हिंदी उपन्यास में यथार्थ प्रमुख सत्र हैं । इसके अलावा अंतरराष्ट्रीय काव्यपाठ का आयोजन भी इस दरमियान किया जा रहा है।
समकालीन साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष एवं पूर्व सांसद श्री रत्नाकर पांडेय तथा सचिव श्री वैभव कार्तिकेय ने अपनी विज्ञप्ति में बताया है कि इस आयोजन में विश्व भर के हिंदी रचनाकारों को एक दूसरे की रचनाशीलता को समझने और परखने का भी मौक़ा मिलेगा । यह सम्मेलन दुबई में होगा । इसके अलावा हिंदी संस्कृति से जुड़े रचनाकार सद्भाव यात्रा में शरजाह, आबुधाबी, रसलखेमा और रेगिस्तान इलाकों में अपनी दस्तक देंगे । इसमें अभी तक 20 से अधिक देशों के साहित्यकारों ने अपनी सहभागिता सुनिश्चित की है ।
इस सम्मेलन में भारत के 16 राज्यों के साहित्यकारों के साथ छत्तीसगढ़ से जयप्रकाश मानस, डॉ. सुधीर शर्मा, डॉ. जे.आर.सोनी, डॉ. राजेन्द्र सोनी, एच.एस. ठाकुर, सुरेश तिवारी, संजीव ठाकुर, सत्यदेव शर्मा, आर. साहू, रामशरण टंडन, टामन लाल सोनवानी आदि साहित्यकार भाग ले रहे हैं ।
संगोष्ठी में प्रतिभागिता व विस्तृत जानकारी के लिए जयप्रकाश मानस संपादक, सृजन गाथा, एफ-3, माध्यमिक शिक्षा मंडल, पेंशनवाडा, विवेकानंद नगर, रायपुर, छत्तीसगढ़ से संपर्क कर सकते हैं ।
(वैभव कार्तिकेय, मुंबई की रपट)
इस सम्मेलन में विश्व भर के 200 से अधिक अधिक साहित्यकार, हिंदी सेवी, प्रचारक और शिक्षाविद् सम्मिलित हो रहे हैं । सम्मेलन में कई विषयों पर संगोष्ठी होगी जिसमें 1. हिंदी भाषा का साहित्य का अतंरराष्ट्रीय परिदृश्य 2. हिंदी काव्य एवं साहित्य में नारीवाद (उपन्यास एवं कहानी के संदर्भ में) 3. हिंदी उपन्यास में यथार्थ प्रमुख सत्र हैं । इसके अलावा अंतरराष्ट्रीय काव्यपाठ का आयोजन भी इस दरमियान किया जा रहा है।
समकालीन साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष एवं पूर्व सांसद श्री रत्नाकर पांडेय तथा सचिव श्री वैभव कार्तिकेय ने अपनी विज्ञप्ति में बताया है कि इस आयोजन में विश्व भर के हिंदी रचनाकारों को एक दूसरे की रचनाशीलता को समझने और परखने का भी मौक़ा मिलेगा । यह सम्मेलन दुबई में होगा । इसके अलावा हिंदी संस्कृति से जुड़े रचनाकार सद्भाव यात्रा में शरजाह, आबुधाबी, रसलखेमा और रेगिस्तान इलाकों में अपनी दस्तक देंगे । इसमें अभी तक 20 से अधिक देशों के साहित्यकारों ने अपनी सहभागिता सुनिश्चित की है ।
इस सम्मेलन में भारत के 16 राज्यों के साहित्यकारों के साथ छत्तीसगढ़ से जयप्रकाश मानस, डॉ. सुधीर शर्मा, डॉ. जे.आर.सोनी, डॉ. राजेन्द्र सोनी, एच.एस. ठाकुर, सुरेश तिवारी, संजीव ठाकुर, सत्यदेव शर्मा, आर. साहू, रामशरण टंडन, टामन लाल सोनवानी आदि साहित्यकार भाग ले रहे हैं ।
संगोष्ठी में प्रतिभागिता व विस्तृत जानकारी के लिए जयप्रकाश मानस संपादक, सृजन गाथा, एफ-3, माध्यमिक शिक्षा मंडल, पेंशनवाडा, विवेकानंद नगर, रायपुर, छत्तीसगढ़ से संपर्क कर सकते हैं ।
(वैभव कार्तिकेय, मुंबई की रपट)
लेबल:
आयोजन,
संस्कृति,
समारोह,
हिंदी साहित्य
7/11/2008
ये हैं बस्तर के गांधी
हमें कवर्धा से रमला देहारी का यह लेख मिला है, उसे हम बिना किसी काट-छांट के यहां छाप रहे हैं । देहारी शिक्षक हैं और आदिवासी के लिए कुछ खास अध्ययन से जुड़े हैं । वे मूलतः दंतेवाड़ा ज़िले के निवासी हैं । - संपादक
मैं दंतेवाड़ा जिले में दंतेश्वरी मंदिर में विराजनेवाली लोकदेवी दंतेश्वरी और वहाँ के आदिवासियों के बारे में सबकुछ जानते हुए भी वैसे नहीं जानता जिसे मैं व्यक्तिवाचक संज्ञा में जान सकूँ । हो सकता है कि यह मेरी कमज़ोरी ही कहलायेगी कि मैं बस्तर के किसी गांधीवादी हिमांशु कुमार को नहीं जानता । यह कैसे संभव है कि मैं हर गांधीवादी को जान भी लूँ । पर जिस तरह से मैं कथित गांधीवादी हिमांशु कुमार को अब जान पाया हूँ उससे कह सकता हूँ और समझ सकता हूँ कि क्योंकर गांधीवाद पर आज की पीढ़ी विश्वास नहीं करती ।
मैं दंतेवाड़ा जिले में दंतेश्वरी मंदिर में विराजनेवाली लोकदेवी दंतेश्वरी और वहाँ के आदिवासियों के बारे में सबकुछ जानते हुए भी वैसे नहीं जानता जिसे मैं व्यक्तिवाचक संज्ञा में जान सकूँ । हो सकता है कि यह मेरी कमज़ोरी ही कहलायेगी कि मैं बस्तर के किसी गांधीवादी हिमांशु कुमार को नहीं जानता । यह कैसे संभव है कि मैं हर गांधीवादी को जान भी लूँ । पर जिस तरह से मैं कथित गांधीवादी हिमांशु कुमार को अब जान पाया हूँ उससे कह सकता हूँ और समझ सकता हूँ कि क्योंकर गांधीवाद पर आज की पीढ़ी विश्वास नहीं करती ।
मैं कोई पहेली नहीं बुझा रहा । सीधे मुख्य बात की ओर आपको ला रहा हूँ । मैंने बहुत पहले एक लेख पढ़ा था । कभी-कभी मैं इंटरनेट पर प्रकाशित होने वाले ब्लॉग लेखों को पढ़ लेता हूँ । उस लेख का शीर्षक था - ................ और जहाँ तक मुझे याद है, उसके लेखक थे विश्वरंजन । राज्य के पुलिस महानिदेशक और पुलिस महानिदेशक ।
यदि आप उस लेख को पढ़ चुके हों तो आप भी सहमत होंगे कि उस लेख में कहीं भी किसी हिंमांशु कुमार का ज़िक्र नहीं हुआ है । न इशारों में, न बिम्बों में । नामधारी तो प्रश्न ही नहीं उठता । मुझे इस लेख से सुखद आश्चर्य हुआ कि राज्य के पुलिस महानिदेशक के रूप में हमने एक ऐसे विचारक को भी पा लिया है जो राज्य की इज्जत और आदिवासी अस्मिता को भली भाँति पहचानता है और इतना ही नहीं वह प्रजातंत्र के लिए उस तरह से वैचारिक कक्षों में भी पूरी तरह सक्रिय और कटिबद्ध है जितना इस दौर के माओवादी यानी कि अराजक तत्व जो सशस्त्र क्रांति की ज़िद पर दीन आदिवासियों को ही अपनी हिंसा का शिकार कर रहे हैं । इससे पहले हम किसी भी पुलिस अधिकारी की ओर से अपने पक्ष मे वैचारिक फ़ोरमों पर लड़ते हुए नहीं देख पाये । यह पूर्व मध्यप्रदेश के ज़माने की बात न हो तो न हो, पर नये राज्य छत्तीसगढ़ में तो उन्हें इस रूप में अपने हितैषी के रूप में उन्हें मैं आदिवासी होने के नाते नमन करता हूँ जो हमारी वेदना को स्वर दे रहे हैं । हमारे दर्द की दरख़्वास्त स्वयं लिख रहे हैं । इससे पहले हमने पुलिस के अधिकारियों को माँ-बहन की गाली देते अधिक, गुलछर्रे उड़ाते अधिक और व्यवस्था के नाम पर चिंतित कम ही देखा है । और शायद यही कारण हो सकता है कि कार्यपालिका के पंगु, भ्रष्ट और कामचोर हो जाने के कारण ही हम आदिवासियों को शोषण और अपनी मूर्खता का शिकार होना पड़ा । ख़ैर... मेरा उद्देश्य यहाँ विश्वरंजन की भाटगिरी नही है पर मेरी नैतिकता की ओर से तकाज़ा था कि मै एक आदिवासी और पढ़ा लिखा आदिवासी होने के कारण जो महसूसता हूँ उसे ज़रूर लिखूँ । सो लिख रहा हूँ । मैं नहीं जानता कि कितने ऐसे लोग हैं जो मेरी अभिव्यक्ति को वास्तविक मानें । क्योंकि सारी दुनिया हमे अनपढ़, ज्ञानहीन, पिछड़ा, पंरपरावादी और जंगली घोषित करने पर तुला हुआ है । और इस समय भी जबकि हम इक्कीसवीं सदी मे पहुँच चुके हैं और उसकी तब्दीली की आँच को धीरे-धीरे महसूस रहे भी हैं ।
बहरहाल मुख्य विषय पर आता हूँ । दंतेवाड़ा सहित बस्तर और अबुझमाड के बहुत सारे एनजीओ के बारे में सामान्य जानकारी रखता हूँ । मेरे बचपन के मित्र भी वहाँ रहते हैं । मैं तो फिलहाल इन दिनों कवर्धा में रहता हूँ और मास्टरी करता हूँ । मेरा नाम गोवर्धन दिहारी है । मेरा जन्म भी दंतेवाड़ा में हुआ है और बचपन भी वहीं गुज़रा है । मैं पिछले कई वर्षों के समय को जानता हूँ कि कैसे सरकारी लोगों के साथ-साथ एनजीओ के फर्जी दुकानकारों ने अपने स्वार्थ के लिए हम आदिवासियों को लूटा और और वह संकट आज भी जारी है ।
पिछले दिनों मैं रायपुर होते हुए जगदपुर से कवर्धा लौट रहा था । रेल्वे स्टेशन पर बैठे-बैठे भूख लगी तो सोचा कुछ खा पीलूँ । एक छोटे से होटल मे मैने भजिया खरीदी । अचानक मुझे भजिया खरीदते समय एक पीले रंग के अखबार, (जो मुझे लपेट कर भजिया दिया गया था) मैं मेरे पड़ोसी जिले के किसी हिमांशु कुमार का नाम दिखा और मुख्य शीर्षक – वनवासी चेतना आश्रम का पत्र डीजीपी के नाम । (आप चाहें तो उसे पढ़ सकते हैं । मैंने उसे कवर्धा के एक कैफे वाले से स्कैनिंग करवा के यहाँ सबूत के लिए रखा है)
मैंने पहले डीजीपी का एकमात्र लेख पढ़ा था । मुझे तत्काल सदर्भ समझने में कोई दिक्कत नहीं हुई । सो मेरी जिज्ञासा एकाएक बढ़ गई । सोचा कुछ होगा । वह भी मेरे अपने क्षेत्र के बार में है तो क्यों न उसे सहेज के रख लिया जाय । मैं भजिया को खाते समय प्रयास करता रहा कि वह पेपर कहीं से भी अपठनीय न बन जाये । मैं उसे समेट के रख लिया ।
मैं तो पढ़ ही चुका हूँ । आप पढ़ चुके हों तो बतायें कि डीजीपी साहब के इस लेख मे कहाँ लिखा है कि हिमांशु कुमार ऐसा करते हैं, वैसा करते हैं । जब मेरी समझ में नही आयी तो मैं अपने हायर सेकेंडरी के प्रिंसिपल साहब से राय लेना उचित समझा जो हिंदी और राजनीति विज्ञान में अर्थात् दो-दो विषय में एमए हैं । कि सर इस दोनों लेखों को पढ़कर बताये कि कौन वास्तव में बुरा है ? कुछ और भी व्याख्याता भी जुड़ गये मेरी इस उलझन में ।
हम सब लोगों ने जो अंति राय बनायी । इसमे यदि मैं केवल अपनी व्यक्तिगत बात कहूँ तो भी ऐसे हिमांशु कुमार जैसे कथित गांधीवादियों ने ही बस्तर को बेचने और माओवादियों जिसे दुनिया नक्सली या नक्सलवादी कहती है के लिए पोस्टआफिस का काम किया है । ये लोग भी कम दुनियादार नही है जिनका केवल उद्देश्य दिखावा और भीतर से पैसा कमाना है ।
मैंने पत्र लिखकर दंतेवाड़ा के कई लोगों से पूछा कि क्या कोई हिमांशु कुमार नामक कोई व्यक्ति है जो गांधी का गुण गाता है ?
मैं अब इस संकट मैं तो खुद को नहीं फँसा सकता । इसलिए सभी मित्रों का नाम नहीं ले सकता । पर जो मुझे वहाँ से जानकारी मिली है उसे यहाँ रखने में कोई गड़बड़ी नहीं है । मुझे मिली जानकारी अनुसार-
“ हिमांशु नामक व्यक्ति के बारे मे सबकुछ हम नहीं जानते । उसका सब कुछ ऐसा नही है कि आर-पार देखा जा सके । गांधीवादी होता यदि वह, तो उसके बारे में सबकुछ हम जान सकते हैं । वह कब आया – हमे ठीक-ठीक तिथि नही पता । वह जब दंतेवाड़ा आया तो वैसा नहीं था, जैसा आज है । पहले वह कम दाम का कपड़ा पहनता था । उसके पास कोई साईकिल भी नहीं थी । पर अब वह सुनते हैं हवाई जहाज में देश विदेश बुलाया जाता है । उसके जूते भी अब महँगे हैं । एक सयाने पिता का यह भी कहना है कि पहले वह सिर्फ हिंदी जानता था अब कुछ स्थानीय बातों को भी जान चुका है । पहले वह एक घर के लिए कई लोगों के सामने गिड़गिड़ाता रहा। भोले आदिवासियों में से कई लोग उसे अपनी सुविधा अनुसार कुछ जगह देने के लिए तैयार हो गये थे । अब जो भी गैर भारतीय आते हैं उससे ही मिलते हैं । वही वहीं ले जाता है जहाँ हम भी जाने से डरते हैं । हमारे मन में यही प्रश्न उठता है कि यह क्या जादू जानता है, भगवान जाने । पर हमे इससे कोई दिक्कत नहीं । पर हम इसे व्यक्ति पर पूर्ण निर्भर नहीं है । हम इतना तो जानते हैं कि ऐसे लोंगों को सरकार भी पैसा देती है कि वे हमारे बीच रहें । ”
एक मित्र का पत्र में लिखा है कि – यह हिमांशु का एक बार एक व्यक्ति से झगड़ा भी हो चुका है । और कई आदिवासी लोग उसके बारे में बहुत अच्छा नही सोचते । वह जो करता है उससे हमे लाभ हो रहा है पर वह कई बार दादाओं (नक्सलियों का स्थानीय संबोधन) के एरिया में क्यों चला जाता है – खास कर तब जब दिल्ली, विदेश के लोग आते हैं तो – क्या वही उनसे मिलाने के लिए नियुक्त किया गया है ? हम उसका तो बिगाड़ नहीं सकते । न ही उसका बिगाड़ना हमारा उद्देश्य । पर उसके पत्नी और रिश्तेदारों के रहन सहन के बारे मे जो जानकारी मिली है उससे हम कह सकते हैं कि वह गांधी के नाम पर केवल संस्था चलाता है । गांधी जैसा है या नहीं ।
जो जानकारी मिली है उसके अनुसार किसकी हिमांशु कुमार नामक व्यक्ति ने किसी आदिवासी के नक्सलवादियों के हाथों मारे जाने या सताये जाने पर कभी भी पेपर में बयान नहीं दिया है न ही हम आदिवासियों की मीटिंग लिया है न ही हम लोगो को उनके विरूद्द लड़ने के लिए बात किया है । वैसे भी हम उनकी ताकत तो जानते हैं ही हैं । हम यहाँ ऐसा नही कहना चाहते हैं कि वह गांधी जैसा नहीं रहता पर वह जाने क्यों वह हम गरीब जैसा न रहता है न खाता पीता है । वह जो भी करता है देश और विदेश के पैसों सो करता है । हम कैसे उस पर विश्वास करें कि वह हमारे लिए ही आया है ।
जहाँ तक किसी हिमांशु के बारे में हम जितना जानते हैं वह कभी दिल्ली के किसी बड़े नेता का अपने को खास बताता है । गांधी राम या ईश्वर या कि आम आदमी के अलावा स्वय को खास नही बताते थे ।
गांधी उपवास करके लोगों को झुका देते थे । हमने कभी नहीं देखा और नहीं सुना वे दादाओं को समझाने के लिए उपवास रखे हैं । गांधी हिंसा का जवाब अहिंसा से देते हैं । यहाँ वाले हिमांशु जिसके बारे में हम जानते हैं वे हर दिक्कत पर हम आदिवासियों को कोर्ट कचहरी और कानून के लिए जाने की बात करते हैं । कभी नही कहते कि हम अपनी बात को अपनी गुड़ी में ही सुलझायें । गांधी पंचायती राज पर विश्वास करते थे ।
राजनेताओं से कैसे संबंध हैं उनके के जवाब में मेरे परिचितों का कहना है कि राजनेताओं के बारे में हम कम जानते हैं । तो उनके बारे में कैसे जाने कि वे किधर के हैं ?
क्या उस पर विश्वास किया जा सकता है ? के जवाब में कहा गया है कि जो हमारे जैसा नहीं रह सकता । जो हमारे जैसे नहीं सोच सकता । जो हमारे जैसे कपड़े नहीं पहन सकता । जो हमारे कुल गोत्र का न हो । जो हमारे कुल देवता की पूजा नही करता । जो जंगल झाड़ी को अपना आवास नहीं समझता वह कैसे हमारा हो सकता है । और कैसे उस पर पूरा विश्वास करें हम । यदि वह सचमुच गांधी जैसा काम करता तो सभी नक्सवादी नही तो कम से कम दो चार नक्सवादी उससे प्रभावित होकर आत्मसमर्पण कर चुके होते । हमारे कुछ पढ़े लिखे मित्र कहते है कि इनकी संस्था के कर्ता धर्ता स्वयं ये और उनकी पत्नी ही हैं । और कोई लोग या आदिवासी भले ही उनकी संस्था में काम करते हैं वह वे कार्यकारिणी या कोषाध्यक्ष या सचिव के रूप मे हैं ही नहीं । इनके सारे बैंक खातों संचालन वे स्वयं करते हैं । गांधी कम से कम ऐसा नहीं करते थे । वे ट्रस्टीशिप के हिमायत थे ।
हाँ उसकी प्रशंसा करनी होगी कि वह दिल्ली का होकर भी यहाँ रहता है । वास्तव में किन अर्थों में रहता है हमने जानने की पूरी कोशिश नही की है । न ऐसा सोचा है ।
यह सब बात जानने के बाद मैं यही कहना चाहता हूँ कि यह कैसा गांधीवादी है जो कहीं भी लड़ने झगड़ने के लिए तैयार बैठा है । मैं नहीं जानता कि विश्वरंजन कितने आदिवासी प्रिय हैं या यह गांधीवादी । पर दोनों लेखों को पढ़ने के बाद मैं कह सकता हूँ कि विश्वरंजन गांधीवाद के नाम पर शोषण करने वालों के खिलाफ हैं । जबकि हिमांशु कुमार स्वयं को गांधीवाद मानकर विश्वरंजन को चिढ़ाना चाहते हैं – यह कह कर कि यदि गांधी होते तो आदिवासियों की तरफ से लड़ रहे होते और आपकी (विश्वरंजन की हिरासत में होते) और आप यानी विश्वरंजन के रूप में ड़ीजीपी उन्हें माओवादी का खिताब दे चुके होते ।
यहाँ यह साफ समझ में आता है कि पुलिस या राज्य को माओवादी से आपत्ति है और यह भी समझ आता है कि माओवाद से हिमांशु को कोई आपत्ति नहीं है । यह कैसे विश्वास किया जा सकता है कि गांधी माओवाद को पंसद करते । यदि आज वह होते । हिमांशु की बात यानी पत्र से साफ यह भी कहा जा सकता कि वे अपने को गांधी का औलाद कहकर एक और गांधीवाद के नाम बस्तर में अपनी निरंतर उपस्थिति की गांरटी भी चाहते हैं और दूसरी और माओवाद के पक्ष में भी वातावरण बनाना चाहते हैं । यह राजनीति हैं । गांधी होते तो सीधे सीधी अहिंसा की बात करते । पर ऐसा करते वक्त वह हिंसक और आंतकवादियों (नक्सलियों की) के आत्म सुधार के लिए प्रार्थना, उपवास करते । हिमांशु यह कब करते हैं हमे नहीं पता ।
हिमांशु के जबरदस्ती लेख से यह भी मुझे लगता है कि माओवाद को सिर्फ पुलिस का दुश्मन समझते हैं - जब वे कहते हैं कि –
1. सलवा जुडूम के कहने से बच्चों के मुंह से कौर छीन लिया है । और बीमार आदिवासियों की दवा बंद कर दी है ।
2. पुलिस आज भी कानून पर ड़ट जाये ... तो माओवादियों को छोड़ जनता आपके पीछे हो लेगी ।
3. गांट घर बैठे ही आयी है ।
यहाँ मेरा कुछ प्रश्न है कथित हिमांशु जी से, जिसे मैं कभी भी नहीं मिला ।
1. सलवा जुड़ूम नहीं था तो बच्चों के मुंह से कौन नहीं छीनता था । और बीमार आदिवासियों की दवा भी बंद नहीं होती थी । इसका मतलब तो यही हुआ कि बस्तर में सब खुशहाल थे और अस्पताल भी काम करते थे । तब कैसे माओवादी वहां आ धमके । कैसे आपने वहाँ पाँव जमाने का विरोध नहीं किया ? आप तो माओवादी यानी हिंसा के विरोधी थे । गांधीवादी थे । यानी अहिंसक भी । आप यह बतायें यह अस्पताल कौन बर्बाद कर रहा है अब । पुलिस या सरकार या नेता या माओवादी ? क्योंकि आप भी तो वहाँ कई साल से वहाँ रह रहे हैं । क्या पुलिस के आने मात्र से ही बस्तर में सब कुछ बिगड़ गया । और माओवादियों के रहने से सब कुछ ठीक ही चल रहा था । यदि ठीक नहीं चल रहा था तो एक गांधीवादी के रूप मे आपने क्या क्या और कब कब ठीक किया । आपने अपने घर से कितना पैसा लगाया । कितना पैसा रूपया लगाया भारत सरकार का या किसी अन्य देश का । आपने क्या कभी माओवादियों की हिंसा का शांतिपूर्ण विरोध किया ? यदि नहीं किया तो आप कैसे प्रजातंत्र के हिमायती है ? यदि नही हैं तो फिर कैसे गांधी का नाम मिट्टी में मिला रहे हैं ? आप यह बताये कि जब आज आदिवासियों के हर सरंक्षकों को एक एक कर और चुन चुनकर माओवादी मौत के घाट उतार रहे हैं तो आपको कैसे वे छोड रहे हैं जबकि आप तो आदिवासी चेतना के लिए पैसा लेकर काम कर रहे हैं । यह कौन सा गांधीवादी रहस्य है ?
2. आपका मतलब यही है कि पुलिस कानून पर नही डटी है ? या नहीं ड़टी थी । तब क्या आप स्वयं चाहते हैं कि बस्तर पुलिस का अड़्ड़ा बन जाये ? आपके कहने का एक मतलब क्या यही तो नही कि जो भी बस्तर की समस्या है उसके पीछे सिर्फ पुलिस की नाकामी नहीं है । यदि ऐसा है तो वही तो पुलिस राज्य के आदेश पर कर रही है । और राज्य ही क्यों आपके केंद्र का भी तो यही इशारा है । आप जब यह कहते हैं कि माओवादी को छोड़कर जनता पुलिस के पीछे ही हो लेगी – तो क्या इसका मतलब यह नहीं है कि आप माओवादियों की उपस्थिति से पूरी तरफ वाकिफ़ है । इसका यह भी मतलब है कि आप माओवाद की उपस्थिति को पुलिस की अनुपस्थिति में वांछित समझते हैं । या विकल्प समझते हैं । यदि ऐसा नही होता तो आपके लेख में माओवादियों के बारे में भी पोल खोला जाता । गांधीवाद के नाम पर उनकी भर्त्सना की जाती जिसे आपने कभी नहीं किया । मैंने बार-बार आपके नाम को इंटरनेट पर सर्च किया तो मुझे यही मिला कि आप सदैव व्यवस्था के विरोध में बोलने के आदि हैं । और ऐसा मैं बीबीसी हिंदी मे प्रसारित समाचारों के प्रमाण पर कह पा रहा हूँ । वहाँ पिछले वर्षों में जो कुछ भी लंदन बीबीसी से बस्तर के बारे में प्रसारित हुआ है उसमें आपका संदर्भ अधिक है जैसे आपके अलावा दंतेवाड़ा का कोई भी अन्य हितचिंतक था ही नहीं या है ही नहीं । और हितचिंतक ही क्यों मीडिया कर्मी या समाजसेवी भी । बाकी कलेक्टर, बीड़ीओ, आदिवासी नेता, समाजसेवी जायें भाड़ में । क्या आप बताना चाहेंगे कि यह कैसे संभव होता है कि बीबीसी जैसी संस्था केवल आपको ही कोट करती है ? और आप हर बार बस्तर में व्यवस्था का विरोध करते हैं । हाँ आप कभी भी खुलकर हिंसावादियों, नक्सवादियों और माओवादियों के बारे नहीं बोलते । जो भी बोलते हैं उसका मतलब इतना गैर गंभीर होता जिससे किसी भी नक्सलियों की मान हानि नहीं होती ।
3. आपको ग्रांट घर बैठे कैसे मिलती है ? यह हमें सिखने या जानने की नई बात है । या तो आप बड़े तोप से जुड़े हैं या फिर आप इतना तो रिश्वत तो देते हैं - संबंधित ग्रांट वालों को कि वे फट से राशि घर पहुँचा देते हैं । वह भी ऐसे बस्तर में जहाँ कोई फंड आज तक समय से नहीं पहुँचता और वह भी बिना रिश्ववत के । क्या आपको फंड़ देने वाले इतने कारगर व्यवस्था वाले हैं । यदि आपको विदेशी फंड़ मिलता है तो हमें यह भी पता है कि वह किन किन उद्श्यों के लिए और किन किन हांथों से होकर मिलती है ? कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं ? यदि ऐसा है तो आपने अब तक बस्तर या दंतेवाड़ा के विकास के लिए कितनो युवाओं की संस्थाओं का निर्माण किया है ? कितनो को उनके द्वारा स्वयं प्रोजेक्ट उनके ही इलाके में चलाने की पहल की है ? नहीं ना । ठीक भी है । कोई भी दुकानदार ऐसा नहीं करता । किसी और को .... दू बनाना भाई जी ।
हम आदिवासी हैं । आप हमारे नाम पर ज्यादा राजनीति ना करें । प्रचार का भूखा गांधी जी भी नहीं थे । वे केवल काम पर विश्वास करते थे । यदि आपको चेतना ही फैलानी है तो बिलावजह राजधानी की ओर न लपकें । आपका कर्मक्षेत्र पेपरबाजी नहीं । आप चेतना के ज्ञाता है । दंतेवाड़ा में चेतना फैलायें । पेपर में लिखकर असत्य के लिए समय न गवांये । क्योंकि आप तो गांधी के अनुयायी है । सच के अनुयायी हैं । हाँ इसमें यदि आपकी राजनीति हो तो मुझे कुछ भी नहीं कहना । प्रजातंत्र है । कोई भी कुछ कह सकता है । पर सच्चे गांधीवाद है तो अपनी अहिंसा से दंतेवाड़ा की हिंसा को रोकने का कोई करतब दिखाइये आखिर आपके पास भी तो किसी ना किसी रूप में देश विदेश से दंतेवाड़ा के हम परिवारों के लिए एक बड़ा राशि बार बार हर साल मिलती ही जा रही है ।
लेबल:
नक्सलवाद,
राजनीति,
विकास,
सलवा जुडूम
7/04/2008
दिल्लीवाले भी सच देखना-बोलना सीख रहे हैं..
दिल्ली की पत्रकारिता ने उस मिथक को त्यागना शुरु कर दिया है जिसके लिए उसे अंधा, गूँगा, बहरा और लूला भी कहा जाता था । प्रकारांतर से उसे हितनिष्ठ और स्वार्थी कहा जाता रहा है । दिल्ली, जिसे अल्प पहचानवालों की भाग्यरेखा तय करने का इगो था, लगता है वे अब सच कहने लगे हैं, अपने अंहकार को त्यागकर ।
हो सकता है इसे आप दिल्ली के अपवाद के रूप में भी मानें । पर वास्तविकता यही है कि दिल्ली अब तक छत्तीसगढ़ की माँ-बहन एक करने पर तुला हुआ था । वह कही गयी या पढ़ायी गई बात ही दुनिया को बताती रही । अब इससे कहीं आगे निकलने और दुध का दुध करने के लिए नयी पीढ़ी तैयार दिखती है । जी हाँ, इसकी पहल होती है उमाशंकर जैसे खोजी पत्रकारिता और तटस्थ दृष्टि के मालिक युवा पत्रकार ने, जिसे उसके चाहनेवालों ने बस्तर जाने से रोका भी था । और न जाने क्या-क्या हिदायत दी थी ।
उन्होंने पत्रकारिता की नाक रख ली है । उन्होंने मानवाधिकार के लम्बरदार गौंटिया (जमींदारों के पिठलग्गूओं) के लिए एक नया सबक दिया है कि वे ही सही नहीं है । उनकी आँखों पर अब दुनिया विश्वास नही करने वाली । कहिए कैसे ? तो वह ऐसे कि जिसे परखने के लिए आपको उनकी यह बात पढ़नी होगी । धैर्य के साथ । कुंठा को खूँटी पर टाँग कर । अपने पूर्वाग्रहों को तिलांजलि देकर । यदि आप तैयार हैं तो पढ़िये उनकी सत्यनिष्ठ और संपूर्ण तटस्थ पत्रकारिता की रिपोर्ट जो यहाँ संदर्भित है -
दंतेवाडा़ के सलवा जुडूम कैंप को देखने के बाद मैंने रायपुर की ओर कूच कर दिया। मैं जानना चाहता था कि भारी-भरकम बजट और विदेशी सहयोगियों के सहारे चलनेवाले मानवाधिकार आंदोलनों का जमीनी जुड़ाव क्या है और ऐसा करने के पीछे उनके अपने तर्क क्या हैं? मन में यह सवाल था कि सुरक्षाकर्मी यदि लोगों के मानवाधिकार का हनन कर रहे हैं तो नक्सली क्या कर रहे हैं?
रायपुर में रहकर कई तरह की बातें मानवाधिकारवादियों के बारे में सुनने को मिल रही थी। जिनमें से एक था कि मानवाधिकारवादी सलवा जुडूम का विरोध करके नक्सलवाद को जस्टीफाई कर रहे हैं। दूसरी ओर महेंद्र कर्मा तथा डीजीपी विश्वरंजन से जब मुलाकात हुई तो उन्होंने इस तरह की कवायदों को सलवा जुडूम के खिलाफ एक दुष्प्रचार करार दिया। डीजीपी ने तो यहां तक कहा कि दुष्प्रचार करने वालों को यह तय करना होगा कि आप किसके साथ हैं, प्रजातांत्रिक व्यवस्था के साथ या फिर नक्सलवाद के साथ, यदि आप नक्सलवाद के साथ हैं तो आपको इस देश के संविधान के मुताबिक यहां की सुरक्षा एजेंसियों से कोई नहीं बचा पाएगा। इस तरह उहापोह को लेकर मैंने किसी मानवाधिकार कार्यकर्ता से मिलकर जिज्ञासा शांत करने का निर्णय लिया। रायपुर पहुंचकर मैंने मानवाधिकार कार्यकर्ता सुभाष महापात्र को फोन लगाया तो किसी महिला ने फोन उठाया और कहा कि आप आ जाइये, सुभाष जी अभी घर पर ही मिलेंगे। सवेरे ही मैं ऑटो पकड़ कर सुभाष महापात्र के महावीर नगर स्थित घर की तरफ निकल पड़ा। रास्ते में मैं डीजीपी विश्वरंजन की वह बात बार बार मस्तिष्क में झंझावात उत्पन्न कर रही थी, जिसमें उन्होंने कहा था कि `नक्सली इस देश का संविधान ही नहीं चाहते हैं।´ फिर नक्सलवादियों के आदर्श माने जाने वाले `माओ´ की बात भी याद आती है कि `सत्ता बंदूक की गोली से निकलती है।´ मन में सवाल उठ रहा था कि क्या नक्सलवाद वास्तव में इस देश के संविधान, प्रजातंत्र के लिए ख़तरा है?
यही सब सोचते सोचते मैं महावीर नगर के नाके पर पहुंच गया, मुझे वहां से एमआईजी-22 सहयोग अपार्टमेंट जाना था। पूछने पर पता चला कि सहयोग अपार्टमेंट अभी करीब डेढ़ दो किलोमीटर की दूरी पर है। रिक्शे में बैठकर मैं सहयोग अपार्टमेंट की तरफ चल पड़ा। सहयोग अपार्टमेंट पहुंचकर रिक्शा छोड़कर पैदल ही एमआईजी-22 को खोजना शुरु कर दिया। कई गलियों में ढूंढा, लेकिन जब नहीं मिला तो मैने एक लड़के से पूछा। उस लड़के ने कहा कि `भाई साहब यहां कई लोग आते हैं जो एमआईजी-22 के बारे में पूछते हैं, लेकिन मुझे लगता है कि यह पता ही गलत है।´ उसकी बात सुनकर एक बार तो मैं चकरा गया और संदिग्धता तनिक और बढ़ गई। लेकिन मैं उस गली से बाहर निकल कर आया और नुक्कड़ के एक जनरल स्टोर के मालिक से पता पूछा तो उसने इशारा करते हुए बताया कि उस गली के कोने पर एमआईजी-21 है और एमआईजी-22 भी वहीं होना चाहिए। इतना बताकर उस व्यक्ति के मुंह से सहज ही निकल पड़ा कि वहां तो विदेशी (अंग्रेज) रहते हैं। उसकी बात सुनकर मुझे विश्वास सा हो गया कि हो न हो, वही मेरा गंतव्य स्थान है, क्योंकि अपने देशवासियों के मानवाधिकार की वकालत हम खुद तो कर ही नहीं सकते न, इसके लिए हमें विदेशियों की शरण में जाना ही पड़ता है। वहां जाकर देखा तो एक बड़े से मकान के बाहर बड़ा सा लोहे का गेट लगा हुआ था। गेट पर एक आदिवासी पुरुष लुंगी लपेटे खड़ा था और लुंगी के दूसरे सिरे को घुमाकर उसने कंधे पर रखकर अपने एक हाथ को ढका हुआ था। ध्यान से देखने पर पता चला कि उसका वह हाथ जिसको ढका गया था, इंजर्ड होने के कारण सूजा हुआ था। उस घायल आदिवासी को देखकर यह तो निश्चित हो गया था कि यही मानवाधिकार कार्यकर्ता का घर होना चाहिए।
मैंने उस आदमी को बुलाकर दरवाजा खोलने के लिए इशारा किया। पहले तो आदिवासियों की सहज प्रवृत्तिवश वह सकुचाता हुआ सिर झुकाकर दूसरी तरफ चला गया, लेकिन मैंने जब दुबारा बुलाया तो उसने आकर दरवाजा खोल दिया। अंदर घुसते ही दाहिने हाथ पर दरवाजे के बाहर छोटी सी तख्ती लगी हुई थी, जिस पर लिखा था `एफएफएफडीए´ (फोरम फॉर फैक्ट फाइंडिंग डाक्युमेंटेशन एण्ड एडवोकेसी)। यह सुभाष महापात्र द्वारा चलाए जा रहे मानवाधिकार संगठन का नाम है। दरवाजा खोलते ही सामने एक रॉकस्टार की तरह बाल बढ़ाए हुए गोरा विदेशी कम्प्यूटर स्क्रीन पर नजर गड़ाए हुए बैठा हुआ था। मैने उससे सुभाष महापात्र के बारे में पूछा तो इशारा करते हुए उसने अंदर जाने को कहा। उसके भावविहीन चेहरे को देखकर लग रहा था मानो वह भारत में हो रहे इस तथाकथित मानवाधिकार को लेकर बेहद चिंतित हो। अंदर जाने के लिए जैसे ही मैं बढ़ा तो वहीं पर संभवत: दो अन्य विदेशी मानवाधिकारवादी कम्पयूटर पर नजरे गड़ाए ऐसे तल्लीन बैठे थे, मानो वे निरंतर कुछ ट्रैक करने में जुटे हुए थे। उनमें एक महिला थी, जिसने कानों में हैडफोन भी लगाया था। थोड़ा और आगे बढ़ने पर सामने ही कुछ और लोग खड़े दिखाई दिये, जिनमें कई लोग विशुद्ध जनजातीय वेशभूषा में थे, जिन्हें देखकर सहज ही अनुमान लगाया जा सकता था कि वे आदिवासी हैं।
अंदाजा लगाया जा सकता है कि जब तक आप किसी चीज से अनभिज्ञ हैं तब तक आप समान्य व्यक्ति की तरह बेपरवाह होकर जीवन जी रहे होते हैं, लेकिन जब आप चीजों को समझने लगते हैं तो आप संतोष का अनुभव होता है अथवा निराशा में डूब कर व्यक्ति मानसिक तौर पर अशांत होने लगता है। कुछ ऐसा ही मुझे उन देशी विदेशी मानवाधिकारवादियों और उनके बीच मुंह लटकाये खड़े करीब दर्जन भर आदिवासियों को देखकर महसूस हो रहा था। लेकिन मैंने सहज होने की कोशिश करते हुए पूछा, क्या बात है? सुभाष जी, आप काफी टेन्श दिखाई पड़ रहे हैं। वे बोले हां, अब देखिये न इन लोगों को कोई रात को तीन बजे यहां छोड़कर चला गया और बताया भी नहीं कि ये लोग कौन हैं। सुभाष ने बताया कि उन आदिवासियों में से दो को पुलिस की गोली भी लगी है। यह सुनते ही मेरे मन में सवाल उठा कि क्या ये आम आदिवासी ही हैं, जिन्हें गोली लगी है? संभवत: नक्सली भी हो सकते हैं, क्योंकि दंतेवाड़ा में जिन सुरक्षा बलों पर बाजार में नक्सलियों ने हमला किया था, वे भी तो आम आदिवासियों की ही वेशभूषा में थे. हालांकि यह मेरी तत्कालीन मन:स्थिति की उपज हो सकती है, इसे निर्णायक नहीं माना जाना चाहिए।
उनके पूछने पर मैने बताया कि सलवा जुडूम को लेकर मुझे बात करनी है। इतना सुनकर सुभाष महापात्र थोड़ा अचकचाए फिर उन्होंने कहा कि `सलवा जुडूम तो 2005 से पहले ही शुरु हो गया था। पुलिस इसके लिए काफी पहले से ही रिहर्सल कर रही थी और 2003 में बीजेपी सरकार के आने पर ही इसकी शुरुआत हो गई थी। बकौल सुभाष सलवा जुडूम को नेता लोग चला रहे हैं। मैंने पूछा कि आखिर नेता इस आंदोलन को क्यों चला रहे है? जबकि सरकार और यहां तक कि विपक्ष के नेता महेन्द्र कर्मा भी यह कहते हैं कि यह लोगों का स्व-स्फूर्त आंदोलन है। जवाब में वे कहते हैं कि ऐसा सरकार जंगल में कंपनियों के सम्राज्य को खड़ा करने के लिए कर रही है। लोगों को गांवों से निकालकर लाया जा रहा है, जिससे कंपनियों का रास्ता साफ हो सके। लेकिन साथ ही इस ओर भी ध्यान देना होगा कि आदिवासियों के वनक्षेत्र में बसे गांव छोड़ देने से नक्सलियों की ढाल खत्म हो जाएगी। यह भी नक्सलियों के लिए चिंता का एक विषय है। मैनें अगला सवाल पूछते हुए कहा कि महेन्द्र कर्मा, जो इस आंदोलन के नेता है वे तो बाद में इस अभियान से जुड़े थे, जबकि आप कह रहे हैं कि यह नेताओं द्वारा शुरु किया गया है? इस पर वे कहते हैं कि अगर कर्मा बाद में सलवा जुडूम से जुड़े थे तो वे नेता कैसे बन गए। मैनें पूछ लिया कि नक्सलियों का संघर्ष किससे है और किस वर्ग के हित की लड़ाई वे लड़ रहे हैं? सुभाष थोड़ा तिलमिला जाते हैं और कहते हैं कि इसका जवाब देना मेरा काम नहीं है, मैं एक सामाजिक कार्यकर्ता हूं, यह सवाल आप नक्सलियों से जाकर पूछिये।
सुभाष कहते हैं कि जनता ने वोट के रूप में अपनी शक्तियां सरकार को दे दी हैं और सरकार की जिम्मेदारी बनती है कि वह जनता की रक्षा करे। मैनें कहा कि सरकार ने सुरक्षा के लिए ही तो सलवा जुडूम कैंपों में सुरक्षा बल तैनात किये हैं। जवाब में वे कहते हैं कि आखिर कैम्प में क्यों आदिवासियों को रखा जा रहा है? क्यों नहीं उन्हें उनके गांव में रहने दिया जाता? मैंने कहा कि यदि सलवा जुडूम शिविरों से सुरक्षा हटा ली जाए तो क्या नक्सली गांव वापस जाने पर उन आदिवासियों को जिन्दा छोड़ेंगे? तब क्या आदिवासियों का मानवाधिकार हनन नहीं होगा? वे कहते हैं कि इस बात की क्या गारंटी है कि शिविरों में रहने पर पुलिसवाले इन लोगों को नहीं मारेंगे, उनका मानवाधिकार हनन नहीं करेंगे? वे कहते हैं कि सरकार और प्रशासन ने इस तरह की परिस्थितियों को पैदा किया हैं। आप आदिवासियों को सुरक्षा नहीं दे पाए, विकास नहीं किया जिसका आक्रोश नक्सलवाद के रूप में उभर कर आता है। वे कहते हैं कि व्यवस्था में भ्रष्टाचार है, इसलिए नक्सली टावर गिरा देते हैं। आप इसकी भी सुरक्षा नहीं कर पाते हैं। जब उनसे पूछा गया कि क्या बिजली का टावर गिराने से बस्तर के करीब 20 लाख लोगों का मानवाधिकार हनन नहीं हुआ? इसका जवाब वे गोलमोल कर जाते हैं और कहते हैं कि इसकी परिस्थितियां सरकार ने ही पैदा की हैं।
जब उनसे सवाल किया कि सर्वहारा की वकालत करने वाले नक्सली आखिर उनकी आजीविका के एकमात्र साधन हाट बाजार को क्यों जला देते हैं, उनके गांवों को क्यों जला देते हैं, आंगनबाड़ियों और बाल आश्रमों को क्यों धवस्त कर देते हैं, क्या यह मानवाधिकार हनन नहीं है? सुभाष सीधे तौर पर इसके लिए सलवा जुडूम के नेता महेन्द्र कर्मा पर निशाना साधते हुए कहते हैं कि `गांवों को तो ये नेता लोग जलवा रहे हैं, जिससे आदिवासियों को वहां से बाहर लाया जा सके।´ मैंने पूछा कि दूर दराज के गांवों में बसे करीब 60 हजार आदिवासी किसी नेता के कहने पर क्या इकट्ठा किये जा सकते हैं, जबकि उन्हें यह मालूम हो कि ऐसा करने पर वे नक्सलियों की बंदूक के निशाने पर आ जाएंगे? इस प्रश्न का वे संतोषजनक उत्तर नहीं दे पाते हैं और कहते हैं कि लोगों को जर्बदस्ती कैंपों में लाया जा रहा है। लेकिन जब यह पूछा जाता है कि पुलिसकर्मी भी तो इस लड़ाई में मर रहा है, क्या उसका और उसके परिवार का कोई मानवाधिकार नहीं है? जवाब मिलता है `नहीं, पुलिस का कोई मानवाधिकार नहीं होता, वह तो ड्यूटी पर होता है, मानवाधिकार तो आम नागरिकों का होता है।" क्या हमें सुभाष महापात्र की बात मान लेनी चाहिए?
सुभाष सवाल उठाते हैं कि आपने सलवा जुडूम क्यों शुरु किया? कंधार का उदाहरण देते हुए वे "सेफ पैसेज" की भी बात करते हैं। पुलिस व्यवस्था पर आरोप लगाते हुए वे कहते हैं कि पुलिस भ्रष्ट है, यही कारण था कि नक्सलियों से लड़ने के लिए आए केपीएस गिल भी वापस लौट गए? लेकिन जब उनसे पूछा गया कि केपीएस गिल ने जिस तरह की कार्यवाही पंजाब में की थी, क्या वैसा ही बस्तर में भी हो सकता है? जवाब में सुभाष कहते हैं कि पुलिस को चाहिए की नक्सलियों को गिरफतार करे और कोर्ट में ट्रायल करवाए। अंत में सुभाष कहते हैं कि हो सकता है आप मेरी बातों का संदर्भ बदलकर प्रस्तुत कर दें, क्योंकि अक्सर ऐसा किया जाता है और हम भी ऐसा ही करते हैं। वे कहते हैं कि अगर आप ऐसा करते हैं तो मुझे खण्डन करना पड़ेगा। उस पल मुझे अपने पास टेपरिकार्डर न होने की कमी बेहद खली थी, क्योंकि उनकी इस बात से ऐसा लगा कि संभवत: वे मेरे लिखे को भी गलत ठहरा दें। ख़ैर जो भी हो, इस उठापटक का दुष्परिणाम आखिरकार आम आदिवासियों को ही भुगतना पड़ रहा है।
सच है ना !
अब सचमुच दिल्ली सच कहना सीख रही है । विस्फोट के प्रति आभार । आभार उमाशंकर मिश्र के प्रति भी
हो सकता है इसे आप दिल्ली के अपवाद के रूप में भी मानें । पर वास्तविकता यही है कि दिल्ली अब तक छत्तीसगढ़ की माँ-बहन एक करने पर तुला हुआ था । वह कही गयी या पढ़ायी गई बात ही दुनिया को बताती रही । अब इससे कहीं आगे निकलने और दुध का दुध करने के लिए नयी पीढ़ी तैयार दिखती है । जी हाँ, इसकी पहल होती है उमाशंकर जैसे खोजी पत्रकारिता और तटस्थ दृष्टि के मालिक युवा पत्रकार ने, जिसे उसके चाहनेवालों ने बस्तर जाने से रोका भी था । और न जाने क्या-क्या हिदायत दी थी ।
उन्होंने पत्रकारिता की नाक रख ली है । उन्होंने मानवाधिकार के लम्बरदार गौंटिया (जमींदारों के पिठलग्गूओं) के लिए एक नया सबक दिया है कि वे ही सही नहीं है । उनकी आँखों पर अब दुनिया विश्वास नही करने वाली । कहिए कैसे ? तो वह ऐसे कि जिसे परखने के लिए आपको उनकी यह बात पढ़नी होगी । धैर्य के साथ । कुंठा को खूँटी पर टाँग कर । अपने पूर्वाग्रहों को तिलांजलि देकर । यदि आप तैयार हैं तो पढ़िये उनकी सत्यनिष्ठ और संपूर्ण तटस्थ पत्रकारिता की रिपोर्ट जो यहाँ संदर्भित है -
दंतेवाडा़ के सलवा जुडूम कैंप को देखने के बाद मैंने रायपुर की ओर कूच कर दिया। मैं जानना चाहता था कि भारी-भरकम बजट और विदेशी सहयोगियों के सहारे चलनेवाले मानवाधिकार आंदोलनों का जमीनी जुड़ाव क्या है और ऐसा करने के पीछे उनके अपने तर्क क्या हैं? मन में यह सवाल था कि सुरक्षाकर्मी यदि लोगों के मानवाधिकार का हनन कर रहे हैं तो नक्सली क्या कर रहे हैं?
रायपुर में रहकर कई तरह की बातें मानवाधिकारवादियों के बारे में सुनने को मिल रही थी। जिनमें से एक था कि मानवाधिकारवादी सलवा जुडूम का विरोध करके नक्सलवाद को जस्टीफाई कर रहे हैं। दूसरी ओर महेंद्र कर्मा तथा डीजीपी विश्वरंजन से जब मुलाकात हुई तो उन्होंने इस तरह की कवायदों को सलवा जुडूम के खिलाफ एक दुष्प्रचार करार दिया। डीजीपी ने तो यहां तक कहा कि दुष्प्रचार करने वालों को यह तय करना होगा कि आप किसके साथ हैं, प्रजातांत्रिक व्यवस्था के साथ या फिर नक्सलवाद के साथ, यदि आप नक्सलवाद के साथ हैं तो आपको इस देश के संविधान के मुताबिक यहां की सुरक्षा एजेंसियों से कोई नहीं बचा पाएगा। इस तरह उहापोह को लेकर मैंने किसी मानवाधिकार कार्यकर्ता से मिलकर जिज्ञासा शांत करने का निर्णय लिया। रायपुर पहुंचकर मैंने मानवाधिकार कार्यकर्ता सुभाष महापात्र को फोन लगाया तो किसी महिला ने फोन उठाया और कहा कि आप आ जाइये, सुभाष जी अभी घर पर ही मिलेंगे। सवेरे ही मैं ऑटो पकड़ कर सुभाष महापात्र के महावीर नगर स्थित घर की तरफ निकल पड़ा। रास्ते में मैं डीजीपी विश्वरंजन की वह बात बार बार मस्तिष्क में झंझावात उत्पन्न कर रही थी, जिसमें उन्होंने कहा था कि `नक्सली इस देश का संविधान ही नहीं चाहते हैं।´ फिर नक्सलवादियों के आदर्श माने जाने वाले `माओ´ की बात भी याद आती है कि `सत्ता बंदूक की गोली से निकलती है।´ मन में सवाल उठ रहा था कि क्या नक्सलवाद वास्तव में इस देश के संविधान, प्रजातंत्र के लिए ख़तरा है?
यही सब सोचते सोचते मैं महावीर नगर के नाके पर पहुंच गया, मुझे वहां से एमआईजी-22 सहयोग अपार्टमेंट जाना था। पूछने पर पता चला कि सहयोग अपार्टमेंट अभी करीब डेढ़ दो किलोमीटर की दूरी पर है। रिक्शे में बैठकर मैं सहयोग अपार्टमेंट की तरफ चल पड़ा। सहयोग अपार्टमेंट पहुंचकर रिक्शा छोड़कर पैदल ही एमआईजी-22 को खोजना शुरु कर दिया। कई गलियों में ढूंढा, लेकिन जब नहीं मिला तो मैने एक लड़के से पूछा। उस लड़के ने कहा कि `भाई साहब यहां कई लोग आते हैं जो एमआईजी-22 के बारे में पूछते हैं, लेकिन मुझे लगता है कि यह पता ही गलत है।´ उसकी बात सुनकर एक बार तो मैं चकरा गया और संदिग्धता तनिक और बढ़ गई। लेकिन मैं उस गली से बाहर निकल कर आया और नुक्कड़ के एक जनरल स्टोर के मालिक से पता पूछा तो उसने इशारा करते हुए बताया कि उस गली के कोने पर एमआईजी-21 है और एमआईजी-22 भी वहीं होना चाहिए। इतना बताकर उस व्यक्ति के मुंह से सहज ही निकल पड़ा कि वहां तो विदेशी (अंग्रेज) रहते हैं। उसकी बात सुनकर मुझे विश्वास सा हो गया कि हो न हो, वही मेरा गंतव्य स्थान है, क्योंकि अपने देशवासियों के मानवाधिकार की वकालत हम खुद तो कर ही नहीं सकते न, इसके लिए हमें विदेशियों की शरण में जाना ही पड़ता है। वहां जाकर देखा तो एक बड़े से मकान के बाहर बड़ा सा लोहे का गेट लगा हुआ था। गेट पर एक आदिवासी पुरुष लुंगी लपेटे खड़ा था और लुंगी के दूसरे सिरे को घुमाकर उसने कंधे पर रखकर अपने एक हाथ को ढका हुआ था। ध्यान से देखने पर पता चला कि उसका वह हाथ जिसको ढका गया था, इंजर्ड होने के कारण सूजा हुआ था। उस घायल आदिवासी को देखकर यह तो निश्चित हो गया था कि यही मानवाधिकार कार्यकर्ता का घर होना चाहिए।
मैंने उस आदमी को बुलाकर दरवाजा खोलने के लिए इशारा किया। पहले तो आदिवासियों की सहज प्रवृत्तिवश वह सकुचाता हुआ सिर झुकाकर दूसरी तरफ चला गया, लेकिन मैंने जब दुबारा बुलाया तो उसने आकर दरवाजा खोल दिया। अंदर घुसते ही दाहिने हाथ पर दरवाजे के बाहर छोटी सी तख्ती लगी हुई थी, जिस पर लिखा था `एफएफएफडीए´ (फोरम फॉर फैक्ट फाइंडिंग डाक्युमेंटेशन एण्ड एडवोकेसी)। यह सुभाष महापात्र द्वारा चलाए जा रहे मानवाधिकार संगठन का नाम है। दरवाजा खोलते ही सामने एक रॉकस्टार की तरह बाल बढ़ाए हुए गोरा विदेशी कम्प्यूटर स्क्रीन पर नजर गड़ाए हुए बैठा हुआ था। मैने उससे सुभाष महापात्र के बारे में पूछा तो इशारा करते हुए उसने अंदर जाने को कहा। उसके भावविहीन चेहरे को देखकर लग रहा था मानो वह भारत में हो रहे इस तथाकथित मानवाधिकार को लेकर बेहद चिंतित हो। अंदर जाने के लिए जैसे ही मैं बढ़ा तो वहीं पर संभवत: दो अन्य विदेशी मानवाधिकारवादी कम्पयूटर पर नजरे गड़ाए ऐसे तल्लीन बैठे थे, मानो वे निरंतर कुछ ट्रैक करने में जुटे हुए थे। उनमें एक महिला थी, जिसने कानों में हैडफोन भी लगाया था। थोड़ा और आगे बढ़ने पर सामने ही कुछ और लोग खड़े दिखाई दिये, जिनमें कई लोग विशुद्ध जनजातीय वेशभूषा में थे, जिन्हें देखकर सहज ही अनुमान लगाया जा सकता था कि वे आदिवासी हैं।
अंदाजा लगाया जा सकता है कि जब तक आप किसी चीज से अनभिज्ञ हैं तब तक आप समान्य व्यक्ति की तरह बेपरवाह होकर जीवन जी रहे होते हैं, लेकिन जब आप चीजों को समझने लगते हैं तो आप संतोष का अनुभव होता है अथवा निराशा में डूब कर व्यक्ति मानसिक तौर पर अशांत होने लगता है। कुछ ऐसा ही मुझे उन देशी विदेशी मानवाधिकारवादियों और उनके बीच मुंह लटकाये खड़े करीब दर्जन भर आदिवासियों को देखकर महसूस हो रहा था। लेकिन मैंने सहज होने की कोशिश करते हुए पूछा, क्या बात है? सुभाष जी, आप काफी टेन्श दिखाई पड़ रहे हैं। वे बोले हां, अब देखिये न इन लोगों को कोई रात को तीन बजे यहां छोड़कर चला गया और बताया भी नहीं कि ये लोग कौन हैं। सुभाष ने बताया कि उन आदिवासियों में से दो को पुलिस की गोली भी लगी है। यह सुनते ही मेरे मन में सवाल उठा कि क्या ये आम आदिवासी ही हैं, जिन्हें गोली लगी है? संभवत: नक्सली भी हो सकते हैं, क्योंकि दंतेवाड़ा में जिन सुरक्षा बलों पर बाजार में नक्सलियों ने हमला किया था, वे भी तो आम आदिवासियों की ही वेशभूषा में थे. हालांकि यह मेरी तत्कालीन मन:स्थिति की उपज हो सकती है, इसे निर्णायक नहीं माना जाना चाहिए।
उनके पूछने पर मैने बताया कि सलवा जुडूम को लेकर मुझे बात करनी है। इतना सुनकर सुभाष महापात्र थोड़ा अचकचाए फिर उन्होंने कहा कि `सलवा जुडूम तो 2005 से पहले ही शुरु हो गया था। पुलिस इसके लिए काफी पहले से ही रिहर्सल कर रही थी और 2003 में बीजेपी सरकार के आने पर ही इसकी शुरुआत हो गई थी। बकौल सुभाष सलवा जुडूम को नेता लोग चला रहे हैं। मैंने पूछा कि आखिर नेता इस आंदोलन को क्यों चला रहे है? जबकि सरकार और यहां तक कि विपक्ष के नेता महेन्द्र कर्मा भी यह कहते हैं कि यह लोगों का स्व-स्फूर्त आंदोलन है। जवाब में वे कहते हैं कि ऐसा सरकार जंगल में कंपनियों के सम्राज्य को खड़ा करने के लिए कर रही है। लोगों को गांवों से निकालकर लाया जा रहा है, जिससे कंपनियों का रास्ता साफ हो सके। लेकिन साथ ही इस ओर भी ध्यान देना होगा कि आदिवासियों के वनक्षेत्र में बसे गांव छोड़ देने से नक्सलियों की ढाल खत्म हो जाएगी। यह भी नक्सलियों के लिए चिंता का एक विषय है। मैनें अगला सवाल पूछते हुए कहा कि महेन्द्र कर्मा, जो इस आंदोलन के नेता है वे तो बाद में इस अभियान से जुड़े थे, जबकि आप कह रहे हैं कि यह नेताओं द्वारा शुरु किया गया है? इस पर वे कहते हैं कि अगर कर्मा बाद में सलवा जुडूम से जुड़े थे तो वे नेता कैसे बन गए। मैनें पूछ लिया कि नक्सलियों का संघर्ष किससे है और किस वर्ग के हित की लड़ाई वे लड़ रहे हैं? सुभाष थोड़ा तिलमिला जाते हैं और कहते हैं कि इसका जवाब देना मेरा काम नहीं है, मैं एक सामाजिक कार्यकर्ता हूं, यह सवाल आप नक्सलियों से जाकर पूछिये।
सुभाष कहते हैं कि जनता ने वोट के रूप में अपनी शक्तियां सरकार को दे दी हैं और सरकार की जिम्मेदारी बनती है कि वह जनता की रक्षा करे। मैनें कहा कि सरकार ने सुरक्षा के लिए ही तो सलवा जुडूम कैंपों में सुरक्षा बल तैनात किये हैं। जवाब में वे कहते हैं कि आखिर कैम्प में क्यों आदिवासियों को रखा जा रहा है? क्यों नहीं उन्हें उनके गांव में रहने दिया जाता? मैंने कहा कि यदि सलवा जुडूम शिविरों से सुरक्षा हटा ली जाए तो क्या नक्सली गांव वापस जाने पर उन आदिवासियों को जिन्दा छोड़ेंगे? तब क्या आदिवासियों का मानवाधिकार हनन नहीं होगा? वे कहते हैं कि इस बात की क्या गारंटी है कि शिविरों में रहने पर पुलिसवाले इन लोगों को नहीं मारेंगे, उनका मानवाधिकार हनन नहीं करेंगे? वे कहते हैं कि सरकार और प्रशासन ने इस तरह की परिस्थितियों को पैदा किया हैं। आप आदिवासियों को सुरक्षा नहीं दे पाए, विकास नहीं किया जिसका आक्रोश नक्सलवाद के रूप में उभर कर आता है। वे कहते हैं कि व्यवस्था में भ्रष्टाचार है, इसलिए नक्सली टावर गिरा देते हैं। आप इसकी भी सुरक्षा नहीं कर पाते हैं। जब उनसे पूछा गया कि क्या बिजली का टावर गिराने से बस्तर के करीब 20 लाख लोगों का मानवाधिकार हनन नहीं हुआ? इसका जवाब वे गोलमोल कर जाते हैं और कहते हैं कि इसकी परिस्थितियां सरकार ने ही पैदा की हैं।
जब उनसे सवाल किया कि सर्वहारा की वकालत करने वाले नक्सली आखिर उनकी आजीविका के एकमात्र साधन हाट बाजार को क्यों जला देते हैं, उनके गांवों को क्यों जला देते हैं, आंगनबाड़ियों और बाल आश्रमों को क्यों धवस्त कर देते हैं, क्या यह मानवाधिकार हनन नहीं है? सुभाष सीधे तौर पर इसके लिए सलवा जुडूम के नेता महेन्द्र कर्मा पर निशाना साधते हुए कहते हैं कि `गांवों को तो ये नेता लोग जलवा रहे हैं, जिससे आदिवासियों को वहां से बाहर लाया जा सके।´ मैंने पूछा कि दूर दराज के गांवों में बसे करीब 60 हजार आदिवासी किसी नेता के कहने पर क्या इकट्ठा किये जा सकते हैं, जबकि उन्हें यह मालूम हो कि ऐसा करने पर वे नक्सलियों की बंदूक के निशाने पर आ जाएंगे? इस प्रश्न का वे संतोषजनक उत्तर नहीं दे पाते हैं और कहते हैं कि लोगों को जर्बदस्ती कैंपों में लाया जा रहा है। लेकिन जब यह पूछा जाता है कि पुलिसकर्मी भी तो इस लड़ाई में मर रहा है, क्या उसका और उसके परिवार का कोई मानवाधिकार नहीं है? जवाब मिलता है `नहीं, पुलिस का कोई मानवाधिकार नहीं होता, वह तो ड्यूटी पर होता है, मानवाधिकार तो आम नागरिकों का होता है।" क्या हमें सुभाष महापात्र की बात मान लेनी चाहिए?
सुभाष सवाल उठाते हैं कि आपने सलवा जुडूम क्यों शुरु किया? कंधार का उदाहरण देते हुए वे "सेफ पैसेज" की भी बात करते हैं। पुलिस व्यवस्था पर आरोप लगाते हुए वे कहते हैं कि पुलिस भ्रष्ट है, यही कारण था कि नक्सलियों से लड़ने के लिए आए केपीएस गिल भी वापस लौट गए? लेकिन जब उनसे पूछा गया कि केपीएस गिल ने जिस तरह की कार्यवाही पंजाब में की थी, क्या वैसा ही बस्तर में भी हो सकता है? जवाब में सुभाष कहते हैं कि पुलिस को चाहिए की नक्सलियों को गिरफतार करे और कोर्ट में ट्रायल करवाए। अंत में सुभाष कहते हैं कि हो सकता है आप मेरी बातों का संदर्भ बदलकर प्रस्तुत कर दें, क्योंकि अक्सर ऐसा किया जाता है और हम भी ऐसा ही करते हैं। वे कहते हैं कि अगर आप ऐसा करते हैं तो मुझे खण्डन करना पड़ेगा। उस पल मुझे अपने पास टेपरिकार्डर न होने की कमी बेहद खली थी, क्योंकि उनकी इस बात से ऐसा लगा कि संभवत: वे मेरे लिखे को भी गलत ठहरा दें। ख़ैर जो भी हो, इस उठापटक का दुष्परिणाम आखिरकार आम आदिवासियों को ही भुगतना पड़ रहा है।
सच है ना !
अब सचमुच दिल्ली सच कहना सीख रही है । विस्फोट के प्रति आभार । आभार उमाशंकर मिश्र के प्रति भी
लेबल:
नक्सलवाद,
पत्रकारिता,
राजनीति,
सलवा जुडूम
दुनिया की सबसे अच्छी पत्रिका तक पहुँचने का रास्ता
इस अंक में
संपादकीय
संपादक को सिर्फ़ संपादक ही बचा सकता हैसंपादक व्यवसायी नहीं । जिस दिन से उसे व्यवसाय का हिस्सा बनाया जा रहा है, उस दिन से वहाँ गंदी नाली का पानी बह रहा है । वहाँ केवल सडांध है । वहाँ न विचार है न संवाद । ऐसे में, उसे कैसे बचाया जा सकता है कि उसे डायरिया न हो। मलेरिया ना हो । व्यवसाय वह मादा ऐनाफिलीज है जिसके काटते ही संपादक मैनेजर हो जाता है । संपादक को बचाने का काम केवल संपादक कर सकता है । मालिक नहीं । मैनेजर नहीं ।
समकालीन कविताएँ
◙ स्मरणीय- नरेश मेहता एवं धूमिल
◙ जितेन्द्र श्रीवास्तव
◙ स्वप्निल श्रीवास्तव
◙ जसवीर चावला
◙ सुभाष नीरव
◙ प्रवासी कवि - सत्येंद्र श्रीवास्तव
◙ माह का कवि - इंदिरा परमार
छंद
◙ ज़हीर कुरैशी ◙ रमेशचन्द शर्मा 'चन्द्र' ◙ विजय किशोर मानव
◙ विनीता गुप्ता ◙ श्याम सखा 'श्याम' ◙ देवमणि पांडेय
◙ अनिरूद्द नीरव
◙ माह के छंदकार - योगेन्द्र दत्त शर्मा
◙ प्रवासी क़लम - कमल किशोर सिन्ह
◙ अजय गाथा - उमरिया कैसे बीते राम
भाषांतर
◙ बदचलन औरत - अलबर्ट कामू की कहानी
◙ रेत(पंजाबी उपन्यास/भाग-8 ) - हरजीत अटवाल/सुभाष नीरव
हस्ताक्षर
प्रेमचंद की 128 वीं जयंतीः31 जुलाई पर विशेष पर विशेष
◙ प्रेमचंद के सामाजिक,साहित्यिक विमर्श-कृष्ण कुमार यादव
अपने वैयक्तिक जीवन के संघर्षों से प्रेमचन्द ने जाना था कि संघर्ष का रास्ता बेहद पथरीला है और मात्र संवेदनाओं व हृदय परिवर्तन से इसे नहीं पार किया जा सकता। यही कारण था कि प्रेमचन्द ऊपर से जितने उद्विग्न थे, अन्दर से उतने ही विचलित। वस्तुत: प्रेमचन्द एक ऐसे राष्ट्र-राज्य की कल्पना करते थे जिसमें किसी भी तरह का भेदभाव न हो- न वर्ण का, न जाति का, न रंग का और न धर्म का।
कथोपकथन
प्रेमचंद की 128 वीं जयंतीः31 जुलाई पर विशेष पर विशेष
◙ प्रगतिशीलों ने प्रेमचंद के जीवन के तथ्यों को छिपाया
कमल किशोर गोयनका से जयप्रकाश मानस की विशेष बातचीत
असल में कम्युनिस्टों को भारत में पैर जमाने के लिए भारत के हृदय – हिंदी प्रदेश में प्रवेश करना ज़रूरी थी और वे इसके लिए किसी राजनेता का सहारा नहीं ले सकते थे। उन्हें प्रेमचंद से अधिक उपयुक्त कोई साहित्यकार नहीं मिल सकता था, जिसकी लोकप्रियता हिंदी तथा उर्दू दोनों भाषाओं में थी। यही कारण है कि प्रेमचंद ने ‘प्रगतिशील’ शब्द को ही निरर्थक माना, क्योंकि वे इस शब्द को कम्युनिज्म से जोड़ने को तैयार नहीं थे ।
मूल्याँकन
◙ 1857 का सच - रमणिका गुप्ता
◙ ग़ज़ल में व्यंग्य की धार - द्विजेन्द्र द्विज
बचपन
◙ तीन बाल गीत - शरद तैलंग
लोक-आलोक
◙ छत्तीसगढ़ी की तीन लोककथाएँ - जयप्रकाश मानस
शेष-विशेष
आधी दुनिया....
◙ अमेरिका की आधी दुनिया - रचना श्रीवास्तव
तकनीक...
◙ एसएमएस की रंगीन दुनिया - रविशंकर श्रीवास्तव
विचार...
◙ पाला चुनने का अधिकार - संतोष गौड़ राष्ट्रप्रेमी
◙ बिदा करना चाहते हैं, हिंदी को कुछ अख़बार - प्रभु जोशी
आत्मकथा....
◙ मुसाफिर हूँ यारों - संजय द्विवेदी
शोध....
◙ दक्षिण भारत की हिंदी पत्रकारिता - डॉ. सी. जय शंकर बाबु
प्रवासी-पातियाँ
अमेरिका की धरती से....
◙ अमेरिका में क्या देखा - लावण्या शाह
◙पिट्सबर्ग की देन - अनुराग शर्मा
कहानी
◙ सलीना तो सिर्फ़ शादी करना चाहती थी-उषा राजे सक्सेना
दूसरे पलँग पर तकिए के सहारे अधलेटे बोखारी ने जब सलीना के रुदन की आवाज़ सुनी तो वह लेटा नहीं रह सका, किडनी निकाले जाने के कारण बोखारी के 'ब्लैडर' और दूसरी किडनी में बुरी तरह 'इन्फेक्शन' फैल गया था वह तेज़ बुखार में तड़प रहा था फिर भी दर्द से कराहता, ड्रिप स्टैन्ड के साथ खुद को घसीटता हुआ सलीना के बिस्तर के पास रखी कुर्सी पर आ बैठा, 'सलीना, मेरी सलीना, रो मत, मेरी जान' क़हते हुए उसने सलीना माथे को सहलाते हुए आगे कहा, 'सल्लो तू दिल ना छोटाकर तू सिटीकाक्रोफ़' और 'वाशोवा' पहनकर मेरे साथ आइल पर चलेगी ।
◙ चंदमुखी - गोवर्धन यादव
◙ एक और द्रौपदी - शेर सिंह
◙ धरती की ममता - स्टीफनज्विग
धारावाहिक उपन्यास
◙ पाँव ज़मीन पर - शैलेन्द्र चौहान - भाग 3
हमारे घर के एक ओर डोकरी अइया का घर था तो दूसरी ओर एक पतली गली के बाद पलटू दाऊ रहते थे । उनकी पूरी तरह रुई की तरह सफेद हुई दाढ़ी मुझे बहुत अच्छी लगती थी । दाढ़ी थी भी खूब लंबी, एकदम दिव्य पुरुष लगते थे वे, गाँव वाले उन्हें साधू कहते । उनके साथ उनकी एक मात्र संतान बिट्टी रहती थी और बिट्टी का लड़का किशन । किशन मुझसे पाँच छ: वर्ष बड़ा था । हमारे गाँव में स्कूल नहीं था सो किशन कोई दो तीन मील दूर घिटौली पढ़ने जाता । वह कभी-कभी ही हमारे साथ खेलता । एक दिन उनके घर के सामने खड़ा बड़ा सा नीम का पेड़ गिर गया, अब तो हमारे मजे ही आ गए ।
व्यंग्य
◙ मँहगाई है जहाँ, आन-बान-शान है वहाँ - अविनाश वाचस्पति
लघुकथा
◙ तीन लघुकथायें - अभिज्ञात
ललित निबंध
◙ चुनाव जीत गया - गाँव हार गया-कृष्ण बिहारी मिश्र
संस्मरण
◙ सागर मध्य पहाड़ी आश्रय - काप्रि - सुभाष काक
पुस्तकायन
◙ दिल से दिल तक - देवी नागरानी
◙ बेहत्तर दुनिया के लिए - डी डी मायर्स
◙ कारवाँ लफ़्जों का - जयंत कुमार थोरात
ग्रंथालय में (ऑनलाइन किताबें)
◙ लौटते हुए परिंदे(कहानी संग्रह) - सुरेश तिवारी
◙ कारवाँ लफ़्जों का (मुक्तक एवं ग़ज़ल संग्रह) - जयंत थोरात
◙ प्रिय कविताएँ - भगत सिंह सोनी
हलचल
(देश विदेश की सांस्कृतिक खबरें)
◙ उषा राजे सक्सेना का नया कहानी संग्रह विमोचित
◙ संतोष चौबे को रामेश्वर गुरू पुरस्कार
◙ हिंदीभाषियों को इंटरनेट से जोड़ने अनूठी पहल-रफ़्तार
◙ "ज़िंदगी ख़ामोश कहाँ'' हुई लोकार्पित
संपादकीय
संपादक को सिर्फ़ संपादक ही बचा सकता हैसंपादक व्यवसायी नहीं । जिस दिन से उसे व्यवसाय का हिस्सा बनाया जा रहा है, उस दिन से वहाँ गंदी नाली का पानी बह रहा है । वहाँ केवल सडांध है । वहाँ न विचार है न संवाद । ऐसे में, उसे कैसे बचाया जा सकता है कि उसे डायरिया न हो। मलेरिया ना हो । व्यवसाय वह मादा ऐनाफिलीज है जिसके काटते ही संपादक मैनेजर हो जाता है । संपादक को बचाने का काम केवल संपादक कर सकता है । मालिक नहीं । मैनेजर नहीं ।
समकालीन कविताएँ
◙ स्मरणीय- नरेश मेहता एवं धूमिल
◙ जितेन्द्र श्रीवास्तव
◙ स्वप्निल श्रीवास्तव
◙ जसवीर चावला
◙ सुभाष नीरव
◙ प्रवासी कवि - सत्येंद्र श्रीवास्तव
◙ माह का कवि - इंदिरा परमार
छंद
◙ ज़हीर कुरैशी ◙ रमेशचन्द शर्मा 'चन्द्र' ◙ विजय किशोर मानव
◙ विनीता गुप्ता ◙ श्याम सखा 'श्याम' ◙ देवमणि पांडेय
◙ अनिरूद्द नीरव
◙ माह के छंदकार - योगेन्द्र दत्त शर्मा
◙ प्रवासी क़लम - कमल किशोर सिन्ह
◙ अजय गाथा - उमरिया कैसे बीते राम
भाषांतर
◙ बदचलन औरत - अलबर्ट कामू की कहानी
◙ रेत(पंजाबी उपन्यास/भाग-8 ) - हरजीत अटवाल/सुभाष नीरव
हस्ताक्षर
प्रेमचंद की 128 वीं जयंतीः31 जुलाई पर विशेष पर विशेष
◙ प्रेमचंद के सामाजिक,साहित्यिक विमर्श-कृष्ण कुमार यादव
अपने वैयक्तिक जीवन के संघर्षों से प्रेमचन्द ने जाना था कि संघर्ष का रास्ता बेहद पथरीला है और मात्र संवेदनाओं व हृदय परिवर्तन से इसे नहीं पार किया जा सकता। यही कारण था कि प्रेमचन्द ऊपर से जितने उद्विग्न थे, अन्दर से उतने ही विचलित। वस्तुत: प्रेमचन्द एक ऐसे राष्ट्र-राज्य की कल्पना करते थे जिसमें किसी भी तरह का भेदभाव न हो- न वर्ण का, न जाति का, न रंग का और न धर्म का।
कथोपकथन
प्रेमचंद की 128 वीं जयंतीः31 जुलाई पर विशेष पर विशेष
◙ प्रगतिशीलों ने प्रेमचंद के जीवन के तथ्यों को छिपाया
कमल किशोर गोयनका से जयप्रकाश मानस की विशेष बातचीत
असल में कम्युनिस्टों को भारत में पैर जमाने के लिए भारत के हृदय – हिंदी प्रदेश में प्रवेश करना ज़रूरी थी और वे इसके लिए किसी राजनेता का सहारा नहीं ले सकते थे। उन्हें प्रेमचंद से अधिक उपयुक्त कोई साहित्यकार नहीं मिल सकता था, जिसकी लोकप्रियता हिंदी तथा उर्दू दोनों भाषाओं में थी। यही कारण है कि प्रेमचंद ने ‘प्रगतिशील’ शब्द को ही निरर्थक माना, क्योंकि वे इस शब्द को कम्युनिज्म से जोड़ने को तैयार नहीं थे ।
मूल्याँकन
◙ 1857 का सच - रमणिका गुप्ता
◙ ग़ज़ल में व्यंग्य की धार - द्विजेन्द्र द्विज
बचपन
◙ तीन बाल गीत - शरद तैलंग
लोक-आलोक
◙ छत्तीसगढ़ी की तीन लोककथाएँ - जयप्रकाश मानस
शेष-विशेष
आधी दुनिया....
◙ अमेरिका की आधी दुनिया - रचना श्रीवास्तव
तकनीक...
◙ एसएमएस की रंगीन दुनिया - रविशंकर श्रीवास्तव
विचार...
◙ पाला चुनने का अधिकार - संतोष गौड़ राष्ट्रप्रेमी
◙ बिदा करना चाहते हैं, हिंदी को कुछ अख़बार - प्रभु जोशी
आत्मकथा....
◙ मुसाफिर हूँ यारों - संजय द्विवेदी
शोध....
◙ दक्षिण भारत की हिंदी पत्रकारिता - डॉ. सी. जय शंकर बाबु
प्रवासी-पातियाँ
अमेरिका की धरती से....
◙ अमेरिका में क्या देखा - लावण्या शाह
◙पिट्सबर्ग की देन - अनुराग शर्मा
कहानी
◙ सलीना तो सिर्फ़ शादी करना चाहती थी-उषा राजे सक्सेना
दूसरे पलँग पर तकिए के सहारे अधलेटे बोखारी ने जब सलीना के रुदन की आवाज़ सुनी तो वह लेटा नहीं रह सका, किडनी निकाले जाने के कारण बोखारी के 'ब्लैडर' और दूसरी किडनी में बुरी तरह 'इन्फेक्शन' फैल गया था वह तेज़ बुखार में तड़प रहा था फिर भी दर्द से कराहता, ड्रिप स्टैन्ड के साथ खुद को घसीटता हुआ सलीना के बिस्तर के पास रखी कुर्सी पर आ बैठा, 'सलीना, मेरी सलीना, रो मत, मेरी जान' क़हते हुए उसने सलीना माथे को सहलाते हुए आगे कहा, 'सल्लो तू दिल ना छोटाकर तू सिटीकाक्रोफ़' और 'वाशोवा' पहनकर मेरे साथ आइल पर चलेगी ।
◙ चंदमुखी - गोवर्धन यादव
◙ एक और द्रौपदी - शेर सिंह
◙ धरती की ममता - स्टीफनज्विग
धारावाहिक उपन्यास
◙ पाँव ज़मीन पर - शैलेन्द्र चौहान - भाग 3
हमारे घर के एक ओर डोकरी अइया का घर था तो दूसरी ओर एक पतली गली के बाद पलटू दाऊ रहते थे । उनकी पूरी तरह रुई की तरह सफेद हुई दाढ़ी मुझे बहुत अच्छी लगती थी । दाढ़ी थी भी खूब लंबी, एकदम दिव्य पुरुष लगते थे वे, गाँव वाले उन्हें साधू कहते । उनके साथ उनकी एक मात्र संतान बिट्टी रहती थी और बिट्टी का लड़का किशन । किशन मुझसे पाँच छ: वर्ष बड़ा था । हमारे गाँव में स्कूल नहीं था सो किशन कोई दो तीन मील दूर घिटौली पढ़ने जाता । वह कभी-कभी ही हमारे साथ खेलता । एक दिन उनके घर के सामने खड़ा बड़ा सा नीम का पेड़ गिर गया, अब तो हमारे मजे ही आ गए ।
व्यंग्य
◙ मँहगाई है जहाँ, आन-बान-शान है वहाँ - अविनाश वाचस्पति
लघुकथा
◙ तीन लघुकथायें - अभिज्ञात
ललित निबंध
◙ चुनाव जीत गया - गाँव हार गया-कृष्ण बिहारी मिश्र
संस्मरण
◙ सागर मध्य पहाड़ी आश्रय - काप्रि - सुभाष काक
पुस्तकायन
◙ दिल से दिल तक - देवी नागरानी
◙ बेहत्तर दुनिया के लिए - डी डी मायर्स
◙ कारवाँ लफ़्जों का - जयंत कुमार थोरात
ग्रंथालय में (ऑनलाइन किताबें)
◙ लौटते हुए परिंदे(कहानी संग्रह) - सुरेश तिवारी
◙ कारवाँ लफ़्जों का (मुक्तक एवं ग़ज़ल संग्रह) - जयंत थोरात
◙ प्रिय कविताएँ - भगत सिंह सोनी
हलचल
(देश विदेश की सांस्कृतिक खबरें)
◙ उषा राजे सक्सेना का नया कहानी संग्रह विमोचित
◙ संतोष चौबे को रामेश्वर गुरू पुरस्कार
◙ हिंदीभाषियों को इंटरनेट से जोड़ने अनूठी पहल-रफ़्तार
◙ "ज़िंदगी ख़ामोश कहाँ'' हुई लोकार्पित
6/26/2008
अब जी न्यूज छत्तीसगढ़ से
संजय द्विवेदी 'जी न्यूज छत्तीसगढ़ में
15 अगस्त से शुरू होगा प्रसारण
रायपुर। छत्तीसगढ़ के प्रमुख हिंदी दैनिक हरिभूमि के स्थानीय संपादक संजय द्विवेदी ने रायपुर से 15 अगस्त से शुरू होने जा रहे टीवी चैनल 'जी न्यूज 24 घंटे छत्तीसगढ़ के डिप्टी एक्जीक्युटिव प्रोडयूसर (एडिटर इनपुट) के तौर पर पदभार ग्रहण कर लिया है। चौदह साल से सक्रिय पत्रकारिता कर रहे श्री द्विवेदी अब तक दैनिक भास्कर, नवभारत, स्वदेश, इन्फोइंडिया डाटकाम जैसे संस्थानों में महत्वपूर्ण पदों पर काम कर चुके हैं। वे रायपुर स्थित कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय में रीडर भी रह चुके हैं। उनकी अब तक मीडिया की विविध विधाओं पर 6 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। दैनिक भास्कर, छत्तीसगढ़ के स्टेट हेड केके नायक पहले ही जी न्यूज छत्तीसगढ़ के मुख्य कार्यकारी अधिकारी के तौर पर ज्वाइन कर चुके हैं। इस नए चैनल की लांचिंग का कमान जीटीवी के वरिष्ठ पत्रकार रविकांत मित्तल को सौंपी गई है।
पिछले दिनों रायपुर में हुई एक पत्रकार वार्ता में जी न्यूज, नई दिल्ली के सीईओ बारून दास और छत्तीसगढ़ में गोयल गु्रप के चेयरमेन सुरेश गोयल ने बताया कि 'जी न्यूज 24 घंटे छत्तीसगढ़ का प्रसारण 15 अगस्त से किया जाएगा। जिसके लिए लोधीपारा रेलवे क्रासिंग, रायपुर के पास अंतर्राष्ट्रीय स्तर का क्षेत्रीय कार्यालय बनाया जा रहा है। छत्तीसगढ़ में जीटीवी के इस नए क्षेत्रीय चैनल का फ्रेंचाइजी एसबी मल्टीमीडिया प्राइवेट लिमिटेड होगी। इस कंपनी के सीईओ केके नायक ने बताया कि दुर्ग, जगदलपुर, बिलासपुर, रायगढ़, अंबिकापुर व कोरबा में चैनल का जिला कार्यालय स्थापित किया जाएगा। जो लाइव सेटेलाइट लिंक से जुड़ा होगा। साथ ही इनसेट 4-ए सेटेलाइट से इस चैनल को राष्ट्रीय स्तर के अलावा 17 देशों में देखा जा सकता है। प्रदेश में सीधा प्रसारण के लिए दो बोबी वैन का उपयोग भी किया जाएगा। 'जी न्यूज 24 घंटे छत्तीसगढ़ युवा प्रतिभाओं को राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय मंच उपलब्ध कराया जाएगा।
6/24/2008
पाँच कविताएँ
इंसान यहाँ पर बिकते हैं
इंसान यहाँ पर बिकते हैं
कुछ होते पैदा, कुछ मिटते हैं
कुछ करते हैं हवा से बातें
कुछ पाँव यहाँ पे घिसते हैं
ये इंसानो की धरती है
इंसान यहाँ पर बिकते हैं।।
000
इंसान यहाँ पर बिकते हैं
कुछ होते पैदा, कुछ मिटते हैं
कुछ करते हैं हवा से बातें
कुछ पाँव यहाँ पे घिसते हैं
ये इंसानो की धरती है
इंसान यहाँ पर बिकते हैं।।
000
गुलाम
हम कल भी गुलाम थे
आज भी गुलाम हैं
ना कल ही खास थे
ना आज ही आम हैं।।
000
काश़ हम भी बच्चे होते
काश हम भी बच्चे होते
कितने सुंदर, सच्चे होते
बात-बात पे हँसते
बात-बात पे रोते
काश हम भी बच्चे होते।।
मन साफ-
न कोई छल होता
जी भर के लेते हम निंदिया
सुंदर सपनों में हम खोते
काश हम भी बच्चे होते।।
000
ये तंग-तंग जहान है
वो खुला-खुला सा आसमान
ये तंग-तंग जहान है
वहाँ प्यार का फरमान था
यहाँ अपना भी अंजान है
वो खुला-खुला सा आसमान
ये तंग-तंग जहान है ।।
इंसान नहीं इंसान यहाँ
हैवानियत का रूप है
तन से सुंदर दिखते हैं पर
मन से बडे कुरूप हैं
उम़्र तो यारो ढलती है
यहाँ चाह बनने की नौजवान है
वो खुला-खुला सा आसमान
ये तंग-तंग जहान है ।।
000
वो खुला-खुला सा आसमान
ये तंग-तंग जहान है
वहाँ प्यार का फरमान था
यहाँ अपना भी अंजान है
वो खुला-खुला सा आसमान
ये तंग-तंग जहान है ।।
इंसान नहीं इंसान यहाँ
हैवानियत का रूप है
तन से सुंदर दिखते हैं पर
मन से बडे कुरूप हैं
उम़्र तो यारो ढलती है
यहाँ चाह बनने की नौजवान है
वो खुला-खुला सा आसमान
ये तंग-तंग जहान है ।।
000
खुला सा आसमान हो
वो खुला सा आसमान हो
न कहीं कोई अंजान हो
न इंसान के दाम हों
न नफरत की शाम हो
न मदिरा का ज़ाम हो
न मुल्ला, न राम हो
बस प्यार का पैगाम हो
वो खुला सा आसमान हो।।
न भूखा कोई हो
न नंगा हो
सब का अपना धंधा हो
न हाथ में किसी के डंडा हो
बस प्यार ही जीने का फंडा हो
न अपना कोई अंजान हो
बस प्यार का पैगाम हो
वो खुला सा आसमान हो ।।
000
एक बहाना
आऒ ढूंढें एक बहाना
दर्द भरा है जीवन माना
सीखो यारो दर्द भुलाना
सुख - दुख तो है आना जाना
आऒ ढूंढें एक बहाना ।।
साथ रहेगा तेरे ज़माना
जो दर्द में भी मुस्कराऒगे
जिस आँक से देखोगे
जीवन वैसा पाऒगे
बनना पडेगा तुझे दिवाना
आऒ ढूंढें एक बहाना ।।
जो दर्द भुलाना सीखोगे
तो मन को अपने जीतोगे
खोजोगे खुशियों का ख़जाना
दर्द भरा है जीवन माना
आऒ ढूंढें एक बहाना ।।
0सुशील कुमार पटियाल
गाँव मसलाणा खुर्द
डाक घर झंञ्जियाणी
तहसील बडसर, जिला हमीरपुर
हिमाचल प्रदेश -१७४३०५
गाँव मसलाणा खुर्द
डाक घर झंञ्जियाणी
तहसील बडसर, जिला हमीरपुर
हिमाचल प्रदेश -१७४३०५
आदिवासियों को बहस से बाहर निकालें
-बसंत कुमार तिवारी
वामपंथी नेता एबी वर्धन का कहना है कि 'सलवा जुडूम को बंद कर देना चाहिए क्योंकि वह गैरकानूनी आंदोलन है। उन्होंने केन्द्र सरकार, जिसके वे पार्टनर हैं, से 'सलवा जुडूम के लिए धनराशि नहीं देने की मांग की है। श्री वर्धन ने यह नहीं बताया कि 'सलवा जुडूम और नक्सलियों के बीच पिस रहा आदिवासी दोनों से कैसे मुक्ति पाए। उनके पास भी कोई सटीक उत्तर या रास्ता नहीं है। श्री वर्धन ने भी मानवाधिकार आयोग, न्यायालय और एनजीओ संगठनों की तरह फतवा तो दिया पर रायपुर आकर बस्तर पहुंच कर वे 'सलवा जुडूम का जायजा लेते और नक्सलियों से बात कर उन्हें भी नक्सलवाद को छोड़ देने की सलाह देते तो शायद सही आकलन करते। दरअसल कठिनाई यही है कि अधिकांश लोग बयान देने और लंबे-लंबे लेख भी लिखते हैं जिनमें आदर्शवाद तो रहता है। जमीनी सच्चाई से रूबरू होना कतई नहीं रहता। लोग 'सलवा जुडूम की अव्यवस्था का विरोध कर रहे हैं, उस विचारधारा का नहीं जो गांधी के असहयोग की है। इस देश में अपनी राय देने वाले आंदोलन यदि गैरकानूनी हो जाएंगे तो लोकतंत्र कैसे बचेगा।
जहां तक आंदोलन के गैरकानूनी होने का प्रश्न है, श्री वर्धन यह बताते कि देश में आजादी के पहले और बाद में कौन सा आंदोलन कानूनी कहा गया। आजादी के लिए गांधी का स्वाधीनता आंदोलन, दांडी यात्रा से लेकर सन् 1977 का जेपी आंदोलन, सभी को गैरकानूनी कहा जाता रहा। श्री वर्धन की पार्टी की बंगाल की सरकार ने नंदीग्राम में जो किया वह वामपंथियों के लिए कानूनी था, पर अपना हक मांगने वाले ग्रामवासियों का आंदोलन 'गैरकानूनी। भाजपा नेता श्री आडवाणी अयोध्या की घटना को आंदोलन मानते हैं इसीलिए वे उसमें शामिल लोगों को कानून तोड़ने का अपराधी नहीं मानते। होता यही रहा है कि जो सत्ता में बैठा है वह अधिकार की हर कोशिश को गैरकानूनी कहता है और सत्ता से बाहर खड़ा आम आदमी उसे आंदोलन, क्योंकि वह उसे अपने अधिकार का संघर्ष मानता है।
इसी दौरान बस्तर के नक्सलवाद और 'सलवा जुडूम को लेकर कई लेख पढ़ने में आए। एक ने गांधी को जुडूम से बाहर निकल आने की मांग की। दूसरे ने नक्सलवाद का विरोध और 'सलवा जुडूम के समर्थन में भाजपा के दर्शन और नीतियों की बात कही। तीसरा लेख एक पुलिस अधिकारी का काम करते हुए लेखक और विचारक का था, जिसमें उन्होंने गांधी को छद्म गांधीवादियों के बीच से निकल आने की बात कही। एक का तर्क है कि पुलिस के अत्याचार से नक्सलवाद आया। कोई यह पूछे कि पहले कौन आया। बस्तर में नक्सलवाद पहले आया फिर जवाब में पुलिस आई। लेख अपने-अपने तर्कों और शब्दों के खेल में दिलचस्प और पठनीय हैं। इन्हें शहरी, अर्ध्दशहरी पाठक ही पढ़ेगा। वह आदिवासी शायद ही, जो नक्सलवाद और 'सलवा जुडूम के दो पाटों के बीच पिस रहा है। दरअसल हमने आदिवासी को इतना पढ़ना सिखाया ही नहीं कि वह बयानों और लेखों के संदेश समझ सकें।
जहां तक आदिवासी का प्रश्न है, वह न तो माओवाद को समझता है और न ही गांधीवाद या वामपंथ को पढ़ सकता है। उस आदमी के लिए कांग्रेस या भाजपा या वामपंथी सब एक से हैं। वह अपनी मुक्ति की तलाश में भटक रहा है और भटकता रहा है। सरकारी अमले, व्यापारियों के शोषण और उसके बुनियादी जल, जंगल और जमीन के अधिकार से वंचित कराने वालों से राहत पाने के दिवा स्वप्न में उसने नक्सलियों को शरण दी। उनके साथ सहयोगी बना। जब उसे यह समझ आ गया कि ये नए शोषक पहले से कहीं ज्यादा खतरनाक हैं। अफसरशाही और व्यापारी तो उसे तिल-तिल कर मार रहे थे, नक्सली तो सीधे गोली मार देते हैं, तब उसने नक्सलियों से असहयोग करना शुरू किया। सामूहिक रूप से विरोध स्वरूप ही आदिवासियों ने 4 और 5 जून 2005 को नक्सलियों को पकड़ कर पुलिस के हवाले किया। यह सिलसिला चलता रहा और अब वह 'सलवा जुडूम के रूप में सामने है।
आदिवासी अपनी जमीन पर वापस जाना चाहता है। उसे लगता है कि अपने सामूहिक विरोध से वह शायद वहां लौट सकता है। उसकी कठिनाई यह है कि वह सुरक्षित कैसे रहे। किसी समय उसे लगा कि काकतीय वंश के उसके राजा के साथ वह सुरक्षित है। उसे लगा कि वह अपने जल, जंगल और जमीन पर राजा के सहारे लौट सकता है। इस आशा में वह आखरी राजा प्रवीर चंद भंजदेव के निमंत्रण पर जगदलपुर महल के सामने तीर कमान लेकर धीरे-धीरे एक लाख की संख्या में जमा हो गया। फिर क्या हुआ, सब मालूम है। सरकार ने कानून और गैरकानून के चक्कर में कुछ आदिवासी और राजा को ही मार डाला। पर इसके बाद तो स्थितियां और खराब होती गईं। 44 वर्ष मध्यप्रदेश में जितना शोषण नहीं हुआ, उससे कहीं ज्यादा छत्तीसगढ़ के आठ सालों में हुआ। बस्तर के इतिहास में इतनी मुश्किल में आदिवासी पहले कभी नहीं फंसा। पहले तो वह किसी तरह निकल आया अब उसके सामने कुंआ और खाई ही है।
दरअसल, आदिवासी किसी वाद की लड़ाई नहीं लड़ रहा। वादों की बहस शहरों में होती है। अखबारों और किताबों में। कुछ समझने के लिए तो कुछ मनोरंजन के लिए। आदिवासी तो अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है। वह फैशन की तरह नहीं, अति वास्तविक मानवाधिकारों के लिए संघर्ष कर रहा है।
वह किसी से गांधीवाद, किसी से माओवाद या भाजपावाद नहीं पढ़ना चाहता न ही समझना चाहता है। वह इन सबसे अलग अपनी मुक्ति चाहता है। उसे गांधी का असहयोग आंदोलन नहीं मालूम, वह माओवाद भी नहीं जानता, वह केवल अपनी रक्षा का रास्ता खोज रहा है। अपने आप जीने का हक चाहता है। उसका प्रश्न एबी वर्धन, कनक तिवारी, वीरेन्द्र पाण्डेय, विश्वरंजन और संदीप पाण्डेय ही नहीं सभी के सामने है। जिस तरह सभी के सामने कोई कारगर विकल्प नहीं है वैसा ही इस लेखक के पास भी नहीं है। एक बात लगती है कि बस्तर में वैचारिक संघर्ष या बहस की नहीं, व्यवहारिक पहल की जरूरत है। आदर्शवाद की बात करने वाले आदिवासियों को संकट से निकालने का कारगर रास्ता बताएं। एक रास्ता असहयोग का गांधीवादी रास्ता है दूसरा बंदूक की गोली। अब तक दोनों के परिणाम नहीं निकले। अब जरूरत सैध्दांतिक बहस की नहीं, ठोस विकल्प खोजने की है। बहस करने वालों उसे संकट से बाहर निकालो।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
यह तो नहीं है महात्मा गांधी का रास्ता
-संदीप पाण्डेय
रायपुर में छत्तीसगढ़ विशेष जन सुरक्षा अधिनियम, 2005 की वापसी तथा इस अधिनियम के तहत गिरफ्तार तमाम निर्दोष लोगों, जैसे डॉ. विनायक सेन, अजय टीजी, साई रेड्डी, आदि, की रिहाई हेतु आयोजित दस दिवसीय उपवास पर एक लेख के माध्यम से छत्तीसगढ़ के पुलिस महानिदेशक एवं साहत्यिकार विश्वरंजन ने टिप्पणी की है कि यदि गांधी आज जीवित होते तो शायद बस्तर के जंगलों में अकेले जा कर माओवादियों से कहते कि, 'मित्र! हिंसा छोड़ो, जो तुमसे असहमत हैं, उन्हें मारना छोड़ो, हम तुम्हें अब नहीं मारने देंगे। तुम्हे आदिवासियों को मारने के पूर्व हमें मारना पड़ेगा। हम उफ्फ तक नहीं करेंगे। हम हाथ तक नहीं उठाएंगे...
यह बात तो विश्वरंजन जी भी स्वीकार करेंगे कि राज्य की जो पुलिस व सेना के रूप में हिंसक शक्ति है वह नक्सलवादियों या किसी भी गैर राज्य हिंसक शक्ति से बड़ी है। विश्वरंजन जी जो बात गांधी के मुंह से गांधीवादियों के लिए कहलवाना चाहते हैं वही बात हम विश्वरंजन जी की पुलिस व उसके द्वारा समर्थित 'सलवा जुडूम नामक गैर संवैधानिक सशस्त्र बल के लिए कहना चाहेंगे। विश्वरंजन जी के अनुसार गांधी किसी भी हालत में उस समूह के साथ नहीं खड़े होते जिसका बुनियादी फलसफा हिंसा और आतंक पर टिका हुआ है। इसीलिए हम विश्वरंजन साहब को बताना चाहते हैं कि हम उनकी पुलिस, सलवा जुडूम व उनकी सरकार के साथ नहीं खड़े हैं।
इसका यह मतलब कतई नहीं है कि नक्सलवादियों द्वारा की गई हिंसा को जायज ठहराया जा सकता है। कुल मिलाकर विश्वरंजन जी जब नक्सलवादी हिंसा की बात करते हैं तो वे यह नहीं भुला सकते कि नक्सलवादी हिंसा असल में राज्य हिंसा के जवाब में प्रति हिंसा है। इस राज्य हिंसा में प्रत्यक्ष हिंसा तो शामिल है ही जिसके अंतर्गत लोग पुलिस सेना व सलवा जुडूम द्वारा की गई हिंसात्मक कार्रवाईयों के शिकार हुए हैं, लेकिन ज्यादा महत्वपूर्ण वह अप्रत्यक्ष हिंसा है जिसके तहत एक लंबी अवधि के दौरान आम लोगों को उनकी न्यूनतम मजदूरी, सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत अनाज, मूलभूत चिकित्सा व अन्य सुविधाओं से वंचित कर उन्हें घुट-घुट कर मरने के लिए मजबूर किया गया है।
यह शोषण व भ्रष्टाचार की व्यवस्था तो विश्वरंजन साहब नक्सलवाद से पुरानी समस्याएं हैं और आपकी राज्य व्यवस्था ने स्थिति को ठीक करने के लिए कोई भी ठोस कदम नहीं उठाया। बिना नक्सलवाद के मूल कारणों का विश्लेषण किए तथा नक्सलवाद के पनपने में राज्य व्यवस्था की भूमिका की बात किए बिना नक्सलवाद को सिर्फ कोसने से कुछ काम नहीं चलेगा। नक्सलवाद के पनपने का सीधा-सीधा मतलब है कि राज्य असफल रहा है। यदि राज्य ने अपने सभी नागरिकों को उनकी मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु साधन उपलब्ध कराए होते तथा उन्हें सम्मान व सुरक्षा के साथ जीने का मौका उपलब्ध कराया होता तो शायद हमें आज नक्सलवाद की समस्या का सामना ही न करना पड़ता। नक्सलवाद की समस्या के निश्चित सामाजिक आर्थिक-राजनीतिक कारण हैं और उसका समाधान भी सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक क्षेत्रों में ही ढूंढ़ना होगा। नक्सलवाद की समस्या का समाधान सलवा जुडूम कतई नहीं हो सकता। राज्य व्यवस्था को अपने चरित्र में परिवर्तन लाना पड़ेगा। उसे सिर्फ संपन्न वर्ग, जिसमें अब ठेकेदार, कंपनियां व माफिया भी शामिल हैं, के संरक्षक की भूमिका छोड़कर आम गरीब वंचित नागरिकों का हितैषी बनना पड़ेगा।
इस बात में तो कोई शक है ही नहीं कि गांधी कभी भी नक्सलवादियों के हिंसा व आतंक के फलसफे का समर्थन नहीं करते लेकिन, विश्वरंजन साहब ने आज जिस शासन-प्रशासन तंत्र का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं उसका भी कभी समर्थन नहीं करते। गांधी की ग्राम स्वराज्य व्यवस्था में तो हिंसा व आतंक के तरीकों का इस्तेमाल करने वाली पुलिस व सेना का कोई स्थान हो ही नहीं सकता। वह पुलिस जो आम नागरिकों के लिए दहशत का प्रतीक है को गांधी कभी स्वीकार करते ही नहीं। आपके थानों में जहां आम इंसान अपमानित होता है, साधारण सी प्राथमिकी भी दर्ज नहीं होती, 'पहुंच वाले अपराधी खुले घूमते हैं तथा निर्दोष लोगों को पकड़ कर जेलों में डाल दिया जाता है ऐसी व्यवस्था के मुखिया हैं आप यदि आज एक संवेदनशील साहित्यकार हैं तो हम आपसे यह तो उम्मीद नहीं ही करेंगे कि आप एक फासीवादी सरकार की सेवा करते हुए उसके फासीवादी तरीकों को जायज ठहराएंगे।
चलिए हमारी हिम्मत नहीं है कि हम जाकर बस्तर के जंगलों में नक्सलवादियों को अहिंसा का पाठ पढ़ा सके, लेकिन आपके पास तो पूरा तंत्र है। किसी भी गांधीवादी की संस्था से बहुत ज्यादा साधन आपके पास हैं। नक्सलवाद से लड़ने के लिए केंद्र सरकार ने आपको असीमित साधन उपलब्ध कराए हैं।
आप ही कुछ गांधीवादी तरीकों का प्रयोग क्यों नहीं करते? क्या आप पुलिस की व्यवस्था को और मानवीय बना सकते हैं? क्या आप प्रदेश के पुलिस मुखिया होने के नाते ऐसा माहौल बना सकते हैं कि आज गरीब नागरिक को पुलिस से डर न लगे और वह पुलिस को मित्र के रूप में स्वीकार कर सके? जब आम इंसान थानों में जाए तो उसका स्वागत गालियों से न हो बल्कि उसे सम्मानपूर्वक बैठाया जाए। क्या आपकी पुलिस लोगों को सुरक्षा प्रदान करने के साथ अन्य सरकारी योजनाओं, जैसे सार्वजनिक वितरण प्रणाली, वृध्दावस्था- विधवा पेंशन, गरीबों के लिए आवास, भूमिहीनों के लिए पट्टे, मूलभूत शिक्षा स्वास्थ्य सुविधाएं तथा राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना का पूरा-पूरा लाभ, बिना किसी भ्रष्टाचार के, उपलब्ध करा सकती है।
फिलहाल तो लोगों को छत्तीसगढ़ में राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम के तहत न्यूनतम एक सौ दिनों का रोजगार नहीं मिल रहा। व्यापक स्तर पर धांधली अलग है। राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम भी एक राष्ट्रीय कानून है। क्या इस कानून की खुलेआम धाियां उड़ाने वाले अधिकारियों-कर्मचारियों-जनप्रतिनिधियों- ठेकेदारों के खिलाफ आज छत्तीसगढ़ विशेष जन सुरक्षा अधिनियम या गैर कानूनी गतिविधियां (निरोधक) कानून के तहत कोई कार्रवाईयां कर सकते हैं? क्या पुलिस प्रभावशाली लोगों की संरक्षक बने रहने के बजाए इस देश के आम इंसान के मौलिक एवं कानूनी अधिकारों की संरक्षक बन सकती है? मौलिक सवाल यह है कि क्या आज इस व्यवस्था में मूलचूल परिवर्तन लाने वाले कोई कदम उठा सकते हैं? सलवा जुडूम का प्रयोग तो कोई भी कर सकता है क्योंकि शासक वर्ग की मानसिकता में जनता के किसी उभार को कुचलने के लिए हिंसक रास्ता ही सहज रूप से आता है। किंतु क्या हम आप जैसे संवेदनशील अधिकारी से उम्मीद करें कि वह कोई सृजनात्मक अहिंसक प्रयोग करेगा जिसे वार्क में गांधीवादी श्रोणी में रखा जा सके?
हमारी जो क्षमता है उससे हम सरकार की सभी जन विरोधी नीतियों के खिलाफ बोलते रहेंगे। नक्सलवादियों की हिंसा का हम समर्थन नहीं करते। किंतु राज्य की ताकत व भूमिका नक्सलवादियों से बड़ी है। राज्य से हम उम्मीद करते हैं कि वह अपनी संवैधानिक जिम्मेदारियां ठीक से निभाएगा। हमारा मानना है कि राज्य ही नक्सलवाद की समस्या के उभरने के लिए जिम्मेदार है तथा वही अपनी नीतियों में परिवर्तन कर इस समस्या पर काबू भी पा सकता है। हमारे लिए छत्तीसगढ़ विशेष जनसुरक्षा अधिनियम व गैर कानूनी गतिविधियां (निरोधक) अधिनियम के खिलाफ संघर्ष लोकतंत्र को बचाने संघर्ष है। समस्या पेचीदी है तथा समाधान भी आसान नहीं है यह आप भी जानते हैं। अत: नक्सलवाद की समस्या पर बहस को सिर्फ हिंसा-अहिंसा के पक्ष या विरोध में बहस तक सीमित न करें। अच्छा होगा यदि आप अपने कौशल का प्रयोग नक्सलवाद की समस्या के मानवीय समाज में लगाएं। जब तक आपके तरीके नहीं बदलते तब तक हम आपकी सरकार के खिलाफ बोलते रहेंगे तथा उपवास जैसे कार्यक्रमों का भी आयोजन करेंगे।
आपको याद है न गांधी ने क्या कहा था स्वराज्य के बारे में। स्वराज्य का मतलब सिर्फ कुछ लोगों द्वारा सत्ता प्राप्त कर लेना नहीं बल्कि बहुसंख्यक जनता के अंदर यह शक्ति पैदा होना है कि वह कुछ लोगों द्वारा सत्ता के दुरुपयोग का प्रतिकार कर सके। सलवा जुडूम सत्ता का दुरुपयोग है। लोगों के हाथ में हथियार देना कोई बुध्दिमानी पूर्ण कार्रवाई नहीं कही जाएगी। क्या हम इतिहास से यह सबक नहीं सीखेंगे कि जब भी गैर राज्य शक्तियों को हथियारों से लैस किया गया है वह कुछ समय के बाद अनियंत्रित हो जाती है तथा समाज के लिए घातक हो जाती हैं।
आखिर सलवा जुडूम के माध्यम से लोगों को गांव छोड़कर शिविरों में रहने के लिए क्यों मजबूर किया जा रहा है? लोगों को उनके गांवों, खेतों, जंगलों से उजाड़कर उन्हें अपनी आजीविका के लिए भी मोहताज बनाकर हम उन्हें कैसी सुरक्षा प्रदान कर सकते हैं? छत्तीसगढ़ प्राकृतिक संसाधनों में धनी है। फिर भी विडम्बना यह है कि लोग गरीब एवं लाचार।
गांधी के ग्राम स्वराज्य विचार के मुताबिक तो गांवों को ही सिर्फ यह अधिकार है कि वे अपनी व्यवस्था कैसे बनाएं। गांवों में प्राकृतिक संसाधनों का प्रबंधन कैसे होगा, गांव में शिक्षा स्वास्थ्य सुरक्षा की व्यवस्था कैसी होगी यह तय करने का अधिकार स्थानीय लोगों को ही है। किंतु ऐसा प्रतीत होता है कि छत्तीसगढ़ सरकार अपने प्राकृतिक संसाधनों पर से स्थानीय लोगों का अधिकार समाप्त कर पूंजीपतियों के मुनाफा कमाने के लिए उन्हें इन संसाधनों के खुले दोहन की छूट देना चाहते है।
क्या आप इस तथाकथित विकास के समर्थक हैं विश्वरंजन जी? यह विकास तो गांधी के विचारों के अनुकूल है नहीं। यदि आप नक्सलवादियों को नहीं समझा सकते तो कम से कम उन पूंजीपतियों को ही समझा दे कि जनता के प्राकृतिक संसाधनों से अपनी गिध्द दृष्टि हटा ले। यदि आप ये भी नहीं कर सकते तो गांधी के प्रिय विषय मद्यनिषेध पर तो कुछ पहल ले ही सकते हैं। क्या आप सरकार द्वारा शराब को बढ़ावा देने के कार्यक्रम जिससे फायदा सिर्फ शराब माफियों का हो रहा तथा आम इंसान का परिवार बरबाद हो रहा को रोकने के लिए कुछ कदम उठा सकते हैं?
(लेखक मैगसेसे पुरस्कार विजेता एवं गांधीवादी कार्यकर्ता हैं व इन दिनों रायपुर, छत्तीसगढ़ में कुछ विदेशी महिलाओं के साथ धरना पर बैठें हैं ।)
महात्मा गांधी को चाहिए उनसे मुक्ति!
वीरेन्द्र पाण्डेय
अब कोई संकट नहीं है। कम से कम गांधी को लेकर। न दक्षिण अफ्रीका में, न ही भारत में। कांग्रेस में भी कोई दुविधा नहीं है, बापू को लेकर। कोई संकट भी नहीं है। यही वजह है कि जो आग्रह महात्मा ने रखे थे, कांग्रेसी उसे छोड़ चुके हैं। गांधी चाहते थे कि शराब न पी जाए। स्वदेशी चीजें, कपड़े प्रयोग हों। देश की शिक्षा स्वदेशी भाषा में हो। राजभाषा-राजकाज की भाषा हिन्दी हो। कांग्रेसी ठर्रा से बोदका तक अपनी पसंद की मजे से गटक रहे हैं। खद्दर क्या, इस्तेमाल की कोई भी स्वदेशी वस्तु बड़े कांग्रेसी हाथ नहीं लगाते। बेटे-बेटियां विदेशों में पढ़ रहे हैं। काम-काज और राज-काज उन्हीं अंग्रेजों की भाषा में हो रहा है, जिन्हें गांधी ने भारत छोड़ने पर मजबूर किया था। कांग्रेस ने गांधी बापू और उनकी सीख से पल्ला झाड़ लिया है, क्योंकि गांधी का नाम सत्ता के शिखर पर पहुंचाने वाली लिफ्ट नहीं रही। उन्होंने अब अपने गांधी गढ़ लिए हैं। इंदिरा गांधी से लेकर राहुल गांधी तक। जब जैसे गांधी की जरूरत पड़ी, उसे आगे कर मतलब साध लिया। गांधी ने गोरी चमड़ी के अंग्रेजों को भारत से भगाया था, पर कांग्रेस ने गोरी चमड़ी की भी एक गांधी गढ़ ली है। फिर से अंग्रेजी राज का अनुभव कर रहे हैं। गांधी को भी कांग्रेस से कोई परेशानी नहीं है। गांधी ने जिस दिन लोक सेवक संघ बनाने की सलाह दी थी, उसी दिन उन्होंने कांग्रेस को तिलांजली दे दी थी। वैसे भी बापू कभी कांग्रेस के चवन्नी के सदस्य नहीं रहे।
गांधी ने कांग्रेस को और कांग्रेस ने गांधी को मुक्त कर दिया। नाथूराम गोडसे ने बापू को जीवनमुक्त कर दिया। गोडसे ने तो गांधी को एक ही बार मारा, पर ऐसे दावेदार हैं जो गांधी को समझने, जानने और मानने का दावा करते हैं। इन्होंने ही दुनिया को बताया कि गांधी ने कांग्रेस भंग कर लोक सेवक संघ बनाने की राय दी थी, पर इन बापू के मानने वालों ने भी कांग्रेस नहीं छोड़ी। अपितु कांग्रेसी नेताओं के दामन थाम कर सत्ता प्रतिष्ठिानों की सीढ़ियां चढ़ी। अधिकारों की मलाई तबियत से खाई। इन्होंने पूर्वाग्रहों की पोटली कांख में दाब रखी है। आंखों पर झूठ का गहरा काला चश्मा चढ़ा रखा है। देश की छोटी से लेकर सबसे बड़ी अदालत ने कह दिया है कि नाथूराम गोडसे संघ का स्वयंसेवक नहीं था, न ही गांधी हत्या से संघ का कोई संबंध है। पर बार-बार यही दोहराया जा रहा है। झूठ के ये पैरोकार हर बार पहले से ज्यादा तेज स्वर में घोषणा करते हैं कि संघ का आजादी के आंदोलन में कोई योगदान नहीं है। ये सुविधापूर्वक भूल जाते हैं कि संघ के संस्थापक डॉ. केशव बलीराम हेडगेवार कांग्रेस के सदस्य और पदाधिकारी थे। कांग्रेस के आंदोलनों में जेल गए। राजद्रोह का मुकदमा उन पर चला। उनकी प्रेरणा से हजारों स्वयंसेवकों ने आजादी में अपना योगदान दिया। एक बार जब करीब साल भर की सजा के बाद रिहा हुए डॉ. साहब के सम्मान समारोह की अध्यक्षता मोतीलाल नेहरू ने की।
आंखों में झूठ का चश्मा चढ़ाए, कानों में पूर्वाग्रह की रूई ठूंसे हुए गांधी के इन झंडाबरदारों को यह सत्य न कभी दिखाई देता है न सुनाई देता है। गोडसे ने बापू को एक ही बार मारा, पर गांधी के ये चेले रोज-रोज उनकी हत्या कर रहे हैं। गांधी के ये शिष्य आज उस ओर पैर रखकर भी नहीं सोते, जिधर संघ की शाखा लगती है। लेकिन गांधी को संघ की शाखा को भेंट देने से परहेज नहीं था। पहली बार अपने पट्ट शिष्य जमनालाल बजाज के साथ वर्धा में बापू संघ स्थान पर गए। यह संघ शिक्षा वर्ग बजाज जी की ही जमीन पर लगा था। बापू 1 घंटा 30 मिनट यहां रहे। जिज्ञासाएं की, तिथि थी 25 दिसंबर 1934। बापू ने संघ को पहली भेंट दी प्रेम और शांति के दूत ईसा मसीह के जन्मदिन पर। अगले दिन उन्होंने डॉ. हेडगेवार से मुलाकात की इच्छा प्रकट की। मुलाकात हुई, सार्थक रही। उसके बाद कम से कम दो बार गांधी संघ के कार्यक्रम में गए। हर भेंट से गांधी संतुष्ट हुए संघ से जैसे सवाल आजतक पूछे जा रहे हैं। कभी गुरुदेव रविन्द्रनाथ के सामने नहीं रखे गए। स्वामी विवेकानंद और रामकृष्ण मिशन से भी नहीं पूछे गए। आज भी तर्क की नयी-नयी कसौटी लेकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को कसा जाता है। संघ हर बार कुंदन साबित हुआ है। चेले फिर नयी कसौटियों के साथ उपस्थित होते रहते हैं।
जब गांधी अंग्रेजों की तोप से टकरा रहे थे, संघ भी उनके साथ खड़ा था। अपने लोहारखाने में अंग्रेजों की गुलामी से छुटकारा पाने के लिए एकता-अखंडता के शस्त्र ढाल रहा था। इसे देखने के लिए सच्चाई की आंखें चाहिए। भारत बड़ा भावुक देश है। जिसे महान मानता है, उसे भगवान का दर्जा दे देता है, इसमें सुविधा रहती है। महान आदमी के आचरण का अनुशरण नहीं करना पड़ता। साथ ही पंडे-पुजारियों का भी जुगाड़ हो जाता है। पर संघ यह मानता है कि मनुष्य कितना ही महान हो, उसके स्खलित होने, चूकने की गुंजाइश बनी रहती है। यही कारण है कि संघ ने भगवा ध्वज को अपना गुरू माना है। गांधी भी अपवाद नहीं हैं। जवाहरलाल नेहरू के प्रति उनका अतिरिक्त मोह का होना, बा पर अपनी इच्छा लादना, उनकी इच्छा के विरुध्द सुभाषचंद्र बोस का कांग्रेस अध्यक्ष बनना गांधी पचा नहीं पाए। अंतत: सुभाष जी को इस्तीफा देना पड़ा। इन्हें महान बापू की मानवीय कमजोरी ही कहा जाएगा।
संघ की नजरों में पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपए दिलाना मनुष्य से चूक होने के उदाहरण हैं। फिर भी संघ की दृष्टि में बापू महान आत्मा थे। संघ ने उन्हें अपनी प्रात: स्मरण की प्रार्थना में शामिल किया है। जैसे फिल्मी कलाकारों के एजेंट होते हैं, जो उनके समय का संयोजन करते हैं, उनकी अनुमति के बिना कलाकार न तो किसी फिल्म में काम करता है न ही शूटिंग के लिए तारीख देता हैं। वैसे ही ये गांधी के स्वयंभू एजेंट हो गए हैं। यही दुनिया को बताते हैं कि बापू ने जो किया उसका क्या अर्थ है। आज बापू होते तो क्या करते क्या नहीं करते। बाकी सबसे तो गांधी मुक्त हो गए, पर एजेंटों की कैद में आज भी छटपटा रहे हैं। बापू अगर इन एजेंटों से मुक्त हो पाए तो जरूर छत्तीसगढ़ आएंगे। जैसे पहले आए थे। इसी छत्तीसगढ़ के पंडित सुंदरलाल शर्मा के अछूतोद्वार के क्षेत्र में अपना गुरू माना था।
अब गांधी छत्तीसगढ़ आएंगे तो बस्तर जरूर जाएंगे। उनके मन में जो आदिवासियों के लिए काम न कर पाने की ग्लानि है, उसे दूर करेंगे। यह बात जरूर है कि गांधी जब यह जानेंगे कि जिस शराब के वे विरोधी हैं, वह आदिवासियों के रोजमर्रा जीवन का आवश्यक अंग है। वैसे ही मांसाहार और हिंसा जंगल में हर कदम पर मिलती है, क्योंकि जंगल में वही अपना अस्तित्व कायम रख सकता है, जिसके पास ताकत हो। ये सब बातें गांधी को दु:खी करेंगी। पर जब उन्हें पता लगेगा कि वनवासी माओवादी हिंसा के सामने सलवा-जुडूम चला रहे हैं। बस्तर की सात लाख की आबादी में सलवा-जुडूम आंदोलन में चार हजार से चालीस हजार कार्यकर्ता शामिल हो रहे हैं। इन कार्यकर्ताओं के हाथ में हथियार तो होते हैं, पर हिंसा के लिए नहीं, अपितु जंगल में राह की बाधा हटाने के लिए। यह शांति अभियान उन वनवासियों द्वारा चलाया जा रहा है, जो बापू के अहिंसा के दार्शनिक पक्ष को नहीं जानते। शराब और मांसाहार की बुराई को भी नहीं जानते। उनका सलवा-जुडूम उनके मन की सजह इच्छा है। वे नक्सली हिंसा का जवाब असहयोग से देने की नीति पर चल रहे हैं। गांधी 139 साल की उम्र में भी अपनी तर्ज के इस आंदोलन से जुड़ना चाहेंगे। हे राम, बापू के जान-पाण्डों को सद्-बुद्धि दो ताकि वे गांधी को अपने चंगुल से आजाद करें। बापू जुडूम में शामिल होंगे तो नेता के अभाव में कभी-कभी जुडूम आंदोलन थोड़ा बहुत बहक जाता है, नहीं भटक पाएगा। गांधी के सानिध्य में आदिवासी भी बुराई से मुक्त हो सकेंगे। गांधी को समझने, जानने, मानने वाले कृपा करके गांधी को अपनी कैद से आजाद करो ताकि गांधी सलवा-जुडूम से जुड़ सकें।
(लेखक जगदलपुर के पूर्व विधायक हैं)
6/20/2008
गांधी ! तुम निकल भागो फर्जी गाँधीवादियों के बीच से !
विश्वरंजन
पुलिस महानिदेशक,छत्तीसगढ़
एलबर्ट आईन्सटाईन ने कहीं लिखा है कि सदियों बाद लोग यह मानने को तैयार नहीं होंगे कि गाँधी जैसा कोई हाड़-माँस का व्यक्ति इस धरती पर कभी चला भी हो । गांधी के गुजरे हुए अभी सदियाँ नहीं बीती है । और किस स्थिति में गाँधी क्या करते, क्या नहीं करते इस विषय पर ऐसे लोग राय देने लगे हैं जो खुद के गिरेहबान में झाँकने की हिम्मत नहीं कर सकते। इसीलिए मैं गांधी पर लिखने से कतराता हूँ । कुछ लोग नहीं कतराते, यह सच है । पर उन्हें कतराना चाहिए ।
पर मैं गाँधी के विषय में और गाँधीवादियों के विषय में सोचता अवश्य हूँ । मेरा यह मानना है कि दूसरा गाँधी नहीं हो सकता, जैसे दूसरा राम नहीं हो सकता, दूसरा कृष्ण नहीं हो सकता, दूसरा बुद्ध नहीं हो सकता, दूसरा लाओत्से नहीं हो सकता, दूसरा ईसा नहीं हो सकता, दूसरा मोहम्मद नहीं हो सकता। वैसे एक गुलाब जैसा दूसरा गुलाब भी नहीं हो सकता। उसी तरह मैं सिर्फ विश्वरंजन हो सकता हूँ। कनक तिवारी सिर्फ कनक तिवारी हो सकते हैं। हम दोनों यदि अपने-अपने गिरहबान में झाँकते रहें तो निश्चित ही अच्छे इंसान हो सकते हैं। गाँधी नहीं हो सकते। और जैसे गुलाब के कारण कोई गुलाबवादी नहीं हो सकता, गाँधी के बाद संदीप पान्डेय या कोई भी गाँधीवादी नहीं हो सकता। गाँधी नोआखोली मे सम्प्रदायिक हिंसा रोकने के लिये अकेले ‘एकला चलो रे’ कहते हुए चल सकते थे। आज के गाँधीवादी बस्तर के जंगलों घूम कर माओवादियों से नहीं कह सकते कि “मित्र! हिंसा छोड़ो, जो तुमसे असहमत हैं, उन्हें मारना छोड़ो, हम तुम्हें अब नहीं मारने देंगे । तुम्हें आदिवासियों को मारने के पूर्व हमें मारना पड़ेगा। हम उफ्फ तक नहीं करेंगे। हम हाथ तक नहीं उठायेंगे......।”
गाँधी ऐसा कर सकते थे इसलिये जब गोडसे की गोली लगी तो उनके मुँह से निकला था- “हे राम।” आज यदि गोली क्या लाठी भी सिर पर पड़ जाये तो हमसे से ज्यादातर लोगों- मेरे, कनक तिवारी और ज्यादातर गाँधीवादियों के मुँह से निकलेगा “बार रे बाप”। तथाकथित गाँधीवादी जंगल जाकर माओवादियों से बातचीत करने की हिम्मत नहीं कर सकते। वे शहरी चौराहों पर धरना दे सकते हैं। गाँधी अपनी शुद्धि के लिये उपवास करते थे। उन्हें लगता था कि यदि ब्रिटिश हुकूमत उनकी कोई बात नहीं मान रही है तो कहीं कुछ खोट उनमें है जिसके कारण वे सही बात समझा नहीं पा रहे हैं । अतः उन्हें उपवास कर ख़ुद को शुद्ध करने की ज़रूरत है। गाँधी के उपवास मन और हृदय को शुद्ध करने के तरीके थे । गहन आत्म-विश्लेषण का जरिया था जिसके बाद वे दूसरों पर और मज़बूती से आज़ादी की लड़ाई में उतरते थे। गाँधी का उपवास दूसरों पर दबाव डालने की नियत से नहीं होता था जैसा तथाकथित गाँधीवादी आज करते हैं। पर मैं गलत हो सकता हूँ। मैं गाँधी नहीं हूँ और गाँधी के दिल और दिमाग में छुपे हर कारण, हर राज़ को उकेरने की क्षमता नहीं है। पर कनक तिवारी भी गाँधी नहीं हैं। न ही तथाकथित गाँधीवादी ।
मैं गांधी के विषय में सचमुच लिखना नहीं चाहता । पर कनक तिवारी ने बातचीत छेड़ ही दी है। मैंने पहले “गिरहबान में झाँकने” की बात कही है। गाँधी में यह ताकत थी। वे अपनी गलतियों, अपनी कमज़ोरियों का जिक्र अपने भाषणों में, अपने पत्रों में, अपने लेखों में खुल कर सकते थे। मैं आजकल के गाँधीवादियों में यह हिम्मत नहीं पाता । उनमें से कोई गाँधी की तरह खुली किताब नहीं है। वे ठीक-ठाक गाँधी का मुखौटा भी नहीं बना सकते जिसे वे पहन सके। उनके गाँधी के मुखौटों पर क्रोध भी झलकेगा, घृणा भी, दूसरों से ज्यादा जानने-समझने का अहंकार भी । मुखौटा लगा कर कोई नोआखोली या बस्तर के वीरान बियाबानों में नक्सली हिंसा रोकने के लिये नहीं चल सकता।
मैं एक गाँधीवादी को कुछ-कुछ जानता हूँ। और जितना जानता हूँ उसके कारण यह तो कह ही सकता हूँ कि वे झूठ बहुत बोलते हैं। वे रहते तो गाँधीवादी तरीके से हैं। आश्रम में निवसते हैं । ज़मीन पर सोते हैं। बहुत सादा खाना खाते हैं। पर ग्रांट्स या अनुदान के लिये बार-बार दिल्ली के गलियारों की खाक भी छानते रहते हैं। उनके पास देश-विदेश से अनुदान भी लाखों में आता है। अहिंसा के नाम पर नक्सलियों से याराना भी होता है। गाहे-बगाहे से ज्यादा नक्सलियों को बचाने की कोशिश करते हैं। गाँधीवादी होने का तो फायदा उन्हें है ही। नक्सलियों को और मज़बूत करने की नियत से झूठी कहानी भी फैलाते रहते हैं......। पर हैं तो वे गांधीवादी ही । मैं नहीं जानता कि गाँधीजी ऐसा करते या नहीं। कनक तिवारी भी नहीं जानते। हम दोनों गाँधी नहीं हैं। पर मुझे लगता है कि गाँधी ऐसा नहीं करते । भारतीय गाँधीवादियों में अहंकार भी बहुत होता है। मार्टिन लूथर किंग जूनियर, नेल्सन मण्डेला और विशप टूटू से बाहर वे जा नहीं सकते। परन्तु डारथी डे, सीजर चेवाज़ या बारबरा डेमिंग का नाम शायद ही सुना होगा। ये तथाकथित गाँधीवादी सही मायनों में गाँधी से ज्यादा नज़दीक है। इन सब ने झूठ का सहारा कभी नहीं लिया और अपनी कमज़ोरियों को छुपाने की कोशिश भी नहीं की। और इन सभी में जबर्दस्त आत्मविश्लेषण की क्षमता थी।
आत्मविश्लेषण ही बताता है कि हमारा असल उद्वेश्य क्या है ? खुद को ही जब घूरती हुई आँखों से जो हर क्षण देख सकता है वही खुद का बड़प्पन और कमीनापन दोनों देख सकता है। जब उद्देश्य दूषित हो तो गाँधी का नाम उछालकर लोगों को बहुत दिनों तक बेवकूफ नहीं बनाया जा सकता। गाँधी को सलवा ज़ुडूम में रहना चाहिये या निकल भागना चाहिये, यह सब इसलिये बेमानी हो जाती है, क्योंकि गाँधी आज नहीं हैं। और कोई दूसरा गाँधी हो भी नहीं सकता। न विश्वरंजन हो सकता है गाँधी, न कनक तिवारी हो सकते हैं गांधी। और यदि गांधी आज होते तो न तो कनक तिवारी से पूछते न ही विश्वरंजन से कि उन्हें क्या करना चाहिए । पर इतना तो गाँधी की व्यापक दृष्टि जानी ही जाती है कि किसी भी हालत में उस समूह के साथ नहीं खड़ा होना है जिसका बुनियादी फलसफा हिंसा और आतंक पर टिका हुआ है। और यदि उनके साथ कोई नहीं चलता तो भी वे ‘एकता चालो रे’ कहते हुए बस्तर के ज़ंगलों में नक्ससियों के खिलाफ खड़े दिखते। गाँधी को इससे कोई वास्ता नहीं होता कि महेन्द्र कर्मा कांग्रेस में हैं अथवा नहीं। गाँधी इन चीज़ों से ऊपर उठ कर सोचते थे।
छत्तीसगढ़ी : लोकभाषा से राजभाषा तक
-कनक तिवारी
छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण से कुछ मनोवैज्ञानिक परिस्थितियाँ और मुद्दे उभर कर आए हैं। भाषा को लेकर कुछ महत्वपूर्ण मांगे और स्थापनाएँ की जा रही हैं। मसलन छत्तीसगढ़ में छत्तीसगढ़ी को तरजीह देनी होगी। इन स्थापनाओं की पड़ताल की ज़रूरत है। ये मोटे तौर पर इस तरह हैं:-
(1) छत्तीसगढ़ का प्रशासन छत्तीसगढ़ी में चलाया जाए।
(2) छत्तीसगढ़ी को छत्तीसगढ़ की भाषा घोषित किया जाए।
(3) छत्तीसगढ़ के मूर्धन्य साहित्यकार जिनकी मातृभाषा छत्तीसगढ़ी रही छत्तीसगढ़ी में कुछ नहीं लिखने के कारण छत्तीसगढ़ी की उपेक्षा के लिए शासन और प्रशासन से अधिक दोषी हैं।
(4) छत्तीसगढ़ी लेखकों को विशेष सम्मान प्राप्त होना चाहिए।
(5) छत्तीसगढ़ी को मानक भाषा का दर्जा दिया जाना चाहिए।
भाषा वैज्ञानिकों के अनुसार छत्तीसगढ़ी हिन्दी का ही स्वरूप है। वह अवधी तथा बघेलखंडी से काफ़ी मिलती है। प्रसिध्द विद्वान डॉ. ग्रियर्सन ने कहा है 'यदि कोई छत्तीसगढ़ी अवध में जाकर रहे तो वह एक ही सप्ताह में वहाँ की बोली इस तरह बोलने लगेगा मानो वही उसकी मातृभाषा हो। इतिहासकारों के अनुसार इसका मुख्य कारण हैहयवंशियों का राज्य भी हो सकता है, क्योंकि वह अवधी के इलाके के ही रहने वाले थे। छत्तीसगढ़ी का व्याकरण डॉ. हीरालाल ने लिखा था, जिसका अनुवाद डॉ. ग्रियर्सन ने किया था। उसका संशोधित संस्करण वर्षों पूर्व लोचन प्रसाद पांडेय के संपादन में प्रकाशित हुआ है।
अनुच्छेद 351 ये बौध्दिक स्थापनाएँ करता है।
1. हिंदी का प्रसार और विकास संघ का कर्तव्य है।
2. हिंदी को भारत की सामासिक संस्कृति के सभी तत्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम बनाता है।
3. हिंदी की (मौजूदा) प्रकृति में हस्तक्षेप किए बिना हिन्दुस्तानी, अन्य भारतीय (प्रादेशिक) भाषाओं और मुख्यतया संस्कृत शब्द, रूप, शैली आदि ग्रहण करते हुए हिंदी को समृध्द करना है।
इस संवेदनशील बिन्दु पर आकर छत्तीसगढ़ी को राजभाषा बनाने के सवाल पर विचार हो सकता है। यह बेहद दुखद और आश्चर्यजनक है कि संविधान हिंदी की अभिवृध्दि के लिए हिंदी रूपों वाली लोकबोलियों जैसे बृज भाषा, अवधी, बैसवारी, मैथिल, भोजपुरी, मालवी, निमाड़ी, बुन्देलखंडी, बघेलखंडी, हरियाणवी आदि पर निर्भर नहीं रहना चाहता।
यदि छत्तीसगढ़ी को भी राजनीति के सहारे शासकीय कामकाज की भाषा बना दिया गया तो वह अपनी जनसंस्कृति की केंचुल छोड़ देगी। छत्तीसगढ़ी भाषा या बोली के इतिहास, भूगोल, ध्वनिशास्त्र और प्रेषणीयता को लेकर शोध प्रबंध लिखना संभव हो सकता है लेकिन इस भाषा या बोली को रोजमर्रे के कामकाज में गले उतारना सरल नहीं है। संविधान में ऐसे कई प्रावधान हैं जिनकी अनदेखी नहीं की जा सकती। मूलभूत अधिकारों का तीसरा परिच्छेद पेंचीदगियाँ पैदा करता है। अनुच्छेद 14 विधि के समक्ष समता उत्पन्न करने वाला द्विगु समास है। अनुच्छेद 16 भाषायी विषमता रहते हुए भी लोक नियोजन के विषय में अवसर की समता देता है। युवा पीढ़ी का पूरा भविष्य इसी अनुच्छेद के विश्वविद्यालय में है। मंदिरों में इबादत करने के सेवानिवृत्त पीढ़ी के आग्रह की तरह छत्तीसगढ़ी का झंडा उन हाथों में ज़्यादा है जिनका कोई भविष्य नहीं है। भाषायी आंदोलन बेकारी भत्ता से लेकर पेंशन की अदायगी तक का अर्थशास्त्र भी होते हैं-यह बात हमने दक्षिण हिंदी विरोधी आंदोलनों के उत्तर में देखी है। अनुच्छेद 19 के वाक् स्वातंत्र्य और अभिव्यक्ति स्वातंत्र्य के छाते के नीचे खड़े होकर लोग अपनी रुचि की भाषा के अख़बार और किताबें पढ़ सकते हैं। बहरहाल जब तक छत्तीसगढ़ी आठवीं अनुसूची में शामिल नहीं होती तब तक किसी न्यायालय को अधिकार नहीं है कि वह किसी गवाह तक का बयान छत्तीसगढ़ी में दर्ज करे। न्यायिक सेवा में गैर छत्तीसगढ़ी न्यायाधीश भी हैं। वे न्यायालय की भाषा अर्थात हिंदी और अँगरेज़ी में ही काम करने के लिए संविधान द्वारा संरक्षित हैं। यही स्थिति प्रशासनिक सेवा की है। वैसे भी केंद्रीय हिन्दुस्तान के विद्यार्थी सर्वोच्च नौकरशाही में ज़्यादा नहीं हैं। छत्तीसगढ़ के विश्वविद्यालय क्षेत्रीय भाषा में अध्यापन करने का मौलिक अधिकार नहीं रखते। उच्चतम न्यायालय ने 1963 में ही अपने फैसले में गुजरात विश्वविद्यालय में केवल गुजराती माध्यम में शिक्षा देने की कोशिश को नाकाम कर दिया है। शिक्षा पाने के अनुच्छेद 41 के नीति निदेशक को संविधान के हृदय स्थल अनुच्छेद 21 के अंतर्गत जीवन का अधिकार माना गया है। ऐसी स्थिति में सरकार को फिलहाल इस बात का अधिकार नहीं है कि वह छत्तीसगढ़ी को समग्र शिक्षा का माध्यम बनाए। यदि कुछ विद्यार्थी छत्तीसगढी भाषा और साहित्य पढ़ भी लेंगे तो हम उनकी सफलता की नदियों और झीलों के बदले तालाब रच देंगे। इसमें कोई शक नहीं कि विज्ञान, तकनीक, डॉक्टरी, समाजशास्त्र, गणित और कम्प्यूटर जैसे ढेरों ऐसे विषय हैं जिनमें सफलता के लिए छत्तीसगढ़ के विद्यार्थियों की मदद करनी होगी, उनकी दुनिया को संकुचित करने के लिए नहीं।
यह तथ्य है कि छत्तीसगढ़ी भाषा या बोली को लेकर जितने भी शोध विगत वर्षों में हुए हैं, उनमें पहल, परिणाम या पथ प्रदर्शन का बड़ा हिस्सा छत्तीसगढ़वासियों के खाते में नहीं है। यह मध्यप्रदेश का सौभाग्य रहा है कि यहाँ के विश्वविद्यालयों में बार-बार भाषा-विज्ञानी कुलपतियों की नियुक्तियाँ हुई है। डॉ. बाबूराम सक्सेना, डॉ. धीरेंद्र वर्मा और डॉ. उदयनारायण तिवारी जैसे भाषा विज्ञानियों ने मध्यप्रदेश की भाषायी स्थिति पर काम करने के लिए प्रेरणाएँ दी हैं। अकेले डॉ. रमेशचंद्र मेहरोत्रा सभी कट्टर तथा रूढ़ छत्तीसगढ़ी-समर्थक भाषा विद्वानों के बराबर होंगे, जिनकी निस्पृह, खामोश और अनवरत छत्तीसगढ़ सेवा का मूल्याँकन कहाँ किया गया है। छत्तीसगढ़ी बोली को हिंदी की जगह लेने के निजी आग्रह बौध्दिक-मुद्रा की ठसक लिए हुए हैं। छत्तीसगढ़ी की तुलना दक्षिण की भाषाओं या मराठी, बंगाली वगैरह से की जा रही है। समाचार पत्रों में जगह का आरक्षण माँगा जा रहा है।
डॉ. रमेशचंद्र मेहरोत्रा ने छत्तीसगढ़ को बीसियों छात्रों को डाक्टरेट की डिग्रियाँ दिलवाई हैं। एक वीतरागी की तरह जीवन जीने सेवानिवृत्ति के बाद वे छत्तीसगढ़ में ही बस गए हैं। कथित परदेश नहीं लौट गए हैं। वैसे मानक छत्तीसगढ़ी बोली का अब तक स्थिरीकरण कहाँ हुआ है। बस्तर, खैरागढ़ और सरगुजा की बोली पूरी तौर पर एक जैसी कहाँ है। बकौल भगवान सिंह वर्मा इसमें कोई शक नहीं कि छत्तीसगढ़ी बेहद सरस, प्रवाहमयी और लचीली होने के कारण ब्रज या बैसवारी की तरह मधुर है। यह तीन चौथाई छत्तीसगढ़ी आबादी द्वारा बोली भी जाती है। इन सभी विषयों और समस्याओं का विस्तार विद्वानों की पुस्तकों मे है, जिनमें भोलानाथ तिवारी, केएन तिवारी, हीरालाल शुक्ल, कांतिकुमार वगैरह का भी सरसरी तौर पर उल्लेख किया जा सकता है। छत्तीसगढ़ की विधानसभा ने प्रस्ताव पारित किया है कि उसे संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल किया जाए। संविधान संशोधन के बगैर यह नहीं हो सकता। हिंदी की तमाम अन्य उपभाषाएँ या बोलियाँ प्रतीक्षा सूची में पचास वर्षों से लामबंद हैं। इक्कीसवीं सदी में छत्तीसगढ़ी भी पीछे आकर खड़ी हो गई है। छत्तीसगढ़ की सरकार ने पहली हिंदी से अँगरेज़ी की पढ़ाई को अनिवार्य कर दिया। एक तीन है तो दूसरी छह अर्थात् दोनों मिलाकर छत्तीस। संविधान में अनुच्छेद 350 एक और दिलचस्प तथा नामालूम-सा प्रावधान है। इसके अनुसार छत्तीसगढ़ की सरकार को प्रत्येक व्यक्ति को हिंदी में अभ्यावेदन देने का अधिकार है। छत्तीसगढ़ सरकार को चाहिए कि वह छत्तीसगढ़ी को हिंदी की उपभाषा करार देते हुए लोगों को यह छूट दे दे कि वे अपने अभ्यावेदन छत्तीसगढ़ी में करना शुरू कर दें। उन्हें उत्तर भी छत्तीसगढ़ी में ही देने शुरू किया जाना चाहिए। छत्तीसगढ़ी व्यथा, अन्याय, शोषण और हीनता के कोलाज की भाषा हैं। हिन्दी छत्तीसगढ़ी से सहानुभूति, सहकार और आश्वासन की। और अँगरेज़ी अन्तत: की जिसे शब्दकोश में अन्याय कहा जाता है। संविधान ने शिक्षा का मूलभूत अधिकार चौदह वर्ष तक प्रत्येक नागरिक को दिया है। भाषा का अलबत्ता वैकल्पिक अधिकार दिया है।
संविधान सभा में छत्तीसगढ़ से रविशंकर शुक्ल, घनश्याम सिंह गुप्त, बैरिस्टर छेदीलाल सिंह, किशोरीमोहन त्रिपाठी, गुरू आगमदास और रतनलाल मालवीय वगैरह सदस्य थे। इनमें से सबसे ज़्यादा घनश्याम सिंह गुप्त से यह उम्मीद की जा सकती थी कि वे संविधान सभा में छत्तीसगढ़ी के समर्थन में कुछ कहेंगे। लेकिन उन्होंने ऐसा कुछ नहीं किया। अलबत्ता वे प्रबल हिंदी समर्थक के रूप में उभरे। छत्तीसगढ़ी के लेखक सभी श्रेष्ठ साहित्य का अनुवाद करने की पहल क्यों नहीं करते जिसमें न केवल ग्रामीण पाठक वर्ग परिचित हो बल्कि रचनाकर्मी भी छत्तीसगढ़ी अभिव्यक्तियों को समृध्द कर सकें। संविधान में उन प्रादेशिक भाषाओं का उल्लेख है जिनकी उपस्थिति लोक जीवन में इस तरह रही है कि उनके बिना संबंधित प्रदेशों में प्रशासन नहीं चलाया जा सकता। इनमें हिंदी की उपभाषाएँ शामिल नहीं हैं। इस भाषायी स्थिति को सामासिक आदतों के सहकार के साथ स्वीकार कर लिया गया है। संविधान के लागू होने के बाद सिंधी, कोकणी, और मैथिली, नेपाली वगैरह को संविधान के अंतर्गत मान्य भाषाओं का दर्जा दिया गया है। छत्तीसगढ़ी बोलने वालों की संख्या इनसे कम नहीं है। कार्यपालिका तथा न्यायिक प्रशासन जनता के सरोकार हैं, भाषा और बोली के जानकारों के नहीं।
संविधान में संशोधन किए बिना प्रशासन को भाषा से हटकर बोली में रूपांतरण करना संभव नहीं है। शीर्ष स्तर पर आज भी अँगरेज़ी न्यायिक और कार्यपालिका प्रशासन की भाषा है। छत्तीसगढ़ी में अँगरेज़ी में अनुवाद किए बिना सर्वोच्च स्तर पर इस क्षेत्र की निजी और सामूहिक समस्याएँ कैसे पहुँचेगी। छत्तीसगढ़ी की तरह हिंदी की उपरोक्त सहोदराएँ पचास साठ वर्षों से संविधान पुत्री घोषित होने के लिए प्रतीक्षारत हैं। इन सब संवैधानिक और अनुसंधानिक आवश्यकताओं को पूरा किए बिना छत्तीसगढ़ी को नए प्रदेश की राजभाषा घोषित करना कैसे मुमकिन किया जा सकता है?
(लेखक प्रख्यात अधिवक्ता एवं साहित्यकार हैं)
लेबल:
छत्तीसगढ़,
छत्तीसगढ़ी,
भाषा,
विचार,
विवाद
6/17/2008
फिर दाग़दार हुई ख़ाकी वर्दी
भारतीय पुलिस विभागों में जहाँ अनेकानेक ऐसे अधिकारी व कर्मचारी देखने को मिलते हैं जिनपर कि सिंर्फ ख़ाकी वर्दी अथवा पुलिस विभाग ही नहीं बल्कि पूरा देश गौरवान्वित महसूस करता है। अपने कर्त्तव्य व सेवा के प्रति इनकी कर्त्तव्यपरायणता व वफ़ादारी के कारनामे सिर चढ़कर बोलते हैं। तमाम घटनाएँ तो ऐसी हैं जिन्हें पुलिस विभाग में हमेशा सुनहरे अक्षरों से लिखा जाएगा। परन्तु बड़े दु:ख का विषय है कि इन्हीं पुलिस विभागों में अनेकानेक ऐसे लोगों का भी प्रवेश हो गया है जिन्हें यदि पुलिस विभाग पर कलंक कहा जाए तो भी शायद कम होगा। हरियाणा पुलिस, यूँ तो देश की सबसे साफ़-सुथरी, अनुशासित, दबंग, कार्यकुशल, आकर्षक तथा स्वस्थ पुलिस सेवा के रूप में जानी जाती है। परन्तु इन्हीं पुलिसकर्मियों में तमाम ऐसे पुलिसजनों ने भी प्रवेश पा लिया है जिनसे कि हरियाणा पुलिस की साख आए दिन दाँव पर लगी रहती है।
रिश्वत, भ्रष्टाचार, धक्केशाही, ज़ोर ज़बरदस्ती, निकम्मापन जैसी बातें तो देश के लगभग सभी राज्यों की पुलिस में समान रूप से देखी जा सकती हैं। परन्तु हरियाणा पुलिस को लेकर गत् कुछ वर्षों के भीतर कई ऐसे मामले उजागर हुए हैं जोकि हरियाणा पुलिस का एक अपराधिक रूप एवं चरित्र पेश करते हैं। उदाहरण के तौर पर उत्तर प्रदेश व बिहार के मेहनतकश मंजदूरों से ज़बरदस्ती चलती ट्रेन में पैसे छीनने की कई ऐसी घटनाएँ घटित हो चुकी हैं जिनमें हरियाणा पुलिस को आरोपी बनाया जा चुका है। अभी मात्र दो वर्ष पूर्व ही अम्बाला शहर रेलवे स्टेशन पर हरियाणा पुलिस के जी आर पी में तैनात सिपाहियों द्वारा एक प्रवासी कामगार से ज़बरदस्ती पैसे छीनने का मामल उजागर हुआ था जिसमें दोषी पुलिसकर्मियों को गिरफ़्तार भी किया गया था।
यह घटना मीडिया में काफ़ी दिनों तक इसलिए भी छाई हुई थी क्योंकि पैसे की लूट में गिरंफ्तार एक पुलिसकर्मी ने इन जैसी घटनाओं के लिए सीधे तौर पर उच्च पुलिस अधिकारियों को दोषी ठहरा दिया था। गिरफ़्तार पुलिसकर्मी ने उस समय अपने आला पुलिस अधिकारियों पर निशाना साधते हुए कुछ ऐसे रहस्योद्धाटन किए थे जिनसे कि हरियाणा पुलिस का एक ख़ौफनाक चेहरा सामने आया था। इसी हरियाणा पुलिस के कुछ पुलिसकर्मियों को अम्बाला-सहारनपुर मार्ग पर लूट खसोट करने के चलते सेना के जवानों ने चलती हुई ट्रेन में क़ाबू कर लिया था तथा उन्हें पीट-पीट कर न सिर्फ़ उन्हें उनके किए की सज़ा दी थी बल्कि बाद में उन्हें उत्तर प्रदेश में जी आर पी के हवाले भी कर दिया था।
चण्डीगढ़ में हरियाणा पुलिसकर्मियों द्वारा अपने पुलिस कैम्प में सामूहिक बलात्कार किए जाने की घटना भी अभी कुछ समय पहले ही की बात है। इस घटना से भी हरियाणा पुलिस बेहद शर्मसार हुई थी। और उसके पश्चात अब रोहतक के ताज़तरीनसरिता-बलात्कार एवं ख़ुदकुशी कांड ने एक बार फिर हरियाणा पुलिस की ख़ाकी वर्दी को दाग़दार कर छोड़ा है।
हरियाणा पुलिस वैसे तो वी एन राय, आलोक जोशी, राजबीर देसवाल, मनोज यादव जैसे कई बुद्धिमान एवं साहित्यिक रूचि रखने वाले अधिकारियों से लबरेज़ है। परन्तु वहीं इन्हीं के मध्य कुछ अधिकारी ऐसे भी हैं जो भ्रष्ट पुलिसकर्मियों के लिए प्रेरणास्रोत साबित होते हैं। उदाहरण के तौर पर डी जी पी राठौड़ प्रकरण को ही ले लीजिए। जब राज्य का सबसे बड़ा पुलिस अधिकारी ही एक युवती की हत्या में आरोपी हो तथा सी बी आई जाँच का सामना कर रहा हो, ऐसे में तुलनात्मक दृष्टि से छोटा दृष्टिकोण रखने वाले साधारण पुलिसकर्मियों से आंखिर क्या उम्मीद की जा सकती है। ज़ाहिर है जब सेनापति ही दुश्चरित्र होने का प्रमाण पत्र लिए घूमने लग जाए फिर आख़िर साधारण पुलिसकर्मियों पर उंगली कैसे उठाई जाए। कहना ग़लत नहीं होगा कि राठौड़ प्रकरण के बाद हरियाणा पुलिस में नैतिक गिरावट के मामलों में वृद्धि देखने को मिली है।
रोहतक का सरिता बलात्कार एवं ख़ुदकुशी कांड वास्तव में हरियाणा पुलिस की एक साथ कई ख़ामियों को उजागर करता है। एक तो सरिता के पति की अकारण गिरफ़्तारी। फिर उसे छोड़ने के लिए उसकी पत्नी को बदनियती के साथ थाने बुलाया जाना। थाने में बुलाकर सरिता को उसके पति को छोड़ने की लालच देकर उससे दो वर्दीधारी पुलिसकर्मियों द्वारा बलपूर्वक बलात्कार करना। फिर पीड़ित महिला की शिकायत पर उन बलात्कारी पुलिसकर्मियों के विरुद्ध न तो मुक़द्दमा क़ायम करना न ही उन्हें गिरफ़्तार करना और हद तो उस समय हो गई जबकि बलात्कार की शिकार पीड़ित सरिता अपने दो मासूम बच्चों को लेकर रोहतक से लगभग 300 किलोमीटर दूर हरियाणा पुलिस के पंचकुला स्थित मुख्यालय पहुँची। वहां भी उसकी फ़रियाद सुनने वाला कोई न मिला। अन्ततोगत्वा हरियाणा पुलिस मुख्यालय पंचकुला में ही उस अभागी महिला द्वारा बांकायदा पूर्व चेतावनी देकर ज़हर खा लिया गया तथा अपने दो छोटे-छोटे बच्चों व पति को छोड़कर उस दुखियारी सरिता द्वारा अपने जीवन की लीला समाप्त कर ली गई। हरियाणा पुलिस की वर्दी पर न तो इससे अधिक बदनुमा दांग कोई दूसरा देखने को मिल सकता है, न ही इससे बड़ा तमांचा। अब चाहे हरियाणा सरकार मुआवज़े के तौर पर पीड़ित परिवार को अधिक से अधिक धनराशि उपलब्ध कराए या मृतका के पति को सरकारी नौकरी दे परन्तु यह सभी उपाय ख़ाकी वर्दी पर लगे कलंक रूपी धब्बे को धो पाने के लिए क़तई नाकाफ़ी हैं।
साधारण समाज में बलात्कार अथवा बलात्कार के परिणामस्वरूप आत्महत्या किए जाने की घटनाएँ पहले भी कई बार घटित हो चुकी हैं। परन्तु समाज के रक्षकों द्वारा बलात्कार किया जाना तथा सुनवाई न होने पर पुलिस मुख्यालय पहुँचकर पीड़िता द्वारा आत्महत्या करने की शायद यह पहली घटना प्रकाश में आई है। जहाँ देश की सरकारें पुलिस में महिलाओं की अधिक से अधिक भर्ती कर, यहां तक कि विशेष शुद्ध महिला थाने स्थापित कर महिलाओं के दिल से पुलिस का ख़ौफ़ निकालने एवं महिलाओं की पुलिस तक बे रोक टोक पहुँच को सुनिश्चित करने का प्रयास कर रही हैं, वहीं इसी विभाग में कुछ वहशी दरिंदे पूरे के पूरे हरियाणा पुलिस विभाग को अपनी ऐसी काली करतूतों के द्वारा बदनाम करने में लगे हैं।
मेरे विचार से साधारण समाज हेतु ऐसे दुष्कर्मों की जो संजा भारतीय दंड संहिता में निर्धारित की गई है, क़ानून के रखवालों के लिए इससे अलग हटकर सज़ा का प्रावधान होना चाहिए। क्योंकि आम समाज का कोई व्यक्ति यदि कोई जुर्म या धोखा करता है तो कम से कम वह अपने ऊपर ख़ाकी वर्दी, सरकारी पदवी अथवा सरकारी रक्षक होने जैसा लेबल आदि नहीं लगाए होता है। ठीक इसके विपरीत एक वर्दीधारी व्यक्ति वर्दी की आड़ में या वर्दी के भरोसे पर या वर्दी का रोब दिखाकर बड़े से बड़े जुर्म को आसानी से ऐसे कर डालता है जैसे कि उसे जुर्म करने का लाईसेंस सरकार ने ही दे रखा हो। लिहाज़ा भले ही ऐसे पुलिसकर्मियों पर भारतीय दंड संहिता की उन्हीं धाराओं का प्रयोग क्यों न हो जो आम समाज के अपराधियों पर लागू होती हैं परन्तु वर्दीधारियों हेतु ऐसे अपराधों के लिए कम से कम दोगुनी अधिक संजाओं का प्रावधान अवश्य होना चाहिए।
निर्मल रानी
163011, महावीर नगर,
अम्बाला शहर,हरियाणा
रिश्वत, भ्रष्टाचार, धक्केशाही, ज़ोर ज़बरदस्ती, निकम्मापन जैसी बातें तो देश के लगभग सभी राज्यों की पुलिस में समान रूप से देखी जा सकती हैं। परन्तु हरियाणा पुलिस को लेकर गत् कुछ वर्षों के भीतर कई ऐसे मामले उजागर हुए हैं जोकि हरियाणा पुलिस का एक अपराधिक रूप एवं चरित्र पेश करते हैं। उदाहरण के तौर पर उत्तर प्रदेश व बिहार के मेहनतकश मंजदूरों से ज़बरदस्ती चलती ट्रेन में पैसे छीनने की कई ऐसी घटनाएँ घटित हो चुकी हैं जिनमें हरियाणा पुलिस को आरोपी बनाया जा चुका है। अभी मात्र दो वर्ष पूर्व ही अम्बाला शहर रेलवे स्टेशन पर हरियाणा पुलिस के जी आर पी में तैनात सिपाहियों द्वारा एक प्रवासी कामगार से ज़बरदस्ती पैसे छीनने का मामल उजागर हुआ था जिसमें दोषी पुलिसकर्मियों को गिरफ़्तार भी किया गया था।
यह घटना मीडिया में काफ़ी दिनों तक इसलिए भी छाई हुई थी क्योंकि पैसे की लूट में गिरंफ्तार एक पुलिसकर्मी ने इन जैसी घटनाओं के लिए सीधे तौर पर उच्च पुलिस अधिकारियों को दोषी ठहरा दिया था। गिरफ़्तार पुलिसकर्मी ने उस समय अपने आला पुलिस अधिकारियों पर निशाना साधते हुए कुछ ऐसे रहस्योद्धाटन किए थे जिनसे कि हरियाणा पुलिस का एक ख़ौफनाक चेहरा सामने आया था। इसी हरियाणा पुलिस के कुछ पुलिसकर्मियों को अम्बाला-सहारनपुर मार्ग पर लूट खसोट करने के चलते सेना के जवानों ने चलती हुई ट्रेन में क़ाबू कर लिया था तथा उन्हें पीट-पीट कर न सिर्फ़ उन्हें उनके किए की सज़ा दी थी बल्कि बाद में उन्हें उत्तर प्रदेश में जी आर पी के हवाले भी कर दिया था।
चण्डीगढ़ में हरियाणा पुलिसकर्मियों द्वारा अपने पुलिस कैम्प में सामूहिक बलात्कार किए जाने की घटना भी अभी कुछ समय पहले ही की बात है। इस घटना से भी हरियाणा पुलिस बेहद शर्मसार हुई थी। और उसके पश्चात अब रोहतक के ताज़तरीनसरिता-बलात्कार एवं ख़ुदकुशी कांड ने एक बार फिर हरियाणा पुलिस की ख़ाकी वर्दी को दाग़दार कर छोड़ा है।
हरियाणा पुलिस वैसे तो वी एन राय, आलोक जोशी, राजबीर देसवाल, मनोज यादव जैसे कई बुद्धिमान एवं साहित्यिक रूचि रखने वाले अधिकारियों से लबरेज़ है। परन्तु वहीं इन्हीं के मध्य कुछ अधिकारी ऐसे भी हैं जो भ्रष्ट पुलिसकर्मियों के लिए प्रेरणास्रोत साबित होते हैं। उदाहरण के तौर पर डी जी पी राठौड़ प्रकरण को ही ले लीजिए। जब राज्य का सबसे बड़ा पुलिस अधिकारी ही एक युवती की हत्या में आरोपी हो तथा सी बी आई जाँच का सामना कर रहा हो, ऐसे में तुलनात्मक दृष्टि से छोटा दृष्टिकोण रखने वाले साधारण पुलिसकर्मियों से आंखिर क्या उम्मीद की जा सकती है। ज़ाहिर है जब सेनापति ही दुश्चरित्र होने का प्रमाण पत्र लिए घूमने लग जाए फिर आख़िर साधारण पुलिसकर्मियों पर उंगली कैसे उठाई जाए। कहना ग़लत नहीं होगा कि राठौड़ प्रकरण के बाद हरियाणा पुलिस में नैतिक गिरावट के मामलों में वृद्धि देखने को मिली है।
रोहतक का सरिता बलात्कार एवं ख़ुदकुशी कांड वास्तव में हरियाणा पुलिस की एक साथ कई ख़ामियों को उजागर करता है। एक तो सरिता के पति की अकारण गिरफ़्तारी। फिर उसे छोड़ने के लिए उसकी पत्नी को बदनियती के साथ थाने बुलाया जाना। थाने में बुलाकर सरिता को उसके पति को छोड़ने की लालच देकर उससे दो वर्दीधारी पुलिसकर्मियों द्वारा बलपूर्वक बलात्कार करना। फिर पीड़ित महिला की शिकायत पर उन बलात्कारी पुलिसकर्मियों के विरुद्ध न तो मुक़द्दमा क़ायम करना न ही उन्हें गिरफ़्तार करना और हद तो उस समय हो गई जबकि बलात्कार की शिकार पीड़ित सरिता अपने दो मासूम बच्चों को लेकर रोहतक से लगभग 300 किलोमीटर दूर हरियाणा पुलिस के पंचकुला स्थित मुख्यालय पहुँची। वहां भी उसकी फ़रियाद सुनने वाला कोई न मिला। अन्ततोगत्वा हरियाणा पुलिस मुख्यालय पंचकुला में ही उस अभागी महिला द्वारा बांकायदा पूर्व चेतावनी देकर ज़हर खा लिया गया तथा अपने दो छोटे-छोटे बच्चों व पति को छोड़कर उस दुखियारी सरिता द्वारा अपने जीवन की लीला समाप्त कर ली गई। हरियाणा पुलिस की वर्दी पर न तो इससे अधिक बदनुमा दांग कोई दूसरा देखने को मिल सकता है, न ही इससे बड़ा तमांचा। अब चाहे हरियाणा सरकार मुआवज़े के तौर पर पीड़ित परिवार को अधिक से अधिक धनराशि उपलब्ध कराए या मृतका के पति को सरकारी नौकरी दे परन्तु यह सभी उपाय ख़ाकी वर्दी पर लगे कलंक रूपी धब्बे को धो पाने के लिए क़तई नाकाफ़ी हैं।
साधारण समाज में बलात्कार अथवा बलात्कार के परिणामस्वरूप आत्महत्या किए जाने की घटनाएँ पहले भी कई बार घटित हो चुकी हैं। परन्तु समाज के रक्षकों द्वारा बलात्कार किया जाना तथा सुनवाई न होने पर पुलिस मुख्यालय पहुँचकर पीड़िता द्वारा आत्महत्या करने की शायद यह पहली घटना प्रकाश में आई है। जहाँ देश की सरकारें पुलिस में महिलाओं की अधिक से अधिक भर्ती कर, यहां तक कि विशेष शुद्ध महिला थाने स्थापित कर महिलाओं के दिल से पुलिस का ख़ौफ़ निकालने एवं महिलाओं की पुलिस तक बे रोक टोक पहुँच को सुनिश्चित करने का प्रयास कर रही हैं, वहीं इसी विभाग में कुछ वहशी दरिंदे पूरे के पूरे हरियाणा पुलिस विभाग को अपनी ऐसी काली करतूतों के द्वारा बदनाम करने में लगे हैं।
मेरे विचार से साधारण समाज हेतु ऐसे दुष्कर्मों की जो संजा भारतीय दंड संहिता में निर्धारित की गई है, क़ानून के रखवालों के लिए इससे अलग हटकर सज़ा का प्रावधान होना चाहिए। क्योंकि आम समाज का कोई व्यक्ति यदि कोई जुर्म या धोखा करता है तो कम से कम वह अपने ऊपर ख़ाकी वर्दी, सरकारी पदवी अथवा सरकारी रक्षक होने जैसा लेबल आदि नहीं लगाए होता है। ठीक इसके विपरीत एक वर्दीधारी व्यक्ति वर्दी की आड़ में या वर्दी के भरोसे पर या वर्दी का रोब दिखाकर बड़े से बड़े जुर्म को आसानी से ऐसे कर डालता है जैसे कि उसे जुर्म करने का लाईसेंस सरकार ने ही दे रखा हो। लिहाज़ा भले ही ऐसे पुलिसकर्मियों पर भारतीय दंड संहिता की उन्हीं धाराओं का प्रयोग क्यों न हो जो आम समाज के अपराधियों पर लागू होती हैं परन्तु वर्दीधारियों हेतु ऐसे अपराधों के लिए कम से कम दोगुनी अधिक संजाओं का प्रावधान अवश्य होना चाहिए।
निर्मल रानी
163011, महावीर नगर,
अम्बाला शहर,हरियाणा
सदस्यता लें
संदेश (Atom)