5/26/2008

अथ मंच कथा

बाँस-बल्ली गाड़ते वक्त पसीने से लथपथ सिर्फ़ वही हुए थे
तोरण के हर पत्तों पर उनकी अँगुलियों के ही निशान हैं
सजाये गये आसनों का बोझ उनके कांधे ही जानते हैं
गाँव-गाँव हाँका देकर लोगों को बुलाया था उन्होंने ही
वैसे तो मंच भी सिर्फ़ उन्हीं के नाम पर था
ऐसा भी नहीं कि उन्हें मंच पर बुलवाया ही नहीं गया
मालायें उन्हीं के हाथों पहनायी गयी
ताली उन्हीं से पिटवायीं गयीं
नचाया गया उन्हें ही उनकी कला के नाम पर


यह दीगर बात है कि
उनके ही दुखों पर देते रहे बयान सारे के सारे
पर दुःख चिपका रहा जस के तस उन्हीं से
वे नीचे बैठे-बैठे महसूसते रहे दुःख
उनमें से कोई बीच में बड़बड़ाया
तो फट्ट से गुर्रा कर बिठा दिया गया


उन्हें लौटना था - उनका दुःख उनके साथ लौट आया
और उनके बारे में और क्या बतायें -
उन्हें और आगे पहुँचना था – मुस्कराहट उनके साथ-साथ आगे कुलांचे भर रही थीं
0जयप्रकाश मानस

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