8/12/2009

चरणदास चोर



यह अकल्पनीय था कि कीर्तिशेष रंगकर्मी हबीब तनवीर के विश्वप्रसिध्द नाटक ''चरणदास चोर'' पर उनके अपने प्रदेश याने छत्तीसगढ़ की सरकार ही प्रतिबंध लगा देगी। इसलिए जब कुछ अखबारों के माध्यम से यह जानकारी मिली तो विश्वास न करने का कोई कारण नहीं था तथा इस स्थिति में रोष, चिंता व आश्चर्य की मिलीजुली भावनाएं उमड़ना स्वाभाविक ही था। लेकिन इसके बाद खबर का जैसे-जैसे खुलासा हुआ यह समझ आया कि सरकार, मीडिया, प्रतिबंध की मांग करने वाले व इसका विरोध करने वाले सबने अपनी-अपनी तरफ से अभिव्यक्ति की आजादी से जुड़े एक संवेदनशील मसले को उलझाने में कोई कसर बाकी नहीं रखी। जिस धैर्य व विवेक का परिचय दिया जाना चाहिए था वह इनमें से किसी ने नहीं दिखाया।


यह तथ्य सबसे पहले स्पष्ट कर लेना चाहिए कि छत्तीसगढ़ सरकार ने ''चरणदास चोर'' नाटक के मंचन पर या पुस्तक की बिक्री पर कोई रोक नहीं लगाई है। छत्तीसगढ़ सरकार ने, जहां तक हमारी जानकारी है, ऐसा कोई आदेश जारी नहीं किया है। इसके बाद इस तथ्य का उल्लेख करना लाजिमी है कि छत्तीगसढ़ शासन के स्कूली शिक्षा विभाग ने विभागीय मंत्री और सचिव के फोन पर दिए निर्देश के अनुरूप, 31 जुलाई की शाम वाणी प्रकाशन नई दिल्ली से प्रकाशित चरणदास चोर पुस्तक का पुस्तक वाचन अभियान के दौरान वाचन न करने का आदेश जारी किया। इस आदेश में प्रदेश के सभी जिला शिक्षा अधिकारियों को कहा गया कि वे इस 'प्रतिबंधित पुस्तक' की प्रति स्कूलों से बुलाकर अपने पास जमा कर लें। लेकिन उसमें मंचन पर रोक तथा पुस्तक वाचन सप्ताह के बाद रोक जारी रहने की बात नहीं थी। अब इस मामले को विस्तार में समझने की जरूरत है।


हबीब साहब का यह नाटक संभवत: 1987 मे पुस्तकायन नामक प्रकाशक ने छापा था। 2004 में वाणी प्रकाशन ने इसका नया संस्करण छापा। इसमें लेखक की जो प्रस्तावना थी वह पहले संस्करण की भूमिका से भिन्न थी। इसमें सतनामी समाज एवं सतनाम पंथ के प्रति हबीब तनवीर ने प्रशंसायुक्त विचार व्यक्त किए हैं, लेकिन ऐसी दो पंक्तियां हैं जो संभवत: किवदंती पर आधारित हैं अथवा असावधानी में लिखी गई हैं और जिन पर सतनामी समाज का रुष्ट होना सहज है। समाज के एक चर्चित नेता गुरु बालदास ने इसीलिए 2004 में नया संस्करण प्रकाशित होने के बाद मुख्यमंत्री डॉ। रमनसिंह से इसकी शिकायत की तथा आपत्तिजनक अंशों को विलोपित करने की मांग की। गुरु बालदास द्वारा आपत्ति दर्ज करना एक विधिसम्मत कदम था। यद्यपि यह शायद बेहतर होता कि वे हबीब तनवीर से सीधे संपर्क कर उनसे ही मांग करते कि वे उन दो वाक्यों को पुस्तक से हटा दें। फिर भी उन्होंने कोई उग्र कदम नहीं उठाया इसे नोट किया जाना चाहिए। 2004 में राज्य सरकार ने इस पर क्या कार्रवाई की यह पता नहीं चल पाया। संभवत: बात आई-गई कर दी गई। शिकायतकर्ता के पास स्वयं कोई रिकार्ड नहीं है। हमने उनसे पिछली शिकायत का ब्यौरा मांगा, लेकिन नहीं मिल पाया। अगर राज्य सरकार ने उस समय कोई आदेश किया होगा तो सामान्य प्रशासन विभाग, संस्कृति विभाग, शिक्षा विभाग अथवा वाणी प्रकाशन के पास उसकी कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है।


सन् 2008 में वाणी प्रकाशन ने ही इस पुस्तक का नया संस्करण छापा। पुस्तक में प्रथम पृष्ठ पर दी गई सूचना से पता चलता है कि छत्तीसगढ़ राज्य के स्कूली शिक्षा विभाग की पुस्तकालय विकास योजना के तहत यह पुस्तक छापी गई है। याने सरकार ने बड़ी संख्या में पुस्तक खरीदी और उसे स्कूलों में भेजा। यहां आकर सवाल उठता है कि क्या स्कूली शिक्षा विभाग को 2004 में दर्ज की गई आपत्ति के बारे में कोई जानकारी नहीं थी। दूसरा प्रश्न उठता है कि पुस्तक खरीदने के पहले क्या उसका सावधानी से अध्ययन किया गया था। तीसरा प्रश्न भी है कि विभाग की पुस्तक खरीद की रीति-नीति क्या है। ये सारे सवाल उठाना लाजिमी है क्योंकि अगर स्कूली शिक्षा विभाग ने हर कदम पर आवश्यक सावधानी बरती होती तो इस तरह का विवाद खड़ा नहीं होता तथा राज्य सरकार को आलोचना का सामना न करना पड़ता।जब 2008 का संस्करण स्कूलों में पहुंचा तो एक बार फिर गुरु बालदास ने मुख्यमंत्री और स्कूली शिक्षामंत्री से मिलकर अपनी आपत्ति विधिसम्मत रूप से दर्ज की। इस बार सरकार हरकत में आई और 31 जुलाई को उपरोक्त आदेश जारी कर दिया। यहां रेखांकित करना चाहिए कि छत्तीसगढ़ राज्य की भाजपा सरकार ने हबीब तनवीर के प्रति कोई पूर्वाग्रह नहीं दिखाया अन्यथा उनकी किताब इतनी बड़ी संख्या में खरीदी ही क्यों जाती। लेकिन गुरु बालदास की आपत्ति मिलने के बाद जिस सुसंगत तरीके से कार्रवाई होना चाहिए थी वह नहीं हुई। ऐसा लगता है कि जबानी जमाखर्च ही चलता रहा। सरकार अगर ठीक से ध्यान देती तो पुस्तक की भूमिका में जो दो आपत्तिजनक वाक्य हैं उन्हें विलोपित करने का आदेश जारी होता और बात वहीं खत्म हो जाती। ऐसा न कर मानो हड़बड़ी में पुस्तक वाचन अभियान के दौरान पुस्तक न पढ़े जाने का आदेश जारी कर दिया गया जिसकी जरूरत नहीं थी। फिर आदेश में ''प्रतिबंधित पुस्तक'' संज्ञा का दो बार लापरवाही के साथ प्रयोग किया गया जिससे भ्रम फैल सकता है।


इस प्रकरण को बिना ठीक से समझे दो-तीन अखबारों ने जो रिपोर्टिंग की उससे भ्रम ज्यादा फैला, और देश भर में बुध्दिजीवियों के बीच तीखी प्रतिक्रिया हुई। एक समाचार में पुस्तक पर प्रतिबंध के साथ-साथ नाटय मंचन की प्रतिबंध की बात भी लिखी गई, जबकि आदेश में ऐसा नहीं कहा गया था। इसी समाचार में स्कूली शिक्षा मंत्री के हवाले से मंचन पर रोक लगाने की बात कही गई लेकिन उन्हें अधिकारिक रूप से उध्दृत नहीं किया गया। इस पत्र ने विभाग के सचिव से जरूर चर्चा की, जिन्होंने ''इस विवादित पुस्तक को प्रतिबंधित'' करने की बात कही। लेकिन आदेश जारी होने के बाद अपनी स्थिति स्पष्ट नहीं की। इसके बाद विरोध के स्वर उठना प्रारंभ हुए। सबसे पहले सीपीआईएम की प्रदेश इकाई ने निर्णय की आलोचना की, लेकिन उसने भी आदेश को देखना शायद जरूरी नहीं समझा। दिल्ली और भोपाल में भी छत्तीसगढ़ सरकार के निर्णय की घोर निंदा की गई। लेकिन यह सब एक अंग्रेजी अखबार में छपी रिपोर्ट के आधार पर ही हुआ तथा यह समझना कठिन नहीं है कि प्रकरण की पूरी जानकारी किसी के पास भी नहीं थी। यह एक दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है। छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद पुस्तकों और छुटपुट लेखों पर प्रतिबंध या अन्य सरकारी कार्रवाई करने का यह पहला मौका नहीं है। कांग्रेसी सरकार के समय में तो एक मंत्री के पिता और एक स्वतंत्र फीचर लेखिका को जेल की हवा भी खानी पड़ी थी। दरअसल इस नए प्रदेश की मुश्किल यही है कि साहित्य और संस्कृति के विविध आयामों के बारे में सरकार ने पिछले नौ साल में कभी भी सुचिंतित सोच का परिचय नहीं दिया है। चरणदास चोर पर प्रतिबंध इस आधी-अधूरी और चलताऊ मानसिकता का ही परिणाम है।''देशबन्धु'' सभी पक्षों से इस संवेदनशील प्रश्न पर समझदारी का परिचय देने का अपील करता है। हमारी मांग है कि छत्तीसगढ़ सरकार पुस्तक के वाचन पर लगा प्रतिबंध तुरंत हटाए। हमारी दूसरी मांग है कि पुस्तक की भूमिका से आपत्तिजनक पंक्तियां हटा दी जाए। हबीब तनवीर की एकमात्र वारिस सुश्री नगीन तनवीर को इसमें अपनी ओर से भी पहल करनी चाहिए। पुस्तक के विवादित अंश को विलोपित करने के साथ-साथ पुस्तक वापिस ग्रंथालयों में भेजी जाएं। फिर सरकार यह भी बताए कि उसकी पुस्तक खरीद नीति व प्रक्रिया क्या है तथा इसे सुचारू बनाने के लिए विशेषज्ञों की सलाह ली जाए। जिन अधिकारियों की लापरवाही से बिना सुधार के पुस्तक का नया संस्करण छप गया उनके बारे में भी सरकार विचार करे। हम अपने रचनाशील मित्रों व पत्रकारों को भी संयम बरतने की सलाह देंगे। अपनी निजी जानकारी की बिना पर यह जिक्र करना मुझे जरूरी लगता है कि मुख्यमंत्री डॉ। रमनसिंह ने हबीब तनवीर की बीमारी के समय एवं उनकी मृत्यु के बाद सरकारी स्तर पर आवश्यक वित्तीय प्रबंध करने के लिए भी स्वीकृति प्रदान की थी। इसलिए इस प्रकरण को सांप्रदायिक रंग देना उचित नहीं होगा। और अंत में सतनामी समाज को इस बात के लिए धन्यवाद देना चाहेंगे कि उन्होंने कानून अपने हाथ में लेने जैसा कोई अप्रिय कदम नहीं उठाया। अपनी धार्मिक, सामाजिक भावनाएं आहत होने पर आए दिन जो समूह हिंसक उपद्रवों पर उतर आते हैं उन्हें इससे सीख लेना चाहिए।(साभार)

ललित सुरजन

संपादक, देशबन्धु

रायपुर, छत्तीसगढ़