1/31/2006

डॉ. बल्देव की कविताएँ

एकः कविता

दरअसल कविता आँख है
जिसमें भीतर की दुनिया
बाहर दिखाई देती है

दरअसल कविता हथियार है
जिसमें बाहर की लडाई
भीतर लडी जाती है

दरअसल कविता क्या है
कविता न आँख है न हथियार है
दरअसल कविता
एक नन्हीं-सी गौरेया है
जिसकी चोंच में
सारा आकाश होता है

दोः प्रार्थना

दिग्काल लांघता यातनाओं का सूरज चला गया
प्रार्थनाओं का आकाश में
देखता ही देखता रह गया
थी बूँद भर की प्यास
किन्तु सिन्धु को टेरता ही रह गया
तीनः अनुभव

उथला बह जाता है
गहरा रह जाता है
बाढ का उथला जल
बहा ले जाता है
बह जाता है
गहरा जल बहता हुआ भी
रह जाता है

चारः रोको

रोको
रोको उस आग में नहाती हुई को
रोको उस तेजाब पीते हुए को
रोको
सब कुछ खत्म होने से पहले
इस स्वर्ग-सी
धरती को
नर्क होती धरती को

पाँचः बाँसुरी


छुपाकर यहीं कहीं रक्खी तो थी
बाँसुरी को
नहीं मिल रही है
शायद ले गयी वो
अपने सीने में छुपाए

छहः शून्य

सुख और दुख से परे
सत्य का अनुभव
निराकार होता है
विवेक शून्य में नहीं
वृहत्तर जीवन में जागता है
इसीलिए तो आस्था जरूरी है
इसके बिना
आनंद
निराधार होता है

सातः आसाढ सा प्रथम दिन से

धरती के उतप्त तवे पर
छम-छम नाच रहीं बूँदे
भींज रहा मैं
बाहर-भीतर
एक बीज
आँखें मूँदें

आठः कामना

इसके पूर्व कि लोहा ठंडा हो
हथौडे की चोट से
समय की चाक पर चढा दो
इसके पूर्व कि सूर्य ठंडा हो
पृथ्वी की कोख से
हजारों सूर्य पैदा हों

नौः मृग आखेटक

मृग आखेटक मृग आखेटक
एक न झाडी
एक न जंगल
पथराई आँखें
तप्त मरूस्थल
एकटक
देख रही एकटक

दसः उर्ध्वमुखी-नदी

अजगर जैसे
मुँह को खोले
सरक रही है
काले पहाड पर
नदी आग की
सिंह-शावक इस पार
उस पार मृग-शावक के
त्राण चाहती
इस पर मृगी
उस पार सिंहनी
चकित देखती
नदी आग की
जड-चेतन पर
पसर रही है
लावा जैसी
नदी आग की

(
डॉ. बल्देव हिन्दी व छत्तीसगढी के वरिष्ठ आलोचक हैं । उन्होंने मैथिलीशरण गुप्त से लेकर अभी हाल के महत्वपूर्ण हिन्दी कवि अरूण कमल तक की रचनाओं की ललित निबंध की शैली में समीक्षा की है । किताबें- कविता-वृक्ष में तब्दील हो गई औरत, खिलना भूलकर, सूर्य किरण की छाँव में, धरती सबके महतारी, आलोचना- ढाई आखर, छायावाद और मुकुटधर पांडेय, विश्ववोध, छायावाद एवं अन्य श्रेष्ठ निबंध। संपादक)

1 टिप्पणी:

शाकिर खान ने कहा…

अच्छा है जी अच्छा लिखते हो लिखा करो