4/13/2006

प्रजातंत्रः राजनीतिक शत्रुता-पर्याय तथा सीमाएं

।। विचार-वीथी ।।

सत्यनारायण शर्मा
(पूर्व शिक्षामंत्री एवं विधायक, मंदिरहसौद)


मुझे आज “प्रजातंत्रः राजनीतिक शत्रुता-तात्पर्य तथा सीमाएं” विषय पर कुछ कहना है । प्रजातंत्र और राजनीतिक शत्रुता एक दूसरे के संपूर्ण विरोधी अवधारणायें हैं । इन दोनों को एक साथ रखने के आग्रह का मतलब, न केवल राजनीति से उसकी आत्मा का अपहरण सोचना है बल्कि मानवीय मूल्य के विपरीत ध्रुव पर जा खडा होना भी है । प्रजातंत्र राज्य के नागरिकों के सम्यक विकास की सर्वोच्च राजनैतिक व्यवस्था का नाम है जबकी राजनीतिक शत्रुता सत्ता में अपने स्थायीकरण के लिए अमानवीय हरकतों की सीमा का स्पर्श । यह प्रकारांतर से उस कुटिल मनोदशा की उपज है जहाँ नागरिकता बोध और गरिमा के प्रति लापरवाही का घना कोहरा छाया होता है ।
प्रजातंत्र का संचालन राजनीतिक दलों द्वारा होता है । जाहिर है कि प्रजातंत्र राजनीतिक दलों के कंधों पर टिका हुआ एक पहाड है । यह एक ऐसा पहाड है जो जनता के स्वप्नों और उसकी अभिलाषाओं को साकार करने के उत्तरदायित्वों के भारी चट्टानों से बना है । प्रजातंत्र की अवधारणा को समझते हुए हम अक्सर भूल जाते हैं कि सरकार या व्यवस्था का सूत्र सत्ताधारी दल के हाथों होता है और वहाँ विपक्ष या अन्य राजनीतिक दलों की उपस्थिति का कोई औचित्य नहीं होता । दरअसल यहीं से पनपती है राजनीतिक शत्रुता की विषैली बेलें । यह सोच अपने अति पर राजनीतिक मूढता का प्रश्न भी बन जाती है । और इस अर्थ में यह प्रजातंत्र विरोधी कृत्य भी है ।
प्रजातांत्रिक व्यवस्था की निरंतरता के लिए वैचारिक धरातल पर भिन्न चरित्र वाले राजनीतिक दलों को राजनैतिक, सामाजिक एवं संवैधानिक मान्यता प्रदान की गई है । वस्तुतः प्रजातंत्र की सफलता, विशेषकर भारतीय प्रजातंत्र की, एक से अधिक दलों की उपस्थिति, सक्रियता और सार्थक हस्तक्षेप पर निर्भर करता है । सत्ताधारी दल तथा विपक्षी दल । इसमें हम विरोधी विचारधारा के संपोषक अन्य दलों को भी सम्मिलित कर सकते हैं । भारतीय प्रजातंत्र की सुदृढता के लिए हमारे संविधान निर्माताओं ने बहुदलीय व्यवस्था और प्रतिपक्षीय प्रावधानों का चयन किया । शायद इसीलिए कि देश का संचालन पर्याप्त आलोचना के उपरांत निर्मित निष्कर्षों के आलोक में हो । बहुसंख्यक जनता द्वारा चयनित दल शासन करे तथा शेष जनता के प्रिय दल विपक्ष के गलियारों रहकर शासन को चूकने से रोकता रहे । यानी कि वह भी जनता के हितों के लिए अपनी क्रियाशीलता को सतत् बनाये रखे । प्रतिपक्ष में रहने वाले राजनीतिक दलों या उनके प्रतिनिधियों को खासा तबज्जो देने की मंशा भी यही सिद्ध करती है कि वह वहाँ उँघे नहीं अपितु सचेत रहे । सजग रहे । वह सशक्त विपक्ष के रूप में अपने दले के आदर्शों के अनुरूप जनता के हितों की रखवाली करता रहे । सीधे-सीधे कहें तो जनता द्वारा विपक्ष में धकेल दिया गया राजनीतिक दल भी प्रजातंत्र की सुरक्षा के लिए उतना ही महत्वपूर्ण है जितना कि सत्ताधारी दल ।
जनविरोधी नीति, नियत और नियति के विरूद्ध संघर्ष की जिम्मेवारी विपक्षी दल के कार्यकर्ताओं के हाथों सौपने का मतलब यह भी है कि हर हालत में जनता और उसके कल्याण के लिए स्वीकृत व्यवस्था तंत्र अर्थात् प्रजातंत्र की जमीन सदैव ठोस बनी रहे । दलों के बावजूद वहाँ दलदल न बन पडे । स्वस्थ आलोचना के साथ प्रजा के हितों के संरक्षण अर्थात् देश का सम्यक विकास । संपूर्ण अर्थों में प्रजातंत्र का संवर्धन । सत्ताधारी दल के अलावा अन्य राजनीतिक दलों की अनुपस्थिति या समूल समाप्ति का सीधा मतलब तानाशाही को आमंत्रण होता है । तानाशाही को किसी भी व्यवस्था में जनता के विरुद्ध ही कहा गया है ।
कल्पना करें-एक ऐसे देश की जहाँ एक दलीय संचालन तंत्र हो । आप सोच सकते हैं- वहाँ कैसी-कैसी विषम परिस्थितियाँ निर्मित होंगी ? वहाँ सारे निर्णय वैसे ही होंगे जैसे सत्ताधारी दल चाहेगी । वहाँ जनता उसी मुकाम तक पहुँचेगी जहाँ तक सत्ताधीश चाहेंगे । उस तंत्र का सच और झूठ वही होगा जो सिर्फ शासक के श्रीमुख से निकलेगा । हम साफ-साफ कह सकते हैं कि ऐसे में वहाँ सिर्फ शासक ही रह जायेंगे । हम यह भी कह सकते हैं कि वहाँ सत्ताधारियों के मध्य आपसी वैचारिक मतभेद के बाद असहमति के स्वर मुखरित न हो सकेगें । ऐसी व्यवस्था वाले देश में अनुनय, विनय के अलावा ऐसा कोई प्रयास संभव नहीं हो सकेगा जो अपने ही दल के शीर्षस्थ निर्णायकों के जन विरोधी कदमों पर रोक लगा सके । सच तो यह भी है कि वहाँ सत्ता-संचालकों से असहमति के बाद जनहितैषियों के समक्ष ऐसा कोई सशक्त फोरम नहीं होगा जहाँ वे प्रतिगामी शक्तियों के विरूद्द अपनी आवाज बुलंद कर सकें । कुल मिलाकर देंखे तो यह या ऐसी स्थिति प्रजातंत्र की निरंतरता में खतरे की घंटी है । यहाँ सबसे बडी दिक्कत तो जनता के समक्ष उपस्थित होगी जहाँ वह अपने पहरूए चयन के समय विकल्पहीनता से जूझेगा ।
मैं जब ऐसी स्थिति की कल्पना करता हूँ तो सिहर उठता हूँ । जानते हैं क्यों ? वह इसलिए कि वहाँ सिर्फ सत्तावाद का जंगल ही होगा । वहाँ केवल सत्ता के भूखे भेडिये ही रह जायेंगे । सत्ता जनता के शोषण एवं दमन का पर्याय बन जायेगी । वहाँ राजनीति तो जरूर होगी पर राजनीतिक दल या उस दल के भीतर जैसी कोई आंतरिक प्रजातंत्र भी नहीं रह जायेगा । ऐसी व्यवस्था को हम चाहे कोई भी नाम क्यों न दे दें, उसे प्रजातंत्र तो नहीं कह सकते ना ।
इतनी लंबी पृष्ठभूमि गढकर मैं यही विचार संप्रेषित करना चाह रहा हूँ कि प्रजातंत्र के अनिवार्य स्तम्भों में कार्यपालिका, न्यायपालिका, व्यवस्थापिका, सत्ताधारी राजनीतिक दल के साथ-साथ विपक्ष पर सुशोभित राजनीतिक दल भी महत्वपूर्ण है । यदि उसकी भूमिका प्रजातांत्रिक सुदृढता के लिए महत्वपूर्ण है तो उसका सम्मान भी उतना ही महत्वपूर्ण बन जाता है । और जो प्रजातांत्रिक मूल्यों के लिए कटिबद्ध हो, उससे मित्रभाव बनाये ऱखने में भले ही विपरीत विचारधाराओं के साथ समझौते जैसे कोई कलंक लगता हो, पर वह जनता और प्रकारांतर से प्रजातंत्र की रक्षा की दिशा में स्वस्थ राजनीतिक प्रतिबद्धता भी होगी । आलोचक को मित्र कहा गया है । एक सच्चे आलोचक के हाथों में एक सच्चा दर्पण भी होता है । राजनीतिक प्रतिद्वंदिता के बहाने दर्पण को कुंठाग्रस्त होकर चकनाचूर तो हम कर सकते हैं पर वास्तविकता यह भी है कि दर्पण के हर टूकडों से दिखने वाली तस्वीर कभी नहीं बदलती है । किसी शायर ने टीक ही कहा हैः

आइने के सौ टूकडे करके हमने देखें है ।
सौ में भी तन्हा थे , एक में भी अकेले हैं ।

प्रतिपक्षी या राजनीतिक दल की महत्ता को प्रतिष्ठित करने के पीछे मेरा मंतव्य स्पष्ट है । और वह है- जनता के हितैषी चुनने के लिए बहुविकल्प की सुनिश्चितता । इसमें जनता की अनसुनी रह गई पुकारों, चीखों का अनुसमर्थन भी है । इसमें जनता को वैचारिक धरातल पर भिन्न-भिन्न आग्रहों के लिए कटिबद्ध जननायकों में से सर्वश्रेष्ठ को अपनाने का अवसर भी सम्मिलित है । जन विरोधी हरकतों पर लगाम पर विश्वास तो है ही इसमें । सबसे बडी उपलब्धि है सत्ता या शासन संचालकों द्वारा स्वयं को आत्ममुग्धता से बचाकर आत्मंथन के लिए प्रेरणास्पद वातावरण को प्रश्रय देना । क्या ये सारे कार्य अन्य राजनीतिक दल या दलों से रहित व्यवस्था में सभव है ? कतई नहीं । इसे मैं निष्कर्ष के रूप में इस तरह गिनाना चाहूँगाः-
1. प्रजातंत्र की जडों के सुदृढीकरण में विपक्ष की राजनीति और राजनीतिक दलों की सक्रियता सर्वोपरि है ।
2. सत्ताधारी दल के उत्कर्ष के लिए अन्य राजनीतिक दल की उपस्थिति और उस उपस्थिति को पडोसी भाव से देखना अपरिहार्य है ।
3. भिन्न-भिन्न विचारधारा वाले राजनीतिक दलों का अंतिम लक्ष्य जनता का हित होता है । इस रूप में दो राजनीतिक दल सहधर्मा भी होते हैं ।
अब यह स्वयं में साबित है कि प्रजातंत्र रूपी एक्सप्रेस ट्रेन की गति और परिचालन सत्ताधारी दल के हाथों सुनिश्चित होता है पर उस ट्रेन के ड्रायवर और गार्ड को कतई नहीं भूलना चाहिए गलत ट्रेक और खतरे की ओर ले जाने वाली ट्रेन को लालझंडी दिखाने वाले स्टेशन मास्टर और वैरियर पोस्ट के चौकीदार भी उसके गंतव्य तक पहुचने में सहायक हैं । दोनों का धर्म तो यहाँ एक ही है । कर्म की प्रकृति, स्थल और अवसर बदल जाने से मित्रता नहीं टूट जाती । मैं निजी तौर पर भी राजनीतिक दृष्टि से स्वस्थ दलों में परस्पर मित्रभाव की स्थापना को उचित मानता हूँ ।
प्रत्यक्ष रूप से अपनी बात रखने से पहले मैं एक प्रसंग रखना चाहता हूँ- यह प्रसंग प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी जी और प्रखर समाजवादी नेता मधु लिमये से जुडी हुआ है । मधुलिमये और श्रीमती गाँधी के बीच राजनीतिक विरोध की बात सभी जानते हैं । तब भी देखिये मधुलिमये के विचार-
“ इंदिरा जी के साथ हमारा विरोध रहा किन्तु 31 अक्टूबर 1984 को रात के सन्नाटे में मैं उनके अंगरक्षकों के विश्वासघात पर (जिन पर उनकी रक्षा की जिम्मेदारी थी) बडी देर सोचता रहा, और इंदिरा गाँधी के हश्र पर शोक में डूबा रहा । उस वक्त मैने धरती माँ से प्रार्थना की, हे उदार मुक्तहस्त माँ, तेरे सपूतों ने इन महान सभ्यताओं को जन्म देने के लिए कठिन परिश्रम किया । उन्होने आश्चर्यजनक वस्तुशिल्प स्मारक बनाए, मूर्तिकला की अद्भुत कृतियाँ दी, अद्विताय शक्ति और सौंदर्य से युक्त महान साहित्य दियता और सबसे ऊपर, सारी मानवता के कष्टों को झेलने वाले महान संत दिये । ओ माँ, तुम हिंसा और घृणा की बुराई को खत्म करके मानव-जाति के बीच सभ्य संवाद कब स्थापित करोगी । हमे इस शुभ परिणति के लिए कितनी लंबी प्रतीक्षा करनी पडेगी । ”

इंदिरा गाँधीः जैसा मैने उन्हें देखा(मधुलिमये)

ऐसे न जाने कितने राजनीतिक प्रसंग हैं जो साबित करते हैं कि राजनीतिक दलों के मध्य मतभेद जरूर होता है पर मनभेद नहीं होता । भारतीय प्रजातंत्र की यात्रा को खासकर जब हम राजीव जी के बाद के समय को परखते हैं तो राजनीतिक शत्रुता की गंध तीव्रतर होती जान पडती है । केन्द्र और राज्यों में कांग्रेस के अलावा अन्य दलों के उदय के साथ-साथ उनमें राजनीतिक दुश्मनी की कुंठा लगातार बढती चली गई है । इसका सबसे बडा नुकसान जनता, समाज, देश एवं समग्र विकास या भारतीय प्रजातंत्र को उठाना पडा है ।
यह सर्वविदित है कि भारतीय आजादी के पश्चात वाले दलों का जन्म ही सत्ता हथियाने के निहित संकल्पों के साथ हुआ है । राजनीतिक दृष्टि में धवलता के अभाव के कारण परस्पर विरोधी दलों के नेताओं के निजी जीवन पर मात्र कीचड उछालने की गलत परंपरा को प्रश्रय मिलता रहा है । बोफोर्स जैसे झूठे और भ्रामक मुद्दे, इंदिरा गाँधी के पीछे हाथ धोकर पड जाने, सोनिया जी को परदेशी कहने आदि को हम इसी श्रृंखला में पाते हैं । ऐसे वक्त हम यह भूल बैठते हैं कि जनता कुछ नहीं समझती । शायद यही वह कारण रहा है कि 1977 वाली जनता पार्टी की राजनीतिक दुर्भावना समझते जनता को देर न लगी और परिणाम स्वरूप वह दल सत्ता के गलियारे से लंबे अंतराल के लिए दूर हो गई । भारतीय शासन व्यवस्था पर गौर करें तो अधिकांश समय केन्द्र और राज्यों में दो अलग-अलग दलों का आधिपत्य रहा है । वैचारिक मतभिन्नता, फलस्वरूप राजनीतिक दुश्मनी के कारण ही केन्द्र और राज्य शासन के मध्य बेहत्तरीन तालमेल नहीं स्थापित हो पाता और वैकासिक कार्य लगातार पिछडते चले जाते हैं ।
प्रजातंत्र में राजनीतिक शत्रुता जैसे शब्दावली को पनपने देने की सभी संभावना, परिस्थितियों एवं कारणों पर विचार करें तो पता चलता है कि शत्रुता शब्द ही आपत्तिजनक है । अग्राह्य है । मानवीय उद्दात्तता के विरूद्द है । यह दोबारा कहने की जरूरत नहीं है कि भारतीय प्रजातंत्र में राजनीतिक दलों की सक्रियता एवं स्वस्थ प्रतियोगिता के लिए परस्पर विश्वास अत्यावश्यक है । दो या विभिन्न दलों के मध्य विद्यमान वैचारिक अंतर और जनता के प्रति निष्ठा के माध्यमों के मुख्य कारणों अर्थात् विचारधाराओं, योजना निर्धारण, क्रियान्वयन की तकनीक या शैलियों पर स्वस्थ मानसिकता से की गई टिप्पणी को नहीं नकारा जा सकता है । जाहिर है दलों का चरित्र मतभिन्नता पर ही निर्भर करता है । वहाँ समानता तो कतई सम्भव नहीं । परस्पर विरोधी प्रवृतियों के विरूद्ध प्रजातांत्रिक मार्गों एवं मूल्य आधारित प्रतिरोध को ही राजनीतिक शत्रुता के तात्पर्य में देखा जाना चाहिए । वस्तुतः “राजनीतिक शत्रुता” शब्द ही कुंठित मनोवृति की देन है । होना तो यह चाहिए कि इस भाव के लिए हम राजनीतिक द्वंद्व जैसा कोई शब्द ईजाद करें । इस शब्दावली में अमानवीय पदचाप सुनाई देती है जो समाज को प्रजातांत्रिक मूल्यों के विपरीत दिशा की ओर धकेलती चली जाती है ।
“राजनीतिक शत्रुता” को राजनीतिक मतभेद जैसे अर्थों में या आशयों में समझना समय की मांग है । मतभेद की हर बात जनता तक पहुँचाने के लिए विरोध की सभी गाँधीवादी तरीकों को हमें नही भूलना चाहिए । मतभेद जब मनभेद में तब्दील हो जाता है तो वह मार्ग गाँधी जी द्वारा बताये गये मार्ग के विरूद्ध हो जाता है । मतभेद प्रर्दशित करने के सभी अहिंसक तरीकों और कार्यक्रमों के अलावा जो भी होता है वह सत्ता प्राप्ति की दृष्टि से भले ही उचित हो किन्तु अक्सर ये खतरनाक एवं मूलतः अप्रजातांत्रिक ही सिद्ध होते हैं । नेहरू जी की बात मैं यहाँ उल्लेखित करना प्रासंगिक समझता हूँ । उन्होंने कहा था कि-
“ कभी-कभी यह कहा जाता है कि शांतिपूर्ण और लोकतंत्रीय तरीकों से प्रगति नहीं हो सकती । मैं इस बात को नहीं मानता । वास्तव में, भारत में आज यदि लोकतंत्रीय तरीकों को हटाने का कोई प्रयत्न किया गया, तो इससे सब कुछ अस्त-व्यस्त हो जाएगा- और निकट भविष्य में तरक्की की सब सम्भावनाएं खत्म हो जाएंगी । ”

नेहरू के भाषण (प्रथम खंड, पृष्ठ-53)

यह आज स्मरण करने का समय है कि गाँधी ने मात्र शांतिपूर्वक राजनीतिक विरोध के उपायों को अपनाकर अंग्रजी सत्ता को ध्वस्त कर दिया । उन्होंने वे सारे रास्ते नहीं अपनाये जो आज की समकालीन भारतीय राजनीति में सघन हो चुकी है । आज हम तटस्थ मति से परीक्षण करें तो हमें राजनीतिक शत्रुता के नाना रूप नजर आते हैं । इसमें कुतर्क आधारित प्रेस विज्ञप्ति, अभद्र एवं अश्लील पर्चा वितरण, अपशब्दों से पगीं एवं मानवीय गरिमा को छिन्न-भिन्न करने वाले लच्छेदार भाषण, पूतला दहन, घृणित आलेख, पुस्तिका प्रकाशन व वितरण, निजी जीवन की गोपनीयता भंग करती टेलीफोन रिकार्डिंग तथा वीडियो निर्माण, अश्लील सीडी, कैसेट एवं एस.एम.एस का प्रयोग, षडयंत्र, पुलिस प्रताडना, फर्जी प्रकरण, बलात्कार, अपहरण, हत्या आदि शामिल हैं । 5वें-6वें दशक वाला विभिन्न दलों के मध्य स्थापित राजनीतिक सोहार्द अब कहीं नहीं दिखाई देता । राजनीतिक शत्रुता अव दिन-प्रतिदिन नया-नया और कुत्सित रूप धारण करती जा रही है । यह राजनीतिज्ञों के लिए सबसे बडी चिंता का विषय होना चाहिए । कम से कम राजनीतिक दलों के मध्य तो इस पर मीमांसा होनी ही चाहिए ।
वैसे इस समय का सबसे बडा संकट राजनीति में आदर्शों का लोप है । राजनीतिक शत्रुता को आज परिभाषित करने का सही समय है । ऐसे समय में जब हम समूचे विश्व में भारत को एक ताकतवर प्रजातंत्र के रूप में उभरना शेष है, राजनीतिक शत्रुता की सीमाओं को भी अंदरूनी और बाह्य संबंधों को आधार पर नये सिरे से तय किया जाना चाहिए । मेरा इशारा अंतर्राष्ट्रीय राजनीति की ओर भी है । इसमें आप पूर्वी एशियायी देशों के साथ संबंधों को भी देख सकते हैं ।
अंत में सहज भाव से यह भी जोडना चाहूँगा कि राजनीतिक शत्रुता विपक्षी दलों के मध्य ही नहीं एक दल के अंतःपुरों से भी मिटना चाहिए जिसके कारण कोई भी राजनीतिक दल अपनी संपूर्ण सामूहिक दक्षता एवं कौशल के बावजूद कुछ ही समय में सिमट कर हाशिए में धकेल दी जा सकती है । प्रजातंत्र दलों के मध्य भी जरूरी है और दल के मध्य में ।

बांसटाल, रायपुर
छत्तीसगढ़
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