5/16/2006

रंजना जायसवाल की दो कविताएँ



स्त्री

सज-सँवरकर
तस्वीर में
बैठने के लिए नहीं है स्त्री
वह छटपटाती है
और बाहर निकल आती है
मुँह ताकता रह जाता है
खाली फ्रेम

सौन्दर्य-बोध

मेरे केश काली घटाओं जैसे नहीं हैं
न आँखें मछलियों-सी
चाँद जैसी उजली हूँ
न फूलों-सी नाजुक

मेरे हाथ खुरदुरे और मजबूत है
धूप में काम करने से
साँवला रंग पड़ गया है स्याह
जुटा लेती हूँ मेहनत-मशक्कत करके
अपना भोजन स्वयं
दूसरों के धन पर नहीं गड़ाती आँख
मेरे देह से फूटती है
एक आदिम गन्ध

रंजना जायसवाल
श्रीपल्ली, गली न.-2, पोस्टः सिलीगुड़ी बाजार,
सिलीगुड़ी-734005

1 टिप्पणी:

बेनामी ने कहा…

Ranjana ji ki Kavitayen achhi hain, unki kavitaon me jeevan ka yatharh jhalakata hai, soch me sakaratmakata bhi hai aur jeevan ki kathinaiyon se ladkar aage badhne ki prerana bhi hai....

Kamal Kishore Rawat
Dantewada