7/22/2009

दिल्ली दर्प दमन


एक सहचर की याद
अशोक वाजपेयी

वे गजानन माधव मुक्तिबोध और हरिशंकर परसाई के सहचर थे । किसी हद तक श्रीकांत वर्मा के भी । मुक्तिबोध को उनके जीवनकाल में यह जताने वाले कि वे एक बड़े लेखक हैं। जो छह सात लोग थे उनमें से वे एक थे । परसाईजी के भी अभिन्न थे और उनकी कई बार सक्त आलोचना की परसाई जी इज्जत करते थे- सारी दुनिया को खरी-खोटी सुनाने वाले केा ख़ुद को खरी खोटी सुनाने वाला भी आख़िर चाहिए ही था । यह दावा करना अनुचित न होगा कि प्रमोद वर्मा की इन दोनों लेखकों के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका रही है । लगभग 9 वर्ष पहले वे देहावसन के बाद उन्हें याद करते हुए एक बड़ा मानवीय गरमाहट और बौद्धिक ऊर्जा भरा आयोजन रायपुर में पिछले सप्ताह हुआ । अनेक दृष्टियों के लेखक आदि एकत्र हुए प्रमोद वर्मा के अवदान पर और उस बहाने आज की आलोचना पर व्यापक और खुला विचार हुआ । इस अवसर पर राधाकृष्ण प्रकाशन ने चार खंडों में उनका समग्र भी विश्वरंजन के स्नेह और आदरयुक्त संपादन में प्रकाशित किया । सामग्री जुटाने और व्यवस्थित कर छपाई के लिए देने के बाद पता चला कि लगभग पाँच सौ पृष्ठों की सामग्री और है जिसे बाद में शामिल किया जा सकेगा।
प्रमोद वर्मा की आस्था सामान्य तौर पर वामपंथी थी । लेकिन किसी तरह की कट्टरता से वे मुक्त थे । उन दिनों यानी सत्तर अस्सी के दशक में वे अज्ञेय और मुक्तिबोध के समान रूप से प्रशंसक थे । यह एक बड़ा कारण है कि प्रगतिशील आलोचकों की सूची में उनका नामोल्लेख नहीं होता है । इसे रेखांकित करते हुए नंदकिशोर आचार्य ने यह भी कहा कि प्रमोद जी के लिए स्वतंत्रता परम मूल्य थी और वे उसे किसी प्रतिबद्धता के दबाव में तजने के तैयार नहीं थे ।

इस अवसर पर प्रमोदजी पर निबंधों का एक संचयन न होना प्रमोद वर्मा का यश पब्लिकेशन द्वारा प्रकाशित किया गया है और एक स्मारिका भी निकाली है । उसमें प्रमोजी के इन कथनों की ओर ध्यान जाता हैः-


‘‘जब संसार की कागद की पुड़िया है तो उस पर लिखे शब्द तैरकर पार उतर जायेंगे ऐसा मैं अपने सबसे कमज़ोर और आत्ममुग्ध क्षणों में भी नहीं सोचता । मुझे ये सिर्फ़ इतना जताती है कि इन्हें रचते हुए मैंने अपने आप को किस तरह नष्ट या हासिल किया है ।


‘‘कवि शब्द की दुनिया में स्वयं को खोजा करता है । कवि अपने देश और काल को नहीं लिखता। वस्तुतः वह अपने अनुभवों और सपनों को शब्द देता है । पाब्लो नेरूदा की प्रेम कविताएँ मुझे अच्छी लगतीं हैं उन्हें पढ़ते हुए मुझे रसखान की याद आती है ।


‘‘जन साधारण की बात चित्रपट के माध्यम से लोकरंजन करने वालों पर छोड़ देनी चाहिए । साहित्य सहृदय और गुणी जनों की रूचि का विषय है ।


‘‘प्रगतिशील लेखक मछली पकड़ने के लिए तो जाल का उपयोग कर सकता है लेकिन कलावादियों की तरह कुहरा पकड़ने के लिए नहीं।


सच में सबसे बड़े कवि हर भाषा में अज्ञात नाम-कुल-शील असंख्य कवि जन ही हुआ करते हैं । जैसे क्रांति के वास्तविक नायक असंख्य इत्यादि जन हैं ।


सत्य का संधान होता है और सौंदर्य का सृजन । ख़तरा तब होता है जब हम सत्य का सृजन करते हैं और और सौंदर्य का संधान । प्रेम करना गैरकानूनी नहीं है। हिंसा बेहक गैरकानूनी है ।

छत्तीसगढ़ ने अपने एक लेखक को ऐसे उत्साह समझ और जतन से याद किया यह बड़ी बात है । ख़ासकर आज के स्मृति और कृतज्ञता वंचित परिवेश में । इस अवसर पर श्री भगवान सिंह और कृष्णमोहन को प्रमोद वर्मा पुरस्कार भी प्रदान किए गए । महानगरों से दूर जो सृजन और आलोचना सशक्त रूप से सक्रिय है उसका यह उचित ही स्वीकार है । किसी हद तक दिल्ली दर्प दमन भी । पता चला है कि कुछ लेखक स्वीकृति देकर इसलिए नहीं आये कि छत्त्तीसगढ़ में नक्सलियों का राज्य सत्ता जनसंहार कर रही है । दुर्योगवश समारोह समापन के अगले दिन नक्सलियों ने एक पुलिस अधीक्षक और लगभग चालीस पुलिस कर्मियों की हत्या कर दी । इस समय नक्सलियों द्वारा कई राज्यों में लगातार जो हिंसा हो रही है। उसके बारे में तमाम क्रांति धर्मी लेखक चुप्पी क्यों साधे हुए हैं यह समझ में आना कठिन है । वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति की परंपरा में ही यह चुप्पी है । 20वीं शताब्दी में हम देख आये हैं कि हिंसा और हत्या से सच्ची क्रांती नहीं होती और अगर उसके होने का कुछ देर के लिए भ्रम हो भी जाये तो उसकी परिणति भी देर सवेर हिंसा और हत्या में हीं होती है ।

प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान भी स्थापित किया गया है उसकी एक महत्वाकांक्षी योजना है । छत्तीसगढ़ में दुर्भाग्य से राज्य शासन ने संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए आवश्यक संस्थागत उपाय नहीं किए हैं । साहित्य, संगीत नाटक और ललित कला की राज्य अकादमियाँ अब तक गठित नहीं हुईं हैं । जिस अंचल में हाल ही में मुक्तिबोध, श्रीकांत वर्मा, प्रमोद वर्मा, विनोद कुमार शुक्ल, प्रभात त्रिपाठी आदि लेखक हुए हैं वहाँ ऐसी उदासीनता और निष्क्रियता संवेदनशीलता और जिम्मेदारी से बचने के बराबर है । स्वयं इस आयोजन में यह प्रकट हुआ कि बख्शी पीठ पर रहकर प्रमोद जी के छत्तीसगढ़ की युवा पीढ़ी को रूपायित करने में कितनी बड़ी भूमिका निभाई । यह पीठ पहले की राज्य सरकार द्वारा स्थापित है । नया संस्थान कवि विश्वरंजन के नेतृत्व में इस शून्य को भर सकता है । ऐसे कम लोग बचे हैं (और प्रशासन में प्रायः बिल्कुल नहीं) जो साहित्य से ऐसा अनुराग रखे और जो अपने पूर्वज लेखकों के प्रति सामाजिक कृतज्ञता ज्ञापन के लिए ऐसे प्रयत्न करे जैसे कि विश्वरंजन और उनके सहयोगी कर रहे हैं ।
(कभी-कभार, जनसत्ता, १९ जुलाई, २००९ दिल्ली)

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