2/19/2010

हाशिए पर ईमानदारी !

आर के विज

माँ-बाप बच्चों को रोज ईमानदारी का एक पाठ पढ़ाया करते थे। आजादी की लड़ाई के किस्सों में, ईमानदारी और समर्पण की भावना ओत-प्रोत रहती थी। दादी माँ की कहानियाँ आदर्श नागरिक बनने की नसीहत के साथ खत्म होती थी। परंतु, आजकल ईमानदारी, बुजुर्गों के घर के कोने में रखी पुरानी लाठी की तरह हो गई है। जिसकी कभी-कभार याद आने पर ही सुध ली जाती है। ईमानदारी की कीमत तो कई बार प्रताड़ित या अपमानित भी होकर चुकानी पड़ती है। चारों ओर भ्रष्टाचार का बोलबाला है। अखबारों में बेईमानों के यशगान और अकूत संपत्ति का लेखा-जोखा प्रतिदिन मुख्य पृष्ठ पर पढ़ने को मिलता है। मानो उनके शरीर में रक्त के स्थान पर बेईमानी प्रवाहित हो रही हो। ईमानदारी का किस्सा, यदि अखबार में जगह पा भी जाए तो अक्सर ऐसे पन्ने पर छपता है, जहाँ शायद ही किसी की नजर जाए। समूचे संसार में ०९ दिसंबर को भ्रष्टाचार विरोधी दिवस के रूप में मनाया जाता है। परंतु, यह तारीख शायद ही किसी को याद हो। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भ्रष्टाचार को मापने का सूचकांक भी है। ट्रांसपेरेन्सी इंटरनैशनल एक गैर शासकीय संस्था द्वारा वर्ष १९९५ से लगभग सभी देशों का सर्वेक्षण करके एक भ्रष्टाचार सूचक दृष्टिकोण सूचकांक प्रकाशित किया जा रहा है। कुल १८० देशों के सर्वेक्षण में भारत ने वर्ष २००९ में ८४ वाँ स्थान प्राप्त कर अपने भ्रष्ट होने का ओहदा पिछले वर्ष के लगभग बराबर बनाए रखा है। वर्ष २००७ में हम ७४ वें स्थान पर थे। यह सूचकांक सरकारी संस्थाओं, नौकरशाहों एवं राजनेताओं द्वारा किए जा रहे भ्रष्टाचार का सूचक है। लोगों की सोच एवं दृष्टिकोण का सूचक जो रिश्वत लेने एवं खरीद-फरोख्त में की जाने वाली अनियमितताओं का द्योतक है। भ्रष्टाचार की होड़ ने देश में बाघों की तरह तेजी से लुप्त हो रही ईमानदारी को मापने का सूचक बनाने की मशक्कत भला कौन करे? वर्ष १९०१ की बात है। राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी दक्षिण अफ्रीका से वापस भारत लौटने की तैयारी में थे। परंतु, एक वर्ष के भीतर यदि आवश्यकता पड़ी तो उन्हें वापस दक्षिण अफ्रीका लौटना पड़ेगा। दक्षिण अफ्रीका से आत्मिक लगाव के कारण गाँधी जी यह शर्त मान गए। उन्हें विदाई देने वालों का तांता लग गया। लोगों ने गाँधी जी को सम्मान में महँगे-महँगे तोहफे भी दिए। सोने की घड़ी, हीरे की अँगूठी और कस्तूरबा को सोने की चैन। तोहफा देने वाले लगभग सभी गाँधी जी के मुवक्किल थे। परंतु, इन कीमती तोहफों ने गाँधी जी की नींद हराम कर दी। वह रात भर सो नहीं सके और कमरे में चहल-कदमी करते रहे। सोचने लगे, क्या एक लोकसेवक को ऐसे तोहफे स्वीकार करना चाहिए? काफी मानसिक द्वंद्व के बाद गाँधी जी ने एक दस्तावेज तैयार किया और समाज के हितार्थ एक ट्रस्ट बनाने का लेख एक पारसी (रूस्तम जी) के नेतृत्व में न्यासियों के नाम लिख डाले। वर्ष १८९६ से १९०१ तक मिले सभी तोहफे उन्होंने वापस कर दिए और भारत लौट आए। तोहफे, सम्मान का प्रतीक न होकर अधिकार का पर्याय बन गए हैं। जिसे देखो, हर मौके पर तोहफे मिलने की आस लगाए रहता है, न मिलने पर कभी-कभी गुर्राने भी लगता है। कुछ भेंटकर दो तो फाइल को पंख लग जाते हैं और फटाफट टेबल बदलने लगती है। सरकार ने लोकसेवकों के लिए आचरण नियम भी बनाए, परंतु पालन कराने वालों को ताकत नहीं दी। भ्रष्टाचार कम करने के लिए कई कमेटियाँ बनीं, वर्षों अध्ययन पश्चात कमेटियों ने अपनी अनुशंसाएँ भी दीं। इंजीनियर लोगों पर प्रायः हर कार्य में परसेंटेज लेने के आरोप लगते हैं तो पुलिस पर रिपोर्ट न लिखने के। अब तो आफिस के बाबू भी रंग जमाने में लगे रहते हैं। विलियम शेक्सपियर ने कहा था : "ऑनेस्टी इज द बेस्ट पॉलिसी। इफ आई लूज माइन ऑनर, आई लूज माइ सेल्फ।" परंतु, जॉर्ज बर्नार्ड शॉ ने कहा : "वी मस्ट मेक द वर्ड ऑनेस्ट बिफोर वि केन ऑनेस्टली से टू ऑर चिल्ड्रन दैट ऑनेस्टी इज द बेस्ट पॉलिसी।" अर्थात बच्चों को ईमानदारी का पाठ पढ़ाने से पहले हमें स्वयं यह पाठ पढ़ना होगा और अपने आचरण में सुधार लाना होगा। ईमानदारी के पक्ष में इसका गुणगान करना होगा, साथ ही साथ ईमानदारी को हाशिए से ऊपर उठाकर मुख्यधारा में लाना होगा। अतिशयोक्ति नहीं होगी, अगर इसके लिए एक अलग मंत्रालय ही खोल दिया जाए-डिपार्टमेंट फॉर ऑनेस्टी ।(लेखक छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ पुलिस अधिकारी हैं।)

1 टिप्पणी:

वन्दना अवस्थी दुबे ने कहा…

बेइमानों के साथ ईमानदार भी पिसने पर विवश हैं आज. बढिया पोस्ट.