2/28/2006

कविता


खंण्डहर

अठारह वर्षों के अन्तराल के बाद
देखकर इन्हें अहसास हुआ
कितना बुढा़ गई है ज़िन्दगी
खिला करते थे गुलाब कभी यहाँ
मंडराती थी उन पर
रंग-बिरंगी तितलियाँ
गुनगुनाते भौंरे आज भी
आकर लेते हैं धूप आज भी
आकर लेते हैं धूप आँगन में
टूटी खिड़की से चाँदनी
आ धमकती है
आज भी मगर
बुझी-बुझी वीरानी याद दिलाती है
उस आलम की
ढूँढने आ पहुँचे
तलाश रहे हर ओर
बिखरे जज़्बात सिसकती मजबूरियाँ
घायल मन या तड़पता आलम
शायद मिट्टी में दबी
गुम हो चुकी खुशियाँ
फिर से मिल जाएँ वरना
उनकी यादों को सीने से लगाए
लौट जाएँगे
खण्डहरो
ना पुकारों हमें
ज़ख़्म हो गए
फिर से हरे
जी लेंगे किसी भी तरह


0अंजु दुआ जैमिनी
द्वारा- श्री यशपाल गोगिया
डी-7, नवभारत अपार्टमेंट, पश्चिम विहार
नई दिल्ली- 110063

1 टिप्पणी:

Yatish Jain ने कहा…

वक्‍त तो चलता रहता है और
हर कदम एक याद का ज़ख़्म
छोड जाता हैं,
जो ज़िन्दगी के साथ हरियाते है,
हम सहलाकर इन्‍हे कुछ
हल्‍का कार लेते है मन,
वरना मन का क्‍या
वो तो चंचल है,
चलता रहता है.