2/27/2006

सलीम अख़्तर की पाँच ग़ज़लें

प्यास ने दरिया पिया है
हवा की भीख से सौदा किया है
चिराग़ों को खुले में रख दिया है

हमारे पास हैं लफ़्ज़ों के मोती
हमारी प्यास ने दरिया पिया है

लिफ़ाफ़े पर तो इतना ही बहुत है
‘सलीम’ अख़्तर ठिकाना गोंदिया है

चाँद की कंदिल लेकर

शाम आई तो भस्म सारे किताबी निकले
गां के लोग तो सूरज के पुजारी निकले

होंठ भी खेतों के उनसे तो भिगोये न गये
बादलों के घड़े बरसात में खाली निकले

याद है उसकी, कि तन्हाई में जंगल का सफर
या कि खण्डहर से कोई क़ब्र पुरानी निकले

शाम का बूढ़ा चला चांद की क़ंदिल लेकर
रात दामन में लिए कोई कहानी निकले

वक़्त सर देने आया तो रहा मैं तन्हा
यार तुम लोग तो बातों के खिलाड़ी निकले

जिनके हाथों में दीं क़ौम की क़िस्मत हमने
हाय वो लोग भी काग़ज़ के सिपाही निकले

कागज की नाव पर

जब से गुलाब उसने रखा मेरे घाव पर
देने लगा हूं ध्यान बहुत रख रखाव पर

झुलसी हुई हैं उंगलियां इस बात की गवाह
लिखा है मैंने तबसिरा ग़म के अलाव पर

कैसी सियासतें हैं कि जुगनू निकल पड़े
सूरज के अभी लौटा नहीं था पड़ाव पर

उसके लिए अभी से क्यों न मरसिया पढ़ें
जायेगा कितनी दूर वो काग़ज़ की नाव पर

पैरों तले था आस का साहिल निकल गया
हमने नज़र रखी थी नदी के बहाव पर

यारों की ख़्वाहिशों का सफ़र मैंने तय किया
जैसे कोई पतंग हवा के दबाव पर

परिन्दो पर न तोलो
दिलों के बंद दरवाज़े न खोलो
अदाकारी सही हंसकर तो बोलो

कहीं तो होगी चिंगारी भी कोई
ज़हन जो बर्फ़ हैं उनको टटोलो
अभी है तरबियत पाक़की तुम्हारी
अभी से ऐ परिन्दो पर न तोलो

मैं अपने आप का हूं ख़ुद दुश्मन
गवाहों तुम न मेरे हक़ में बोलो

अमीराने शहर शब-ख़ूं में जागे
ग़रीबाने शहर कुछ देर सो लो

चाँद बेनकाब रहने दे
ग़म बहुत है शराब रहने
मेरे सिर पर अज़ाब रहने दे

हैं बहुत ज़ख़्म ही महकने को
अपने ताज़ा गुलाब रहने दे

ख़ौफ़ लगने लगा हक़ीक़त से
कुछ घड़ी रंगी ख़्वाब रहने दे

तजरुबों से ही सीख जायेंगे
अपनी उमाद किताब रहने दे

रात नागिन है सब को डस लेगी

चांद बेनकाब रहने दे

दिन के नाखून तेज़ हैं ‘अख़्तर’
मख़मली शब के ख़्वाब रहने दे

दूध कबूतर, सुर्ख़ इबादत
चेहरा-चेहरा है मक्कारी, गंगा तेरा क्या हो ?
पत्थर हल्के फूल हैं भारी, गंगा तेरा क्या होगा ?

माना सारे बाग़ हैं उनके, लेकिन हम भी रक्षक हैं
हमसे है जब पर्दादारी, गंगा तेरा क्या होगा ?

तूने जिसको प्यार से सींचा वह निकली ज़हरीली
उसकी सरसों, मेरी ज्वारी, गंगा तेरा क्या होगा ?

लोभी, लम्पट, कामी, पापी, तूने सबके पाप हरे
जब आयेंगे खद्दरधारी, गंगा तेरा क्या होगा ?

मेरी अक़ीदत, तेरी इनायत, लूट के सब ले जायेंगे
साधु के मेकअप में मदारी, गंगा तेरा क्या होगा ?

दूध कबूतर, सुर्ख़ इबादत, काली नदियां, पीले लोग
भगवा ख़ंजर, हरी काटारी, गंगा तेरा क्या होगा ?

(ग़ज़लकार सृजन-सम्मान, छत्तीसगढ, रायपुर द्वारा मुस्तफा हुसैन मुश्फ़िक सम्मान-2004 से सम्मानित रचनाकार हैं । गोंदिया, महाराष्ट्र में रहते हैं )

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