2/25/2006

समकालीन कविताएँ

विश्वरंजन की कविताएं

अंधेरे से लड़ने के लिए स्वप्न का होना बेहद जरूरी है

अधखुली खिड़की से झाँकता अँधेरा
टेबुल पर भूल से बैठी है लैंप की रोशनी
सिकुड़ा गोल छोटा पीला सूरज हो जैसे
खुली किताब फड़फड़ाते पन्ने
कोई नहीं है आज यहाँ
क्यों ?

शाम सूर्य छुप जाएगा
हृदय के काले आकाश में
घास पीली हो जाएगी आखिरी रोशनी में
पत्ते मरणासन्न बयान देंगे शायद
हवा भारी हो झाँकेगी अधखुली खिड़की से
टेबुल पर बिछ जाएगी लैंप की रोशनी
खुली किताब के पन्ने फड़फड़ाएँगे बस
लगता है यहाँ कभी कुछ नहीं होगा

यह सब जानते हुए भी
मैं नहीं मानूँगा हार
अपनी बच्चियों को परी-कथा सुनाउँगा मैं
उन्हें नई रोशनी दिखाउँगा
नए फूलों का हुजूम
बैठाउँगा मन में उनके
एक बिलकुल नए शहर
की नींव डालूँगा उनके अंदर
स्वप्न पैदा करूँगा उनकी आँखों में

मैं जानता हूँ
अँधेरे से लड़ने के लिए
एक नए स्वप्न का होना बेहद जरूरी है

मैं फिर से नया लोहबान जलाता हूँ

मुझे अकसर लगता था
लोहबान की महक में एक रहस्य बंद है
और यह भी जानता था मैं
संगीत का रहस्य
उसकी लय के बिखरने पर ही खुलता है
लोहबान में बंद रहस्य को खोलने की कोशिश में
मैं लोहबान में अकसर आग लगा देता हूँ
और उसकी महक को
धुँए की पंखों पर बिठा
उड़ा देता हूँ
गहरे आकाश में
रहस्य और गहराई में उतर जाती है
जैसे जड़ें उतरती चली जाती है अंदर बहुत अंदर
जिंदगी की जड़ें भी तो
ठीक ऐसी ही उतरती चली जाती हैं
एक अहसास
आँख खोलती है तीसरी
कभी उदास कभी उदास कभी शादमाँ
कभी मायूस हो जाती है यह जड़
और कभी इन सब को लाँघ शब्दातीत
जन्म और मौत का एहसास
नजदीक से गुजरते है अपरिभाषित
एक स्वप्न अपनी केंचुली छोड़ता है
एक अपरिभाषित विराट आस्था जनमती है अंदर
पर सब कुछ छन्न से चूर-चूर हो जाता है
जब भीरू चमार कहता है मेरी भूख का क्या होगा
में फिर से नया लोहबान जलाता हूँ

हम-तुम मिल उसमें हजारों फूल उगाएँगे

तुम कपड़े बदलते समय हमेशा
मेरा नाम
घुमाती हो अंदर
मैं जानता हूँ
तुम उस वक्त
बिलकुल निर्वस्त्र रहती हो

मेरी महक से तुम लपेट लेती हो खुद को
और आदिम सभ्यता-सी आकर्षक हो जाती हो
तुम्हारा हृदय मांदर बजाने लगता है ओर
प्रथम संगीत बन जाती हो तुम
तुम पर जब रात पसर जाती है सहसा
मेरा नाम तुम्हें
उँगलियों-सा छूता है
और बेतरतीब अर्थहीन रेखाचित्र बनाता है
तुम्हारे बदन पर

मैं तुम्हारी आँखों में आकाशगंगा-सा
स्थिर फैलाव बन जाता हूँ
और तुम मुझे याद कर लेती हो कविता-सी

मैं जानता हूँ
तुम मेरे बच्चे को जन्म दोगी जरूर
और हम-तुम मिल उसमें हजारों फूल उगाएँगे

आकाश-सी फैल गई है हमारी दोस्ती

अपने प्रवास का
हर क्षण तुम्हारे साथ गुजारने के बाद भी मुझे
तुम्हारी उम्र याद न रहे तो
कोई ताज्जुब है क्या ?
जो बहुत अपने होते हैं वे
मन कीगहराइयों में उतर जाते हैं
पवित्र मूर्ति की तरह
उनका न जन्म होता है, न मौत
न उम्र घटती है न बढ़ती है
एक खुशबू रह जाती है उन फूलों की
जो हमने चढ़ाए थे पहली बार
बस !
वह आग
जो हमारा चश्मदीद गवाह थी
आज भी दहक रही है
वातावरण आज भी मनपसंद धुनें संजो रहा हैफूल आज भी उग रहे हैं जहाँ-तहाँ
आकाश-सी फैल गई है हमारी दोस्ती,
और आकाश की उम्र नहीं होती !

नन्हा बालक

एक झोपड़ी टूटी-सी
झोपड़ी के अंदर
एक नन्हा सा बालक
बालक के साथ
माँ
माँ के साथ
बालक का
पहला कदम
पहले कदम के साथ
हँसी की धार
बेशुमार प्यार
फटी साड़ी में
भूख
खाली डिब्बे में बंद
बूझे चूल्हे में
दफन आग

नन्हा बालक कब तक रहेगा झोपड़ी के अंदर राजकुमार !

(श्री विश्वरंजन मशहूर शायर फिराक गोरखपुरी के नाती और हिन्दी के प्रतिष्ठित कवि हैं । 1973 बैच के भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारी श्री रंजन कविता लिखने के अलावा पेंटिंग तथा फोटोग्राफी भी करते रहे हैं । कला एवं संस्कृति के विभिन्न आयामों पर सोचना और लिखना जिनका ध्येय हैं । इनकी कविता पुस्तक “स्वप्न का होना बेहद जरूरी है” ने पर्याप्त ख्याति अर्जित की है ।- संपादक)

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