3/23/2006

समय, समाज और त्वरित लेखन (समीक्षात्मक लेख)

श्रद्धांजलि

स्व. श्री प्रमोद वर्मा

बिलासपुर-रायपुर सड़क मार्ग पर बिलासपुर से कोई पच्ची किलोमीटर दूर सरल रेखा सी बहती मनियारी नदी के तट पर एक छोटी सी बस्ती है-तालागाँव । खेत-खलिहानों और आसपास बसे झोपड़ों को पार करते आप अचानक ठिठक जाते हैं । आँख मलने लगते हैं । कहीं स्वप्न तो नहीं देख रहे । सामने आप के सचमुच एक स्वप्न-लोक है । सपनों की ही तरह भग्न और बेतरतीब । सच क्या है इन में से – वह जो था या यह जो है ?

सच दोनों हैं – वर्तमान से रंच मात्र भी कम अतीत नहीं । फिलहाल का भला कौन नहीं होता ?

लेकिन प्राणियों में केवल मनुष्य ही तो उसे फलांगने की इच्छा सहित फिलहाल में होता है । इसलिए खास देश-काल का हो कर भी वह दिक्काल का होता है । इतिहास घटनाओं का नहीं वरन् उन घटनाओं को संभव करते मनुष्य –समूह का नाम है । उससे गुज़रते हुए हम अपने संघर्षरत पुरखों का, एक तरह से अन्य देश-काल में अपना ही, साक्षात् कर रहे होते हैं । बावड़ी के भीतर की सीढ़ियाँ आकाश की ओर ही तो खुलती हैं । भीतर से बाहर और बाहर से भीतर कोई और नहीं हमीं हुआ करते हैं । मनुष्य । बेपर को होकर भी जो उड़ सकता है, तब के बंधन में होकर भी जो मनसे उन्मुक्त रहा चला जाता है, जिसकी कल्पना कल्पना की दूरबीन आगे भी देख सकती है और पीछे भी, जो अनुभव-समृद्ध है इसलिए कृतसंकल्प भी । शायद पूर्वापर सम्बन्ध जोड़ पाने की अनपी क्षमता के ही बल पर सृष्टि में कबी असहाय सा विचरता द्विपद अजेय बनता गया ।

खंडहरों में प्रवेश कर हम जैसे स्वयं को ही अपने अतीत में हासिल कसिल करते हैं । ताला के भग्न मंदिर का प्रवेश-द्वार वानस्पतिक उपकरणों से सज्जित है । खगोल-भूगोल में विचरते मानवेत्तर प्रवेश प्राणी रूद्रशिव के अंग-प्रतयंग है । देवता के एक ही विग्रह में पेड़-पौधों पंशु –पक्षियों यहां तक कि कीट-पतंगों को भी समाविष्ट करने वाली कला-चेतना हमारी संशिलष्ट संस्कृति के चरित्र के अनुरूप वैश्विक और समावेशी है । मनुष्य समय की पीठ पर सवार है और मूल्य संस्कृति की पीठ पर ।
समुदाय का अंग बनकर द्विपद मनुष्य हुआ । समुदाय ने अपनी ऐतिहासिक ने अपनी ऐतिहासिक सत्ता साहूहिक सहयोग और परिश्रम से उत्पादित करते हुए हासिल की । उत्पादन बटा तो लोभ पैदा हुआ । सामूहिक श्रम से उपार्जित धन का नियंत्रण अपने हाथ में लेने की इच्छा रखने वाली ताकतें भी समाज से ही पैदा होती हैं । अलग-अलग समुदायों को ऐसी ताक़तें आपस में लड़ाती है । भारी पड़ने वाली ताक़त अपने प्रतिद्वंद्वी को गुलाम बना लेती है ।

भौतिक संपदा के अलावा हर समाज की आध्यात्मिक संपदा भी होती है । इस संस्कृति कहते हैं । इसका भी उत्पादन सदियों के सामूहिक सहयोग और परिश्रम से होता है । संस्कृति जातीय अनुभवों और जीवन-मूल्यों का स्मृति-कोश हैं । ये मूल्य ही किसी समाज की वास्तविक पहचान होते हैं । उपनिवेशवाद की विजय-यात्रा विजित राष्ट्र पर सांस्कतिक प्रभूता के साथ समाप्त होती है ।

उत्तर मध्य- काल भारतीय इतिहास के चरम अधःपतन का समय है । ऐसे समय में यहां आयी विदेशी सत्ता को पैर जमाने में खास दिक्कत नहीं हुई । लेकिन जैसे ही उसने भारत के मन के भी उपनिवेशन की प्रक्रिया शुरू की, बूढ़े भारत का सोया तेज जाग उठा । अपने डेढ़ सौ बरस के राज में हर चंद कोशिशों के बावजूद अंग्रेज इस देश की अस्मिता को न मेट सके न बदल ही सके । पराधीन रहकर भी जो मन से ऐसा अनुभव न करे उसे भला कौन बाँध रख सकता है । भारत छोड़ो आंदोलन शुरू होने के पांच ही साल बाद अंग्रेजों को भारत छोड़ना पड़ा ।

और तब आता है विडंबना का ऐसा दौर जिसकी मिसाल शायद ही कहीं मिले । आज़ाद होत ही हमने उन शस्त्रों को हिंद महासागर में फेंक दिया जिनसे हमने आज़ादी की लड़ाई लड़ी थी । गांधी की हत्या वस्तुतः उन मूलियों की हत्या थी जिनके वे प्रतीक थे । स्वाधीनता-पूर्व और स्वाधीन बारत की राजनीति का चारित्रिक अंतर ध्यान देने थे । स्वाधीनता –पूर्व और स्वादीन भारत की राजनीित का चारित्रिक अंतर ध्यान देने योग्य है । स्वाधीनता की लड़ाई के दौरान जोर संस्कृति-निःसृत मूल्यों पर था जबकि स्वधीन भारत में उसके पर्याय कीमत पर जिसे बाज़ार तय करता है । बड़े बाज़ार से जुड़ना उसके अधीन होना है । उपनिवेश बन कर भी जो भारत मन से गुलाम नहीं हुआ था नव उपनिवेशनवाद के आरक्षित वन में बंधनरहित होकर भी वस्तुतः अपनी स्वतंत्रता सीमित कर चुका है ।
स्वाधीन होने के बाद हमने समता और न्याय पर आधारित समाज-रचना का संकल्प लिया था । तदनुसार विकास की योजनाएं बनाकर उन्हें अमल में लाने की आधी-अधूरी कोशिश भी हुई लेकिन इनका लाभ कमज़ोर वर्ग के बजाय उपरले वर्ग को अधिक मिला । औपनिवेशिक प्रशासिनक तंत्र के माध्यम से जनकल्याणकारी योजनाओं पर अमल करने का नतीजा इसके सिवा और हो भी क्या सकता है । सदियों से चली आ रही अन्यायी रूढ़िवादी व्यवस्था और उसे मज़बूत करने वाली सामाजिक संस्थाओं की जकड़बंदी आज़ादी हासिल करने के लगभग पाँच दशक बाद भी यथावत् है । वोट बैंक के बने रहने के चक्कर में धर्म के मानले में हज़ारों साल की सहिष्णुता और मेलजोल की विरासत नष्ट होती जा रही है । पढ़े-लिखे वर्ग के लोगों को भी पिछले दिनों दूसरे सम्प्रदाय के उपासना –गृह के नष्ट किये जाने पर खुश होते और एक दूसरे को बधाई देते देखा-सुना गया है । समाज-विरोधी ताकतों के हौसले तो अब इतनी बुलंदी पर हैं कि शक होने लगता है कि वही शान चला रहे हैं । प्रतिगामी जनविरोधी ताकतों पर अंकुश लगाने की न तो शासन में क्षमता दिखाई देती न पर्याप्त इच्छा–शक्ति । राजनीति का अपराधीकरण हो गया है । वर्तामान सरकार द्वारा खुले तौर से विकास की पश्चिमी धारणा को स्वीकार कर लेने के बाद तो देश में उपभोक्ता समाज ही बन सका है । समतामूलक समाज नहीं । सामाजिक न्याय की तोतारटंत भी इसीलिए आजकल कम सुनाई देती है । संसार के सारे विकसित देश विकासशील देशों की कीमत पर ही समृद्ध हुए हैं । विकासशील देशों द्वारा भी वही रास्ता अपनाने की कीमत ज़ाहिर है उन्हीं देशों के इत्यादि जन ही चुकायेंगें ।

कुछ ही बरस पहले तर तंत्र और उस पर काबिज़ ताकतों के जन-विरोधी तेवरों को लेकर चिंता करते अपने प्रश्नाकुल छात्रों को मैं दिलासा देता कि आदमी की ज़िन्दगी में तीस-चालीस बरस बेशक बहुत होते हैं लेकिन देश की ज़िन्दगी में तो यह बूंद भर समय ही है । वह दिन ज़रूर आयेगा, मैं उनसे कहता ,जब न यह जनविरोधी तंत्र रहेगा न उस पर काबिज़ दिख रही ये काली ताक़तें ही । लेकिन जिस दौर से हम इन दिनों गुज़र रहे हैं और देश की मूल प्रकृति और व्यापक हितों के विरुद्ध जैसे निर्णय लगातार लिए जा रहे हैं, लोभ संदेह और नफ़रत के माहौल को सियासी ताकतें जिस तरह हवा देती चल रही हैं, माफ़िया और सत्ता के दलाल जिस तरह दिनोदिन मजबूत होते जा रहे हैं उन्हें देख कर मेरे जैसा सुधारातीत आशावादी भी अब बुरी तरह संशकित होने लगा है । अभी उसी दिन बम्बई में हुए बस विस्फोटों की खबर देख रही हमारी ग्यारह साल की बेटी झुंझला कर अपनी माँ से कह उठी, “ बंद करो मां बकवास कर रहे इस डिब्बे को । भौगोलिक कारणों से तो इस देश को अतिरेकों का उपमहाद्वीप कहा ही जाता है लिकिन यह राजनैतिक कारणों से भी यही है । अवकाश के घंटे में जानती हो हम सहेलियां प्रायः क्या गाती हैं –नफ़रत की गंगा बहे देश में झगड़ा रहे ।‘’

बात इसलिए बेहद चौकाने वाली है क्योंकि भय हत्या झूठ फ़रेब अन्याय और दमन की राजनीति अपना कुप्रभाव समाज के सबसे कोमल और पवित्र मन पर भी डालने लगी है । प्यार को नफ़रत, एकता को झगड़ा और देश को न कुछ का नाम देते बच्चों को कौन सा संसार दे रहे हैं हम । जब हम बच्चे थे तो जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी उचारते विह्वल हो-हो उठते थे । देश का एक साफ़ विचार था हमारे अंदर । भूगोल और राजनीति से भी परे वह एक सांस्कृतिक सच्चाई था । देश और समाज की भला कौन सी धारणा दूँ मैं अपनी इस बड़ी हो रही बच्ची को ? राष्ट्रपति को अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करते हुए अनुसूचित जाति, जनजाति के आयुक्त कहते हैं कि इस देश में तिहरी अर्थव्यवस्था लागी है क्योंकि इसके भीतर दो और देश हैं इंडिया के अलावा भारत और हिंदुस्तान । कौन से मुँह से उपदेश दे कोई पिता अपने बच्चे को कि अपने देश को प्यार करो क्योंकि तब वह फट्ट से पूछ बैठेगा, किस देश को पिता और पिता को कोई जवाब नहीं सूझेगा ।

समय के एसे दौर में पत्रकार की भूमिका और भी महत्वपूर्ण हो जाती है । पत्रकारों में मैं लेखक को भी शामिल मानता हूँ- सिर्फ़ इसलिए नहीं कि पत्रकारिता त्वरित लेखन है, बल्कि इसलिए खासतौर से कि हमारे यहाँ पत्रकार लेखकों और लेखक-पत्रकारों की सुदीर्घ और समृद्ध सरंपरा रही है जो आज तक चली आ रही है । सबसे ज़रूरी काम आज मुझे नवजागरण और स्वतंत्रता संग्राम के दौर की स्पिरिट का पुनर्वास लगता है क्योंकि मन के हारे हार मन के जीते जीत । सिर्फ़ साठ- सत्तर साल पहले तक जो जाति आत्मगौरव और देशाभिमान से रहित नर को नर-पशु और मृतकतुल्य कहती थी और जिसके स्वाधीनता-संघर्ष से एशिया-अफ्रीका के तमान मुल्क़ो ने अपनी आज़ादी की लड़ाई लड़ने की प्रेरणा पायी थी उसी को अपने स्वाभिमान को ताक पर रख अंतर्राष्ट्रीय पूँजीवाद के चरण चांपते देखना बेहद लज्जाजनक अनुभव है ।
तालागांव के रुद्रशिव की प्रतिमा जिस चेतना से उपजी है उस के पीछे सदियों का सोच और विवेक है । हर दर्पण अपने ही इतिहास और संस्कृति को प्रतिबिंबित करता है । अपने दर्पण को तज देने से हमारे पुरखे कहां प्रतिबिम्बत होंगे ? और वही नहीं रहे तो हम भला कितने रह जाएंगे ? औपनिवेशिक ताकतों की मानसिक गुलामी से छुटकारा पाना मेरे विचार से जाति के तौर पर सम्मानजनक ढंग से हमारे बने रहने की अहम शर्त है ।

तहसनहस के इस दौर में हमारे देश की पत्रकारिता पर बड़ी ज़िम्मेदारी है । यह देख कर तसल्ली होती है कि बहुतेरे दबावों के बीच भी उसमें वैदिकी हिंसा को भी हिंसा ही कहने का साहस है, डरावनी से डरावनी सच्चाइयों से मुठभेड़ करने की कूवत है । अयोध्या की टूटी मस्ज़िद का सच, कश्मीर में मंदिरों के सही सलामत होने का सच, दलितों के उत्पीड़न का सच, सियासी साजिशों और आर्थिक घोटालों का सच, लोगों तक पहुंचाने का जोखिम उसने उठाया है । बेशक काली-पीली पत्रकारिता का भी हमारे यहां बड़ा ज़खीरा है । सता के ढिंढोरचियों की भी एक बड़ी जमात है । लेकिन जातीय जीवन के परिप्रेक्ष्य में आम आदमी और उसकी नियति के अहम फ़ैसलों से जुड़े सवाल बेहिचक उठाती पत्रकारिता ही तिलक, गांधी और गणेश शंकर विद्यार्थी की परम्परा है । जिसमें सत्ता के विरुद्ध अपनी इंटीग्रिटी कायम रखने की क्षमता हो वही हमारी पत्रकारिता और लेखन की मुख्य धारा हो सकती है ।
**********
**********

(स्व.श्री प्रमोद वर्मा अपने समय के जाने-माने आलोचक थे । मार्क्सवादी कला मूल्यों की पड़ताल करने वाली उनकी पुस्तक ‘’हलफनामा’’ 1978 में वर्ष की सर्वश्रेष्ठ समीक्षा कृति के तौर पर समादृत हुई । उनके साहित्यिक अवदान पर म.प्र.साहित्य सम्मेलन ने उन्हें ‘भवभूति अलंकरण’ से सम्मानित किया था । वे संस्कृति विभाग के बख्शी सृजन पीठ, भिलाई के 4 वर्ष तक अध्यक्ष रहे । इनकी समीक्षा की कृतियों में प्रमुख हैं – 1.साहित्य रूप और सृजन प्रक्रिया के संदर्भ 2.अंग्रेजी की स्वच्छंद कविता 3. हलफनामा 4. रोमान की वापसी 5. कालजयी मुक्तिबोध 6. कदाचित । चर्चित कविता हैं- 1. कविता दोस्तों में 2. बुलाने से नहीं आती नदी 3. कल और आज के बीच । संदर्शन और लेख आलेख उनकी दो महत्वपूर्ण निबंध संग्रह हैं । उन्होंने नाटक भी लिखे जिनमें ‘’लम्बा मारग दूरि घर’’ व ‘’पूर्व रंग’’ की विशेष चर्चा होती है । 31 मार्च 2000 को 72 वर्ष की आयु में हिन्दी संसार को छोडकर चल बसे ।- संपादक)

कोई टिप्पणी नहीं: