3/30/2006

समकालीन हाइकु

1. डॉ. रमाकान्त श्रीवास्तव

बजती कहीं
छिपी पंख बाँसुरी
गूँजे अरण्य ।

साँकल
पथ के पग रुके
लक्ष्य विफल ।

चाँदनी स्नात
विजन में डोलता
मन्द सुवात ।

फूलो जो खिले
बहार सज गयी
दुल्हन जैसी ।

2 डॉ. राजेन्द्र बहादुर सिंह

पवन संग
नाचते गाते पौधे
उर उमंग ।

स्वार्थ की नदी
अपने में समेटे
सदी की सदी ।
लू के थपेड़े
लगते तन में ज्यों
गरम कोड़े ।

मंगलामुखी
ऊपर से प्रसन्न
मन से दुखी ।

3. सत्यप्रकाश त्रिवेदी

जीवन जीना
विसंगतियों में है
गरल पीना ।

हुआ बेदर्द
जमाने ने दिया है
अनेखा दर्द ।

विवश नारी
जीवन की डगर
खोजती फिरी ।

बेटे का लोभ
छीन लिया बेटी को
जन्म से पूर्व ।

4. डॉ. राजेन जयपुरिया

कारी बदरी
बरसी, बह गई
कोरी-गगरी ।

उड़े तीतर
खड़-खड़ संगीत
डूबा पीपर ।

कनखियों से
हेर गये साजन
झरे सावन ।

द्वार का नीम
बन गया हकीम
रोग ना झाँके ।

5. डॉ. रामनारायण पटेल

शिला कंधों से
ढो रहा दिनकर
थका, लुढ़का ।

अदृश्यलय
भीतर सुनता हूँ
मैं न मेरा हूँ ।

मेघ की पाती
चातक चोंच छुए
प्रेम-अर्पण ।

काश ! मिटता
दरार पड़े हिम
राम-रहीम ।

6. मुकेश रावल

खुली खिड़की
प्रकृतिका सौन्दर्य
चमका सूर्य ।

आँखों के मोती
देखकर पाया था
अपनापन ।

अकेला घड़ा
पनघट की याद
निभाती साथ

तुम नहीं तो
चूड़ियों की खनक
संगीत चुप ।

7. डॉ. भगवतशरण अग्रवाल

टूटे अक्षर
गहराये सन्नाटे
काँपते हाथ ।

पंख बिना भी
उड़ती रही आयु
धरती पै ही ।

देखा औ सुना
पढ़, भोगा और गुना
काम न आया ।

स्वार्ध के लिए
रिश्ते बाँधते हम
पत्थरों से भी ।

8. मनोज सोनकर

यादें विपक्ष
सुने नहीं दलील
शोर में दक्ष ।

बाज न आए
मदमस्त बाजरा
सूँड हिलाये ।

राजा तो हटे
ससके कुरसियाँ
वंश आ उठे ।

टूटन बड़ी
सफर बड़ा लंबा
सामने अड़ी ।

9. प्रो. आदित्य प्रताप सिंह

हँसता जन्मा
रोता सानंद जिया
हँसता गया ।

यह वजूद
पकड़ते रहिए
पारे की बूँद ।

मौन घाटियाँ
उल्टी सीधी पल्थियाँ
निकट... दूर...।

हिम में कूक...
कहाँ ? प्रिया कंठ में...
गर्म हवा रे ।

10. नरेन्द्र सिंह सिसोदिया

प्रजातंत्र ही
लूटतंत्र बना है
बोले कौन है ।

सत्य-असत्य
झंझावात मन के
परेशान क्यों ?

कौन मानता
कुरान का आयतें
इस्लाम में ।

उलझन में
बेचैन रहती है
मानस बुद्धि ।


11. पूनम भारद्वाज

शीतन छाँव
है क्षणिक सुखों सी
मिलती कहाँ ।

नभ के तारे
असंख्य होकर भी
तम से हारे ।

ओढ़ निलका
सतरंगी दुशाला
इन्द्रधनुष ।

ग़ज़ल बन
सजते होंठों पर
कितने गम ।

12. वाई. वेदप्रकाश

चलते हुए
मैं भी नहीं था यहाँ
कोई है कहाँ ?

आर या पार
लड़ाई का मैदान
जीत या हार ।

मिलेगा तुझे
सपनों में आता जो
मन का मीत ।

हँसते हुए
गाता रहा हूँ मैं
जीवन गीत ।


13. भूपेन्द्र कुमार सिंह

तन पतंगा
मिटने को तत्पर
देख दीपक ।

मन दर्पण
टूटा फिर कैसे हो
कुछ अर्पण ।

होते बिछोह
रुलाता है बहुत
किसी का मोह ।

कारण हठ
हुआ न फिर मन
कभी निकट ।

14. रामनरेश वर्मा


सत्य की बात
अटपटी हो तो भी
लाए मिठास ।

कहे विद्वान
हिन्तस्तान की जान
हिन्दी महान ।

दुष्ट गुर्राया
कुछ बड़बड़या
शान्ति भगाया ।

निर्भय बनो
अन्याय के विरुद्ध
संघर्ष करो ।

15. बद्रीप्रसाद पुरोहित

नेता समझें
देश को चारागाह
चरें जी भर ।

आधि व्याधि से
घिरी दुनिया सारी
बचा ही कौन ?

नाम सेवा का
काम है कसाई सा
खाली कमाई ।

आनंद पाना
हर कोई चाहता
पाता विरला ।

16. कु. नीलम शर्मा

शब्द श्रृंगार
कविता है दुल्हन
कागज शेज ।

जीवन डोर
बहुत कमजोर
हम पतंग ।

आँसू कहते
आँखों से बहकर
मन की व्यथा ।

माँ का आँचल
स्नेह से सराबोर
देता है छाँव ।

17. डॉ. राजकुमारी शर्मा

देवी-गरीबी
सदियों से जवान
होगी न बूढ़ी ।

क्षुब्ध हो बढ़ा
पूर्णिमा का रीत को
सागर-जल ।

ईश्वर सच
बाईबिल, कुरान
गीता भी सच ।

सर्वनाम ही
साजिशें रचते हैं
संज्ञा के लिए ।

18. डॉ. शरद जैन

लोग दोगले
आदर्श खोखले हैं
स्वर तोतले ।

बरसे मेघ
कूक उठी कोयल
मन घायल ।

ये प्रजातंत्र
बंदर की लंगोटी
एक कसौटी ।

शस्त्रों की होड़
बमों में है शायद
शांति की खोज ।

19. नलिनीकान्त

बुझेगा दीप
अंचरा न उघारो
पूरबा मीत ।

धूप का कोट
पहनकर खड़ा
होरी का बेटा ।

सिन्धु से सीखा
गरजना मेघों ने
यही संस्कार ।

सराय नहीं
आसमान में कहीं
बादल लौटो ।

20. अशेष बाजपेयी

गम इसका
नश्वर संसार में
कौन किसका ?

सूर्य ढला है
अंधेरे ने छला है
दुखा पला है ।

फूल जो खिला
घर के आंगन में
भाग्य से मिला ।

यह जीवन
है कठिन प्रमेय
रेखा अज्ञेय ।

21. सूर्यदेव पाठक पराग

यश की ज्योति
अनन्त काल तक
चमक देती ।

ओ प्यारे बीज !
अगर जमना है
मिट्टी से जुड़ो ।

गीता की वाणी
कर्म की संजीवनी
जग-कल्याणी ।

उषा सहेली
हौले से गुदगुदाती
कली मुसकाती ।

22. ओ.पी. गुप्ता

जुड़ना अच्छा
रिश्ते देते सहारा
समीप – आओ ।

दाग लगता
हर बदन पर
पग धरते ।

नून तेल का
भाव बता नहीं है
मौज करेंगे ।

चढ़ोगे यदि
उतरना भी होगा
जीना-मरना ।

23. सदाशिव कौशिक

भोले सूर्य को
निकलते ही फांसे
बबूल झाड़ी ।

पानी बरसें
टपरे वाले लोग
भूखे कड़के ।

उड़ने लगे
पहाड़ हवा संग
राई बन के ।

फूल महके
पौधे बेखबर थे
हवा ले गई ।

24. डॉ. सुधा गुप्ता

दाना चुग के
उड़ते गए पाखी
आँगन सूना ।

कौन पानी पी
बोलती री चिड़िया
इतना मीठा ।

हँसा तमाल
श्याम का स्पर्श हुआ
बजी बाँसुरी ।

पहाड़ी मैना
टेरती रुक-रुक
जगाती हूक ।

25. मनोहर शर्मा

साँप दूध पी
उगले न जहर
संभव नहीं ।

जिंदगी जीना
आसान काम नहीं
वेदना पीना ।
संवेदनायें
हो रहीं अवधूत
हुए हैं भूत ।

आधी गागर
छलकत जाये रे
गधा गाये रे ।

26. शैल रस्तोगी

सोई है धूप
तलहटी जागती
थकी लड़की ।

फूले कनेर
महकी यादें, मन
टीसती पीर ।

लिखती धूप
फूल आखर
भागती नदी ।

आँखें पनीली
धुँधलाया आकाश
दिखे ना चांद ।

27. रमेश कुमार सोनी

मौत तो आयी
जिंदा कोई न मिला
वापस लौटी ।

याद रखना
भीड़ पैमाना नहीं
कद माप का ।

अकेला चाँद
साथ मेरे चलता
रात में डरे ।

पत्थर पूजा
ईश्वर मानकर
कुछ न मिला ।

28. कमलेश भट्ट

गर्मी बढ़ी तो
बढ़ा ली पीपल ने
हरियाली भी ।

आग के सिवा
और क्या दे पाएगा
दानी सूरज ।

खुद भी जले
धरा को जलाने में
ईर्ष्यालु सूर्य ।

टंगे रहेंगे
आसमान में मेघ
कितनी देर ?

29. डॉ. सुनील कुमार अग्रवाल

पत्थर भी क्या
सज सकते कभी
डालियों पर ।

हाथ से गिरे
मोती कूदते हुए
दूर हो गये ।

रेत समेटे
गिलहरियाँ घूमे
राम न चूमे ।

नदी थी
अब नाला हो गई
पाप धो गई ।

30. रमेशचन्द्र शर्मा

धँसा सो फँसा
दलों का दलदल
मुक्ति कठिन ।

लीला वैचित्र्य
पल-पल प्रसन्न
प्रभु के भक्त ।

वर्जित शब्द
गूढ़ रहस्य मृत्यु
अस्तित्वहीन ।

आतंकवाद
बेटा ही बाप बना
गले की फाँस ।

31. डॉ. मिथिलेश दीक्षित

चाँद शिशु है
चाँदनी में है खिली
उसकी हँसी ।

बुझ न जाएँ
टिमटिमाते दीप
जागो जिन्दगी ।

पानी की कमी
आँसू टपका रही
पानी की टंकी ।

मानव तन
क्षित, जल, पावक
वायु, गगन ।

32. उर्मिला कौल

शीशा वो शीशा
टूटता आदमी भी
कण चुगूँ मैं ।

बीज अंकुरा
पात-पात पुलका
आया पावस ।

यादों के मोती
चली पिरोती सुई
हार किसे दूँ ?

कुहासा भरा
मन, कहाँ झुकूँ मैं
मंदिर गुम ।

33. कमलाशंकर त्रिपाठी

माँ की छवि मैं
क्या कुछ अन्तर है
कोई कवि में ।

पावस घन
उतरे नीलाम्बर
हरषे मन ।

आ गये कंत
पावस के संग ज्यों
आया बसंत ।

कामना वट
आश्रय पाते आये
तृष्णा के खग ।

34. डॉ. इन्दिरा अग्रवाल

भारत ! राम
विजय सुनिश्चित
पाक ! रावण ।

गीता का स्वर
तरंग जल स्वर
स्निग्ध मधुर ।

मेरा जीवन
ज्वालामुखी का फूल
आग ही आग ।

मन भटके
यत्र-तत्र-सर्वत्र
तृषा न बुझे ।

35. जवाहर इन्दु

महुआ बाग
रस पीती कोयल
पंचम राग ।

तृषा अधूरी
कब होती है पूरी
हमेशा दूरी ।

मौसम गाये
गली-गली महकी
पाहुन आये ।

नदी बहेगी
आँसू नहीं अमृत
दर्द सहेगी ।
(इन हाइकुओं का संकलन सृजन-सम्मान के सरिया विकासखंड (रायगढ़ जिला) के अध्यक्ष श्री प्रदीप कुमार शर्मा ने अपनी पत्रिका 'हाइकु मंजूषा' में किया है । वे छत्तीसगढ़ के युवा हाइकुकार हैं । )

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