6/17/2007

कितना उचित है उपजाऊ भूमि पर उद्योग लगाना



भारतवर्ष को 2020 तक विकसित राष्ट्र बनाए जाने की दिशा में राजकीय स्तर पर प्रयास जारी हैं। इस दिशा में आगे बढ़ते हुए देश में तमाम नए उद्योग स्थापित करने की आवश्यकता महसूस की जा रही है। देश में लागू हुई आर्थिक उदारीकरण की नीति के बाद विश्व के अनेक देशों के प्रमुख उद्योगों से जुड़े तमाम लोग भारत का दौरा कर चुके हैं तथा दुनिया के इस विशाल बांजार में अपने-अपने उद्योग स्थापित करने तथा उनके उज्जवल भविष्य की संभावनाएं तलाश चुके हैं। जाहिर है इन उद्योगपति महमानों को बिजली, पानी व सड़क जैसी आधारभूत सुविधाएं मुहैया कराने से पूर्व इन्हें उद्योग लगाने हेतु ज़मीन उपलब्ध कराने की सबसे बड़ी चुनौती सरकार के समक्ष नज़र आ रही है। हमारे देश में कुछ राज्य ऐसे हैं जोकि निवेशकों के लिए अपने प्रवेश द्वार खोले हुए बैठे हैं। जबकि कुछ राज्य ऐसे भी हैं जहाँ विशेष आर्थिक जोन (सेंज) हेतु ज़मीनों का अधिग्रहण तो ज़रूर किया गया है परन्तु इस विषय पर गहरी राजनीति होती हुई भी देखी जा रही है। पश्चिम बंगाल का नंदीग्राम तो पूरे देश के सेंज विरोधियों के लिए गोया एक प्रतीक सा बन गया है।

गत् दिनों हरियाणा के प्रसिद्ध औद्योगिक नगर गुड़गांव में विशेष आर्थिक ज़ोन हेतु अधिगृहित की गई ज़मीन के किसान मालिकों द्वारा एक महापंचायत बुलाकर सांफतौर पर सरकार को यह चेतावनी दी गई कि यदि उनकी बेशंकीमती ज़मीनों के अधिग्रहण का प्रयास किया गया तो हरियाणा में भी दूसरे नंदीग्राम की पुनरावृत्ति हो सकती है। प्रश्न यह है कि क्या कृषि योग्य भूमि को समाप्त करने की शर्त पर उद्योग स्थापित किए जाएंगे? और इन सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि क्या सरकार के पास उपजाऊ भूमि के अधिग्रहण के अतिरिक्त उद्योग लगाने हेतु कोई दूसरा विकल्प ही नहीं रह गया है? आखिर विशेष आर्थिक ज़ोन है क्या तथा भारत में इसकी स्थापना हेतु सरकारों द्वारा क्या किया जा रहा है तथा वास्तव में किया क्या जाना चाहिए?
आर्थिक विशेषज्ञ प्राय: इस बात की चर्चा करते हैं कि चीन व भारत को मिली आंजादी में कोई विशेष समय अन्तराल नहीं है। इसके बावजूद आखिर चीन इतना विकसित कैसे हो गया। जबकि भारत अभी अपने विकास का खाका मात्र ही तैयार कर रहा है। भारत के विकास की योजना बनाने वाले रणनीतिकारों ने जब चीन का दौरा किया तथा उनकी औद्योगिक, वाणिज्यिक तथा आर्थिक नीतियों को न सिर्फ़ कागजों व फाईलों में बल्कि धरातलीय स्तर पर भी उसे गौर से देखा तो उनके कान खड़े हो गए। दरअसल चीन में बने तमाम विशेष औद्योगिक क्षेत्र की तर्ज़ पर ही भारत में विशेष आर्थिक ज़ोन अथवा सेंज स्थापित किए जा रहे हैं। परन्तु बड़े अंफसोस के साथ यह कहना पड़ता है कि चीन की नंकल करने में अक्ल का इस्तेमाल भारतीय नीति निर्धारकों द्वारा सम्भवत: नहीं किया गया।

चीन में स्थापित इस प्रकार के अधिकांश विशेष औद्योगिक क्षेत्र समुद्र के किनारे स्थापित किए गए हैं। या फिर इसके लिए बंजर भूमि का इस्तेमाल किया गया है। समुद्र के किनारे स्थापित होने वाले विशेष औद्योगिक क्षेत्रों हेतु अलग बन्दरगाहों की व्यवस्था है। यह औद्योगिक क्षेत्र समुद्र के किनारे होने के कारण शहरों को प्रदूषण से मुक्त रखते हैं। चूंकि इन क्षेत्रों में अधिकांश कच्चे माल की आपूर्ति भी जलमार्ग के द्वारा हो जाती है तथा इनके द्वारा निर्मित माल का निर्यात भी जलमार्ग से ही हो जाता है। इसलिए इन औद्योगिक क्षेत्रों में प्रयोग में आने वाले ट्रांसपोर्ट का बोझ भी शहरों पर नहीं पड़ता। अत: न सिर्फ़ यातायात व्यवस्था प्रभावित होने से बचती है बल्कि शहरों में पर्यावरण पर भी इस औद्योगिकरण का दुष्प्रभाव नहीं पड़ता।

हमारे देश में विशेष औद्योगिक क्षेत्र स्थापित करने का फैसला तो ज़रूर किया गया। परन्तु कृषि रूपी पारंपरिक उद्योग को उजाड़कर अन्य उद्योग स्थापित किए जाने का फैसला हरगिज़ सही नहीं कहा जा सकता। हमारे देश में भी समुद्री किनारों पर लाखों एकड़ ज़मीन उद्योग स्थापित करने हेतु अधिगृहीत की जा सकती है। यदि किन्हीं अपरिहार्य कारणों से नए औद्योगिक ज़ोन समुद्र के किनारे स्थापित नहीं भी होना चाहते तो भारत जैसे विशाल देश में बंजर व बेकार भूमि की भी कोई कमी नहीं है। इन पर बड़े से बड़े औद्योगिक क्षेत्र बनाए जा सकते हैं। बल्कि ऐसा करने से तो नए औद्योगिक शहर बसने की संभावनाएं भी बढ़ जाती हैं। फिर आखिर कृषि योग्य भूमि पर ही क्योंकर नज़र रखी जाती है? कहीं यह सब किसानों के विरुद्ध रची जा रही एक बड़ी साज़िश का हिस्सा तो नहीं? या फिर देश के विकास के नाम पर सत्ता में बैठे मुट्ठी भर दलालों के द्वारा इसी भूमि अधिग्रहण के नाम पर धनवान बनने की यह कोशिश तो नहीं?

यदि वास्तव में भारत सरकार व देश के औद्योगिक विकास के क्षेत्र में उसका साथ देने वाली राज्य सरकारें देश के औद्योगिक विकास के लिए गंभीर हैं तो उन्हें किसानों से उनकी ज़मीनों का अधिग्रहण करने के बजाए इसी कृषि उद्योग को ही आधुनिक एवं उन्नत स्वरूप दिए जाने की कोशिश करनी चाहिए। किसानों से उनकी ज़मीनें छीनकर उसपर उद्योग लगाने के बजाए उन्हें नई तकनीक पर आधारित उन्नत खेती करने के उपाय सुझाने चाहिए तथा इसके लिए उनकी सहायता करनी चाहिए। हमें यह हरगिज़ नहीं भूलना चाहिए कि हमारे देश की 60 से लेकर 70 प्रतिशत तक की आबादी गांवों में रहती है तथा उसके जीविकोपार्जन का साधन भी मात्र खेती ही है। लिहाज़ा यदि चन्द पैसे देकर किसानों से उसकी ज़मीन छीन ली गई तो नि:सन्देह यह उस किसान परिवार के बच्चों के भविष्य के लिए बेहतर नहीं होगा।

इसी तस्वीर का एक दूसरा पहलू भी है जिसे हम नज़र अंदांज नहीं कर सकते। निश्चित रूप से देश का औद्योगिक विकास हमारी इस समय की सबसे बड़ी ज़रूर त है (कृषि उद्योग को समाप्त करने की शर्त पर नहीं)। हमारे देश में पश्चिम बंगाल में सिंगूर, जहाँ कि टाटा द्वारा देश की सबसे सस्ती कार निर्मित किए जाने का प्रस्ताव था तथा उत्तर प्रदेश में नोएडा, जहाँ कि अनिल अंबानी द्वारा विशेष आर्थिक ज़ोन प्रस्तावित था, इन योजनाओं पर जो प्रश्न चिन्ह लगा है वह भी कम चिन्ता का विषय नहीं है। ज़ाहिर है इसमें साफतौर पर राजनैतिक लोगों, रणनीतिकारों तथा इस प्रकार के मुद्दों को राजनैतिक रूप देने वालों की स्पष्ट साज़िश नज़र आ रही है। नि:सन्देह एक उद्योगपति अथवा निवेशक के समक्ष उसका सबसे पहला लक्ष्य मुनाफा अर्जित करना ही होता है। निश्चित रूप से उसके इसी लक्ष्य में ही न सिर्फ़ उसका निजी बल्कि उस उद्योग से जुड़े कर्मचारियों व देश तक का कल्याण निहित होता है। परन्तु यदि सिंगूर तथा नोएडा जैसे नकारात्मक हालात का सामना भारतीय उद्योगपतियों को करना पड़ा तो विदेशी निवेशकों को इन घटनाओं से क्या संदेश मिलेगा, इस बात का भी अन्दांजा अपने आप ही लगाया जा सकता है।

लिहाज़ा ज़रूरत इस बात की है कि केंद्र सरकार हो या राज्य सरकार अथवा देश को औद्योगिक विकास की राह पर ले जाने वाले विशेष रणनीतिकार। सभी को देश के किसानों के हितों को ध्यान में रखते हुए ऐसा कोई भी फैसला लेना चाहिए। किसी भी भूमि के अधिग्रहण से पूर्व तुंगलकी फरमान जारी करने के बजाए राजनैतिक तथा ज़मीनी स्तर पर आपसी सहमति बनने के बाद ही किसी उद्योग को आमंत्रित किया जाना चाहिए। भारत में लागू भूमि अधिनियम की पुर्नसमीक्षा का जानी चाहिए तथा इसमें किसानों के हितों को सर्वोपरि रखा जाना चाहिए। और इन सबसे बड़ी बात यह है कि यदि वास्तव में सरकार देश में बड़े उद्योग आमंत्रित व स्थपित करना चाहती है तो उसे उपजाऊ भूमि की ओर देखना बन्द कर देना चहिए तथा केवल समुद्री तटों की अथवा दूरदराज की बंजर ज़मीनों का इस्तेमाल करना चहिए। भारत जैसे कृषि प्रधान देश में कृषि जैसी अन्नपूर्ण व्यवस्था को उजाड़कर उद्योग के नाम पर आग एवं धुआँ उगलती हुई चिमनियाँ स्थापित कर देना हरगिज़ मुनासिब नहीं है।

0निर्मल रानी
163011, महावीर नगर,
अम्बाला शहर,हरियाणा

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