6/17/2007

अंतरराष्ट्रीय बाजा़र की हिन्दी

विश्व हिंदी सम्मेलन पर विशेष


पिछले चार दशकों से विश्व एक बाजा़र की तरह दिखाई दे रहा है । विश्व का इंसान अब ग्राहक की परिशक्ल में तब्दील हो चुका है । वैश्वीकरण अर्थात् ग्लोबलाइजेशन की लहर ने पूंजीवाद के चेहरे पर नया नकाब गढ़ा है । वैश्वीकरण की इस आँधी से संस्कृति, भाषा, राजनीति और विविध क्रिया-क्षेत्र प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष प्रभावित हुए हैं । विश्व की नज़र में भारत एक बहुत बड़ा बाजा़र है और भारतीय सबसे भोले-भाले ग्राहक ।

भारतीय ग्राहक की सबसे बड़ी कमजोरी उस की मातृभाषा है । उस के सहारे उन के दिलों पर राज किया जा सकता है । ऐसा हो भी रहा है । वैश्वीकरण के इस दौर में प्रचलित नियम-कायदे और परंपराएँ तेज़ी से बदल रही हैं । हिन्दी इस से कैसे अछूती रह सकती है ? बाजा़र ने विज्ञापन और विविध प्रयोजनों के माध्यम से हिन्दी को ग्लोबल-उपकरणों से आभूषित किया है । साहित्य, पाठ्यक्रम, ग्राम-बोलचाल की सौम्य एवं अनुशासित भाषा से हिन्दी एक अलग ही तेवर में प्रयुक्त होने लगी है । प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया ने इस में अहम भूमिका निभाई है ।

भारतीय बाजा़र में आज हिन्दी विज्ञापनों के माध्यम से भारतीय ग्राहकों की क्रयशक्ति में भीतर-ही-भीतर वृद्धि कर रही है । वह किसी वस्तु के लिए अनावश्यक माँग पैदा करने में प्रेरक का कार्य कर रही है । आज विज्ञापन का मूल धर्म कुछ और ही है । व्यक्ति के दोहरेपन को उभार कर उस के तर्कहीन पक्ष पर किसी बात, वस्तु या कर्म की छाप अंकित करना ही विज्ञापन का धर्म है । रेर्मेड विलियंस कहते हैं- “विज्ञापन केवल वस्तुओं को बेचने को ही कहा नहीं है, यह एक दिग्भ्रिमित समाज की संस्कृति का सच्चा अंग है ।”

वैश्वीकरण और नई बाजा़र-व्वस्था का आधार नई टेक्नालॉजी है । इस नई टेक्नालॉजी ने हिन्दी को भी नई टेक्नालॉजी दी है । वह इन क्षेत्रों में तेजी से अँग्रेज़ी का विकल्प बनते जा रही है । कंप्यूटर, टेलीविज़न, इंटरनेट, चैनल, इत्यादि क्षेत्रों में हिन्दी का प्रयोग तेज़ी से बढ़ रहा है । यह इन क्षेत्रों की विवशता है कि बिना हिंदी की प्रभुसत्ता को आत्मसात् किए वे अपना विस्तृत फैलाव नहीं कर सकते । संचार-क्रांति के इस युग में संचार माध्यम वैश्वीकरण और बाजा़रवाद के प्रमुख साधन हैं। हिन्दी चूँकि भारत की नस-नस में बसी है इसलिए इस क्रांति के तार उन नसों तक होकर के जाना एक मज़बूरी है ।

बहरहाल हम हिन्दी को प्रयोजनमूलकता के उस बेहतर पक्ष पर विमर्श करना चाहते हैं जिस से हिन्दी के प्रयोग-क्षेत्र में विस्तार हुआ है । अनेक उदाहरणों से पुष्ट किया जा सकता है कि बिना भाषा के कोई बाजा़र खड़ा नहीं हो सकता । व्यापार के लिए हिन्दी की अनिवार्यता का एहसास बहुराष्ट्रीय कंपनियों को चार-पाँच वर्ष पूर्व ही हुआ है । शहरों में जब वस्तु-विशेष के ग्राहक कम होने लगे तब ऐसी कंपनियों ने विस्तार चाहा, भारतीय गाँव इस विस्तार के कारक बने । इसी विस्तार ने हिन्दी को अंतरराष्ट्रीय बाजा़र की भाषा बनाने विवश किया है ।

डॉ. सुधीर शर्मा
पी.एच.डी (भाषा विज्ञान)
संपादक, साहित्य-वैभव
रायपुर, छत्तीसगढ़
ई.डब्ल्यू.एस-280, सेक्टर-4,
दीनदयाल नगर, डंगनिया,
रायपुर,छत्तीसगढ

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