7/11/2007

माया हिताय बहुजन हिताय?


भारतीय राजनीति गत् दो दशकों से अत्यधिक संक्रमणकालीन दौर से गुजर रही है। राजनेताओं की लोकप्रियता तथा जनता के बीच उनकी पकड़ दिनों-दिन कम होती जा रही है। भारतीय नेता आमतौर पर जनता के मध्य अपनी पहचान एक झूठे वायदे करने वाले, केवल आश्वासनों के भरोसे पर मतदाताओं को अपनी ओर आकर्षित करने की महारत रखने वाले, रिश्वतख़ोर, भ्रष्टाचारी तथा सिद्धान्तविहीन स्वार्थी राजनेताओं के रूप में बना चुके हैं। परन्तु भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था की यह मजबूरी ही कही जाएगी कि जनता की नज़रों से गिर जाने के बावजूद उन्हें प्रत्येक चुनाव के समय उसी जनता के बीच जाना ही पड़ता है। ऐसे में इन राजनेताओं ने लोकहित के अथवा विकास संबंधी कार्यों के लम्बे चौड़े वायदे करने के बजाए एक शॉर्टकट रास्ता अपनाना शुरु किया है। और यह शॉर्टकट रास्ता है साम्प्रदायिकता का, जातिवाद का, वर्गवाद, क्षेत्रवाद तथा भाषावाद आदि का।

हमारे देश में कहीं मन्दिर के नाम पर राजनीति कर कट्टरपंथी हिन्दुत्ववादी मतों को एक झण्डे के नीचे एकत्रित करने का असफल प्रयास किया जा रहा है तो कहीं मस्जिद बनाने का आश्वासन देकर अल्पसंख्यक मतों को आकर्षित करने की नाकाम कोशिश की जा रही है। कोई मराठा हितों की बात कर अपनी क्षेत्रीय सत्ता बरकरार रखना चाहता है तो कहीं सिख, तमिल, गुर्जर, तेलगू, कन्नड़ आदि क्षेत्रीय समीकरण के आधार पर सम्बद्ध नेतागण अपनी राजनैतिक दुकानदारी चलाने का प्रयास कर रहे हैं। ऐसे ही एक प्रमुख राजनैतिक कार्ड का नाम है 'दलित कार्ड'। दलित राजनीति में वैसे तो तमाम नेता राष्ट्रीय व क्षेत्रीय स्तर पर सक्रिय हैं तथा इसी के नाम पर कमा खा रहे हैं। कांग्रेस व भाजपा जैसे राष्ट्रीय स्तर के राजनैतिक दलों ने तो अपनी-अपनी पार्टियों में कई दलित चेहरे प्रमुख पदों पर बिठा रखे हैं ताकि दलित मतों को अपनी ओर आकर्षित करने का प्रयास किया जा सके। दलित राजनीति से अपने राजनैतिक सफ़र की शुरुआत करने वाली ऐसी ही एक सफल नेत्री को इस समय देश मायावती के रूप में देख रहा है।

पिछले दिनों उत्तर प्रदेश में हुए विधानसभा चुनावों में सत्ता पर विजय पाने के लिए मायावती ने जिस सोशल इंजीनियरिंग का सहारा लिया, उसे देखकर भारतीय राजनीति के विशेषक एवं समीक्षक हैरान रह गए। कहाँ तो बहन मायावती ने अपनी राजनीति का सफ़र ही उनके अपने शब्दों में मनुवादी व्यवस्था के विरोधस्वरूप, दबे कुचले लोगों को ऊँचा उठाने के उद्देश्य से तथा दलितों को सत्ता दिलाने के मकसद से शुरु किया था। परन्तु जब उन्हें महसूस हुआ कि केवल दलित राजनीति उन्हें सत्ता तक नहीं पहुँचा सकती, तब उन्होंने बहुजन समाज के बजाए सर्वजन समाज की बातें करनी शुरु कर दीं। इस नए राजनैतिक समीकरण के अन्तर्गत मायावती ने उत्तर प्रदेश में दलितों के साथ-साथ ब्राह्मणों तथा मुसलमानों को भी अपने साथ जोड़ने का सफल प्रयास किया। परिणामस्वरूप मायावती का मिशन सर्वजन समाज सफल हुआ और बहुजन समाज पार्टी सर्वजन समाज के कंधों पर बैठकर उत्तर प्रदेश में सत्तासीन हो गई तथा बसपा प्रमुख मायावती ने चौथी बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के सिंहासन को सुशोभित किया।

मायावती द्वारा उत्तर प्रदेश की सत्ता पर चौथी बार काबिज होने के पश्चात राजनैतिक विशेषकों का ध्यान प्राकृतिक रूप से मायावती की ओर आकर्षित हुआ। अब यह जानने की जरूरत महसूस की जा रही है कि आखिर मायावती की राजनैतिक महत्वाकांक्षा के पीछे का सत्य क्या है तथा यह दलित नेत्री जिसकी कि बुनियाद ही दलित राजनीति पर खड़ी हो वास्तव में देश के दलितों के बारे में क्या चिंतन करती है। अब जनता शिद्दत से यह जानना चाह रही है कि जिस प्रकार बसपा सुप्रीमो कांशीराम के समय में मायावती पार्टी की नम्बर दो नेता के रूप में देखी जाती थीं, उसी प्रकार अब मायावती के पार्टी प्रमुख होने के दौर में पार्टी के नम्बर दो के नेताओं में कौन-कौन से लोग प्रमुख हैं। एक चिंता यह भी है कि मायावती ने किसी नेता को पार्टी में नम्बर दो की हैसियत पर बिठाया भी है या नहीं। क्या वजह है कि बसपा में मायावती के सिवा किसी अन्य नेता के विषय में देश जानता ही नहीं? आखिर इसके पीछे का सत्य क्या है? यह जानने हेतु मायावती के कुछ बेबाक राजनैतिक फैसलों व कदमों का अध्ययन करना जरूरी है।

मायावती ने अपने पार्टी नेताओं को यह सख्त हिदायत दे रखी है कि वे मीडिया से दूर रहने की कोशिश करें तथा टी.वी. कैमरे का सामना तो हरगिज न करें। ऐसा करने वाले के विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्रवाई की जा सकती है। मीडिया से रुबरु होने तथा टी.वी. कैमरे के समक्ष अपनी बातों को 'पढ़ने' का अधिकार बहन जी ने अपने ही हाथों में सुरक्षित रखा हुआ है। देश नहीं जानता कि बहन जी के सिवाए बसपा का नेता कौन, पदाधिकारी कौन अथवा प्रवक्ता कौन? जहाँ अन्य नेता प्रत्यक्ष रूप से पैसों से दूर रहने का प्रयास करते हैं, वही मायावती एक अकेली ऐसी नेता हैं जोकि इस संबंध में अपने पार्टी कार्यकर्ताओं का खुला आह्वान करती हैं कि वे उन्हें फूल गुलदस्ते भेंट करने के बजाए केवल नकद धनराशि ही भेंट किया करें। उनका साफतौर पर मानना है कि दबे समाज को ऊपर उठाने हेतु किए जाने वाले संघर्ष में पैसों की बहुत सख्त जरूरत है तथा इसके लिए उन्हें अधिक से अधिक धन की दरकार है। चाहे मायावती के जन्मदिन पर उनपर होने वाली धनवर्षा हो अथवा पार्टी की उम्मीदवारी हेतु पैसे देकर टिकट बाँटे जाने का मामला हो। मायावती का स्पष्ट कहना है कि उन्हें इन सभी रास्तों से धन चाहिए तथा यह उनके व उनकी पार्टी के लिए बहुत जरूरी है।

चुनाव घोषणा पत्र जैसे अहम दस्तावेज को लेकर भी मायावती का रुख निराला है। इस विषय पर उनका मानना है कि चुनाव घोषणा पत्र एक फ़िजूल का ऐसा दस्तावेज है जोकि अपनी वादाखिलाफी के लिए मतदाताओं में बदनाम हो चुका है। लिहाजा वे चुनाव पूर्व के किसी भी ऐसे दस्तावेज पर विश्वास नहीं करतीं जो लम्बे चौड़े वायदों पर आधारित हो। मायावती का कहना है कि समय और जरूरत के अनुसार किसी कार्य अथवा योजना की माँग पैदा होती है तथा उसी के अनुसार उसे पूरा किया जना चाहिए। यही वजह है कि वे चुनाव घोषणा पत्र जैसे उस दस्तावेंज को बिल्कुल गैर जरूरी समझती है जिसे कि अन्य सभी राजनैतिक दल एक आवश्यक दस्तावेज मानते हैं।

गत् दिनों राष्ट्रपति के चुनाव से संबंधित जो गहमा गहमी चली, उसमें बसपा की भी प्रमुख भूमिका रही। बसपा के उत्तर प्रदेश में सत्ता में आने के बाद पहली नज़र में यह अनुमान लगाया जा रहा था कि सम्भवत: मायावती किसी दलित व्यक्ति को राष्ट्रपति का पद दिए जाने हेतु सोनिया गांधी से सलाह मशवरा करेंगी। परन्तु ऐसा दूर तक नज़र नहीं आया। कहा जाता है कि ऐसे किसी समझौते के बजाए आगरा ताज कॉरिडोर मामले पर केंद्र सरकार से रियायत हासिल करने को अधिक अहमियत दी गई। इस घटना के बाद राजनैतिक चिंतकों ने मायावती पर जब अपनी नज़र और गहरी की तो यही पाया कि उनके राजनैतिक जनाधार को तैयार करने हेतु अथवा उसके विस्तार हेतु भले ही दलित, दबे कुचले, मनुवाद, बहुजन अथवा सर्वजन जैसे जादुई शब्दों का प्रयोग क्यों न किया जा रहा हो परन्तु वास्तविकता यही है कि बहुजन समाज पार्टी का पूरा ढांचा केवल मायावती के व्यक्तिगत राजनैतिक हितों की ही निगरानी करता है। चाहे वह उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री का पद उन्हें दिलाने हेतु बहुजन से सर्वजन की बात करनी हो अथवा सत्ता प्राप्त करने के बाद किसी समस्या विशेष से छुटकारा प्राप्त करने हेतु राष्ट्रपति चुनाव में कांग्रेस को बसपा का आंख मूंद कर दिया जाने वाला समर्थन हो अथवा भविष्य के ऐसे राजनैतिक समीकरण जोकि किसी अन्य को नहीं बल्कि मायावती को प्रधानमंत्री जैसी अति महत्वपूर्ण कुर्सी तक पहुंचाने वाले हों। क्या इससे यह जाहिर नहीं होता कि मायावती हिताय का ही दूसरा नाम है बहुजन हिताय।
निर्मल रानी
163011, महावीर नगर,
अम्बाला शहर,हरियाणा।

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