7/14/2007

'विश्व हिन्दी सम्मेलन के उद्देश्य ही संदिग्ध हैं'


(हिन्दी सम्मेलन पर वरिष्ठ कवि और पत्रकार मंगलेश डबराल से बीबीसी संवाददाता पाणिनी आनंद की बातचीत)

दुनिया के कई देशों में यह सम्मेलन आयोजित हो चुका है। अब यह आठवाँ हिन्दी सम्मेलन न्यूयॉर्क में हो रहा है। इन आठ सम्मेलनों में क्या हुआ- इसका कोई लेखा-जोखा हमारे पास नहीं है। इस सम्मेलन के उद्देश्य ही संदेह के घेरे में आ गए हैं।अभी तक जहाँ भी हिन्दी सम्मेलन हुए हैं उन पर हिन्दूवादियों और पुनरुत्थानवादियों का ही वर्चस्व रहा है। इनके वर्चस्व को कम करने की कोई कोशिश अबतक नहीं की गई है।ऐसी हिन्दी की स्थापना की कोशिश नहीं की गई जो सच्चे अर्थों में आधुनिक, लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष हो। जहाँ हिन्दी का स्वरूप लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष बनाने की कोशिश नहीं दिखाई दे रही हो उस सम्मेलन में मैं एक लेखक की हैसियत से शामिल नहीं हो सकता।समस्याएँ : इस सम्मेलन में कौन लोग जा रहे हैं उससे अधिक महत्वपूर्ण ये जानना है कि ये लोग क्यों जा रहे हैं। इस बार सम्मेलन में लगभग एक हजार लोग इकट्ठा हो रहे हैं। और ये लोग कुछ ठोस कर पाने में सक्षम नहीं दिखते।न्यूयॉर्क जाकर कुछ नहीं किया जा सकता। हमारे देश में हिन्दी जाति की अपनी समस्याएँ हैं, हिन्दी साहित्य के संकट हैं उन्हें कोई भी संबोधित नहीं कर रहा है। इस सम्मेलन में जिन लोगों को इस बार सम्मानित किया जा रहा है उनसे तो हिन्दी साहित्य समाज परिचित भी नहीं है।अगर मैं कहूँ कि सम्मेलन के आयोजन में बड़ी भूमिका निभाने वाले लक्ष्मीमल सिंघवी का हिन्दी साहित्य में क्या योगदान है तो शायद ही कोई कुछ जानता होगा। आप एक संसद सदस्य हैं और सत्ता प्रतिष्ठान से जुड़े हैं, इसलिए आप हिन्दी के लेखक नहीं हो सकते।न्यूयॉर्क में मेला जुटाकर हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषा नहीं बनाया जा सकता। उसके लिए कूटनीतिक स्तर पर कोशिश किए जाने की जरूरत है। मेरे पास विदेश मंत्रालय की जो चिट्ठी आई उसमें लिखा था कि मुझे बोलने के लिए अधिकतम पाँच मिनट दिए जाएँगे।इतने कम समय में हिन्दी भाषा से जुड़े अपने सरोकारों को सबके सामने रखना मेरे लिए मुश्किल था। इसलिए भी मैं वहाँ नहीं जा रहा हूँ।
आयोजन
की गंभीरता : हिन्दी के जानेमाने कवि केदारनाथ सिंह का हिन्दी सम्मेलन में सम्मान होना तय हुआ लेकिन उनके जाने में ही कई तरह की दिक्कतें सामने आईं।केदारनाथ सिंह ने हिन्दी दैनिक ‘जनसत्ता’ में लिखा कि उन्हें विदेश मंत्रालय से संदेश आया कि पहले वो 4200 रुपए वीजा शुल्क जमा करें। इंटरनेट से वीजा के लिए अर्जी दें। अमेरिकी दूतावास से वीजा लें। वीजा मिलने पर किसी ट्रैवल एजेंट से टिकट के लिए संपर्क करें।इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि सरकार इन आयोजनों और हिन्दी साहित्यकारों को लेकर कितनी गंभीर है। इन सरकारी आयोजनों के समानांतर सम्मेलन किए जाने की बात भी संभव नहीं लगती क्योंकि हिन्दी का साहित्यकार एक निर्धन समाज का साहित्यकार है।हिन्दी भाषी क्षेत्र ही अपनेआप में निर्धन हैं। हिन्दी के साहित्कारों के पास इतने संसाधन नहीं हैं कि वे समानांतर सम्मेलन आयोजित कर सकें। सरकार का यह दायित्व है कि वो अपनी भाषा के विकास और समृद्धि के लिए कोशिश करे और अपने साहित्कारों का सम्मान करे।चिंता इस बात को लेकर होनी चाहिए कि हम हिन्दी को दूसरे देशों में सही तरीके से प्रस्तुत नहीं कर पा रहे हैं, जो हिन्दी आज न्यूयॉर्क पहुँच रही है उसके किसी लेखक को आज तक नोबल पुरस्कार नहीं मिला है।हमारे यहाँ हिन्दी के कम से कम ऐसे 20 लेखक हैं जो नोबल पुरस्कार पाने योग्य हैं। इसके लिए दुनिया के दूसरे देशों में हिन्दी को सही रूप में पेश किए जाने की जरूरत है।
Source : www.bbchindi.com

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