7/17/2007

अपमान की वजह भी बन सकता है घर बैठे ऋण प्राप्त करना

दुनिया इक्कीसवीं सदी में प्रवेश कर चुकी है। चारों ओर 'वैश्वीकरण' की गुहार लग रही है। विज्ञान, आधुनिकीकरण तथा बेपनाह चकाचौंध के दौर से हम गुंजर रहे हैं। हर खास-ओ-आम इस बेतहाशा भागदौड़ में शामिल होना चाह रहा है। आंखिर ज़माने के साथ चलना उसकी मजबूरी जो ठहरी! इसी को उपभोक्तावाद का दौर भी कहा जा रहा है। इस बहती गंगा में हाथ धोने के लिए दुनिया के तमाम छोटे व बड़े पूंजी निवेशक भारत जैसे विशाल बाजार को गिद्ध दृष्टि से देखते हुए यहाँ अपना निवेश कर रहे हैं। इन निवेशकों में जहां तमाम उत्पाद बेचने वाली कंपनियाँ भारत जैसे विशाल बांजार में अपने पैर जमाने की कोशिश कर रही हैं, वहीं मध्यम व निम् मध्यम वर्ग की बड़ी आबादी को मद्देनजर रखते हुए सैकड़ों फाइनेंस कम्पनियों व निजी बैंकों ने भी भारत में अपना भाग्य आंजमाने का फैसला किया है। ऐसी कुछ कंपनियाँ भारत के कई चिरपरिचित एवं प्रतिष्ठित बैंकों से फ्रैंचाईजी लेकर उनके नाम पर फाइनेंस का कारोबार कर रही हैं।

एक गरीब देश होने के नाते भारत में ऋण अथवा लोन का कारोबार बहुत पुराना है। बंधुआ मजदूरी जैसी सामाजिक बुराई की जड़ में भी कहीं न कहीं कर्ज जैसी मजबूरी ही छुपी दिखाई देती है। को-ऑपरेटिव बैंकों के किसानों से ऋण वसूली के तरींके भी काफी सख्त हैं। दूसरी ओर इसी देश का एक वर्ग ऐसा भी है जिसे हम हाई प्रोफाईल कर्जदार कह सकते हैं। चाहे वह इन्कम टैक्स विभाग का कर्जदार हो, किसी वित्तीय औद्योगिक प्राधिकरण का बैंक का या किसी अन्य वित्तीय संस्थान का। परन्तु ऐसे हाई प्रोफाईल कर्जदारों को देखकर यह नहीं कहा जा सकता कि अमुक व्यक्ति कर्जदार भी हो सकता है। अर्थात् उसकी वसूली या अदायगी का लेखा-जोखा ऋण देने वाले संस्थान की फाइलों तक ही सीमित रहता है। हां कभी मीडिया के माध्यम से इन महान कर्जदारों के नाम अवश्य पता लग जाते हैं जिससे साधारण लोगों के ऋण लेने के हौसले भी बुलन्द हो जाते हैं।

उदारीकरण के इस तथाकथित युग से पहले मध्यम व निम्न मध्यम वर्ग के लोगों के साथ भी कुछ ऐसा ही था। बैंकों द्वारा ऋण वसूली के लिए वास्तविक 'उदारवाद' की नीति अपनाई जाती थी। कर्ज लेने वाले व्यक्ति को भले ही पूंजी से अधिक ब्याज की कीमत क्यों न चुकानी पड़ी। परन्तु कम से कम उसे तत्काल अपमानित तो हरगिज नहीं होना पड़ता था। हालांकि देश की आर्थिक स्थिति पर इसका नकारात्मक प्रभाव जरूर पड़ता था मगर इसके लिए किया क्या जा सकता है? भारतवर्ष एक विशेष प्रकृति के लोगों का देश है। सहिष्णुता, उदारवादिता, सहनशीलता, मान-सम्मान, स्वाभिमान जैसी तमाम विशेषताएं हमारे देश की मिट्टी में शामिल हैं। इस देश का गरीब से गरीब व्यक्ति भी अपनी बेटी को बिदा कर ही देता है। भूख से कोई व्यक्ति मरने न पाए इसके लिए हमारे ऋषि-मुनियों व साधू सन्तों ने लंगर और भण्डारों की जो परम्परा शुरु की थी वह आज भी आमतौर पर कायम है। हमारी इसी उदारवादिता ने न जाने कितने विदेशियों को भारत आने पर मजबूर कर दिया और वे यहाँ आकर इस देश की मिट्टी में ही समाकर रह गए। धिक्कारना, दुत्कारना, अपमानित करना जैसी बातें कम से कम भारतीय परंपरा में तो बिल्कुल शामिल नहीं हैं। आज समस्या स्वरूप ही क्यों न सही परन्तु पूरे भारत में लाखों साधु, वेशधारी भिक्षु या गरीब लोग भारतीय रेल पर प्रतिदिन बेटिकट इधर से उधर आते जाते देखे जा सकते हैं। पूरे देश में दानी सानों ने एक से बढ़कर एक धर्मार्थ कार्यक्रम चला रखे हैं जिनके तहत शिक्षा, औषधि, इलाज, कन्यादान, वृद्धाश्रम, गरीबों को राशन, कृत्रिम अंग वितरण, अपाहिजों को ट्राईसाईकिल, बेरोंजगारों को रोजगार हेतु सहायता पहुँचाना जैसी तमाम योजनाएं शामिल हैं। ऐसे उदारवादी देश में यदि मामूली से पैसों की वसूली के लिए किसी मल्टीनेशनल कम्पनी या निजी बैंक द्वारा अपने किसी कर्जदार को अपमानित करने का योजनाबद्ध तरीका अपनाया जाए तो यह देशवासियों के स्वाभिमान पर एक गहरा आघात है।

नि:सन्देह कोई भी गरीब व्यक्ति कर्ज तभी लेता है जब वह आर्थिक रूप से पूरी तरह टूट चुका होता है, ऋण लेने के अतिरिक्त उसके समक्ष अपने अस्तित्व को कायम रखने का कोई चारा नहीं बचता। परन्तु यह भी सत्य है कि इन्हीं कर्ज लेने वालों में उन शहरी ग्राहकों की संख्या भी बहुत बड़ी है जो विलासिता की वस्तुएं जैसे कार, फ्रिज, टीवी, वाशिंग मशीन जैसी वस्तुएं खरीदने के लिए फाइनेंस कम्पनियों के आगे हाथ फैलाते हैं। उधार पर ऐश करने वाले इन ग्राहकों की नब्ज से यह निजी फाईनेंस कंपनियाँ या निजी बैंक भी भली-भांति परिचित है। अत: यह संस्थान इन्हें घर बैठे ही ऋण मुहैया करा देते हैं। इन विलासितापूर्ण वस्तुओं के शोरूम में तो बांकायदा इन ऋण मुहैया कराने वाले संस्थानों ने अपनी अलग मेंज तक लगा रखी है जहाँ इनका कर्मचारी शोरूम में आने वाले ग्राहकों को ऋण लेने के लिए प्रोत्साहित करता है। यह ऋण भी चूंकि 0 प्रतिशत ब्याज पर होता है इसलिए ग्राहक शीघ्र ही इनकी ओर आकर्षित हो जाता है। थोड़े समय के लिए यह माना जा सकता है कि यह एक सुविधा है जोकि ग्राहकों को मुहैया कराई जा रही है। परन्तु खुदा न ख्वास्ता यदि ऋण लेने वाले व्यक्ति से किसी मजबूरीवश उधार की कुछ किश्तें टूट गईं और वह समय पर इसका भुगतान नहीं कर सका तो उस कर्जदार व्यक्ति के साथ कुछ ऐसा भी हो सकता है जिसके बारे में उसने पहले कभी सोचा भी न हो।

जी हाँ। निजी बैंकों व निजी फाईनेंस कम्पनियों द्वारा अब ऋण वसूली के लिए ऐसे नवयुवकों की भर्ती की जाती है जो कर्जदार पर हर तरह का दबाव डाल सकें। यहाँ तक कि ऋणदाता संस्थान शहर के छटे हुए गुण्डों, बदमाशों व उठाईगीरों तक की मदद अपने इस काम के लिए ले रहे हैं। कम्पनियों द्वारा अपने इस विशेष दस्ते को बाकायदा इस बात की ट्रेनिंग दी जाती है कि उन्हें किस प्रकार क्रमवार किसी ग्राहक पर दबाव बनाना है। चार छ: लोगों के बीच में आपसे कर्ज माँगना, आपके दरवाजे पर खड़े होकर तेंज आवाज में पैसे वसूलने की बात करना, डराना-धमकाना, गाली गलौच करना आदि कुछ उनके तौर तरीकों में शामिल है। यानी सीधे तौर पर यह समझा जा सकता है कि यदि आपके साथ कोई ऐसी मजबूरी आ गई कि ऋण अदायगी के लिए कुछ समय के लिए आप असमर्थ हो गए तो समझिए कि आपने अपने अपमान को न्यौता दे डाला।

अत: हम भारतवासियों को अपने पूर्वजों की उस कहावत को कभी नहीं भूलना चाहिए कि 'ते ते पाँव पसारिए जेती लांबी सौर' अर्थात् हमें अपनी चादर की लम्बाई के अनुसार ही पैर फैलाना चाहिए। यानी सदैव अपनी आय के अनुसार ही खर्च करना चाहिए। विलासितापूर्ण इच्छाओं का कोई अन्त नहीं होता। मनुष्य की इच्छाएं कभी पूरी नहीं होतीं। लिहाजा चकाचौंध और वैश्वीकरण की इस दौड़ में वही शामिल हो सकता है जो या तो बड़ी हैसियत रखने वाला है या जिसने अपनी इंात को खूंटी पर लटका कर रख दिया है। एक साधारण व्यक्ति जिसके पास धन सम्पत्ति हो या न हो, एक ऐसा व्यक्ति जो अपनी गरीबी व अपनी सीमाओं में ही भले ही क्यों न जी रहा हो मगर वह अपने मान-सम्मान व स्वाभिमान पर ही पूरी तरह संतुष्ट है तथा उसकी रक्षा करता है। ऐसा साधारण व्यक्ति यदि दुनिया को देखते हुए उस दौड़ में शामिल होने की कोशिशों के तहत कर्ज और उधार के चक्कर में पड़ता है और समय पर ऋण अदायगी नहीं कर पाता तो उसे यह समझ लेना चाहिए कि उसके द्वारा लिया गया ऋण जो उसने अपनी सुविधा व झूठी इज्जत बनाने हेतु लिया था वही ऋण उसके अपमान का कारण भी बन सकता है।

निर्मल रानी
163011, महावीर नगर,
अम्बाला शहर,हरियाणा।

1 टिप्पणी:

बेनामी ने कहा…

बहुत अच्छा लिखा है.
पर 0 प्रतिशत ऋण भी 0 प्रतिशत नहीं होता. आपको विभिन्न व्ययो के नाम पर दस किस्तों के लिये लगभग पन्द्रह प्रतिशत ज्यादा देना होता है.