10/04/2007

सत्य, तथ्य एवं क्रिकेट

अमेरिका तथा यूरोपीय देशों में जहाँ फुटबॉल तथा टेनिस जैसे खेलों के प्रति लोगों की दीवानगी दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही है, वहीं एशियाई देशों में क्रिकेट का बुख़ार अपने चरम पर है। विशेषकर दक्षिण एशियाई देश तो लगभग पूरी तरह से क्रिकेट के रंग में रंग चुके हैं। बंगलादेश व श्रीलंका जैसे देशों ने न केवल अपनी क्रिकेट टीम का गठन कर लिया है बल्कि यह देश अब क्रिकेट जगत में विश्वस्तर पर एक चुनौती भी साबित हो रहे हैं। इसमें कोई शक़ नहीं कि एशियाई देशों में क्रिकेट के बुख़ार को आम लोगों के सिर पर चढ़ाने में सबसे अहम किरदार यदि किसी माध्यम का रहा है तो वह है मात्र टेलीविज़न का बढ़ता हुआ नेटवर्क। परन्तु ऐसे में जबकि चारों ओर क्रिकेट ही क्रिकेट नज़र आ रहा हो तथा आम लोगों का जीवन ही मात्र क्रिकेट बन गया हो, ऐसे में चन्द व्यवसायियों द्वारा क्रिकेट प्रेमियों के टेलीविज़न पर मैच देखने के अधिकारों पर ही कब्ज़ा जमा लेने को आख़िर कहाँ तक उचित ठहराया जा सकता है।

अभी पिछले दिनों 20-20 विश्व कप का आयोजन दक्षिण अफ्रीका में किया गया। वैसे तो इसमें सभी मैच बड़े ही आकर्षक व रोमांचक रहे परन्तु सेमी फाईनल के दो मैच भारत बनाम ऑस्ट्रेलिया व पाकिस्तान बनाम न्यूंजीलैंड तथा उसके बाद अन्तिम फाईनल मैच जोकि भारत व पाकिस्तान के बीच खेला गया, पूरे विश्व के क्रिकेट प्रेमियों के लिए आकर्षण का केन्द्र रहा। परन्तु आम जनता अपने-अपने टेलीविज़न सेट पर इन खेलों के प्रसारण को नहीं देख सकी। इसका कारण यह था कि किसी एक टी वी चैनल चलाने वाली कम्पनी द्वारा इस 20-20 विश्व कप को प्रसारित करने के समस्त अधिकार ख़रीद लिए गए थे। इसका सीधा सा अर्थ है कि अब केवल वही टी वी चैनल उन खेलों का प्रसारण कर सकता है, जिसके पास इस विश्व कप क्रिकेट को प्रसारित करने का अधिकार है। यदि हम यहाँ मात्र दक्षिण एशियाई देशों विशेषकर भारत, पाकिस्तान व बंगलादेश की ही बात करें तो हम देखते हैं कि इन देशों की अधिकांश जनता गांवों में रहा करती है। उनके पास या तो टेलीविज़न का अभाव है या फिर उनके टेलीविज़न पर केवल राष्ट्रीय चैनल प्रसारित होते हैं। जबकि विश्व कप को प्रसारित करने का अधिकार जिस एकमात्र प्राईवेट टी वी चैनल को दिया गया, उसे देखने हेतु केबल नेटवर्क का होना ज़रूरी है। और यदि केबल नेटवर्क न हो तो बांजार में उपलब्ध विभिन्न कम्पनियों द्वारा बेची जाने वाली डिश के माध्यम से भी उसे देखा जा सकता था। परन्तु यह सभी माध्यम चाहे वह केबल नेटवर्क हो अथवा डिश व्यवस्था, यह सब कुछ या तो सम्पन्न लोगों के वश की बातें हैं या फिर शहरों में रहने वाले लोगों की पहुँच की चीज़ें।

गत् दिनों भारत में आमतौर पर यह देखा गया कि एक ओर तो भारत व पाकिस्तान जैसे पारंपरिक प्रतिद्वन्दी विश्व कप फाईनल मैच में जीत हार के लिए जूझ रहे थे तो दूसरी ओर आम भारतीय इस मैच का सीधा प्रसारण देखने के लिए केवल इसलिए तड़प रहा था क्योंकि भारतीय दूरदर्शन द्वारा इसका सीधा प्रसरण नहीं किया जा रहा था। निश्चित रूप से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया तथा विभिन्न टी वी चैनल आदि एक विश्व स्तरीय बड़े व्यवसाय का रूप धारण कर चुके हैं। यह भी सच है कि व्यवसाय का भावनाओं से कोई रिश्ता नहीं होता। परन्तु क्या यह तथाकथित व्यवसायिकता किसी भी देश के वासियों द्वारा उनके अपने ही देश की टीम का खेल देखने के अधिकारों पर भी ताला लगा सकती है? क्या प्रसारण के अधिकारों के नियमों के अन्तर्गत इस बात की छूट नहीं दी जा सकती कि कम से कम वह देश जिनकी टीम किसी मैच में हिस्सा ले रही हो, वहां के सरकारी टी वी चैनल अथवा वे टी वी चैनल जोकि उन देशों में राष्ट्रीय स्तर पर आम जनता को उपलब्ध हों, अपने देश के मैच का सीधा प्रसारण कर सकें? यदि ऐसी व्यवस्था नहीं बनती तो इसे जनता के साथ एक बड़े सुनियोजित विश्वासघात एवं षडयन्त्र के सिवा आख़िर और क्या कहा जा सकता है। साफ ज़ाहिर है कि पहले तो इसी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के खुले प्रसारण ने आम लोगों में गरीब, मध्यम व अमीर सभी के बीच क्रिकेट के प्रति दीवानगी पैदा की तथा जब वह दीवानगी सिर चढ़कर बोलने लगी तो चन्द व्यवसायियों द्वारा इनके प्रसारण के अधिकारों को ख़रीद कर आम जनता को मैच देखने से ही वंचित कर दिया गया? इस व्यवसायिक रणनीति का सीधा सा अर्थ है कि यदि किसी को मैच देखना है तो वह रोटी, कपड़े का प्रबन्ध करे या न करे परन्तु उसे अपनी डिश ज़रूर खरीदनी होगी।

क्रिकेट के प्रति जनता की इस दीवानगी ने जहाँ व्यवसायियों को दोनों हाथों से नोट बटोरने के तमाम अवसर दिए हैं, वहीं क्रिकेट के भूत ने विशेषकर भारत के लोगों को खेल के अपने स्वर्णिम युग की ओर से भी मुँह मोड़ने के लिए मजबूर कर दिया है। कभी राष्ट्रीय खेल का दर्जा रखने वाले हॉकी के खेल को भारतीय जनता भूलती ही जा रही है। 1928 से लेकर 1956 तक का समय हॉकी का वह स्वर्णिम युग था जबकि भारत ने उस दौरान 24 ओलम्पिक मैच खेले थे तथा सभी 24 मैच पर विजयश्री प्राप्त की थी। इसमें भारत ने कुल 178 गोल किए थे। अर्थात् 7.43 गोल प्रति मैच की दर से किए गए थे। हॉकी ही एक ऐसा खेल था जिसमें भारत 8 स्वर्ण पदक जीत पाने में सफल रहा था। भारत का सर्वोच्च खेल पुरस्कार अर्जुन अवार्ड भी अब तक सबसे अधिक हॉकी के खिलाड़ियों को ही प्राप्त हुआ है। आज भले ही हम सचिन तेंदुलकर व सौरव गांगुली जैसे महान क्रिकेट खिलाड़ियों के गुणगान करते न थक पाते हों परन्तु एक वह दौर भी था जब ध्यानचंद, के डी सिंह बाबू, प्रगट सिंह, अजीत पाल सिंह, गगन अजीत सिंह, जफ़र इक़बाल, भास्करन, असलम शेर खां जैसे हॉकी के खिलाड़ियों के नामों से दुनिया थर्राती थी।

भारतीय हॉकी फेडरेशन का गठन सर्वप्रथम 1928 में ग्वालियर में किया गया था। विश्व भ्रमण पर जाने वाली भारत की पहली हॉकी टीम ही थी जिसने 1932 में मलाया, टोक्यो, लॉस एंजिल्स, ओमाहा, फिलाडेलफ़िया, एम्सर्टडम, बर्लिन, पराग्वे तथा बुड्डापेस्ट आदि देशों का दौरा किया था तथा भारतीय हॉकी के परचम को बुलन्द किया था। बेशक आज मीडिया के क्षेत्र में आई ज़बरदस्त क्रांति के चलते हमें विश्वस्तरीय खिलाड़ियों के खेल, उनके रिकार्डस तथा उनकी असाधारण प्रतिभा के विषय में सब कुछ शीघ्र अति शीघ्र बड़ी आसानी से पता चल जाता है परन्तु भारतीय हॉकी के स्वर्णिम युग के दौरान जबकि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया इतना प्रचलित नहीं था, उस समय भी पूरा विश्व भारतीय कप्तान ध्यानचंद के खेल से परिचित तथा उसका दीवाना था। 1936 के बर्लिन ओलम्पिक के हॉकी कप का वह विश्व रिकॉर्ड आज तक दुनिया की कोई हॉकी टीम नहीं तोड़ सकी है, जिसमें कि भारतीय हॉकी टीम के कप्तान ध्यानचंद ने मैच में हुए कुल 38 गोल में से 11 गोल अकेले अपनी ही हॉकी से दांगे थे। ध्यानचंद को हॉकी का जादूगर कहा जाता था।

विश्व विजेता का सपना संजोने वाले तानाशाह हिटलर ने तो ध्यानचंद के समक्ष एक रात्रिभोज में यह प्रस्ताव रखा था कि यदि वे जर्मन की नागरिकता ग्रहण करें तो उन्हें कर्नल की उपाधि से नवांजा जाएगा परन्तु अपनी रग-रग में भारतीयता व देशभक्ति का जंज्बा रखने वाले ध्यानचंद ने हिटलर के इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया। ध्यानचंद का नाम उनकी हॉकी के खेल की बदौलत उसी शिखर पर था जहाँ कि क्रिकेट में ब्रेडमेन तथा फुटबॉल में पेले जैसे महान खिलाड़ियों का था। वियाना में तो ध्यानचंद के प्रशंसकों ने हद ही कर दी थी। वियाना के एक स्पोर्टस क्लब में ध्यानचंद की स्मृति में उनकी ऐसी प्रतिमा स्थापित की गई है जिसमें ध्यानचंद के चार हाथ हैं तथा उन चारों हाथों में ध्यानचंद को हॉकी पकड़े हुए दिखाया गया है। इस प्रतिमा के विषय में वियानावासियों का कहना है कि चूंकि दो हाथ तथा एक हॉकी के साथ एक साधारण व्यक्ति ऐसी हॉकी नहीं खेल सकता जैसी कि ध्यानचंद खेलते थे। अत: उन्हें इस रूप में दिखाना ही उचित समझा गया।

बहरहाल भारत क्रिकेट में 20-20 विश्व कप विजेता हो गया है। इससे पूर्व भारत 1983 में 24 वर्ष पूर्व भी क्रिकेट विश्व विजेता हुआ था। बेशक हमारे देश के क्रिकेट खिलाड़ी इस कामयाबी के लिए बधाई के पात्र हैं परन्तु हॉकी की छाती पर चढ़कर क्रिकेट की पताका का लहराना तथा क्रिकेट की दीवानगी में किसी बड़े व्यवसायिक कुचक्र का शिकार हो जाना भी क़तई मुनासिब नहीं कहा जा सकता।
-तनवीर जाफ़री
(सदस्य, हरियाणा साहित्य अकादमी)
22402, नाहन हाऊस
अम्बाला शहर। हरियाणा

1 टिप्पणी:

इष्ट देव सांकृत्यायन ने कहा…

भाई जब टीवी नहीं था तब भी क्रिकेट के प्रति लोगों में ऎसी ही दीवानगी थी. तब लोग रेडियो पर कान अटकाए रखते थे.