6/25/2009

फ़िराक़ की शायरी पर व्याख्यान आज


रायपुर । प्रदेश की बहुयायामी सांस्कृतिक संस्था सृजन-सम्मान द्वारा देश की विभूतियों का स्मरण के अनुक्रम में दिनांक 25 जून, 2005 को ठीक 4 बजे दोपहर स्थानीय प्रेस क्लब, मोतीबाग़ में “फ़िराक़ की शायरी” विषय पर एक आत्मीय एवं सरल व्याख्यान का आयोजन किया गया है । व्याख्यान देंगे – देश के प्रख्यात आलोचक एवं सागर विश्वविद्यालय, मध्यप्रदेश के पूर्व कुलपति डॉ। धनंजय वर्मा। कार्यक्रम की अध्यक्षता करेंगे – श्री नंदकिशोर तिवारी, संपादक, लोकाक्षर, बिलासपुर ।

विशिष्ट अतिथि के तौर पर उपस्थित रहेंगे – कवि एवं पुलिस महानिदेशक, फ़िराक गोरखपुरी उर्फ़ रघुपति सहाय के नाती श्री विश्वरंजन, आलोचक, पूर्व केंद्र निदेशक आकाशवाणी श्री हसन खान, शायर एवं कवि श्री मुमताज़/श्री अशोक सिंघई भिलाई, प्रेस क्लब के अध्यक्ष श्री अनिल पुसदकर व पत्रकार श्री राजकुमार सोनी। परिचयात्मक वक्तव्य देंगे – श्लोक के संपादक श्री रज़ा हैदरी ।

6/23/2009

राष्ट्रीय रेखाचित्र प्रतियोगिता एवं प्रदर्शनी का आयोजन

रायपुर । मुक्तिबोध, हरिशंकर परसाई, श्रीकांत वर्मा के मित्र-साहित्यकार एवं देश के प्रतिष्ठित आलोचक-कवि-नाटककार श्री प्रमोद वर्मा की स्मृति में स्थापित एवं “प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान, छत्तीसगढ़” द्वारा आगामी 10-11 जुलाई, 2009 को रायपुर (स्थल-निरंजन धर्मशाला, माना एयरपोर्ट मार्ग) में दो दिवसीय राष्ट्रीय रेखाचित्र-रेखांकन प्रतियोगिता-प्रदर्शनी का आयोजन किया गया है ।

देश के महत्वपूर्ण कलाकारों को व्यापक तौर पर प्रोत्साहित और प्रतिष्ठित करने के लिए विशेष तौर पर राष्ट्रीय रेखाचित्र प्रतियोगिता-प्रदर्शनी का दो दिवसीय आयोजन भी किया गया है जिसमें चयनित 3 कलाकारों को संस्थान की ओर से राष्ट्रीय स्तर पर प्रमोद वर्मा स्मृति सम्मान से सम्मानित किया जायेगा ।
सम्मान स्वरूप प्रथम 3 कलाकारों को 7, 5, 3 हजार नगद, प्रतीक चिन्ह, प्रशस्ति पत्र, शाल एवं श्री फल से 11 जुलाई, 2009 को पुरस्कृत किया जायेगा । कोई भी कलाकार अपने चुनिंदे 25 रेखाचित्रों के साथ उक्त प्रतियोगिता-प्रदर्शनी में भाग लेने हेतु सादर आमंत्रित हैं । प्रतिभागी कलाकार के आवास, भोजन, स्वल्पाहार की समुचित व्यवस्था संस्थान द्वारा की गई है । प्रतियोगिता पूर्णतः निःशुल्क है । सम्मान हेतु योग्य कलाकारों का चयन 3 विशेषज्ञों द्वारा किया जायेगा । प्रतियोगिता में सम्मिलित होने की सूचना 8 जुलाई, 2009 के पूर्व देना होगा । प्रतियोगी को अपना रेखाचित्र कार्यक्रम स्थल पर प्रदर्शित करना होगा । उसे दिनांक 9 जुलाई, 2009 तक रायपुर अवश्य पहुँचना होगा ताकि प्रदर्शनी की तैयारी की जा सके ।

इस अवसर पर प्रमुख देश के प्रमुख साहित्यकार – श्री अशोक बाजपेयी-दिल्ली, श्री प्रभाकर श्रोत्रिय, गाजियाबाद, श्री अरविंदाक्षन-कालीकट, श्री केदारनाथ सिंह-दिल्ली, श्री विनोद कुमार शुक्ल, रायपुर, प्रभात त्रिपाठी-रायगढ़, श्री नंदकिशोर आचार्य-जयपुर, श्री विजय बहादुर सिंह-कोलकाता, श्री विश्वनाथ प्रसाद तिवारी-गोरखपुर, श्री अरुण कमल-पटना, एकान्त श्रीवास्तव-कोलकाता, श्री खगेन्द्र ठाकुर-पटना, किशन कालजयी-दिल्ली, श्री कर्मेन्दु शिशिर-पटना, डॉ। धनंजय वर्मा-भोपाल, श्री रमेश दवे-भोपाल, श्री कमला प्रसाद-भोपाल, पंकज चतुर्वेदी-कानपुर, रमेश दत्त दुबे-सागर, डॉ. श्रीराम परिहार-खंडवा, श्री राजेश जोशी-भोपाल, श्री भगवान सिंह-भागलपुर, श्री कृष्णमोहन-वाराणसी, श्री मिथिलेश्वर-आरा, श्री उदय प्रकाश-गाजियाबाद, श्री कैलाश बाजपेयी-दिल्ली, शिवकुमार मिश्र-आनंद, मधुरेश-कानपुर, अष्टभुजा शुक्ल-बस्ती, देवेन्द्र दीपक-भोपाल, मुक्ता, वाराणसी, अशोक माहेश्वरी-दिल्ली, राजुरकर राज-भोपाल, विजय देव-भोपाल एवं छत्तीसगढ़ से रमाकांत श्रीवास्तव, गिरीश पंकज, सुशील त्रिवेदी, राजेन्द्र मिश्र, रमैश नैयर, ललित सुरजन, अशोक सिंघई, कमलेश्वर, नासिर अहमद सिंकदर, बी.एल.पाल, हरप्रसाद, डॉ. बलदेव, डॉ. चित्तरंजन कर, डॉ. बिहारीलाल साहू, शरद कोकास, रजत कृष्ण, विजय सिंह, विजय गुप्त, आनंद बहादुर सिंह, आनंद हर्षुल, नंदकिशोर तिवारी आदि उपस्थित होकर रेखाचित्रकारों का संबंल बढ़ायेंगे ।
किसी भी जानकारी के लिए ९४२४१-८२६६४ पर संपर्क किया जा सकता है ।

6/16/2009

श्रीभगवान सिंह और कृष्ण मोहन को राष्ट्रीय सम्मान

-प्रमोद वर्मा स्मृति आलोचना सम्मान की घोषणा-
रायपुर । प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान द्वारा स्थापित प्रथम आलोचना सम्मान भागलपुर के डॉ श्री भगवान सिंह को दिया जायेगा । इसी तरह युवा आलोचना सम्मान बनारस के युवा आलोचक श्री कृष्ण मोहन को दिया जायेगा । श्री सिंह हमारे समय के उन सुप्रतिष्ठित और चर्चित आलोचकों में से है जिन्होंने अपने आलोचनात्मक लेखन से समकालीन साहित्यिक आलोचना और परिदृश्य पर एक अलग लक़ीर खींची है । लगभग सांप्रदायिक और विचाररूढ़ हो उठी आलोचना के बरक्स श्री भगवान सिंह एक स्वतंत्र वैचारिक आधार और जातीय दृष्टि लेकर आये हैं। ख़ास तौर से गतिशील राष्ट्रीय जीवन-प्रवाह और गांधी युग के मूल्यों को केंद्र में रखकर उन्होंने जो एक स्वाधीन आलोचनात्मक तेवर प्रदर्शित और रेखांकित किया है ।

डॉ. कृष्ण मोहन की आलोचना में पिछली आलोचना की मध्यमवर्गीय चेतना की तुलना में एक उदग्र लोकतांत्रिकता और वैचारिक ऊष्मा है । वे हमारे समय के एक संभावनाशील आलोचक हैं ।

वर्तमान में श्री भगवान सिंह तिलका माँझी, भागलपुर, बिहार में हिन्दी विभागाध्यक्ष के रूप में कार्यरत हैं एवं श्री मोहन विश्वविद्यालय बीएचयू, वाराणसी में रीडर, हिन्दी के पद पर कार्यरत हैं ।

ज्ञातव्य हो कि इस चयन समिति में कवि केदारनाथ सिंह, दिल्ली, डॉ. धनंजय वर्मा, भोपाल, डॉ. विजय बहादुर सिंह, कोलकाता, डॉ. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, गोरखपुर, विश्वरंजन एवं जयप्रकाश मानस थे ।

यह सम्मान उन्हें 10-11 जुलाई को रायपुर में आयोजित दो दिवसीय प्रमोद वर्मा स्मृति समारोह में प्रदान किया जायेगा । सम्मान स्वरूप आलोचक द्वयों को क्रमशः 21 एवं 11 हजार रुपयों सहित प्रशस्ति पत्र, प्रतीक चिन्ह, शाल एवं श्रीफल से विभूषित किया जायेगा ।

6/01/2009

मानवाधिकार बनाम नक्सलवाद से प्रेम

डॉ. बलदेव

बार-बार कहा गया लिजलिजा झूठ भी ठौस और बेलौस सच में तब्दील हो जाता है, इतना नहीं तो उसे सामान्य मति के लोग सच की मानिंद समझने लगते हैं । देश और विदेश में विनायक सेन की रिहाई की माँग इसी फ़ार्मूले से की जा रही थी । माओवादियों और नक्सलियों की रणनीतियों की ठोड़ी-सी भी समझ रखने वाले यह बखूबी समझ सकते हैं कि किस तरह ऐसे तत्व सरकार, व्यवस्था, पुलिस की छोटी-छोटी-सी कमज़ोरी को जनता के लिए दमनात्मक बताते हुए मानवाधिकार का प्रश्न बना देते हैं किन्तु इसके ठीक विपरीत वे अपनी क्रांतिकारी लक्ष्यों के लिए निर्दोष आदिवासियों, महिलाओं, बच्चों और सरकारी कारिंदों की हत्या, शोषण पर शुतुरमूर्गी अंदाज में अपना मुँह छुपा लेते हैं ।

पिछले दिनों डॉ. विनायक सेन की रिहाई को लेकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जिस तरह वितंड़ावाद खड़ा किया जा रहा है उसमें माओवादियों, नक्सलियों के प्रति प्रायोजकीय हमदर्दी की बदबू को भी महसूसा जा सकता है । द्वंद्व से भरे और व्यापार की शक्ल धारण कर चुके मानवाधिकारवादी संगठनों को 120 करोड़ से अधिक आबादी वाले भारत और नक्सली हत्याओं से ग्रस्त राज्य छत्तीसगढ़ में केवल एक ऐसे तथाकथित समाजसेवी, चिकित्सक के मानवाधिकार की याद जाती नहीं जिस पर भारतीय संविधान और प्रजातंत्र के विरूद्ध जाने वाले संगठनों यानी नक्सलवादियों को सहयोग करते रहने का आरोप है तथा जिन्हें जिलाकोर्ट, हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट ने भी जमानत देने से साफ़ मना कर दिया था और बमुश्किल कुछ ही दिन पहले जमानत मिली है । ताज्जूब है कि ऐसी जमानत को भी वे सरकार और व्यवस्था की हार के रूप में देख रहे हैं ।

डॉ. विनायक सेन की रिहाई में लगे कथित मानवाधिकारवादियों की चेतना के पीछे की वास्तविकता को जानने के लिए यह ज़रूरी है कि मानवाधिकारवादियों की एजेंडो, रणनीतियों, कार्यवाहियों की नैतिकता और संवेदना को परखा जाये । एक सच यह भी है कि मानवाधिकारवादियों की आँखें छत्तीसगढ़ सहित भारत के 17 से अधिक राज्यों में नक्सली हिंसा में मारे जा रहे निर्दोषों आदिवासियों के शव, रोते-कलपते परिजनों का चेहरा नहीं देख पातीं । नक्सलियों द्वारा बच्चों को बंदूकें पकड़ाने की नक्सली हरकतें चिंताजनक नहीं लगतीं । महिलाओं को नक्सली हवस का शिकार बनते वक्त जंगलों में गूँजती चीख भी शायद नहीं सुनाई देती । इतना ही नहीं गाँव के गाँव आग के हवाले फूँक दिये जाते हैं, करोड़ों-अरबों की सामाजिक संपत्ति दिन दहाड़े तहस-नहस कर दी जाती है । समूची बस्ती नक्सली आंतक से पलायन को विवश हो उठते हैं, अपनी मिट्टी, अपनी हवा, अपना पानी की याद करते करते वे विस्थापित हो जाते हैं, यह भी किसी मानवाधिकारवादी को नहीं दिखाई देता । क्या मानवाधिकार का इससे बड़ा मुद्दा समूचे विश्व में कहीं है ? कदाचित् नहीं । ऐसे में यह प्रश्न क्या स्वाभाविक नहीं कि इन्हें आख़िर क्योंकर मानवाधिकार के अंतरराष्ट्रीय सचेतक अपने एजेंडों से दूर रखते हैं ? साफ़ जाहिर है कि या तो उन्हें ऐसी आंतककारी और व्यवस्था विरोधी गतिविधियों से कोई वास्ता नहीं या फिर ऐसी माओवादी क्रियाकलापों से उन्हें कोई गुरेज नहीं । ऐसे में यह शंका उठती है कि कहीं ऐसे मानवाधिकारवादी माओवादी हिंसा के पक्षधर तो नहीं । यदि ऐसा है तो इसमें कोई दो मत नहीं कि वे नक्सलियों के हितचिंतक, परामर्शक, सहयोगी भूमिका में भी हों। हो तो यह भी सकता है कि मानवाधिकार की आवाज़ सिर्फ़ बड़े-बड़े महादेशों के भारी भरकम अनुदान से एनजीओ चलाने वालों के लिए ही उठायी जाती है । अन्यथा जिस देश में आये दिन लाखों गरीबों, असहायों और पीडितों के मानवाधिकार का हनन हो रहा है वहाँ केवल एक समाजसेवी चिकित्सक के किसी आरोप में जेल में निरूद्ध होना इतना ध्यानाकर्षणी नहीं हो उठता । यह दीगर बात है कि जेल में निरूद्ध आरोपी का भी मानवाधिकार होता है और उसकी निगरानी भी होनी चाहिए तथा संविधान सम्मत वे सारी सुविधायें मिलनी चाहिए जो उन्हें ज़रूरत थीं ।

मानवाधिकार एक सार्वजनिक माँग है और इसके लिए सभी को अपने हृदय में जगह रखनी होगी । इसे केवल सुविधाभोगी, सुशिक्षित विकसित लोगों के संरक्षण का तर्क नहीं माना जा सकता । यदि हम किसी एक ही व्यक्ति मानवाधिकार के लिए अंतराष्ट्रीय संघर्ष करें, बार-बार समूची न्यायप्रणाली को धता बतायें तो इसे बेईमानी या कारस्तानी की श्रेणी में ही रखा जायेगा । ऐसे उद्यमों में मानवीय नहीं राजनीतिक गंध आने लगेगी । डॉ. विनायक सेन की रिहाई को लेकर तथाकथित मानवाधिकारवादियों, बुद्धिजीवियों, समाजसेवियों द्वारा किये गये आंदोलन, धरना, ज्ञापनबाजी और अखबारबाजी के पीछे मानवीयता का तकाज़ा कम राजनीति अधिक है, अन्यथा उस विनायक सेन के उन जीवन-उद्देश्यों की याद भी ऐसे तत्वों को आती, जिसमें वे आदिवासियों, गऱीब, दीन-दुखियों की चिकित्सा के लिए कटिबद्ध थे, उन्हें जागृत कर रहे थे । यदि ऐसे मानवाधिकारवादियों को बस्तर के भोले-भाले आदिवासियों की पीड़ा की पहचान नहीं है तो इसका एक ही निहितार्थ है कि वे व्यक्ति पर विश्वास करते हैं समष्टि पर कदापि नहीं, और उन्हें शायद इसीलिए डॉ. विनायक सेन के अलावा समूचे बस्तर में एक भी आदिवासी दुखी, संत्रस्त, दयनीय नजर नहीं आता । दरअसल उनका लक्ष्य डॉ. विनायक सेन की रिहाई के रूप में ऐसे बुद्धिजीवी, समाजसेवी और एक्टिविस्ट की रिहाई है जो छत्तीसगढ़ में उनके निहित उद्देश्यों और विचारों की ज़मीन को मजबूत करता रहे । उनका लक्ष्य यदि आम आदमी के मानवाधिकारों के प्रति संघर्ष होता तो शायद उनके एजेंडे में निहत्थे और निर्दोष आदिवासियों की परवशता भी अवश्य शामिल होती, जैसा कि है ही नहीं । अतः यह क्यों नहीं कहा जा सकता है कि मानवाधिकारवादियों की एजेंडो, रणनीतियों, कार्यवाहियों का नैतिकता और संवेदना से दूर-दूर तक कोई रिश्ता नहीं है । यदि कोई रिश्ता है तो उसकी झलक मानवाधिकारवादियों, तथाकथित बुद्धिजीवियों, समाजसेवियों को दिखानी होगी, अन्यथा पढ़ी-लिखी जनता और अनपढ़, सीधे-सादे आदिजन भी ऐसी हरकतों के रहस्यों को मन ही मन अनावृत करना जानते हैं ।

जहाँ तक डॉ. विनायक सेन की समाजसेविता और मानवाधिकारवादिता का प्रश्न है उसमें तब तक किसी को आपत्ति नहीं है जब तक उसमें शुचिता हो, सांवैधानिक और व्यवस्थागत मूल्यों से द्वंद्वात्मक रिश्ता न हो । ऐसे कार्यों से न तो किसी राजनीतिक पार्टी को आपत्ति हो सकती है न ही तंत्र या पुलिस को । उन्हें साम्राज्यवाद के खिलाफ एक सशक्त कार्यकर्ता बताया जाता है । आम भारतीय और खासकर छत्तीसगढ़ की जनता भी साम्राज्यवाद के विरोध में है, क्योंकि प्रजातंत्र का भी यही लक्ष्य है । किन्तु प्रजातंत्र के वृत में रहकर ही ऐसे सुलक्ष्यों की प्राप्ति शोभनीय है । यदि साम्राज्यवाद के खिलाफ संघर्ष में आम और गऱीब आदमी को ही हत्या और दमन का शिकार बना दिया जाये तो ऐसे साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष का समर्थन भारतीय जनता किस मूँह से करेगी ? भारतीय व्यवस्था में साम्राज्यवादी ताकतों के बरक्स समाजवादी मूल्यों को तरजीह दी गई है । किन्तु सिर्फ इसी के नाम पर हिंसा, आंतक, अमानवीयता और विकास विरोधी कार्यवाहियों के तर्ज पर नहीं अपितु एक स्वस्थ और प्रजात्रांतिक प्रावधानों के तहत और इसके लिए चुनाव जैसा उच्चतम प्रावधान भी संकेतित है । भारतीय कानून में समाजसेवा की तो छूट है किन्तु पूर्व समाजसेवा का वास्ता देकर भावुक स्वप्न के तहत किसी संविधान या व्यवस्था को ही ध्वस्त करने वाले अपराध में संदिग्धता की छूट नहीं है । साधु यदि हत्या कर दे तो उसे भी भारतीय कानून के तहत कटघरे में खड़ा होना पड़ता है । यदि साधु यह समझ बैठे कि उसकी पूर्व में की गई साधुता के बल पर उसके किसी अपराध को ही बिसार कर माफ़ कर दिया जाय तो यह कैसे संभव है ? ऐसे लोगों को साधु की श्रेणी में भी रखा जाना मूर्खता होगी, क्योंकि या तो वह पहले साधु नहीं था और यदि था तो उसे साधु विरोधी कामों में हाथ नहीं डालना चाहिए ।

डॉ. विनायक सेन पर छत्तीसगढ़ पुलिस का स्पष्ट आरोप है कि उनके द्वारा जेल में निरूद्ध नक्सली एवं जेल से बाहर रह रहे नक्सलियों को प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से सहयोग करने में लिप्त होना पाया गया है । उनका प्रकरण चालानी कार्यवाही के बाद सक्षम न्यायालय में जारी है । वास्तविकता यही है कि उनपर छत्तीसगढ़ जन सुरक्षा कानून अधिनियम 2005 की धारा 2 ख, घ, 8-1, 2, 3, 5 एवं विधि विरूद्ध क्रियाकलाप निवारण अधिनियम 1967 धारा 10ए, 1,3, 20,21,38,39 तथा भारतीय दंड विधान की धारा 120 बी, 121 क, 124 क के तहत गिरफ़्तार किया गया था ।

मानवाधिकारवादी यह भलीभाँति जानते थे कि उनकी रिहाई सुप्रीम कोर्ट से जमानत मिलने पर ही होगी, और सुप्रीम कोर्ट पिछले एक साल से नकार नकारता रहा कि उन्हें जमानत पर रिहाई नहीं दी जा सकती । इस बीच जिस तरह से श्री सेन के हमदर्द मानवाधिकारवादियों ने देश और विदेश में हल्ला मचाया वह भी क्या सुप्रीम कोर्ट की अवमानना की श्रेणी में नहीं आता । ऐसे समय में जो मानवाधिकार वादी या संगठन ऐसे कानून को ही धता बता रहे थे, संबंधित न्यायाधीश पर छत्तीसगढ़ सरकार से मिली भगत का आरोप लगा रहे थे तब वे एक तरह से केवल अपनी ही हाँके जा रहे थे जो कपोल कल्पित और अवैधानिक भी था । झूठ तो था ही – बिलकुल सफेद झूठ । यदि सफेद झूठ नहीं था तो उन्हें अब ऐसे पूर्व आरोपों के लिए भारतीय न्यायप्रणाली पर आस्था और सद्भावना प्रकट करनी चाहिए जैसा कि वे करेंगे ही नहीं । उनके समझ में यह क्यों नहीं आता है कि भारत में कानून के अनुसार ही न्याय मिलता है । उसके सम्मुख भारत का हर नागरिक बराबर है । भारतीय कानून में प्रतिभा, विद्वता, बौद्धिकता, समाजसेवा का वांछित सम्मान है किन्तु उससे चूक कर अपराध कारित करने वालों के लिए अपमान भी सन्निहित है । ऐसे में यदि कोई प्रकरण यदि जमानत हेतु विचाराधीन हो, न्यायालय में मामला जारी हो, उसके खिलाफ, धरना, प्रदर्शन, आंदोलन करने से यह बात साफ़ प्रमाणित हो गई है कि ऐसे तत्वों को भारतीय संविधान, कानून, मूल्यों, चरित्रो के प्रति कोई विश्वास नहीं । और ऐसे में इन गतिविधियों को क्या अराजक नहीं माना जाना चाहिए ?
ठंडे दिमाग़ से विचार करने पर ऐसी मानवाधिकारवादी गतिविधियाँ नक्सलवाद या माओवाद की अनुषांगिक कार्यवाहियाँ दिखाई देती हैं । यह श्री सेने की रिहाई के बाद की घटनाओं से भी प्रमाणित दिखाई देती है । पिछले दिनों जिस तरह से नक्सलियों द्वारा उनकी रिहाई का आनंद मनाया गया । गाँव-गाँव में पर्चे बाँटे गये वह श्री सेन के प्रति नक्सलियों की मात्र आभासी हमदर्दी नहीं प्रमाणित हमदर्दी है जो वे अब छत्तीसगढ़ के जेलों में बंद अन्य नक्सलियों की रिहाई के लिए तेज आंदोलन की माँग कर रहे हैं । राज्य के समाचार पत्रों के दफ्तरों को प्रेषित नक्सली नेता गुड़सा उसेंडी की प्रेस-विज्ञप्तियाँ यही तो साबित करती हैं जो वे श्री सेन उनके हितचिंतक हों ना हों, नक्सली उनके हितचिन्तक अवश्य हैं । हो यह भी सकता है कि वे व्यवस्था को प्रश्नांकित करने के लिए ही उनकी रिहाई के बहाने जलसा कर रहे हैं ।

दरअसल छत्तीसगढ़ में नक्सली विरोधी और प्रजातांत्रिक पुलिस कार्यवाहियों से नक्सलवाद के सचेतक, संचालक और सहयोगी सकते में आ चुके हैं क्योंकि इस बीच सुरक्षात्मक कार्यवाहियों से नक्सलियों का किला छत्तीसगढ़ में पूर्णतः असुरक्षित हो चुका है । जैसा कि विनायक सेन के पास से जब्त सामग्रियों की पड़ताल से पुलिस को यह विश्वास है कि वे बस्तर के उस नक्सलवाद के बौद्धिक संचालकों में से हैं जिनके तार सारे देश और विदेश के माओवादी संगठनों से जुड़ते हैं । ऐसे में नक्लसवाद के खात्मे से देश-विदेश के माओवादी चिंतित क्यों नहीं होंगे ! सच तो यह भी हो सकता है कि डॉ.विनायक सेन वह टूल्स हैं जिनकी रिहाई के मुद्दे को बार-बार उठाकर माओवादी विचारधारा के बुद्धिजीवी प्रजातांत्रिक व्यवस्था को लेकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रश्नचिन्ह खड़ा कर रहे थे । उनकी मति में इसका एक निहितार्थ यह भी है कि नक्सलवाद ही प्रजातंत्र का विकल्प है, जिस पर भारतीय समाज दिग्भ्रमित हो सके और उसके असंतोष का फायदा नक्सलवाद की गति को बढ़ाने में भी उठाया जा सके । यदि ऐसा न होता और मानवाधिकार वादी सचमुच अहिंसक विचारों के पक्षधर होते तो वे सलवा जुडूम की शांतिपूर्ण कार्यवाही को भी अपने एजेंडे में शामिल किये होते, कम से कम अपनी साख बढ़ाने के नाम पर । पर ऐसा उनके लिए संभव नहीं है क्योंकि वे अपने सुनियोजित उद्देश्य के तहत ही आगे (?) बढ़ रहे हैं जिसमें केवल और केवल प्रजातंत्र का ध्वस्तीकरण है और लालकिले में माओवादी लाल झंडे की प्रतिष्ठा । पर भारत नेपाल नहीं है । यहाँ राजतंत्र नहीं है । यहाँ समूचे जनमानस को प्रजातंत्र पर असीम आस्था है । भारतीय जनता के रहते कोई प्रजातंत्र को बूरी नजरों से नहीं देख सकता ।
(लेखक वरिष्ठ आलोचक एवं शिक्षाविद् हैं)