7/25/2009

नक्सली घटना पर देश भर के लेखक एकमत हुए

देश भर के लेखकों ने की तीव्र भर्त्सना
रायपुर । छत्तीसगढ़ में बढ़ते हुए नक्सली घटना की भर्त्सना करते हुए देश भर के लेखकों ने मदनवाड़ा के नक्सली एंबुश में मारे गये शहीदों के प्रति श्रद्धांजलि दी है ।

प्रख्यात कवि और आलोचक अशोक बाजपेयी ने कहा है कि इस समय नक्सलियों द्वारा कई राज्यों में लगातार जो हिंसा हो रही है उसके बारे में तमाम क्रांति धर्मी लेखक चुप्पी क्यों साधे हुए हैं यह समझ में आना कठिन है । वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति की परंपरा में ही यह चुप्पी है । 20वीं शताब्दी में हम देख आये हैं कि हिंसा और हत्या से सच्ची क्रांती नहीं होती और अगर उसके होने का कुछ देर के लिए भ्रम हो भी जाये तो उसकी परिणति भी देर सवेर हिंसा और हत्या में हीं होती है ।

प्रख्यात कवि चंदकांत देवताले, उज्जैन हिंसा के सभी आयामों पर प्रतिबंध लगाने की अपील करते हुए कहा है कि मौत से प्राप्त की जानेवाले सत्ता का अंत अततः मौत में होती है, वहाँ विकास मायने नहीं रखता । नक्सलवाद की जड़ों में जाकर ही इसका हल निकाला जा सकता है । केवल हिंसक वारदातों से नहीं ।

कोच्चि, केरल के प्रख्यात लेखक ए. अरविंदाक्षन ने मदनवाड़ा की घटना को विकास विरोधी लोगों और संगठित अपराधियों की करतूत निरूपित करते हुए कहा कि सत्ता के लिए जब भी कोई वाद या दल हिंसा का सहारा लेने लगता है वह उसी समय से लक्ष्यच्यूत हो जाता है । लोगों का विश्वास उससे किंचित भी नहीं रह जाता है । आदिवासियों के विकास के बहाने से हिंसा को कभी भी और किसी भी दृष्टि से तवज्जो नहीं दी जानी चाहिए ।

जयपुर के गांधीवादी लेखक नंदकिशोर आचार्य ने नक्सलियों के करतूत को अहिंसा के ख़िलाफ़ और लक्ष्य से भटके हुए ऐसा हितैषी निरूपित किया है जिसे अपने लक्ष्य के अलावा अन्य सभी गतिविधियों पर ही रूचि रह गई है ।

मध्यप्रदेश साहित्य परिषद के प्रमुख और साक्षात्कार के संपादक डॉ. देवेन्द्र दीपक ने नक्सवाद को प्रजा विरोधी अवधारणा बताते हुए विश्व आंतकवाद का एक पहलू बताया है । उन्होंने कहा है कि ऐसे हिंसक तत्वों को अस्त्र शस्त्र पहुंचाने में जिनका हाथ है उनकी भी ख़बर ली जानी चाहिए । ऐसी समस्यायें केवल राज्य, व्यवस्था के लिए ही नहीं समूची मानव जाति के लिए भी अहितकर हैं । विडम्बना कि ऐसे विचारों के प्रति भी कुछ विघ्नसंतोषी मीडियाबाज सहानुभूति रख रहे हैं, अब समय आ गया है कि ऐसे तत्वों की पहचान भी राज्य सरकारें करें ।

धर्मयुग के पूर्व उप संपादक मनमोहन सरल, मुंबई ने कहा है कि छत्तीसगढ़ और साथ ही लालगढ़ की नक्सली हिंसा इस स्वरूप की भर्त्सना करते हुए मैं यह सोचता हूँ कि हमें इस समय की गहराई तक जाना चाहिए । असंतोष के कारणों की मीमांसा करनी चाहिए । केवल दमन से ही समस्या का फौरी हल भले ही हो जाये पर बिना इसके मूल तक जाये इसका स्थायी समाधान नहीं हो सकता । प्रयास इसी दिशा में करने होंगे ।

चर्चित आलोचक द्वय श्री भगवान सिंह,भागलपुर और बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के प्राध्यापक कृष्ण मोहन ने नक्सलियों द्वारा मदनवाड़ा में किये हिंसा को मनुष्य समाज के खिलाफ़ एक जघन्य षडयंत्र निरूपित करते हुए उन पर तत्काल कड़ाई से राज्य और केंद्र सरकार को निपटने का आग्रह किया है । ऐसी घटनाओं को हर विचार, हर कोण, हर दृष्टि से निंदनीय ही माना जाना चाहिए । यदि ऐसी घटनाओं को किन्ही उथले विचार के सहारे समर्थन मिलता है तो वह देश, समाज और समय के खिलाफ ही जायेगा ।

प्रख्यात आलोचक और कवि प्रभात त्रिपाठी, रायगढ़ ने अपने विचार रखते हुए कहा है कि प्रजातंत्र का विकल्प कोई भी हिंसक तंत्र नहीं हो सकता अतः नक्सलवाद मूलतः अपने लक्ष्य के साधनों की विश्वसनीयता खो चुका है । ऐसी घटनाओं को अराजक आक्रोश और मानवविरोधी माना जाकर उनका पूर्ण मनोयोग से जनता को जबाव देना ही होगा ।

शिरीष कुमार मौर्य, कवि, नैनीताल ने लिखा है कि मैं ऐसी किसी भी घटना का पुरजोर विरोध करता हूँ। विचार कहीं पीछे छूट रहा है और उसके नाम पर इस तरह का जो कुछ भी घट रहा है वह खेदजनक है। मृतकों को मेरी श्रद्धांजलि ।

प्रख्यात लेखक डॉ। हरि जोशी, इंदौर ने कहा है कि मदनवाड़ा की घटना को मुंबई में हुए आतंकी हमला से कम नहीं समझा जाना चाहिए । राजनांदगाँव के अपराधियों को कठोरता से जल्द से जल्द दंडित किया जाना चाहिए।

रायगढ़ के कवि और आलोचक डॉ. बलदेव ने कहा है कि यह मात्र राज्य सरकार की समस्या नहीं । यह केवल पुलिस की ड्यूटी नहीं कि वह आपके छत्तीसगढ़ को नक्सली विपदाओं से मुक्त बनाये रखे । यह वक्त निर्णय लेने की घड़ी है कि आप किसका वरण करना चाहते है ? माओवादी हिंसक तंत्र का या प्रजातंत्र का । अब पानी सिर से उतर चुका है । हर बच्चा बोले, हर युवक बोले, माँएं बोले, रिक्शावाला बोले, किसान बोले, मज़दूर बोले, अधिकार बोले। बोलें कि बस्स बहुत हो चुका, सिर्फ़ पुलिस ही नहीं लड़ेगी हम लडेंगे भी और नक्सलवादियों के ख़िलाफ़ बोलेंगे भी

सुशील कुमार, साहित्यकार, दुमका, झारखंड का मानना है कि नक्सली अब आंतकी का रूप ले रहे हैं। ये समाज और राष्ट्र के उसी तरह दुश्मन भी बन गये हैं। इनकी न सिर्फ़ भर्त्सना, बल्कि खात्मा के लिये सरकार और जनता, दोनों को आगे आना होगा। नक्सली अब उसी ऐशोआराम में जी रहे हैं जिस प्रकार शोषक वर्ग रहा करते हैं/थे। इनके भी बच्चे अब बड़े स्कूलों में पढ़ते हैं। इनका भी काफ़ी बैंक-बैलेन्स होता है। अत: नक्सलवाद अब जनांदोलन नहीं, पेट पालने का धंधा भी है।अब हमें ये उल्लू नहीं बना सकते।

आचार्य संजीव सलील, संपादक, नर्मदा, जबलपुर का विचार है कि नक्सलवाद वैचारिक रूप से पथ से भटके हिंसावादी हैं, जो किसी नीति-न्याय में विश्वास नहीं करते। शासन और प्रशासन को योजना बनाकर इन्हें समूल नष्ट कर देना चाहिए। ये न तो उत्पीडित हैं, न किन्ही सामाजिक अंतर्विरोधों का प्रतिफल। कुछ बुद्धिजीवी अपनी सहानुभूति देकर इन्हें पनपाते हैं । ये पौराणिक राक्षसों के आधुनिक रूप हैं जो अन्यों के मानवाधिकारों की रोज हत्या करते हैं और जब मरने लगते हैं तो खुद के मानवाधिकार की दुहाई देते हैं। आपनी साथी महिलाओं से बलात्कार करने में इन्हें संकोच नहीं होता। हिंसा पंथी कहीं भी, किसी भी रूप में हों, समूल नष्ट किये जाएँ। इनकी हर गोले का उत्तर सिर्फ और सिर्फ गोली से दिया जाना ज़ुरूरी है। सामान्य न्याय व्यवस्था नियम-कानून का सम्मान करनेवाले भद्रजनों के लिए है। आतंकवादियों को सामान्य कानून का लाभ नहीं देकर तत्काल ही गोले से मार दिया जाना चाहिए ।

देश के प्रख्यात गीतकार स्व. पं. नरेन्द्र शर्मा की बेटी लावण्या शाह, अमेरिका ने कहा है कि जब आदीवासी प्रजा पर अत्याचार होते हैँ तब वहाँ की दूसरी कौम चुप रहती है ? बस्तर के आदिवासियोँ की कोई मदद नहीँ करता ? ऐसा क्यूँ ?

ग़ज़लकार और रचनाकार के संपादक रवि रतलामी ने मदनवाड़ा में हुए नक्सली वारदात को देश का घृणित दुष्कर्म बताया । यह माओवादियों की हताशा से उपजी हिंसा है । राज्य की पुलिस प्रमुख के नेतृत्व में जिस तरह पुलिस प्रशासन इससे जान गँवाकर भी जूझ रही है वह वंदनीय है । माओवादियों के लिए अब माओ माओ नहीं रह गये, वे खाओ, पीओ और जीओ के प्रणेता की तरह लिये जाने लगे हैं । यह प्रजातंत्र के लिए ही नहीं स्वयं नक्सलियों के लिए घातक होगा । जनता को बंदूक से नहीं प्रेम का संदूक सौंपकर ही रिझाया जा सकता है । बस्तर और छत्तीसगढ़ के आदिवासियों के तथाकथित पक्षधरों का पर्दाफ़ाश हो चुका है अब इनका नाश कऱीब है ।
सभी शहीदों को शत-शत नमन करते हुए अशोक सिंघई, भिलाई ने कहा है कि राज व्यवस्था और नक्सलवादी हिंसक आन्दोलनों के मध्य एक अनंतिम महासमर है जो कि समाप्त होता नहीं दिखता है। छापामार तरीकों से यृद्ध जब भी होता है सदैव चिन्हित व बड़े पक्ष को ही हानि होती है। नक्सली पक्ष जंगों में छिपा और अचिन्हित है अतः कार्यवाही के परिणाम नहीं मिल पा रहे हैं। जन-संसाधनों का संहार राष्ट्रीयय क्षति व अपराध है। इसका हल प्रशासन के पास नहीं वरन राजनीति के पास ही मिल सकता है। यह राजनीति की दुरभिसंधियाँ ही हैं जो इस समस्या को जीवित रखे हुए हैं क्योंकि राजनीति को इन्हीं सबसे प्राणवायु मिलती है। राजनीति और मीडिया में कुछ प्रश्न पुलिस विभाग की भूमिका को लेकर उछाले जा रहे हैं। माननीय मुख्य मंत्री डा. रमन सिंह के वचन, धैर्य और प्रशासनिक चतुरता के बल पर बहुत कुछ बिखरने और बिगड़ने से अभी भी बचा हुआ है। अभी वक्त पुलिस प्रषासन को नसीहतें देने का नहीं वरन सद्भावनायें, सहानुभूतियाँ और शुभकामनायें देने का है।

डैलास, अमेरिका के रेडियो उद्घोषक और लेखक आदित्य प्रकाश सिंह ने अपनी श्रद्धांजलि मे कहा है कि नक्सलवाद केवल छत्तीसगढ़ की विपदा नहीं है । यह केवल विकास के अभाव से उपजा नहीं है । इसके मूल में है चीन के माओवादी ताकतों का विस्तार । भारत इसके लिए न कभी तैयार हुआ है, न कभी भविष्य में वह प्रजातंत्र के विकल्प में उसे स्वीकार करेगा । देश के गृहमंत्री ठीक ही कहते हैं कि अब तक चूक ही हुई है । अब वक्त आ गया है कि उन्हें जड़ से उख़ाड़ फेंका जाये ।

हिन्दी के चर्चित ब्लॉग लेखक जीत भार्गव ने माना है कि वामपंथियों ने हिन्दी, और हिन्दुस्तान का कबाडा किया है। वास्तविकता यह है कि भारत की अधोगति में इन प्रगतिशीलों को सुकून मिलता है। जनता के नरसंहार को यह जनवादी सही ठहराते हैं ।

कवि और साहित्य-शिल्पी के युवा संपादक राजीव रंजन प्रसाद ने लिखा है कि बस्तर और आदिवासी की समझ नहीं रखने वाले अपनी लफ्फाजियों से ही बाज आ जायें तो बडा परिवर्तन हो जायेगा। माओवादियों के समर्थक साहित्यकारों का बहिष्कार आवश्यक है।

दैनिक हरिभूमि, दैनिक भास्कर और वर्तमान में पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल के जनसंचार विभाग प्रमुख संजय द्विवेदी ने मदनवाड़ा की जघन्य हत्या को जाबांज पुलिस कर्मियों का विजय बताया है कि उन्होंने उस युद्ध की शुरुआत कर दी है – जान गँवाकर भी कि अब हिंसक तत्वों को किसी भी कीमत में राज्य में पनपने नहीं दिया जायेगा । यह घटना उन्हें श्रद्धांजलि देने के अलावा स्वयं को ऐसी राष्ट्रद्रोही गतिविधियों के प्रति सतर्क रहने की भी सबक है । नक्सलवाद आंतकवाद का घरेलू संस्करण है जिसे बिना आंतकवाद माने निजात नहीं पाया जा सकता है । अब केंद सरकार को भी ऐसी समस्याओं पर बिना राजनीति किये जूझने के लिए तैयार होना होगा । प्रतिपक्ष में खड़े राजनीतिक दल अब तय करें कि माओवादी हिंसक नक्सली उनके भी खिलाफ़ है। हर उस व्यक्ति के खिलाफ हैं जो प्रजातंत्र की वकालत करता है, उस पर श्रद्धा करता है ।

स्वीड़न निवासी रेडियो संचालक और कवि चांद शुक्ला ने माओवादी हिंसा की कटू आलोचना करते हुए इसे प्रजातंत्र के लिए ख़तरा बताया है । उन्होंने कहा है कि नक्सलवाद की समस्या मात्र छत्तीसगढ़ की समस्या नहीं अपितु समूचे भारत की समस्या है, जिससे निपटने के लिए सारे देशवासी को आगे आना पड़ेगा ।

कार्टूनिस्ट अजय सक्सेना, अजय श्रीवास्तव ने कहा है कि हिंसा पर उतारू नक्सलियों को सबक सिखाने का अंतिम समय आ चुका है, उनसे अब किसी प्रकार की बातचीत की संभावना क्षीण हो चुकी है ।

मदनवाड़ा नक्सली हिंसा की निंदा करने वालों में अन्य प्रमुख लेखक हैं – शिवकुमार मिश्र, खगेन्द्र ठाकुर, प्रभाकर श्रोत्रिय, गंगाप्रसाद बरसैंया, रमेश दवे, अशोक माहेश्वरी, ओम भारती, एकांत श्रीवास्तव, मुक्ता, रंजना अरगड़े, अरूण शीतांश, डॉ. बृजबाला सिंह, नंदकिशोर तिवारी, राजेन्द्र परदेसी, डॉ. नैना डेलीवाला, राजुरकर राज, नवल जायसवाल, सुशील त्रिवेदी, आनंद कृष्ण, संतोष रंजन, राम पटवा, जयप्रकाश मानस, अशोक सिंघई, मुमताज, रवि श्रीवास्तव, बी. एल. पॉल, कमलेश्वर, सुरेश तिवारी, तपेश जैन, कुमेश जैन, हीरामन सिंह ठाकुर, संजीव ठाकुर, डॉ. राजेन्द्र सोनी, डॉ. चित्तरंजन कर, श्रीमती माधुरी कर, गौतम पटेल, डॉ. जे. आर. सोनी, राम शरण टंडन, डॉ. अजय पाठक, एस. अहमद, वंदना केंगरानी, चेतन भारती, भारती बंधु ।

7/22/2009

दिल्ली दर्प दमन


एक सहचर की याद
अशोक वाजपेयी

वे गजानन माधव मुक्तिबोध और हरिशंकर परसाई के सहचर थे । किसी हद तक श्रीकांत वर्मा के भी । मुक्तिबोध को उनके जीवनकाल में यह जताने वाले कि वे एक बड़े लेखक हैं। जो छह सात लोग थे उनमें से वे एक थे । परसाईजी के भी अभिन्न थे और उनकी कई बार सक्त आलोचना की परसाई जी इज्जत करते थे- सारी दुनिया को खरी-खोटी सुनाने वाले केा ख़ुद को खरी खोटी सुनाने वाला भी आख़िर चाहिए ही था । यह दावा करना अनुचित न होगा कि प्रमोद वर्मा की इन दोनों लेखकों के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका रही है । लगभग 9 वर्ष पहले वे देहावसन के बाद उन्हें याद करते हुए एक बड़ा मानवीय गरमाहट और बौद्धिक ऊर्जा भरा आयोजन रायपुर में पिछले सप्ताह हुआ । अनेक दृष्टियों के लेखक आदि एकत्र हुए प्रमोद वर्मा के अवदान पर और उस बहाने आज की आलोचना पर व्यापक और खुला विचार हुआ । इस अवसर पर राधाकृष्ण प्रकाशन ने चार खंडों में उनका समग्र भी विश्वरंजन के स्नेह और आदरयुक्त संपादन में प्रकाशित किया । सामग्री जुटाने और व्यवस्थित कर छपाई के लिए देने के बाद पता चला कि लगभग पाँच सौ पृष्ठों की सामग्री और है जिसे बाद में शामिल किया जा सकेगा।
प्रमोद वर्मा की आस्था सामान्य तौर पर वामपंथी थी । लेकिन किसी तरह की कट्टरता से वे मुक्त थे । उन दिनों यानी सत्तर अस्सी के दशक में वे अज्ञेय और मुक्तिबोध के समान रूप से प्रशंसक थे । यह एक बड़ा कारण है कि प्रगतिशील आलोचकों की सूची में उनका नामोल्लेख नहीं होता है । इसे रेखांकित करते हुए नंदकिशोर आचार्य ने यह भी कहा कि प्रमोद जी के लिए स्वतंत्रता परम मूल्य थी और वे उसे किसी प्रतिबद्धता के दबाव में तजने के तैयार नहीं थे ।

इस अवसर पर प्रमोदजी पर निबंधों का एक संचयन न होना प्रमोद वर्मा का यश पब्लिकेशन द्वारा प्रकाशित किया गया है और एक स्मारिका भी निकाली है । उसमें प्रमोजी के इन कथनों की ओर ध्यान जाता हैः-


‘‘जब संसार की कागद की पुड़िया है तो उस पर लिखे शब्द तैरकर पार उतर जायेंगे ऐसा मैं अपने सबसे कमज़ोर और आत्ममुग्ध क्षणों में भी नहीं सोचता । मुझे ये सिर्फ़ इतना जताती है कि इन्हें रचते हुए मैंने अपने आप को किस तरह नष्ट या हासिल किया है ।


‘‘कवि शब्द की दुनिया में स्वयं को खोजा करता है । कवि अपने देश और काल को नहीं लिखता। वस्तुतः वह अपने अनुभवों और सपनों को शब्द देता है । पाब्लो नेरूदा की प्रेम कविताएँ मुझे अच्छी लगतीं हैं उन्हें पढ़ते हुए मुझे रसखान की याद आती है ।


‘‘जन साधारण की बात चित्रपट के माध्यम से लोकरंजन करने वालों पर छोड़ देनी चाहिए । साहित्य सहृदय और गुणी जनों की रूचि का विषय है ।


‘‘प्रगतिशील लेखक मछली पकड़ने के लिए तो जाल का उपयोग कर सकता है लेकिन कलावादियों की तरह कुहरा पकड़ने के लिए नहीं।


सच में सबसे बड़े कवि हर भाषा में अज्ञात नाम-कुल-शील असंख्य कवि जन ही हुआ करते हैं । जैसे क्रांति के वास्तविक नायक असंख्य इत्यादि जन हैं ।


सत्य का संधान होता है और सौंदर्य का सृजन । ख़तरा तब होता है जब हम सत्य का सृजन करते हैं और और सौंदर्य का संधान । प्रेम करना गैरकानूनी नहीं है। हिंसा बेहक गैरकानूनी है ।

छत्तीसगढ़ ने अपने एक लेखक को ऐसे उत्साह समझ और जतन से याद किया यह बड़ी बात है । ख़ासकर आज के स्मृति और कृतज्ञता वंचित परिवेश में । इस अवसर पर श्री भगवान सिंह और कृष्णमोहन को प्रमोद वर्मा पुरस्कार भी प्रदान किए गए । महानगरों से दूर जो सृजन और आलोचना सशक्त रूप से सक्रिय है उसका यह उचित ही स्वीकार है । किसी हद तक दिल्ली दर्प दमन भी । पता चला है कि कुछ लेखक स्वीकृति देकर इसलिए नहीं आये कि छत्त्तीसगढ़ में नक्सलियों का राज्य सत्ता जनसंहार कर रही है । दुर्योगवश समारोह समापन के अगले दिन नक्सलियों ने एक पुलिस अधीक्षक और लगभग चालीस पुलिस कर्मियों की हत्या कर दी । इस समय नक्सलियों द्वारा कई राज्यों में लगातार जो हिंसा हो रही है। उसके बारे में तमाम क्रांति धर्मी लेखक चुप्पी क्यों साधे हुए हैं यह समझ में आना कठिन है । वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति की परंपरा में ही यह चुप्पी है । 20वीं शताब्दी में हम देख आये हैं कि हिंसा और हत्या से सच्ची क्रांती नहीं होती और अगर उसके होने का कुछ देर के लिए भ्रम हो भी जाये तो उसकी परिणति भी देर सवेर हिंसा और हत्या में हीं होती है ।

प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान भी स्थापित किया गया है उसकी एक महत्वाकांक्षी योजना है । छत्तीसगढ़ में दुर्भाग्य से राज्य शासन ने संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए आवश्यक संस्थागत उपाय नहीं किए हैं । साहित्य, संगीत नाटक और ललित कला की राज्य अकादमियाँ अब तक गठित नहीं हुईं हैं । जिस अंचल में हाल ही में मुक्तिबोध, श्रीकांत वर्मा, प्रमोद वर्मा, विनोद कुमार शुक्ल, प्रभात त्रिपाठी आदि लेखक हुए हैं वहाँ ऐसी उदासीनता और निष्क्रियता संवेदनशीलता और जिम्मेदारी से बचने के बराबर है । स्वयं इस आयोजन में यह प्रकट हुआ कि बख्शी पीठ पर रहकर प्रमोद जी के छत्तीसगढ़ की युवा पीढ़ी को रूपायित करने में कितनी बड़ी भूमिका निभाई । यह पीठ पहले की राज्य सरकार द्वारा स्थापित है । नया संस्थान कवि विश्वरंजन के नेतृत्व में इस शून्य को भर सकता है । ऐसे कम लोग बचे हैं (और प्रशासन में प्रायः बिल्कुल नहीं) जो साहित्य से ऐसा अनुराग रखे और जो अपने पूर्वज लेखकों के प्रति सामाजिक कृतज्ञता ज्ञापन के लिए ऐसे प्रयत्न करे जैसे कि विश्वरंजन और उनके सहयोगी कर रहे हैं ।
(कभी-कभार, जनसत्ता, १९ जुलाई, २००९ दिल्ली)

7/16/2009

कविता लिखनेवाला अधिक लड़ता है


डॉ. बलदेव
मुख्यमंत्री डॉ। रमन सिंह बहुत ठीक कहते हैं कि राज्य में कविता और लड़ाई साथ चलेगी। यह सिर्फ़ विश्वरंजन से मतलब नहीं सधनेवाले विरोधियों को दिया गया जबाव नहीं अपितु उन सारे बुद्धिजीवियों, साहित्यकारों, मीडियाकरों को भी चेतावनी है कि भाई, जिस तरह से आपने हिंसक और अराजक माओवादी और भ्रामक और पक्षपातपूर्ण तरीक़े से मानवाधिकार की वकालत की है उससे जुझ़ने के लिए केवल पुलिस को ही नहीं सभी को कविता और लड़ाई साथ-साथ करनी होगी । क्योंकि तिल को ताड़ बनाना सिर्फ़ आप ही नहीं जानते, हमारी जनता, सरकार और सारे सरकारी लोग भी उसका मुँहतोड़ जबाव देना जानते हैं।

साहित्य एक युद्ध ही तो है, जिसमें बाहर की लड़ाई भीतर लड़ी जाती है । लड़ाई के पीछे भी कहीं ना कहीं साहित्य क्रियाशील रहता है, जो उसके औचित्य-अनौचित्य को सिद्ध करता है । साहित्य मूलतः युद्ध की मनाही पर ज़ोर देता है, उसके स्थानापन्न विकल्पों की तलाश करता है और युद्ध अंततः साहित्य बनकर इतिहास के पन्नों में रेखांकित होकर सुनहरे भविष्य के विकल्पों का अभिज्ञान कराता रहता है । समय का मार्गदर्शन करता है । साहित्य और युद्ध दो पूरक क्रियायें हैं । आख़िर दोनों का लक्ष्य आत्मरक्षा होता है । साहित्यकार बाहर की लड़ाई को अधिनियमित करते हुए भीतर ही भीतर लड़ता है और योद्धा बाहर लड़ता है और भीतर की लड़ाई की दिशा तय करता है ।

चाहे वह कोई भी समय रहा हो, राज्य नामक व्यवस्था में दोनों ही सदैव प्रासंगिक और अपरिहार्य रहे हैं । राजशाही से लेकर वर्तमान गणतंत्र तक, हर व्यवस्था में साहित्यकार और योद्धा साथ-साथ सम्मान अर्जित करते रहे हैं । यदि छत्तीसगढ़ का पुलिस-मुखिया विश्वरंजन भीतर-बाहर दोनों लड़ाई में पारंगत हैं तो यह अयोग्यता नहीं अपितु सौभाग्य का विषय होना चाहिए । यह शुष्क पुलिस तंत्र की असंवेदनशीलता के विरूद्ध एक उत्तेजक और प्रेरक जन्मघूँटी भी है, जो लगातार असहिष्णुता की सीमा लांघते समय और परिस्थिति में अपरिहार्य है । जनता की भावनाओं, स्वप्नों और आकांक्षाओं को सिर्फ़ लाठी, बंदूक पकड़कर नहीं, शब्द और क़लम पर भी विश्वास रखकर अधिक सुगमता से फलीभूत किया जा सकता है । और यदि ऐसा विश्वरंजन करते हैं तो यह किस तरह आपत्तिजनक है, समझ से परे है ?

विगत 12 जुलाई को जब मदनवाड़ा में गणतंत्र के दुश्मनों के ख़िलाफ़ हमारे जांबाज और अदम्य पराक्रमी बी। के चौबे, गुप्ता और उनके साथी शौर्य का स्वर्णिम इतिहास रच रहे थे तब व्याकुलता और चिंता के साथ उनका पुलिस महानिदेशक विश्वरंजन ही मार्गदर्शन कर रहे थे । जो यह कहते नहीं थक रहे कि वे उस समय साहित्य रस ले रहे थे, वे सिर्फ़ पूर्वाग्रही हैं, झूठे हैं । जो लोग 10-11 जुलाई को आयोजित साहित्य समारोह के बहाने डीजीपी विश्वरंजन की खामी निकाल रहे हैं यह न भूलें कि उनमें से ही कुछ अतिवादी किस्म के साहित्यकार और बुद्धिजीवी ठीक तब कविता पाठ के साथ-रसगुल्ला का स्वाद चख रहे थे जब हमारे राज्य के अनेकों बहादुर सिपाहियों के साथ छत्तीसगढ़ के माटी के सपूत और पुलिस अधीक्षक श्री चौबे के शहीद होने की ख़बर उनके टेबिल तक पहुँच चुकी थी ।

हम प्रमोद वर्मा पर केंद्रित आयोजन के परिप्रेक्ष्य में यह भी नहीं भूलें कि यह कार्य यहाँ के राजनेता, प्रबुद्ध वर्ग, साहित्यिक उत्थान का दंभ भरनेवाले तथाकथित जनतांत्रिक संगठनों और जनता का था जिसे उन्होंने एकसिरे से बिसार दिया था और जिसे एक पुलिस अधिकारी ने कर दिखाया। प्रमोद वर्मा मार्क्सवादी सौंदर्य चेतना में विश्वास करते हुए भी देशीय राग के हिमायती और हिंसात्मक विध्वंस के ख़िलाफ़ थे । वे समाजवादी प्रजातंत्र के हिमायती थे । उनके नज़रों में जनता से बड़ा कोई नहीं था । सत्ता भी नहीं । चाहे वह मार्क्सवादियों की हो या फिर माओवादियों की । जो लोग इस आयोजन से स्वयं को बौना पा रहे हैं वे इस समय अपनी लेखों और विज्ञप्तियों में अपनी भड़ास उतार रहे हैं । यह सभी जानते हैं कि ऐसे बुद्धिजीवियों या साहित्यिक संगठनों के अगुमा किस तक तक लिटरेरी डेमोक्रेसी और कितनी पवित्रता से क्या क्या करते रहे हैं ? उनके समझाइस या बडबोलेपन से लेकर इस राज्य का ना तो कभी सांस्कृतिक विकास हुआ है ना ही प्रजातांत्रिक ।

क्या इस सम्मेलन में राज्य के मुख्यमंत्री और महामहिम की भी भागीदारी नहीं थी ? ऐसे में क्या उन्हें भी मना कर दिया जाये कि वे ऐसे साहित्यिक आयोजनों से परहेज करें और ऐसा करना जनता और राज्य के हित में नहीं है । हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि यह आयोजन इसलिए भी महत्वपूर्ण साबित हुआ है, क्योंकि हमारे राज्य के मुखिया ने देश भर के बुद्धिजीवियों, आलोचकों, साहित्यकारों को छत्तीसगढ़ की महाविपदा माओवादी हिंसा को लेकर भी संबोधित किया और महामहिम राज्यपाल ने शासकीय अधिकारियों द्वारा अपने कर्तव्यों की औपचारिकता के बाद समाज के लिए किये जानेवाले कार्यों को समाज और देशसेवा करार दिया । और यह भी हमें नहीं भूलना चाहिए कि कोई भी हर वक्त सिर्फ़ कर्तव्य पर ही नहीं जुटा होता । न मैं, न आप और न ही दुनिया का कोई। वह अपने जैविक, सांस्कृतिक, मौलिक और सामाजिक अधिकारों के प्रति भी सचेत रहता है और यही उसके कर्तव्यों को बल प्रदान करता है ।

जिन्होंने विश्वरंजन को 12-13 जुलाई को मानपुर-मदनवाड़ा के रास्ते में सैनिक वर्दी में देखा है वे बखूबी समझ सकते हैं कि उस समय एक कवि सेनापति किस तरह द्वंद्व और पीड़ा से गुज़र रहे थे। अपने बहादुर और शौर्यवान् नायकों को खोने का ग़म सिर्फ़ परिजन, नेता या जनता को नहीं उस सेनापति को भी होता है जिसके बल पर वह राज्य की शांति और सुरक्षा के लिए नेतृत्व भी करता है। स्वस्थ माँग, जायज आरोप और नैतिक टिप्पणी प्रजातंत्र को मज़बूत बनाती हैं किन्तु उसका भी समय होता है । असमय और आकारज टिप्पणी से तंत्र हतोत्साहित होता है । उसे अपनी उदात्त जनसेवा के उत्तर में मूर्खतापूर्ण आरोप से निराशा होती है । ऐसी घटनाओं का हल राजनीतिक चश्मे से कभी भी नहीं दिखा है। यह कितनी विडम्बना की बात है कि छत्तीसगढ़ में सक्रिय अनेक राजनीतिक घटक आज भी माओवादी हिंसा को प्रजातंत्र के विरूद्ध नहीं मानते हुए उसे मात्र सिर्फ़ सरकार की ग़रज बताते हैं । यह हमारे प्रदेश की अबौद्धिकता और निहायत अलाली नहीं तो और क्या है कि अब तक किसी भी तथाकथित सांस्कृतिक गरिमावाले लेखक, साहित्यकार, विचारक, शिक्षाविद की तरफ़ से मदनवाड़ा में हुए शहीद के प्रति न तो श्रद्धांजलि स्वरूप कोई टिप्पणी आयी है न ही कोई पहल । क्या हम अपने राज्य को ऐसी मौन अभिव्यक्ति का पाठ पढ़ाना चाहते हैं ? यदि हाँ, तो हमें उस मुक्तिबोध की दुहाई देने का कोई अधिकार नहीं बनता जिसके कहा था – तोड़ने ही होंगे मठ, उठाने ही होंगे अभिव्यक्ति के ख़तरे । मनुष्य नहीं कहेगा तो और कौन बोलेगा ।

किसी साहित्यकार को यह कहना कि वह साहित्य से सर्वथा दूर रहे ठीक उस तरह होगा कि वह साँस न ले । भोजन न करे । वह पुलिस की नौकरी करता है अतः वह सिर्फ़ लाठी चौबीसों घंटे पकड़कर गली-गली भटकता रहे और जनता चैन की नींद सोती रहे । यदि हम समाज को ऐसे ही देखना चाहते हैं भगवान बचाये ऐसे लोगों से । तब तो कोई यह भी कहेगा कि गुरूजी दिन के अलावा रात भर स्कूल खोलें रखे । न्यायाधीश चौबीसों घंटे कोर्ट में बैठें । सीमा के प्रहरी घर भी न लौंटे। पायलेट हवाई जहाज से उतरे हीं नहीं । नेता मंत्रालय में ही बैठे रहें । प्रतिपक्ष सिर्फ़ धरना, आंदोलन ही करते रहें । क्या छत्तीसगढ़ की जनता इतनी निंरकुश और इतनी पलायनवादी हो चुकी है ।

आप भी बोलिए कि यह मात्र राज्य सरकार की समस्या नहीं । यह केवल पुलिस की ड्यूटी नहीं कि वह आपके छत्तीसगढ़ को नक्सली विपदाओं से मुक्त बनाये रखे । यह वक्त निर्णय लेने की घड़ी है कि आप किसका वरण करना चाहते है ? माओवादी हिंसक तंत्र का या प्रजातंत्र का । अब पानी सिर से उतर चुका है । हर बच्चा बोले, हर युवक बोले, माँएं बोले, रिक्शावाला बोले, किसान बोले, मज़दूर बोले, अधिकार बोले । बोलें कि बस्स बहुत हो चुका, सिर्फ़ पुलिस ही नहीं लड़ेगी हम लडेंगे भी और नक्सलवादियों के ख़िलाफ़ बोलेंगे भी । (लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं )

7/07/2009

प्रमोद वर्मा सम्मान का मतलब


विश्वरंजन
प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान एक पंजीकृत संस्थान है जिसका गठन छत्तीसगढ़ में जन्मे एक महत्वपूर्ण कवि, लेखक, आलोचक, नाटककार और शिक्षाविद प्रमोद वर्माजी के मूल्यनिष्ठ कार्यों को जिन्दा रखने एवं प्रदेश की सांस्कृतिक चेतना को संपूर्ण देश में प्रतिष्ठा दिलाने के लिए किया गया है। पं. माधवराव सप्रे, पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, मुक्तिबोध, श्रीकांत वर्मा तथा प्रमोद वर्मा इत्यादि ने न केवल छत्तीसगढ़ की ज़मीन अपितु समूचे राष्ट्र में आधुनिक संवेदनाओं को विस्तार दिया है । सच्चे अर्थों में वे छत्तीसगढ़ के ऐसे आइकॉन रहे हैं जिनसे यह राज्य अखिल भारतीय स्तर पर बौद्धिकों में शुमार होता है । ऐसे लोगों का सम्मान सांस्कृतिक राज्य छत्तीसगढ़ का सम्मान है ।

मुझे इस संस्थान का अध्यक्ष पुलिस महानिदेशक की हैसियत से नहीं बल्कि प्रमोद वर्मा के मित्र और शिष्य होने की हैसियत से बनाया गया है । उनकी साहित्यिक समझ को विकसित करने में, उसमें त्वरा या तेज़ी लाने में छत्तीसगढ़ के प्रमोद वर्मा का महत्वपूर्ण योगदान रहा है । जो प्रमोद वर्मा को जानते हैं, उन्हें बखूबी मालूम है कि प्रमोद वर्मा की नज़र में नेता, अभिनेता, अधिकारी का कोई महत्व नहीं था जब तक उसमें गहरी संवेदना परिलक्षित नहीं होती । प्रमोद वर्मा एक साहित्यिकार होने के नाते एक ऐसी शख्सियत थे जिन्होंने परिस्थितियों के साथ कभी समझौता नहीं किया ।

इधर कुछ लोग उन पर होने वाले दो दिवसीय अखिल भारतीय आयोजन को लेकर तरह-तरह की टिप्पणी कर रहे हैं । ज़ाहिर है ये वो लोग हैं जो न प्रमोद वर्मा को जानते हैं, न ही साहित्य-संस्कृति की धरोहर को बरक़रार रखने में उनकी कोई दिलचस्पी है । उनकी सांस्कृतिक समझ नगद-नारायण की पूजा तक सीमित है जिससे वे दुनिया खरीदना चाहते हैं । वे नहीं जानते कि प्रमोद वर्मा वह शख्स हैं जिनके नाम पर पूरे हिन्दुस्तान में जो सांस्कृतिक और साहित्य की समझ रखनेवाले लोग हैं वे तन-मन-धन और कर्म से आगे आ जायेंगे । ये ऐसे लोग हैं जिनके लिए किसी का सिर्फ पुलिस महानिदेशक होना सामान्य विषय है ।

छत्तीसगढ़ को पहचान दिलानेवाले ऐसे संस्कृति रचयिता के ऐसे विरोधियों को प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान के उद्देश्य और स्वप्न से परिचित होना भी आवश्यक है ताकि वे अपनी गिरेबां में झांकने की कोशिश कर सकें कि राज्य की पहचान सिर्फ़ सड़क, पानी, बिजली और उद्योग ही नहीं होते उसकी निजी अस्मिता भी होती है । मनुष्य का बौद्धिक और सांस्कृतिक विकास भी होता है । प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान के उद्देश्यों में प्रमुख है –

प्रमोद वर्मा समग्र का प्रकाशन -

रचना शिविर-प्रदेश के विशेष कर दूरस्थ अंचलों के नवोदित,संभावनाशील युवा लेखकों की रचनात्मकता के दिशाबद्ध प्रोत्साहन के लिए प्रत्येक वर्ष निःशुल्क लेखन शिविर का आयोजन किया जायेगा जिसमें देश के लब्ध प्रतिष्ठित साहित्यकार, भाषाविद्, संस्कृति कर्मी, कलाकार मार्गदर्शन देंगे। इन शिविरों में पिछड़े, आदिवासी, दलित जाति के उभरते हुए रचनाकारों को विशेष प्राथमिकता दी जायेगी । कला, साहित्य, संस्कृति एवं वैचारिकी का एक राष्ट्रीय त्रैमासिक पत्रिका का प्रकाशन किया जायेगा।

राष्ट्रीय आलोचना सम्मान - वर्ष-2009 से प्रमोद वर्मा की स्मृति में दो सम्मान प्रारंभ किये जा चुके है जिसमें देश के दो आलोचकों को प्रत्येक वर्ष प्रमोद वर्मा राष्ट्रीय आलोचना सम्मान दिया जा रहा है । इसमें से एक सम्मान युवा वर्ग हेतु सुरक्षित रखा गया है । सम्मान स्वरूप 21 एवं 11 हज़ार रुपये की नगद राशि, प्रतीक चिन्ह, प्रशस्ति पत्र, शॉल श्री फल एवं प्रमोद वर्मा समग्र की प्रति भेंट की जायेगी । वर्ष 2009 के लिए चर्चित आलोचक श्रीभगवान सिंह, भागलपुर एवं युवा आलोचक श्री कृष्णमोहन, वाराणसी को प्रदान किया जा रहा है ।

व्याख्यानमाला - संस्थान द्वारा प्रमोद वर्मा स्मृति व्याख्यानमाला की श्रृंखला शुरू की जायेगी, इस दिशा में वर्ष में नियमित रूप से चार व्याख्यान आयोजित किये जायेंगे, जिसमें देश के महत्वपूर्ण रचनाकारों, विचारकों, आलोचकों को सुना जायेगा ।

प्रमोद वर्मा स्मृति संग्रहालय - प्रमोद वर्मा की स्मृति को जीवंत बनाये रखने, उन पर शोध कार्य करने वालों को प्रोत्साहित करने वाले विद्यार्थियों को प्रोत्साहित करने के लिए बिलासपुर में प्रमोद वर्मा स्मृति संग्रहालय की स्थापना की जायेगी जो एक उन्नत लायब्रेरी के रूप में भी विकसित होगी ।

शिष्य-वृति - प्रमोद वर्मा द्वारा विकसित किये गये जीवन-मूल्यों तथा स्वयं उनके द्वारा लिखित साहित्य पर शोध करने वाले छात्रों को प्रति वर्ष शिष्य-वृति प्रदान की जायेगी । इस रूप में चयनित शोधार्थियों को प्रतिवर्ष प्रतिमाह 5 हज़ार रुपये की राशि प्रदान की जायेगी ।

कृति प्रकाशन - प्रत्येक वर्ष आलोचना, कविता एवं नाटक पर केंद्रित 3 महत्वपूर्ण पांडुलिपियाँ आमंत्रित कर उनका प्रकाशन संस्थान द्वारा किया जायेगा । इस महती योजना में अप्रकाशित रचनाकारों लेखकों को वरीयता दी जायेगी जिनकी पांडुलिपियों का चयन एक संपादक मंडल द्वारा किया जायेगा ।

परिसंवाद- कला, संस्कृति, सभ्यता और आधुनिक जीवन से जुड़े मुद्दों पर वैचारिक विमर्श हेतु परिसंवाद, परिचर्चा का आयोजन वर्ष भर किया जायेगा जिसमें विभिन्न अनुशासनों के विद्वानों की प्रतिभागिता रेखांकित होगी। इन आयोजनों से नवागत पीढ़ी सहित समाज के विभिन्न वर्गों का संवेदनीकरण किया जायेगा।

प्रतियोगिताओं का आयोजन - समकालीन कला, साहित्य, संस्कृति के विभिन्न विधाओं और उनके युवा रचनाकारों सहित विद्यार्थियों को प्रोत्साहित करने के लिए विभिन्न प्रतियोगिताओं का आयोजन किया जायेगा और उन्हें सामाजिक स्वीकृति दिलाने के पुरस्कृत किया जायेगा । इसमें लुप्तप्राय विधाओं और उसके रचनाकारों को प्रमुखता दी जायेगी ।

स्मरण - मूल्यांकन - भूलने वाले इस दौर में देश के ऐसे महत्वपूर्ण रचनाकारों की कृतित्व के मूल्याँकन हेतु राष्ट्रीय स्तर पर संगोष्ठी, विमर्श आदि का आयोजन तथा प्रकाशन किया जायेगा, जिनका योगदान हिन्दी संस्कृति में विशिष्ट है । जिसमें देश भर के संपादकों, समीक्षकों, आलोचकों एवं वरिष्ठ साहित्यकारों को जोड़ा जायेगा ।

प्रमोद वर्मा स्मृति हिन्दी भवन - राज्य शासन की मदद से राजधानी में प्रमोद वर्मा स्मृति हिन्दी भवन का निर्माण कराया जायेगा । इससे विभिन्न सांस्कृतिक संस्थाओं के आयोजन, राजधानी में ठहरने वाले साहित्यकर्मियों को प्रश्रय मिलेगा और राजधानी में नियमित सांस्कृतिक सम्मिलन को गति मिल सकेगी ।

वेबसाइट का संचालन - प्रमोद वर्मा जी के साहित्य, विचार को वैश्विक बनाने के लिए एक वेबसाइट (www.pramodverma.com) का संचालन किया जा रहा है ।

राज्य स्तरीय साहित्यकर्मी डायरेक्टरी प्रकाशन-राज्य के सभी जिलों और विशेष कर दूरदराज के संस्कृतिकर्मियों, लेखकों के नाम-पते और उनकी विधाओं की जानकारी एक साथ संग्रहीत कर प्रकाशन करना।

इसमें जनता भी सहयोग कर रही है और हम शासन से भी सहयोग की अपेक्षा करते हैं क्योंकि यह एक पंजीकृत संस्थान है । इमसें केदारनाथ सिंह, दिल्ली, डॉ. विजय बहादुर सिंह, कोलकाता, डॉ. विश्वनाथ तिवारी, गोरखपुर, डॉ. धनंजय वर्मा, भोपाल आदि जैसे राष्ट्रीय ख्याति के साहित्यकार संरक्षक हैं । संस्थान के संस्थापक सदस्यों में राज्य के वरिष्ठ बुद्धिजीवी, शिक्षाविद् एवं साहित्यकार सम्मिलित हैं । संस्थान के अपने नियम-कायदे बायलाज है जिसके अनुसार सारी गतिविधियों का संचालन हो रहा है । संस्थान का समस्त समस्त लेखा-जोखा पारदर्शी रखा गया है जिसे कोई भी किसी समय आकर अपनी आँखों से देख सकता है । जो लोग इस संस्था में आर्थिक सहयोग कर पा रहे हैं उन्हें बकायदा संस्थान द्वारा रसीद-दिया गया है ।


राज्य हित में सक्रिय और ऐसे पारदर्शी संस्थानों के विकास की न सोचकर उन पर प्रश्नचिन्ह लगानेवालों को यह भी समझने की कोशिश करनी चाहिए कि देश के किसी शासकीय अधिकारी को संविधान के नियमों द्वारा कला, साहित्य, संस्कृति और विज्ञान के क्षेत्र में काम करने को अनुचित नहीं ठहराया गया है ।

ऐसे मिथ्या आरोपों, कुप्रचारों, कुंठाओं और छूछे निरंकुशता से संस्थान को कोई हानि नहीं होनेवाली है और न ही संस्थान अपनी गतिविधियों पर विराम लगानेवाली......

विश्वरंजन
अध्यक्ष, प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान
रायपुर, छत्तीसगढ़

7/03/2009

राष्ट्रीय ब्लॉग संगोष्ठी रायपुर में

राष्ट्रीय ब्लॉग संगोष्ठी : छपास पीड़ा का इलाज मात्र हैं ब्लॉग?
रायपुर, छत्तीसगढ़
दिनांक 10 जुलाई, २००९

मित्रों,
पिछले दिनों हिन्दी के एक ब्लॉग में पुष्पा भारती के कथन पर गंभीर चर्चा चली थी। पुष्पा भारती ने हिन्दी ब्लॉगों को यह कह कर खारिज कर दिया था कि यहाँ तो भाषाएँ भी बड़ी अजीब है - ब्लॉगर ‘टेंशनात्मक’ लिख रहे हैं – तो ये टेंशनात्मक क्या है? इससे पहले नामवर सिंह जैसे दिग्गज इसे खारिज कर चुके हैं। अलबत्ता राजेंद्र यादव सरीखे कुछ विशिष्ट भविष्यदृष्टा की नजरों में ब्लॉगों के जरिए सृजनात्मकता की असीम संभावनाएँ भी झलकती हैं।

पांच साल के हिन्दी ब्लॉग इतिहास में सृजनात्मकता के लिहाज से क्या कुछ हासिल हुआ और भविष्य का पट क्या कहता है?

क्या ब्लॉग सिर्फ और सिर्फ छपास पीड़ा को जड़ से मारने का इलाज मात्र है या फिर इंटरनेट का यह मल्टीमीडिया युक्त सुगम सरल प्रकाशन सुविधा भविष्य में प्रेमचंद या देवकीनंदन खत्री जैसे लेखकों को पैदा करने की ताक़त रखता है? क्या यहाँ सिर्फ अनर्गल और पानठेलों-पर-की-जाने-वाली-बहस नुमा चीजें छापी जाती हैं या फिर इसमें स्तरीय सामग्री भी आती हैं?

इन तमाम मुद्दों पर गर्मागर्म बहस के लिए एक राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन दिनांक 10 जुलाई, 2009 को 2 बजे से 3 बजे तक रायपुर, निंरजन धर्मशाला में सुनिश्चित किया गया है। यह संगोष्ठी प्रमोद वर्मा स्मृति समारोह के आयोजन के तहत आयोजित किया जा रहा है। इस संगोष्ठी के मुख्य अतिथि रहेंगे देश के महत्वपूर्ण आलोचक एवं भारतीय ज्ञानपीठ के पूर्व निदेशक डॉ। प्रभाकर तथा विशिष्ट अतिथि होंगे – वरिष्ठ कवि एवं आलोचक श्री प्रभात त्रिपाठी, रायगढ़ एवं ए. अरविंदाक्षन, कालीकट तथा इसकी अध्यक्षता करेंगे - प्रसिद्ध ब्लॉगर रविशंकर श्रीवास्तव (रविरतलामी) ।

भागीदारी हेतु आप भी सादर आमंत्रित हैं। प्रतिभागी ब्लॉगर्स के भोजन, आवास की व्यवस्था संस्थान द्वारी की गई है तथा इसके अलावा राष्ट्रीय आलोचना संगोष्ठी में भी भाग ले सकते हैं जिसमें देश के 50 से अधिक वरिष्ठ आलोचक उपस्थित हो रहे हैं ।

संगोष्ठी संयोजक
जयप्रकाश मानस
मोबाइल – 94241-82664
ई-मेल – srijangatha@gmail.com