1/31/2006

डॉ. बल्देव की कविताएँ

एकः कविता

दरअसल कविता आँख है
जिसमें भीतर की दुनिया
बाहर दिखाई देती है

दरअसल कविता हथियार है
जिसमें बाहर की लडाई
भीतर लडी जाती है

दरअसल कविता क्या है
कविता न आँख है न हथियार है
दरअसल कविता
एक नन्हीं-सी गौरेया है
जिसकी चोंच में
सारा आकाश होता है

दोः प्रार्थना

दिग्काल लांघता यातनाओं का सूरज चला गया
प्रार्थनाओं का आकाश में
देखता ही देखता रह गया
थी बूँद भर की प्यास
किन्तु सिन्धु को टेरता ही रह गया
तीनः अनुभव

उथला बह जाता है
गहरा रह जाता है
बाढ का उथला जल
बहा ले जाता है
बह जाता है
गहरा जल बहता हुआ भी
रह जाता है

चारः रोको

रोको
रोको उस आग में नहाती हुई को
रोको उस तेजाब पीते हुए को
रोको
सब कुछ खत्म होने से पहले
इस स्वर्ग-सी
धरती को
नर्क होती धरती को

पाँचः बाँसुरी


छुपाकर यहीं कहीं रक्खी तो थी
बाँसुरी को
नहीं मिल रही है
शायद ले गयी वो
अपने सीने में छुपाए

छहः शून्य

सुख और दुख से परे
सत्य का अनुभव
निराकार होता है
विवेक शून्य में नहीं
वृहत्तर जीवन में जागता है
इसीलिए तो आस्था जरूरी है
इसके बिना
आनंद
निराधार होता है

सातः आसाढ सा प्रथम दिन से

धरती के उतप्त तवे पर
छम-छम नाच रहीं बूँदे
भींज रहा मैं
बाहर-भीतर
एक बीज
आँखें मूँदें

आठः कामना

इसके पूर्व कि लोहा ठंडा हो
हथौडे की चोट से
समय की चाक पर चढा दो
इसके पूर्व कि सूर्य ठंडा हो
पृथ्वी की कोख से
हजारों सूर्य पैदा हों

नौः मृग आखेटक

मृग आखेटक मृग आखेटक
एक न झाडी
एक न जंगल
पथराई आँखें
तप्त मरूस्थल
एकटक
देख रही एकटक

दसः उर्ध्वमुखी-नदी

अजगर जैसे
मुँह को खोले
सरक रही है
काले पहाड पर
नदी आग की
सिंह-शावक इस पार
उस पार मृग-शावक के
त्राण चाहती
इस पर मृगी
उस पार सिंहनी
चकित देखती
नदी आग की
जड-चेतन पर
पसर रही है
लावा जैसी
नदी आग की

(
डॉ. बल्देव हिन्दी व छत्तीसगढी के वरिष्ठ आलोचक हैं । उन्होंने मैथिलीशरण गुप्त से लेकर अभी हाल के महत्वपूर्ण हिन्दी कवि अरूण कमल तक की रचनाओं की ललित निबंध की शैली में समीक्षा की है । किताबें- कविता-वृक्ष में तब्दील हो गई औरत, खिलना भूलकर, सूर्य किरण की छाँव में, धरती सबके महतारी, आलोचना- ढाई आखर, छायावाद और मुकुटधर पांडेय, विश्ववोध, छायावाद एवं अन्य श्रेष्ठ निबंध। संपादक)

1/27/2006

खंडकाव्यः संकटमोचन

प्रथम सर्ग

मंद-मंद स्वच्छंद सुगंधित मलय-पवन
तन-मन के सारे तापों का करे शमन
चारों ओर वृक्ष-पौधों से प्रमुदित वन
मानो ऋतुपति ने पाया चिर आमंत्रण
खगकुल-कल कूजन, भौरों का मधु गुंजन
और सिद्ध-ऋषि-मुनियों का मंत्रोच्चारण
सदा अलौकिक आभा-मंडित वन-प्रांगण
तीर्थ प्रभास जिसे कहते थे ज्ञानी जन

वन-प्रांतर था, सारा वन रजधानी थी
राजा थे केसरी, अंजना रानी थी
क्या ने देवोपम थे, अथवा नर थे वे
कामरूप इच्छाधारी वानर थे वे

यहीं पास ही भरद्वाज का आश्रम था
नदी-स्नान का प्रतिदिन का जिन का क्रम था
धवल नाम का हाथी एक क्षुधातुर था
उसे क्या पता, पीछे राजबहादुर था
ज्यों ही झपटा मुनि पर, राजा हुए विकल
टूट पडे वे तत्क्षण, आहत हुआ धवल
प्राणों की रक्षा से हर्षित थे मुनिवर
कहा केसरी से- “प्रिय, मुझ से माँगो वर”

विद्या-बल-वैभव से आँचल पूरा था
रानी का मातृत्व परंतु अधूरा था
“एक पुत्र ऐसा माँगूँ, जो हो अनन्य”
“एवमस्तु” सुन कर राजा हो गए धन्य

शिव की उपासना में थी अंजना उधर
सब कुछ न्याछावर करने को भी तत्पर
पति-पत्नी जब दृढ निश्चय कर लेते हैं
स्वयं ईश भी आग्रह से वर देते हैं

पुत्र-रूप में रूद्र स्वयं गर्भस्थ हुए
रूद्रवतार से सुर-मुनि आश्वस्त हुए
“विद्या-बुद्धि-शक्ति का अद्भूत समीकरण
सदाचार-सेवा का होगा उदाहरण
चिरंजीव होगा सुत पाएगा वंदन
परहित धर्म निभाएगा संकटमोटन ”

अंतर्धान हुए शिव दे कर दान महा
श्रद्धा से सब सुलभ, किसी ने ठीक कहा

तीन रानियाँ थीं कोसलपति दशरथ के
निष्फल कभी न होते राही सत्पथ के
संसृति के सार-रूप की परिणति है
संतति की चिंता से राजा थे विह्वल
उन के पास नहीं था उस का समुचित हल
गुरु वसिष्ठ ने किया यज्ञ-का आयोजन
“अग्निदेव का दान ग्रहण कर लो राजन् ”
चार प्रतापी पुत्रों के तुम अधिकारी
रह जाएगी और न कोई लाचारी ”
कौसल्या –कैकयी के हिस्से दे कर
ज्यों ही उए सुमित्र को देने तत्पर
क्षीर की जगह चंचु आ गया दोने में
क्षण भर लगा चील को ओझल होने में
क्षीर वस्तुतः और किसी को मिलना था
शिव-पसाद से भाग्य किसी का खिलना था
छूटा दोना, चील-चंचु से गिरा वहाँ
अंजलि खोले तपोनिरत अंजना जहाँ
पवनदेव ने कहा-“शुभे, यह ग्रहण करो
यह चरु शिव का पत्र-प्राप्ति-वर वरण करों ”
चैत्र शुक्ल का एकादश था मंगलवार
जिस दिन मेरा हुआ इस धरा प अवतार
मिला अंजना माता को यह धन अमूल्य
पटरानी का सुख-वैभव भी था अतुल्य
हुआ असाधारण उत्सव का आयोजन
सिद्ध-साधकों, तपस्वियों का शुभागमन
दिया सभी ने मुझ को वह आशीर्वचन
जिस को पा कर धन्य हुआ मेरा जीवन
जिस के स्मरण-मात्र से खिल जाता है मन
सचमुच कितना प्यारा होता है बचपन
जहाँ न कोई सीमा और नहीं बंधन
सचमुच बचपन वही, वही सचमुच बचपन
चंचल बच्चों को कपि कहने का प्रचलन
कपि के बचपन का अनुपम है उदाहरण
भूख लगी, देखा मैं ने घर सूना है
माँ न अगर हो घर में, तो दुख दूना है
पिता केसरी नहीं, बढ गया सूनापन
तीव्र भूख से व्याकुल तन था, व्याकुल मन
फल की इच्छा से देखा जब इधर-उधर
पत्तों से भी थे विहीन सारे तरुवर
पतझर थी, पर भूख भूख ही होती है
तभी लाल गोलाकृति-सा फल दीख पडा
मन में हलचल मची, नहीं रह सका खडा
पवन-वेग से उडने लगा खाद्य की ओर
पता नहीं था, वह इतना होगा अछोर
बढता जाता नभ-पथ में आगे-आगे
लगता मानो वह फल भी भागे-भागे
क्षण भर को मन खिन्न हुआ, पर थका नहीं
ऐसी इच्छा क्या, जिस को पा सका नहीं
ज्यों ही आगे बढा, प्रतनु हो गया समीर
लगा तैरने स्वयं हवा में सूक्ष्म शरीर
कुछ क्षण बाद लगा, यह तन जल जाएगा
फल का जो इच्छुक, वह क्या फल पाएगा
वह फल नहीं, सूर्य था, उस दिन सूर्यग्रहण
अंधकार से ग्रसित हो गया धरावरण
राहु इस तरह भी उत्पात मचाता है
कभी न देखा, जाने कौन बचाता है
इंद्रदेव की ओर सभी का ध्यान गया
अभिमानी से कहाँ अभिमान गया
उसने छोडा वज्रवाण, मैं क्षुबब्ध हुआ
हुआ पर्वताकार, सूर्यमंडल के पास
लोगों ने सोचा- यह कोई महाग्रास
ज्योंही भूतल पर मैं लौटा संज्ञाहीन
मता-पिता तुरंत हो गए सेवालीन
माँ को स्नेह-स्पर्श दे गया नवजीवन
पिता भवन का भी मझ को संरक्षण
लगता है अभिशाप, मिला वरदान मुझे
वज्र-अंग, “बजरंग” मिली पहचान मुझे
“हनूमान” यह नाम तभी से प्रचलन में
मैं ही “शंकरसुवन” “ केसरीनंदन” मैं
“आंजनेय”, “मारुति”, आदिक नामों का सार
स्वतः सिद्ध करता है नामों का आधार
नाम-रूप का द्वंद्व सदा भटकाता है
इसीलिए मुझ को कुरूप भी भाता है

वानर जाति, स्वभाव सदा है उच्छृंखल
यज्ञ आदि कर्मों में निरत तपस्वीदल
मैं शिशु, मुझ को ज्ञान-ध्यान से क्या मतलब
घर या बाहर, मुझ को लगें बराबर सब
खेल-खेल में वृक्ष उखाडा करता था
आश्रम-यज्ञस्थली उजाडा करता था
ऋषि-मुनि-तापस सब मुझ से संत्रस्त हुए
विस्मृति को अभिशाप दिया, आश्वस्त हुए

रूप-शक्ति को अगर याद करता रहता
मद का घडा अभी तक क्या भरता रहता
अहंकार के रहते क्या प्रभु मिल पाते
होंठ राम गुण गाने का क्या हिल पाते

(डॉ. चित्तरंजन कर देश के प्रख्यात भाषाविद् हैं । वर्तमान में पं. रविशंकर विश्वविद्यालय में अध्यक्ष, साहित्य एवं भाषा अध्ययनशाला के पद पर कार्यरत हैं । अभी तक इनकी भाषाविज्ञान की 10 साहित्य-समीक्षा की 14 पुस्तकें एवं 51 शोध पत्र राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं । इनके निर्देशन में 16 छात्रों ने पी-एच. डी. एवं 100 छात्रों ने अम.फिल किया है । छत्तीसगढी गीत, हिन्दी बालगीत एवं समकालीन कविता के क्षेत्र में इन्हें विशेष रूप से जाना जाता है । संगीत से गहरी अभिरूचि है इन्हें । हाल ही में उनका एक खंडकाव्य “ संकटमोचन” नाम से प्रकाशित हुआ है जिसमें हनूमान के चरित्र को नये आयाम से उभारा गया है । हिन्दी साहित्य की दृष्टि से इसे महत्वपूर्ण कृति मानी जा रही है । इस खंडकाव्य में कुल 11 सर्ग हैं जिसे हम क्रमशः सृजन-सम्मान की ओर से हमारे पाठकों के लिए प्रकाशित कर रहे हैं । प्रस्तुत है प्रथम सर्ग । हम अपने पाठकों की राय का बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं । संपादक )

1/26/2006

शंभूलाल शर्मा वसंत की 10 बाल कविताएँ

सूरज दादा

सूरज दादा करवा लो तुम
जल्दी से उपचार ।

तेज बुखार चढा है तुमको
कुछ तो करो विचार ।

उचित नहीं है इस हालत में
करना कुछ भी काम ।

कम से कम दोपहरी में तुम
करो तनिक विश्राम ।

चंदामामा

मत देखो जी घूर-घूर,
इक तो रहते दूर-दूर ।

तारों के संग बढिया-से
पर बेचारी बुढिया से ।

चरखा नित कतवाते हो,
उस पर तरस न खाते हो ।

रूप बदल नित आते हो,
बादल से घबराते हो।

मामाजी कहलाते हो,
फिर काहे शरमाते हो।

अभिमानी बादल

बादल ये कितने अभिमानी,
जब चाहे करते मनमानी ।

बिन मौसम चौमास रचाकर,
करते हैं कितनी शैतानी ।

खेत-खार के फसल सडाकर
तोडे कितने छप्पर-छानी ।

सर पर हाथ धरे रह जाते
कृषकों को होती हैरानी

रंग-भंग कर देते कितने
बरसा जाते जमकर पानी ।

सागर की छोरी


रिमझिम गाती लोरी है,
सागर की वह छोरी है ।

तेवर जब दिखलाती है,
जमकर शोर मचाती है ।

तड-तड बिजली चमकाती,
बाढ भयंकर ले आती ।

सूरज भी इससे डरता,
जो जग को रोशन करता ।

जीवन सबका पानी है,
देती बरखा रानी है ।

कर देंगे हंगामा


मामा, सुन लो ध्यान से ,
एक दिन अपने यान से ।

चन्द्रलोक में आयेंगे,
तुमसे हम बतियायेंगे ।

और तुम्हारी बस्ती में,
झूम-झूमकर मस्ती में ।

तनिक सुधा रस पी लेंगे,
तारों के संग फिर खेलेंगे ।

नील गगन में हंगामा,
कर देंगे चन्दामामा ।

कोयल रानी


बात करो नहीं जोर से,
उड जाती है शोर से ।

पेड लदे हैं बौर से,
देखना उसको गौर से ।

इक सुन्दर वह प्राणी है,
मीठी उसकी वाणी है ।

अमराई में आती है,
कुहू-कुहू वह गाती है ।

लगती बडी सुहानी है,
वह तो कोयल रानी है ।

जंगल


हैं बंदर, भालू, शेर,
तोते हैं, मोर, बटेर ।

ये हरे-भरे हैं पेड,
इनको तू कभी न छेड ।

हैं कंद-मूल-फल भरे,
गाय और बकरियां चरें ।

यदि काटे कोई पेड,
तो जाकर उसे खदेड ।

हो जंगल का विस्तार,
करना है उससे प्यार ।

पर्वत


गले लगते हैं नभ से,
अडिग खडे हैं ये कब से ।

लगते सीधे-सादे हैं,
इनके नेक इरादे हैं ।

मेघों से बतियाते हैं,
वर्षा खूब कराते हैं ।

तूफाँ-आँधी आते हैं,
इनसे टकरा जाते हैं ।

कभी न शीश झुकाते हैं,
ये पर्वत कहलाते हैं ।

मेरा गाँव

प्यारा-प्यारा मेरा गाँव,
अजब निराला मेरा गाँव ।

चहुँ दिशाएँ पेड घनेरे,
देते सबको ठंडी छाँव ।

पशु-पक्षी के मन हर लेते,
बाग-बगीचे ठाँव-ठाँव ।

श्रम के बल पर लोग यहाँ के,
धरें उन्नति-पथ पर पाँव ।

सह लेते मौसम के तेवर,
पर न खोते अपने दाँव ।

तोता


छेडो मत गुस्साता है,
पुचकारों तो गाता है ।

चोंच नुकीली लाली है,
इसकी बात निराली है ।

कितनी मीठी वाणी है,
हरे रंग का प्राणी है ।

बागों में भी जाता है,
मीठे फल वह खाता है ।

पालो पर स्वच्छंद रखो,
पिंजडे में मत बंद रखो ।

(शंभूलाल शर्मा वसंत समकालीन बाल साहित्य के वरिष्ठ स्तम्भ हैं । पेशे से शिक्षक हैं । अब तक इनकी 400 बाल कविता, शिशुगीत हिन्दी की महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में छप चुकी हैं । कई पुरस्कारों से सम्मानित हैं वे । उनकी कृतियों में -मामी जी की अमराई, सतरंगी कलियाँ, चंदामामा के आँगन में, मेरा रोबोट आदि काफी लोकप्रिय हुईं हैं । प्रकृति और पर्यावरण को लेकर लिखने वाले बाल साहित्यकारों में उनकी विशिष्ट छवि है । शहर से दूर गाँव में उनका डेरा है । वैसे हम उनका पता बताये देते हैं- श्री शंभूलाल शर्मा वसंत, शिव कुटीर, मुकाम-करमागढ, पो.आ. हमीरपुर, व्हाया तमनार, जिला रायगढ(छत्तीसगढ), 496106 । संपादक)

1/25/2006

प्रेमचंद-कुछ यादें, कुछ छोटी-बडी बातें


प्रेमचंदः कुछ यादें
धनपत राय उर्फ नवाब राय यानी प्रेमचंद नाम है उस अजीम शख्सियत का जिसने कथा-साहित्य के क्षेत्र में हिन्दी तथा उर्दू भाषा-भाषियों के बीच अपनी अमिट छाप छोडी है। तुलसी के बाद यदि भारत में कोई सर्वाधिक लोकप्रिय साहित्यकार हुआ है तो वह निर्विवाद रूप से प्रेमचंद ही हैं जिनके उपन्यासों तथा कहानियों ने हिन्दी और उर्दू भाषा-भाषी राज्यों के घर-घर और जन-जन के बीच तो अपनी पैठ बनायी ही है, अहिन्दी भाषा-भाषी राज्यों और विदेशों में भी जिनकी कालजयी रचनाओं के अनुवादों ने पाठकों का मन मोह लिया है ।
प्रेमचंद की रचनाओं में जो ताजगी और प्रासंगिकता अपने रचना-काल के समय थी वह आज भी कायम है और संभवतः आने वाले समय में भी लम्बे समय तक यथास्थिति बनी रहेगी । इतना जरूर है कि पिछले छःसात दशकों में देश की राजनीतिक और सामाजिक परिदृश्य में बदलाव आ जाने के कारण कुछ रचनाओं को उस समय के परिदृश्य और परिस्थितियो को ध्यान में रखकर पढना होगा ।
प्रेमचंद की दूर-दृष्टि विलक्षण थी । उनका यथार्थवादी साहित्य अपने समय के समाज, घटनाक्रमों तथा परिस्थितियों का आईना तो है ही, सुदूर भविष्य के बारे में भी उनके विचार और दृष्टिकोण सत्य की कसौटी पर शत-प्रतिशत खरे उतर रहे हैं । बीसवीं शताब्दी के आरम्भ से चौंथे दशक तक की तमाम ज्वलंत सामाजिक और राजनीतिक समस्याओं, यथा विदेशी शासकों द्वारा किया जा रहा शोषण और अत्याचार, प्रशासन तंत्र की जडों तक समाया भ्रष्ट्राचार, जमींदारों का जुल्म, दलितों और गरीबों का उत्पीडन, बाल-विवाह, विधवा-विवाह जाति एवं वर्ग भेद, दहेज की कुप्रथा, नारी की व्यथा आदि विविध विषयों पर तो उन्होंने पुरजोर तरीके से कलम चलायी ही है, जनसंख्या विस्फोट और परिवार नियोजन जैसी ज्वलंत समस्या, जिसकी आज से सात-आठ दशक पहले न कहीं चर्चा थी और न कभी किसी बुद्धिजीवी ने इस विषय पर चिन्तन ही किया था, उन्होंने अपने कथा-पात्रों के माध्यम से गंभीर परिणाम की चेतावनी दे डाली थी जो आज सत्य की कसौटी पर कितनी सही साबित हो रही है यह किसी से छिपा नहीं ।
प्रेमचंद के कृतित्त्व पर, उसकी प्रासंगिकता पर अब तक काफी चर्चा हो चुकी है, बहुत कुछ लिखा जा चुका है तथा उसका पर्याप्त मंथन, समीक्षा, आलोचना एवं समालोचना हो चुकी है और अभी आगे भी होती रहेगी । देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों में अब तक चार सौ से अधिक शोधार्थियों द्वारा प्रेमचंद पर शोध-प्रबन्ध प्रस्तुत किये जा चुके हैं जिनपर उन्हें डाक्टरेट की उपाधियां प्रदान की गयी हैं, परन्तु प्रेमचंद की निजी जिन्दगी के अनेकानेक ऐसे अछूते प्रसंग है जिनसे उनकी लेखन के प्रति प्रतिबद्धता, तन्मयता, विनोद-प्रियता, वाक्-पटुता, सरल और निश्छल स्वभाव तथा सीधी-सादी आडम्बर-रहित जिन्दगी पर प्रकाश पडता है । प्रेमचंद परिवार के वरिष्ठतम जीवित सदस्य के रूप में आज मैं यहां ऐसे ही रोचक और प्रेरक प्रसंगों का उल्लेख करना चाहता हूँ जिनके सम्बन्ध में पारिवारिक दायरे के बाहर शायद अभी कम ही लोगों को जानकारी होगी ।
प्रेमचंद बडे ही स्वाभिमानी व्यक्ति थे और सम्मानपूर्ण जिन्दगी जीने तथा बाल-बच्चों की परवरिश के लिए उन्हें सतत संघर्षरत रहना पडा । प्रारंभिक वर्षों में वह सरकारी शिक्षा विभाग में नौकरी करते रहे और बाद को अपना स्वयं का प्रेस तथा प्रकाशन व्यवसाय सँभालते रहे । कुछ वर्षों तक तो उन्हें इस कार्य में अपने अनुज महताब राय का सक्रिय सहयोग प्राप्त रहा, किन्तु पारिवारिक कारणों से बाद में इसमें टूटन आ गयी और सारा भार अकेले उन्हीं के कन्धों पर आ पडा । इस प्रकार उनका दिनभर का समय तो नौकरी करने और बाद को अपने व्यवसाय की देखरेख में गुजर जाता था । अपना समस्त लेखन कार्य वह प्रातःकाल तथा रात्रि के समय लैम्प की रोशनी में किया करते थे, वह भी ऐसे समय में जब न तो आमतौर पर फाउन्टेन-पेन का प्रचलन था और न डॉट-पेन का अस्तित्व । फाउन्टेन-पेन तो उस समय विलासिता की वस्तु समझी जाती थी और उसका उपयोग सम्पन्न लोगों तक ही सीमित था । सामन्यतः लोग लिखने का काम निब वाली कलम से बार-बार स्याही में डुबोकर किया करते थे । प्रेमचंद ने अपने जीवन-काल में जितना कुछ हिन्दी में लिखा है, उससे कहीं अधिक उर्दू में भी लिखा है । दोनों ही भाषाओं में उनकी रचनाएँ अपना मौलिक स्वरूप लिए हुए हैं । उन्होने पर्याप्त अनुवाद-कार्य भी किया है और पत्रकारिता के क्षेत्र में भी उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा है । आंग्ल भाषा के भी वह अच्छे ज्ञाता थे और अँग्रेजी तथा उर्दू कथा साहित्य का उन्होने गहन अध्ययन किया था । चाहे उर्दू से हिन्दी में, हिन्दी से उर्दू में अथवा अँग्रेजी से हिन्दी –उर्दू में अनुवाद हो, अनूदित रचनाओं को भी मौलिकता का जामा पहिनाना उनकी विशेषता थी । यही कारण है कि पं. जवाहर लाल नेहरु ने आचार्य नरेन्द्र देव के माध्यम से प्रेमचंद से विशेष रूप से अनुरोध करके अपनी पुत्री(इंदिरा) के नाम जेल से लिखे गये अपने अति मार्मिक एवं शिक्षाप्रद पत्रों का हिन्दी और उर्दू भाषाओं में अनुवाद उन्हीं से कराया था । नेहरु जी की ओर से प्रस्ताव के बवजूद प्रेमचंद ने इस कार्य के लिए कोई पारिश्रमिक लेना स्वीकार नहीं किया । उक्त पत्रों के संकलन तीनों ही भाषाओं में पुस्तकाकार प्रकाशित हुए हैं । उत्कृष्ट अनुवाद के लिए नेहरु जी ने प्रमचंद के प्रति विशेष रूप से आभार व्यक्त किया था । इस प्रकार देखा जाय तो अपने मात्र 55 वर्ष के जीवन-काल में प्रेमचंद के अत्यन्त संघर्षपूर्ण जीवन व्यतीत करते हुए इतना अधिक लेखन कार्य किया है कि उसकी कल्पना भी सामान्य जन द्वारा नहीं की जा सकती । इसीलिए तो सुप्रसिद्ध रचनाकार एवं प्रेमचंद के यशस्वी पुत्र अमृत राय ने उन्हें “कलम का सिपाही” माना है, हांलाकि बहुचर्चित समीक्षक एवं शोघकर्मी, अलीगढ विश्वविद्यालय के जनाब जैदी साहब ने उन्हें “कलम का सौदागर” तक कह डाला है । उस कलम के फनकार को कलम का जादूगर तो कहा जा सकता है किन्तु उसे कलम का सौदागर कहना उसके साथ सरासर अन्याय होगा क्योंकि सभी जानते हैं कि उस जमाने में उनका बेजोड साहित्य कौडियों के मोल बिकता रहा जो आज आज अनमोल रत्न बन चुका है ।

तन्मयता और प्रतिबद्धता
लेखन कार्य के प्रति प्रेमचंद की तन्मयता और प्रतिबद्धता के सम्बन्ध में एक प्रेरक प्रसंग पाठकों की जानकारी के लिए प्रस्तुत कर रहा हूँ। बात वर्ष 1922-23 की है । मेरे पिता तथा प्रेमचंद के एकमात्र अनुज स्व. महताब राय उन दिनों काशी से प्रकाशित प्रसिद्ध हिन्दी दैनिक “आज” के प्रेस-व्यवस्थापक थे । एक दिन प्रेस से छुट्टी मिलने पर वह अपने अभिन्न मित्र तथा “आज ” परिवार के ही वरिष्ठ सहयोगी पण्डित छबिनाथ पांडेय के साथ उनके घर चले गये । वहाँ खाते-पीते रात के दस बज गये । जब महताब राय उस समय की खस्ताहाल सडक पर साइकिल चलाते लमही ग्राम स्थित अपने घर लौटे तो रात के 11 बज चुके थे । उन्होंने आहिस्ता से दरवाजे की कुण्डी खटखटायी, किन्तु घर में प्रतीक्षारत बैठी मेरी माता जी के दरवाजा खोलने से पहले ही ऊपर की मंजिल में सोये प्रेमचंद की श्वान-निद्रा भंग हो गयी और वह खिडकी से झाँक कर बोले, “बडी देक कर दी छोटक” वह अपने अनुज को छोटक कहकर सम्बोधित करते थे । छोटक बिना कोई उत्तर दिये चुपचाप अन्दर चले गये, क्योंकि घर लौटने में देर तो हो ही गयी थी । जब वह सोकर उठे और लोटे में पानी लेकर शौच के लिए खेत की ओर जाने लगे तो बाहर चबूतरे पर बैठे प्रेमचंद दातुन-कुल्ला कर रहे थे । छोटक को देखकर बोले, “छोटक, रात जब तुम लौटे तो कोई तीन बज रहा होगा । इतनी रात तक कहाँ रूक गये थे ?”
छोटक अपने से उम्र में 14 वर्ष बडे भाई का पिता के समान आदर और सम्मान करते थे।सिर नीचा किये दबी जबान से उत्तर दिया, “नहीं भैय्या, उस समय 11 बजे थे । प्रेस से उठा तो छविनाथ जी अपने साथ लिवाते गये । वहीं खाते-पीते 10 बजे गये थे।”
प्रेमचंद मुस्कराते हुए बोले, “मैंने तो समझा कि सबेरा होने को है । सो तभी से बैठा लिख रहा था । समय का अन्दाज ही नहीं रहा ।”
भैया की बातें सुनकर छोटक न केवल आश्चर्यचकित रह गये बल्कि मन ही मन अपराध-बोध का अनुभव करते हुए सोचने लगे कि उनके कारण नाहक भैया की नींद उचट गयी और वह सारी रात सो नहीं सके । परन्तु प्रेमचंद के चेहरे पर उस समय भी थकान का नामो-निशान न था और वह तरो-ताजा दिख रहे थे ।
8 अक्टूबर 1959 को प्रेमचंद की 23 वीं पुण्यतिथि के अवसर पर जब देश के प्रथम राष्ट्रपति देशरत्न डॉ.राजेन्द्र प्रसाद लमही ग्राम में प्रेमचंद स्मारक का शिलान्यास करने आये हुए थे, उस समय अपने स्वागत-भाषण में भी महताब राय ने उक्त घटना का उल्लेख अश्रुपुरित नेत्रों से किया था । ऐसी थी प्रेमचंद की तन्मयता कि लिखते समय उन्हें समय की सुधि-बुधि नहीं रहती थी । शायद उनकी विलक्षण सृजन-क्षमता का राज भी यही था । रात के समय उनके कमरे में मिट्टी के तेल से जलने वाला लैम्प कभी बुझाया नहीं जाता था । लेटते समय वह लैम्प की बत्ती थोडी नीची कर दिया करते थे ताकि यदि रात में कोई नई थीम या विचार उनके दिमाग में आये तो वह तुरन्त लैम्प की बत्ती उसका कर अपने विचारों को लिपिबद्ध कर सकें ।
एक बार की बात है कि प्रेमचंद अपने मकान के सामने पत्थर के चबुतरे पर बैठे नाई से हजामत बनवा रहे थे । दाढी बनाने के बाद नाई ने अपनी चमडे की पिटारी से नहरनी निकाली और प्रेमचंद के हाथ की उँगलियों के नाखून काटने लगा । हर उँगली का नाखून वह पाँच-छः प्रयास में छोटे-छोटे टुकडों में कुतर-कुतर कर निकाल रहा था । प्रेमचंद से देखा न गया । मजाकिया लहजे में बोले, “क्यों जी नियामत(गाँव का हज्जाम), एक लखनऊ के हज्जाम होते हैं जो उँगली के एक सिरे पर नहरनी लगाते हैं और एक ही बार में आहिस्ता से दूज के चाँद जैसा नाखून का खूबसूरत टुकडा तराश कर रख देते हैं, एक तुम हो कि एक-एक नाखून पाँच-छः हुचक्कों में कुतर रहे हो ।” इतना कह कर वह ठहाका लगा कर हँस पडे । नाई को बेहद शर्मिन्दगी महसूस हुई ।
एक समय था जब प्रेमचंद की विशिष्ट पहचान उनके सेब जैसी गुलाबी गालों, लम्बी-घनी काली मूँछों और स्वच्छंद अट्टहास से हुआ करती थी । वह कोई चुटीली बात कहकर इतने जोर का ठहाका लगाते थे कि कमरा हिल उठता था और घर के बाहर तक उनका मुक्त हास सुनायी पडता था । कालान्तर में धीरे-धीरे उदर रोग ने उनके चेहरे की कान्ति फीकी कर दी और बडी-बडी गुच्छेदार मूँछों के स्थान पर वह होठों के बराबर छोटी मूँछें रखने लगे थे ।

तोहसे नाहीं देख जात हौ का ?
एक दिन प्रेमचंद के मकान से सटे पक्के कुएँ पर अन्तू महतो का पुरवट चल रहा था । दोपहर के समय प्रेमचंद नहाने के लिए वहाँ पहुँचे । अन्तू अपनी खरी-खोटी बातों और कडक-मिजाजी के लिए कुख्यात था । यद्यपि गाँव के रिश्ते के नाते वह प्रेमचंद को चच्चा कहकर सम्बोधित करता था और उम्र में भी उनसे छोटा ही था, फिर भी अपने तीखे स्वभाव के अनुरुप उसने प्रेमचंद से एक बतुका प्रश्न दाग ही दिया, “कहो चच्चा, आजकल तूँ कुछ करत-धरत नाहीं हौ अ, देखीला दिनवा भर घर ही में घुसुरल रहै ल--। खेतो-बारी थोडिकै है और उहो अधिया पर उठल हौ । आखिर तोहार खरचा-खोराकी कैसे चलैला ।” प्रेमचंद पहले तो अन्तू के प्रश्न पर खूब हँसे और फिर नहले पर दहला रखते हुए बोले, “अरे अन्तू तू काहे के पेरशान हौअ...। आजतक कभों तोहसे त कुछ माँगे नाहीं गइली । केहू क .... चैन से घरे बइठलो तोहसे नाहीं देख जात हौ का ।” इस करारे उत्तर पर अन्तु महतो अपना सा मुँह लेकर रह गये । अपनी मोटी कृषक बुद्धि के कारण उन्हें क्या पता था कि एक बुद्धिजीवी घर में बैठकर भी अपनी सृजनशीलता और बुद्धिबल से कलम घिसकर कमायी कर सकता है । वह तो काम धन्धे का मतलब किसी नौकरी-चाकरी या व्यवसाय को ही मानता था ।
प्रेमचंद के तमाचे की याद
प्रेमचंद का मकान गाँव के बिल्कुल उत्तरी छोर पर स्थित था । उसके बाद आमों का बाग, बाँसों के झुरमुट और फिर खेत-खलिहान थे । एक दिन की बात है कि उनके घर के उत्तर स्थित बाग में गाँव के कुछ लडकों के साथ मैं भी आम के पेड पर ढेलेबाजी कर रहा था । हम लोगों का लक्ष्य था आम की उँची टहनी पर लटक रहा चार पके आमों का गुच्छा । काफी प्रयास के बाद भी हम लोगों को आम का वह गुच्छा गिराने में कामयाबी नहीं मिली । खूब शोर-शराबा मचा रखा था हम लोगों ने । प्रेमचंद अपने कमरे में बैठे कुछ लिख रहे थे । शायद हम लोगों के हल्ले-गुल्ले से उनकी एकाग्रता भंग हो रही थी । वह कमरे से बाहर निकले और हम लोगों की कल्पना के विपरीत डाँटने के बजाय मुस्कराते हुए बोले, “तुम लोग कब से ढेलेबाजी कर रहे हो और आम का एक गुच्छा भी मार कर नहीं गिरा सके । लाओं, एक ढेला मुझे दो, मैं देखता हूँ ।” उन्होंने एक ढेला लेकर पके आम के गुच्छे को लक्ष्य कर ऐसा निशाना लगाया कि एक ही बार में चारों पके आम जमीन पर गिर कर बिखर गये । उन्होंने हम बच्चों को आम बाँटते हुए कहा, “अच्छा, अब यहाँ से रफ्फूचक्कर हो जाओ । मुझे फिर शोर नहीं सुनायी पडना चाहिए ।”हम लोग आम चूसते हुए चुपचाप वहाँ से खिसक गये । उसके बाद कई दिनों तक बच्चों की वहाँ आने की हिम्मत नहीं हुई ।
15-20 दिनों बाद अचानक फिर कुछ बच्चे खेलते हुए उसी बाग में आ पहुँचे । उन्हें देखकर मैं भी अपने बडे भाई रामकुमार राय के साथ वहाँ जा पहुँचा । प्रेमचंद के कमरे में खिडकी बंद थी । हम लोगों ने समझा कि वह कमरे में नहीं हैं । फिर आम पेड पर ढेलेबाजी शुरू कर दी । इसी बीच संयोगवश लालू (रामचन्दर लाल) नामक एक लडके के हाथ से छूटा एक नुकीला ढेला बहक कर मेरे बडे भाई की कनपटी के ऊपर आ लगा और खुन बहने लगा । वह जोर-जोर से रोने लगे । आवाज सुनकर प्रेमचंद दरवाजा खोलकर गुस्से से तमतमाये कमरे से बाहर निकले और लालू, जिसके हाथ से छूटा ढेला भाई की कनपटी पर आ लगा था, का कान ऐंठकर ऐसा तमाचा रसीद किया कि उसकी सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई । भन्नाता सिर लिए वह भाग खडा हुआ और कई महीने तक वह प्रेमचंद के घर के करीब नहीं दिखलाई नहीं पडा । बच्चों के खातिर खुद बच्चा बनकर एक दिन पेड पर ढेले का अचूक निशाना साधने और हम बच्चों को पके आमों का तोहफा देने वाले प्रेमचंद के क्रोध का पारा उस दिन अपने परिवार के एक बच्चे के सिर से बहते खून को देख कर इस चढ गया कि वह आपे से बाहर हो गया और ढेला चलाने वाले बच्चे को ऐसा करारा तमाचा जड दिया कि उसे नानी याद आ गई । उस समय का लालू नामक वह लडका कब का सरकारी सेवा से अवकाश ग्रहण कर अब बुढापे के दिन गुजार रहा है । बातों-बातों में जब कभी उसे प्रेमचंद द्वारा जमाये गये तमाचे की याद दिलायी जाती है तो आज भी उसे अपने गाल पर उस तमाचे की गरमाहट महसूस होने लगती है । फिर भी उसे उस बात का फख्र है कि बचपन में वह प्रेमचंद के जैसे महापुरूष के हाथों एक तमाचा खा चुका है, भले ही उसका अपराध अनजाने में किया गया रहा हो ।

खेलों का राजाः गुल्ली डण्डा
प्रेमचंद को ढेले से अचूक निशाना लगाने के साथ ही गाँवों के लोकप्रिय खेल गुल्ली-डंडा में भी महारत हासिल थी । प्रायः फुर्सत के समय वह गाँव के हम-उम्र लोगों के साथ इस खेल का लुत्फ उठाया करते थे । इसकी झलक “गुल्ली-डंडा” शीर्षक प्रसिद्ध कहानी में भी देखने को मिलती है । आइये, जरा आनंद तो लें उनके इस पंसदीदा खेल का स्वयं उन्हीं के शब्दों में-
“हमारे अंग्रेजीदाँ दोस्त माने या न माने, मैं तो यही कहूँगा कि गुल्ली-डंडा सब खेलों का राजा है । अब भी कभी लडकों को गुल्ली-डंडा खेलते देखता हूँ तो जी लोट-पोट हो जाता है कि उनके साथ जाकर खेलने लगूँ । न लॉन की जरूरत, न कोर्ट की, मजे में किसी पेड से एक टहनी काट ली, गुल्ली बना ली और दो आदमी भी आ गये तो खेल शुरू हो गया ।....यह गुल्ली-डंडा है कि बिना हर्र-फिटकिरी के चोखा रंग देता है।....मुझे गुल्ली ही सब खेलों से अच्छी लगती है और बचपन की मीठी स्मृतियों में गल्ली ही सब खेलों से मीठी है । वह प्रातःकाल घर से निकल जाना, वहाँ पेड पर चढकर टहनियाँ काटना और गुल्ली-डंडा बनाना, वह उत्साह, वह लगन, वह खिलाडियों का जमघट, वह पदना और पदाना, वह लडाई-झगडे, वह सरल स्वभाव जिसमें छूत-अछूत, अमीर-गरीब का बिल्कुल भेद न था, जिसमें अमीराना चोंचलों के प्रदर्शन की, अभिमान की गुंजाइश ही न थी । घर वाले बिगड रहे हैं, पिता जी चौके पर बैठे वेग से रोटियों पर अपना क्रोध उतार रहे हैं, अम्मा की दौड केवल द्वार तक है लेकिन उनकी विचारधारा में मेरा अंधरकारमय भविष्य टूटी हुई नौका की तरह है और मैं हूँ कि पदाने में मस्त हूँ । न नहाने की सुधि है न खाने की । गुल्ली है जरा सी, पर उसमें दुनिया की मिठाइयों की मिठास तमाशों का आनन्द भरा है ।”
प्रेमचंद की निजी जिन्दगी से जुडे ऐसे ही छोटे-मोटे प्रसंगों की याद जेहन में कौधा करती है जिन्हें फिर कभी अवसर मिलने पर लिखूँगा ।
-00-
(प्रेमचंद परिवार के जीवित सदस्यों में सबसे वरिष्ठ कृष्ण कुमार राय का मार्मिक संस्मरण । हम उनकी रचनात्मकता पर कृतकृत्य हैं । उनकी प्रकाशित कृतियों में बीसवीं सदी के सर्वश्रेष्ठ कथाकार प्रेमचंद, गल्प समुच्चय(अंबिका प्रसाद दिव्य पुरस्कार) तरंगिणी व देवी वारांगणा महत्वपूर्ण हैं । 81 वर्ष की अवस्था में भी लगातार सृजनरत हैं । संपर्क है उनका- कृष्ण कुंज, एस.2-51ए, अर्दली बाजार, अधिकारी हॉस्टल के समीप, वाराणसी, (उ.प्र.)221002 -संपादक )

1/17/2006

सृजन-सम्मान का मोनो







वागर्थ प्रतिपत्तये । यही है हमारी संस्था का आदर्श वाक्य और उपरोक्त चित्र ही है सृजन-सम्मान का मोनो । जिसमें कलम सृजनात्मकता, पुस्तक रचनात्मकता और अक्षर आलोक का प्रतीक है । इस की संकल्पना रविशंकर विश्वविद्यालय रायपुर,भाषाविज्ञान विभाग के प्रमुख व वरिष्ठ साहित्यकार डॉ.चित्तरंजन कर जी ने की है । इसकी रचना जाने माने ग्राफिक्स डिजाईनर श्री किशोर गनोदवाले ने की है । संस्था के मोनो का लोकार्पण श्री प्रभाष जोशी, वरिष्ठ पत्रकार, नई दिल्ली ने हिन्दी दिवस 2004 को रायपुर में आयोजित चतुर्थ अखिल भारतीय साहित्य महोत्सव के अवसर पर किया था श्री गनोदवाले युवा पीढी के सशक्त चित्रकार हैं, जिनकी कलाकृतियों में आधुनिकता और परंपरा का अनोखा संगम मिलता है । संपादक-सृजन-सम्मान

मानस को 2005 का अबिंकाप्रसाद दिव्य पुरस्कार


युवा कवि एवं ललितनिबंधकार जयप्रकाश मानस को उनके चर्चित ललित निबंध संग्रह “दोपहर में गाँव ”के लिए वर्ष 2005 का अंबिकाप्रसाद दिव्य रजत अलंकरण पुरस्कार दिया गया है । श्री मानस को यह सम्मान भारतीय ज्ञानपीठ के निदेशक एवं ज्ञानोदय के संपादक श्री प्रभाकर क्षोत्रिय द्वारा प्रदान किया गया । हिन्दी साहित्य जगत् में अत्याधिक लोकप्रिय माना जाने वाला यह पुरस्कार यशस्वी उपन्यासकार, कवि, चित्रकार एवं साठ से महत्वपूर्ण ग्रंथों के सर्जक स्व.अंबिकाप्रसाद दिव्य की स्मृति में विगत 9 वर्षों से अखिल भारतीय स्तर पर संबंधित विधा की श्रेष्ठ कृतियों पर दिया जाता है । इस पुरस्कार का चयन अखिल भारतीय स्तर पर गठित समिति द्वारा किया जाता है जिसमें इस वर्ष प्रख्यात साहित्यकार एवं संस्कृत के वरिष्ट विद्वान डॉ.राधावल्लभ त्रिपाठी, सागर, श्री शिवकुमार श्रीवास्तव, पूर्व कुलपति, हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय सागर, श्री शिवशेखर शुक्ला,(भारतीय प्रशासनिक सेवा) कलेक्टर, सागर सदस्य व श्री जगदीश किंजल्क संयोजक थे ।
अखिल स्तर पर पुरस्कृत होने पर श्री मानस को राज्य के साहित्यकारों ने अपनी बधाई दी है । ज्ञातव्य हो कि श्री मानस की अब तक 15 से अधिक कृतियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं, जिसमें तभी होती है सुबह, होना ही चाहिए आँगन (कविता संग्रह), कलादास के कलाकारी (छत्तीसगढी भाषा में प्रथम व्यंग्य संग्रह),प्रमुख हैं । "दोपहर में गाँव" कृति पर पं. रविशंकर विश्वविद्यालय, रायपुर से भाषा विज्ञान की एक छात्रा द्वारा लघुशोध भी किया जा चुका है । मानस जी ने विहग (हिन्दी कविता में चिडिया पर केंद्रित महत्वपूर्ण संगह), राजभाषा छत्तीसगढी जैसी महत्वपूर्ण कृतियों का संपादन किया है । उन्हें अब तक 7 से अधिक पुरस्कार प्राप्त हो चुके हैं । वे वर्तमान में राज्य शासन के छत्तीसगढी भाषा परिषद के सचिव के पद पर कार्यरत हैं । उनकी यह कृति समूचे विश्व में फैले हिन्दी -पाठकों के लिए बेबसाईट
www.jayprakashmanas.info पर भी उपलब्ध है । लोक एवं शास्त्र को अपने निबंधों का विषय बनाकर ललित रस का संचार करने वाले रचनाकार जयप्रकाश मानस के सम्मान से सृजन-सम्मान परिवार प्रसन्नता का अनुभव कर रही है ।

1/13/2006

मन हो जाता है उन्मन


कभी-कभी मन हो जाता है उन्मन

कभी-कभी मन हो जाता है उन्मन
सूखे पत्तों से भर जाता है सूना आँगन...

गीत-गजल सब फीके लगते
सन्नाटा मन में भर जाता .
यादों की पुरवाई चलती
घाव पुराना रिस-रिस जाता.
कभी-कभी हँसते-हँसते करता रोने को ये मन...

आतप की ज्वाला में जलते
पेडों में फिर भी हरियाली.
हम पर वक्त कठिन जो आता
काली हो जाती दीवाली.
कभी-कभी बिन बरसे चल देता है सावन...

कब तक खुद से बात करें हम
डर लगता सच के दर्पण से.
मुर्दे फिर जीवित हो जाते
कितना शान्त करें तर्पण से.
कभी-कभी जड हो जाता है चेतन...
0 संतोष रंजन
रायपुर, छत्तीसगढ

1/12/2006

राम पटवा की दो बहुचर्चित लघुकथायें


एकः अतिथि कबूतर
रोज सुबह एक छत पर दो कबूतर मिला करते थे । दोनों में घनिष्ठ मित्रता हो गई थी । एक दिन दूर खेत में दोनों दाना चुग रहे थे, उसी समय एक तीसरा कबूतर उनके पास आया और बोला-“मैं अपने साथियों से बिछुड गया हू कृपया आप मेरी मदद करें ।”
दोनों कबूतरों ने आपस में गुटरूं- गूं किया, भटका हुआ अतिथि है...
अतिथि देवो भवः .....लेकिन प्रश्न खडा हुआ कि यह अतिथि रूकेगा किसके यहाँ ? दोनों कबूतर अलग-अलग जगह रहते थे, एक मस्जिद के मीनार पर तो दूसरा मंदिर के कंगूरे पर । अंततः यह तय हुआ कि अतिथि कबूतर को दोनों कबूतरों के साथ एक-एक दिन रूकना पडेगा ।
तीसरे दिन अतिथि की भावभीनी विदाई हुई । दोनों मित्र अतिथि को दूर तक छोडने गये । शाम को जब वे लौटे तो देखा कि मंदिर और मस्जिद के कबूतरों में अकल्पनीय लडाई हो रही है । इस दृश्य से दोनों स्तब्ध रह गये ।
बाद में पता चला कि अतिथि कबूतर संसद के गुंबद से आया था ।
00 00 00

दोः बॉय-बॉय
इवनिंग वॉक के दौरान एक दिन धर्म और राजनीति की मुलाकात एक सुंदर बाग में हो गई । भेंट के दौरान दोनों ने देश के राजनैतिक पर्यावरण, जलवायु और तापमान पर विशेष चर्चा की ।
इसके बाद बाग में टहलते-घूमते दोनों एक बार में जा पहुंचे । वहां राजनीति ने कॉकटेल तैयार किया और धर्म को आनंदित मुद्रा में आफर किया । धर्म बोला-“मैं स्वयं मैं एक नशा हूँ, मुझे इसकी क्या जरूरत है मुझे तो लोग-बाग आजकल विषैले सर्प की संज्ञा भी देने लगे हैं, फिर भी चलो तुम्हारा साथ दे देता हूँ । दोनों ने जाम से जाम टकराया ।
कुछ देर बाद, बार में ही-ही, बकबक करने के पश्चात मस्ती में झूमते दोनों बाहर निकले । इस बीच हँसी-मजाक के मूड में राजनीति ने धर्म से कहा-“कृपा करके मुझे मत डसना ।” धर्म भी क्यों चूकता, वह बोला-“प्यारे, मैं अगर साँप हूँ तो ये क्यों भूलते हो कि तुम उसका पिटारा हो । तुम तो उस मजमेबाज जादूगर की तरह हो, जो मजमें में अपने नेवले से मुझे लडाते हो और जब मै बेहोश हो जाता हूँ तो मुझे होश में लाकर फिर अपने पिटारे में बंद कर लेते हो ।”
इसके बाद दोनों ने जमकर ठहाका लगाया और फिर मिलेंगे, बॉय-बॉय कहते हुए अपने-अपने मुकाम की ओर मस्ती भरी चाल से चल दिए ।

0 राम पटवा
एन-3, “साकेत”
बसन्त पार्क कॉलोनी, महावीर नगर
रायपुर, छत्तीसगढ-492006

1/11/2006

"सृजन-सम्मान" का कार्य शंसनीय- एक संपादक

1/1, पत्रकार कॉलोनी, अहमादबाद-380013(भारत)दूरभाष (079-27435809)
आकार
(हिन्दी साहित्य का निःशुल्क त्रैमासिक)
संपादक
बसन्त कुमार परिहार
.....................................................................................................................................
दिनाँकः 25 दिसंबर 2006
आपका पत्र प्राप्त हुआ । सृजन-सम्मान के सम्मान के पाँचवें साहित्य महोत्सव की जानकारी हुई । पंचम सृजन-सम्मान से सम्मानित किए जानेवाले साहित्यकार मित्रों के नाम पढकर हार्दिक प्रसन्नता हुई । श्री कांति कुमार जैन, श्री राजेन्द्र अवस्थी, डॉ. मिथिलेश कुमारी एवं सुदूर कैलिफोर्निया, अमेरिका में निवसित श्री देवेन्द्र नारायण शुक्ल को इस बार सम्मानित करके आप बडा ही शुभ कार्य करने जा रहे हैं । ऐसे पुरस्कारों और सार्वजनिक सम्मानों से साहित्यकारों को अपनी रचनाशीलता की समानता, गौरव और आनन्द की अनुभूति होती है । ऐसे शंसनीय आयोजन करके आप साहित्य का बडा उपकार कर रहे हैं । समय इसे याद रखेगा । इन पुरस्कारों का गौरव, अर्थवत्ता और अहमियत तब और भी बढ जाती है जब “सृजन-सम्मान" जैसी बहुआयामी साहित्यक संस्थाएँ स्वच्छ आचरण नीति के तहत ऐसे पुरस्कार/सम्मान देती हैं, प्रतिवर्ष योग्यतम् साहित्यकारों को देश-विदेश के कोने-कोने से ढूँढ निकालना भी अपने आप में एक भगीर्थ कार्य है । मैं आपके माध्यम से पुरस्कृत साहित्यकारों को बधाई देता हूँ और “सृजन-सम्मान” संस्था के रहबरों को ऐेसे सात्विक आयोजनों के लिए साधुवाद और शुभकामनाएँ देता हूँ । विश्वास है कि संस्था भविष्य में खूब फूले-फलेगी और नए कीर्तिमान स्थापित करेगी । डॉ. बल्देव को भी मैं शष्ठीपूर्ति अभिनन्दन ग्रंथ के लोकार्पण-अवसर पर अभिनन्दन देता हूँ । वे दीर्घायु-सम्पन्न हों ऐसी अभ्यर्थना करता हूँ ।
यह जानकर भी प्रसन्नता हूई कि इस समारोह में देश के चुनिन्दा लघुपत्रिका संपादकों को संस्था द्वारा उनके रचनात्मक योगदान हेतु मानपत्र एवं साहित्यिक कृतियाँ भेंट कर सम्मानित करने जा रहे हैं । इस सूची में “आकार” भी शामिल है, यह जानकर सुख मिला । आपकी संस्था ने अहिन्दी भाषी राज्य गुजरात से निकल रही “आकार” पत्रिका के संपादक की सेवाओं को सम्मान के योग्य समझा यह भी अपने आप में कम महत्वपूर्ण नहीं है । आपके इस स्नेह के लिए मैं आभारी हूँ ।
बंधुवर, 12-13 फरवरी को संपन्न होने जा रहे इस सारस्वत अनुष्ठान में सम्मिलित होने की उत्कट इच्छा होते हुए भी मैं अपनी असमर्थता प्रकट करते हुए क्षमाप्रार्थी हूँ । सत्तर वर्ष पूरे कर चुका हूँ और इतनी लम्बी यात्राएँ अकेले कर पाने का साहस अब नहीं जुटा पाता । “आकार” का नया अंक भी 10 जनवरी के दिन पोस्ट करना है । मैं अकेला ही संपादन, संचालन के सारे काम करता हूँ । यहाँ अहिन्दी प्रदेश में कम्प्युटर वर्क और छपाई के लिए बडी दौडधूप करनी पडती है । असमर्थता के लिए क्षमा करेंगे । संस्था के कार्यकर्ताओं की नजर इतनी दूर तक पहुँची, मेरे लिए यह भी बडा सम्मान है । “आकार” के कुछ पुराने अंक और पुस्तकें भेज रहा हूँ । आयोजन की सफलता और नववर्ष की शुभकामनाओं के साथ ...
आपका
बसंतकुमार परिहार

पुनश्चः-आपका पत्र यथासमय मिल गया था किन्तु मैं एक महीने तक अहमदाबाद से बाहर था । पंजाब की ओर गया हुआ था । देर से उत्तर दे रहा हूँ, अन्यथा न लें
00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000
टीपः- श्री परिहार जी का पत्र हमें डाक से प्राप्त हुआ है । वे अहिन्दी भाषी एवं वयोवृद्ध संपादक हैं । पत्र हम हू-ब-बू प्रकाशित कर रहे हैं-संपादक

गिरीश पंकज की नई गजल


सुन्दर कोमल कली लडकियाँ
होती अक्सर भली लडकियाँ

कितना मीठा मन रखती हैं
ज्यों मिसरी की डली लडकियाँ

मत बाँधों पैरों में बन्धन
अंतरिक्ष को चली लडकियाँ

पीडाओं को सह लेती हैं
संघर्षों में पली लडकियाँ

जब लडके नाकारा निकले
माँ-बाप को फली लडकियाँ

गिरी हुई दुनिया दिखलाती
ससुरालों में जली लडकियाँ

00 रचनाकार हिन्दी के लब्धप्रतिष्ठ संपादक, व्यंग्यकार, उपन्यासकार हैं । रायपुर, छत्तीसगढ में डेरा है । अब तक 20 किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं । सम्मानों का अंबार है उनके पास ।-संपादक

1/09/2006

अंतरजाल पर आ रहा है हिन्दी का नया उपन्यास


जी हाँ, बात बिल्कुल सोलह आने सच है । जाने माने साहित्यकार और पत्रकार श्री गिरीश पंकज का महत्वपूर्ण उपन्यास कुछ ही दिनों में हिन्दी के पाठकों के सामने आ रहा है । वह भी सीधे अंतरजाल पर । नाम रखा है उन्होंने- “पॉलीवुड की अप्सरा” । अब केवल मुबंई में ही वालीवुड नहीं रह गया है । भारत के कमोबेश सभी राज्यों में एक-एक वालीवुड पनप रहा है । ग्लैमर के चकाचौंध में नयी पीढी की युवतियाँ कैरियर के बहाने लगातार ऐसे वालीवुड में उलझती जा रही हैं । और इसके साथ ही वहाँ पसर रहा है देह के आरपार देखने-दिखाने का मकडजाल । इस कथा-वस्तु को कई कोणों से पडताल करने वाले इस उपन्यास में कास्टिंग काऊच भी है और स्टिंग आपरेशन भी । फिल्म उद्योग की आड में फैलते यौन-व्यभिचार के पीछे के रहस्यों की परत-दर-परत पोल खोलती यह उपन्यास मूलतः एक व्यंग्य उपन्यास है जिसके लिए गिरीश पंकज हिन्दी व्यंग्य की दुनिया में पहचाने जाते हैं । “पॉलीवुड की अप्सरा” का क्रम तीसरा है । इससे पहले भी उनके 2 उपन्यास काफी चर्चित रहे हैं- पहला “मिठलबरा की आत्मकथा” और दूसरा “माफिया” । माफिया पर उन्हें राष्ट्रीय स्तर का "लीलारानी स्मृति पुरस्कार" भी हस्तगत हो चुका है । श्री गिरीश वर्तमान में अनुवाद की स्थापित पत्रिका “सद्भावना दर्पण” के संपादक हैं । रायपुर के हर मंचों में पाये जाते हैं । क्योंकि रहते हैं सभी के दिलों में । न काहू से दोस्ती है उनकी, न काहू से बैर । गाँधी जैसे खद्दरधारी । कबीर जैसे व्यापारी । तन से सुभाष जैसे और मन से लोहिया जैसे हैं वे । हमने उन्हें किसी से उलझते हुए आज तक नहीं देखा । पर जब लिखते हैं तो बडे-बडे कलाबाज संपादक भी उनसे दूर रहने में अपनी भलाई समझते हैं । जाने कब उनके लेखन में कौन उलझ जाये ? सृजन-सम्मान को उन्होंने लगातार अपना रचनात्मक योगदान दिया है । हम उनकी सद्यः प्रकाशित कृति के लिए एक ट्रक बधाई भेजना चाहते हैं ।
क्या कहा ? आप भी उन तक अपनी बधाई पहुँचाना चाहते हैं । तो लीजिए ना, ये रहा उनका पता- श्री गिरीश पंकज, संपादक, सद्भावना दर्पण, जी-31, न्यु पंचशील नगर, रायपुर, छत्तीसगढ, भारत, 492001 । E-mail : girispnkj@yahoo.co.in। आप अंतरजाल पर उपन्यास रिलीज होने की तिथि भी जानना चाहते हैं ? अरे, हम तो उनसे पूछना ही भूल गये। सब्र करिये ना जरा । हम उन्हें पूछ कर आपको ई-मेल कर देंगे । हम पर विश्वास है ना ? अच्छा-अच्छा, है । तब तो क्या कहने । आज के लिए इतना ही । आपका दोस्त-जयप्रकाश मानस

।। पाँचवा अखिल भारतीय साहित्य महोत्सव 2006 ।।

हिन्दी लघुपत्रिका एवं इटरनेट मैग्जीन के संपादक जुटेंगे 12-13 फरवरी को
भारत । छत्तीसगढ राज्य की बहुआयामी सांस्कृतिक संस्था “सृजन-सम्मान” द्वारा पाँचवे अखिल भारतीय साहित्य महोत्सव का 2 दिवसीय आयोजन 12-13 फरवरी 2006 को राजधानी रायपुर में किया गया है । इस आयोजन में देश के सभी प्रांतो से प्रकाशित हिन्दी लघुपत्रिकाओं के 300 संपादक भाग ले रहे हैं । इस अवसर पर अंतरजाल में क्रियाशील हिन्दी पत्रिका के संपादकों एवं ब्लागर बन्धूओं को विशेष तौर पर आमंत्रित किया जा रहा है । इस वर्ष महोत्सव में विमर्श का केन्द्रीय विषय रखा गया है “हिन्दी की लघु पत्रिकाएं : नई चुनौतियाँ ” । इस दो दिवसीय आयोजन के महत्वपूर्ण आकर्षण निम्नवत् हैं –
1. 12 सद्य प्रकाशित किताबों का विमोचन
2. अखिल भारतीय लघुपत्रिका प्रदर्शनी का उद्घाटन
3. राज्य के महत्वपूर्ण कवियों की कविताओं पर केंद्रित पोस्टर प्रदर्शनी
4. अखिल भारतीय स्तरीय गीत पाठ
5. प्रख्यात कबीर गायक भारती बन्धु का कबीर गायन
6. राष्ट्रीय विमर्श (3 सत्र )
7. पाँचवे अ.भा.पुरस्कारों से देश एवं विदेश के 28 रचनाकारों का अलंकरण
8. हिन्दी लघुपत्रिका के संपादन कर्म में क्रियाशील संपादकों का सम्मान

-विस्तृत कार्यक्रम विवरण –

दिनांक 12 फरवरी 2006 दिन रविवार


प्रथम दिवस- 10 बजे प्रातः
उद्घाटन-समारोह-लघुपत्रिका प्रदर्शनी-कृति विमोचन
मुख्य अतिथि

डॉ.रमन सिंह, मुख्यमंत्री, छत्तीसगढ
अध्यक्ष
श्री बृजमोहन अग्रवाल, संस्कृति मंत्री, छत्तीसगढ,
अतिविशिष्ट अतिथि
1. राजेन्द्र अवस्थी, पूर्व संपादक, कादंबिनी, दिल्ली
2. श्री स्वदेश भारती, वरिष्ठ कवि, कोलकाता
3. डॉ. बालशौरि रेड्डी, पूर्व संपादक, चंदामामा, चैन्नई
4. श्री मनोहर प्रभाकर, मीडिया विशेषज्ञ, जयपुर
संचालनः डॉ. चित्तरंजन कर, भाषाविद्, रायपुर
सत्र संयोजनः डॉ. राजेन्द्र सोनी, सुधीर सोनी, नागेन्द्र दुबे

चाय अंतराल- 15 मिनट

प्रथम सत्र- 12 बजे से 2 बजे तक
विमर्श विषयः उत्तर आधुनिक समय और लघुपत्रिकाएं

मुख्य अतिथि
श्री स्वदेश भारती, वरिष्ठ कवि, कोलकाता
अध्यक्ष मंडल
1.श्री बालशौरि रेड्डी, पूर्व संपादक, चंदामामा, चैन्नई
2.श्री गोविन्द लाल वोरा, संपादक, अमृत संदेश, रायपुर
3.श्री भीखी प्रसाद वीरेन्द्र, वरिष्ठ संपादक, सिलीगुडी
4. श्रीकृष्णकुमार त्रिवेदी, वरिष्ठ ललितनिबंधकार, फतेहपुर
5.श्री रमेश दत्त दुबे, वरिष्ठ कवि, सागर

आधार आलेख-
1.श्री इसाक इश्क, संपादक, समांतर, उज्जैन
2.श्री मधुकर गौड, गीतकार, मुंबई
3.श्री अर्जुन शतपथी, वरिष्ट अनुवादक, राऊरकेला
4.डॉ. विनय पाठक, भाषाविद्, बिलासपुर
5.डॉ. हेतु भारद्वाज, संपादक, समय माजरा, जयपुर

संवाद-
1. श्री नरेन्द्र सिंह, संपादक, समय सुरभि, खगडिया
2. श्री कैलाश आदमी, संपादक, निर्दलीय, भोपाल
3. श्री रामनारायण शर्मा, ललितनिबंधकार, नरसिंहपुर
4. डॉ. भरत मिश्र प्राची, संपादक, कंचनलता, खेतडी

हस्तक्षेप-
1. श्री डी. पी. खन्ना, संपादक, देवभारती एवं पूर्व डीजीपी. भोपाल
2. श्री अशोक अंजुम, संपादक, प्रयास, अलीगढ
3. डॉ. महेश परिमल, पत्रकार, भोपाल
4. श्री संजय द्विवेदी, लेखक, रायपुर
संचालनः श्री गिरीश पंकज, संपादक, सद्भावना दर्पण, रायपुर
सत्र- संयोजनः चेतन भारती, अश्विनी केशरवानी, पुनूराम साहू राज

दोपहर भोज- 30 मिनट

द्वितीय सत्र- दोपहर 3 बजे से 6 बजे तक
विमर्श विषय- बाजार, सरकार एवं लघुपत्रिकाएं
मुख्य अतिथि-

श्री राजेन्द्र अवस्थी, पूर्व संपादक, कादम्बिनी, दिल्ली
अध्यक्ष मंडल-

1. श्री मनोहर प्रभाकर, मीडिया विशेषज्ञ, जयपुर 2
2.श्री अनल प्रकाश शुक्ल, संपादक, नवभारत, रायपुर
3. श्री राजेन्द्र जोशी, पूर्व अपर संचालक, जनसंपर्क, भोपाल
4. डॉ. जगदीश व्योम, संपादक, हाइकु दर्पण, होशंगाबाद,
5. डॉ. मिथिलेश कुमारी, उपन्यासकार, पटना

आधार व्यक्तव्य-
1.श्री सतीश जायसवाल, वरिष्ठ कहानीकार, बिलासपुर
2. श्री प्रेमशकर रघुवंशी, आलोचक, हरदा
3. श्री विनोद शंकर शुक्ल, व्यंग्यकार, रायपुर
4. डॉ. प्रेम दुबे, कवि, रायपुर

5. डॉ. सुधीर प्रसाद सिंह, संपादक, सुरसरि, समस्तीपुर

संवाद-
1. श्री श्याम महर्षि, संपादक, राजस्थली, चुरू
2. श्री कैलाश झा किंकर, संपादक, कौशिकी, खगडिया
3. श्री हेमन्त रिझारिया, संपादक, सरल चेतना, होशंगाबाद,
4. श्री बालकृष्ण वर्मा, संपादक, स्वर्ण किरण, झांसी
5. श्री सोनवणे, राजेन्द्र अक्षत, संपादक, लोकयज्ञ, बीड

हस्तक्षेप-
1. डॉ. रामनाथ सेन राणा, संपादक, चारू चंचला, ललितपुर
2. श्री अशोक बोहरे, संपादक, अभिनन्दन, ग्वालियर
3. श्री भरत प्रसाद, कहानीकार, शिलांग
4. सुश्री विद्या गुप्ता, कवयित्री, भिलाई

संचालनः डॉ. सुधीर शर्मा, संपादक, साहित्य वैभव, रायपुर
सत्र-संयोजनः डॉ.आर. के. बेहार, शंभूलाल शर्मा वसंत, श्रीकांत भोई

रात्रि भोज- 8.30 बजे


तृतीय सत्र- रात्रि 9 बजे से 12 बजे तक (सांस्कृतिक निशा)
0 लघुपत्रिका संपादक, रचनाकार का सम्मान
0 अखिल भारतीय गीत यामिनी
0 कबीर गायन
मुख्य अतिथि-
श्री अशोक शर्मा, पूर्व सांसद एवं अध्यक्ष, राज्य आपूर्ति निगम, छत्तीसगढ
अध्यक्षता-
संतकवि पवन दीवान, अध्यक्ष, गो सेवा आयोग, छत्तीसगढ

गीत यामिनीः कविगण
श्री इसाक अश्क, उज्जैन,
श्री मधुकर गौड, मुंबई
श्री सलीम अख्तर, गोंदिया
श्रीकृष्णकुमार त्रिवेदी, फतेहपुर
श्री अशोक अंजुम, अलीगढ
श्री विमल पाठक, भिलाई
श्री शंकर सक्सेना, राजनाँदगाँव
श्री ईश्वर करूण, चैन्नई
श्री राज सागरी, जबलपुर
श्री राम प्रताप विमल, जांजगीर
श्री राकेश जुगरान, श्रीनगर
श्री नीरज नैथानी, गढवाल
श्री श्याम महर्षि, चुरू
श्री प्रेमशंकर रघुवंशी, हरदा

कबीर गायन
श्री भारती बन्धु (स्वामी जी.सी.डी. भारती) प्रख्यात कबीर गायक
संचालनः संजीव ठाकुर, नर्मदा नरम, राम पटवा
सत्र-संयोजनः रसिक बिहारी अवधिया, आदेश ठाकुर, राजेन्द्र ओझा


द्वितीय दिवस- 13 फरवरी 2006
प्रथम सत्र- 9 बजे से 12 बजे तक
विमर्श विषय- लघुपत्रिका आदोलनः समकालीन परिदृश्य (विशेष संदर्भः छत्तीसगढ)
मुख्य अतिथि- श्री कांति कुमार जैन, वरिष्ठ रचनाकार, सागर
अध्यक्ष मंडल- 1.श्री प्रभात त्रिपाठी, वरिष्ठ आलोचक, रायगढ 2.श्री रमेश नैयर, पूर्व संपादक, दैनिक भास्कर, रायपुर 3. श्री ललित सुरजन, संपादक, अक्षर पर्व एवं दैनिक देशबन्धु, रायपुर
आधार आलेख- 1. श्री गिरीश पंकज, संपादक, सद्भावना दर्पण, रायपुर 2.श्री महावीर अग्रवाल, संपादक, सापेक्ष, दुर्ग 3. श्री विजय सिंह, संपादक, सूत्र, बस्तर
संवाद- लघुपत्रिकाओं के कोई 4 संपादक
हस्तक्षेप- लघुपत्रिकाओं के कोई 4 संपादक

भोजन एवं विश्राम- 1 बजे से 2 बजे तक

द्वितीय सत्र- 2 बजे से 4 बजे तक
विषय-पाँचवा अखिल भारतीय सृजन-सम्मान पुरस्कार-अलंकरण समारोह
मुख्य अतिथि- महामहिम राज्यपाल, छत्तीसगढ, कैप्टेन के. एम. सेठ
अध्यक्ष- श्री विष्णु प्रभाकर, वरिष्ठ साहित्यकार, दिल्ली
अतिविशिष्ट अतिथि- श्री बृजमोहन अग्रवाल, संस्कृति मंत्री, छत्तीसगढ शासन
विशिष्ट अतिथि- 1. श्री मेघाराम साहू, शिक्षा मंत्री, छत्तीसगढ शासन
2. श्री नवीन जिंदल, सांसद एवं उद्योगपति, दिल्ली
3. श्री सत्यनारायण शर्मा, पूर्व शिक्षा मंत्री एवं विधायक
पाँचवा सृजन-सम्मान अलंकरण 2005 (रचनाकार एवं सम्मान का नाम)
1.श्री इसाक अश्क, उज्जैन- पद्मश्री मुकुटधर पांडेय सम्मान– लघुपत्रिका
2.श्री राजेन्द्र अवस्थी, दिल्ली- पद्मभूषण झावरमल्ल शर्मा सम्मान-पत्रकारिता
3.श्री डॉ.शोभाकांत झा, रायपुर -महाराज चक्रधर सम्मान-ललित निंबध
4.डॉ.मिथिलेश कुमारी,पटना-मंहत बिसाहू दास सम्मान-कबीर साहित्य
5.श्री शंकर सक्सेना, राजनांदगाँव-प.गोपाल मिश्र सम्मान-कविता
6.श्री मधुकर गौड, मुंबई-नारायण लाल परमार सम्मान-गीत-नवगीत,
7.श्री भरत प्रसाद, शिलांग-डॉ.बल्देव प्रसाद मिश्र सम्मान -कहानी
8.ग्राम्य भारती संस्थान, रायगढ-डॉ.कन्हैया लाल शर्मा सम्मान-पर्यावरण, (लेखन सहित)
9.श्री नंदल हितैषी, इलाहाबाद-माधव राव सप्रे सम्मान-लघुकथा विधा में महत्वपूर्ण लेखन
10.श्री ब्रजभूषण सिंह आदर्श, बिलासपुर-दादा अवधूत सम्मान-शिक्षा, शैक्षिक लेखन
11.श्री प्रेमशंकर रघुवंशी, हरदा-प्रमोद वर्मा सम्मान-आलोचना
12.श्रीमती मालती जोशी, पूना-रामचंद्र देशमुख सम्मान-लोक पर आधारित लेखन
13.श्री ए.के.शर्मा, दुर्ग- प्रो.शंकर तिवारी सम्मान-पुरातात्विक अनुसंधान या पुरातत्व लेखन
14.श्री देवेंद्र नारायण शुक्ल, अमेरिका-प्रवासी सम्मान-विदेश में रहकर हिन्दी में योगदान
15.श्री विनोदशंकर शुक्ल, रायपुर-समरथ गंवईहा सम्मान-व्यंग्य लेखन में उल्लेखनीय
16.श्री देवेद्र आर्य, गाजियाबाद व श्री विमल पाठक, भिलाई- विश्वम्भर नाथ सम्मान-छंद
17.श्री राष्ट्रबन्धु, कानपुर-मावजी चावडा सम्मान-बाल साहित्य लेखन, शोध, अनुसंधान
18.श्री सलीम अख्तर, गोंदिया-मुस्तफा हुसैन सम्मान-गजल विधा में योगदान
19.श्री अशोक अंजुम, अलीगढ-रजा हैदरी सम्मान-गजल लेखन
20.श्री डी.पी.खन्ना, पूर्व डीजीपी, भोपाल-राजकुमारी पटनायक सम्मान-भाषा सेवा
21.श्री कांतिकुमार जैन, सागर-हरि ठाकुर सम्मान-समग्र व्यक्तित्व एवं कृतित्व
22.डॉ.अर्जुन शतपथी, राऊरकेला-अनुवाद सम्मान-अनुवाद कार्य
23.श्री बालशौरि रेड्डी, चैन्नई-अहिन्दीभाषी सम्मान- गैर हिन्दीभाषी द्वारा हिन्दी सेवा
24.श्रीमती विद्या गुप्ता, दुर्ग-प्रथम कृति सम्मान-कवित विधा में पहली किताब
25.श्रीकृष्णकुमार त्रिवेदी, फतेहपुर-कृति सम्मान-महत्वपूर्ण पांडुलिपि
26.श्री सुधीर सक्सेना, भोपाल-सृजन-श्री सम्मान-पत्रकारिता
27.डॉ.बल्देव, वरिष्ठ आलोचक एवं कवि, छत्तीसगढ, षष्ठिपूर्ति सम्मान
हिन्दी लघुपत्रिकाओं के संपादकों से निवेदनः-
1. देश-विदेश के हिन्दी लघुपत्रिका के संपादकगण विभिन्न सत्रों के संवाद एवं हस्तक्षेप में वक्तव्य हेतु (स्वचयनित-सत्र)अपना नामांकन 26 जनवरी 2006 तक करा सकते हैं । उन्हें अपने वक्तव्य हेतु 15 मिनट का समय दिया जायेगा ।
2. संपादकगण इस अवसर पर प्रकाशित विशेष स्मारिका हेतु उपरोक्त विमर्श विषय के किसी भी कोण पर केंद्रित आलेख भेज सकते हैं । वे अपनी प्रतिभागिता हेतु अपने द्वारा चयनित सत्र के विषय पर अभिकेन्द्रित आलेख भी भेज सकते हैं ।
3. प्रतिभागी संपादकों को संस्था की ओर से प्रतीकात्मक सम्मान स्वरूप 500 रुपयों की महत्वपूर्ण कृतियाँ सहित उनकी पत्रकारिता में सेवा हेतु सम्मान पत्र दिया जावेगा ।
4. अंतरजाल में हिन्दी आनलाईन पत्रिकाओं के संपादकगण भी विमर्श सत्रों में उपरोक्तानुसार सादर आमंत्रित हैं ।
5. साहित्यकारगण भी अपना अपना विशेष आलेख या अन्य कोई रचना हमें भेज सकते हैं ।
6. अखिल भारतीय लघुपत्रिका प्रदर्शनी हेतु लघुपत्रिकाओं के संपादक अपनी पत्रिका के 4 विभिन्न अंक भेज सकते हैं या अपने साथ ला सकते हैं ।
7. प्रतिभागियों हेतु भोजन, स्वल्पाहार, आवास की व्यवस्था संस्था की ओर से की जायेगी ।
संपर्कः-
1.जयप्रकाश मानस, समारोह संयोजक, सृजन-सम्मान, माध्यमिक शिक्षा मंडल, आवासीय कॉलोनी, पेंशनवाडा, रायपुर, छत्तीसगढ 492001
2.http://www.srijansamman.blogspot.com/या http://www.jayprakashmanas.blogspot.com/पर संपादक या साहित्यकारगण अपनी सहमति पोस्ट कर सकते हैं ।
3. विस्तृत जानकारी हेतु कृपया E-mail:
rathjayprakash@gmail.com पर मेल भी भेज सकते हैं ।
अपील कर्ताः
1. संतोष रंजन, प्रदेश समन्वयक, सृजन-सम्मान, रायपुर, छत्तीसगढ
2. राम पटवा, प्रदेश महासचिव, सृजन-सम्मान, रायपुर, छत्तीसगढ
3. चेतन भारती, प्रदेश कोषाध्यक्ष, सृजन-सम्मान, रायपुर, छत्तीसगढ
4. डॉ. सुधीर शर्मा, प्रदेश संयोजक, सृजन-सम्मान, रायपुर, छत्तीसगढ
5. श्री संजीव ठाकुर, प्रादेशिक संगठन सचिव, सृजन, रायपुर, छत्तीसगढ

1/07/2006

सृजन-सम्मान, छत्तीसगढ, भारत

सृजन-सम्मान, छत्तीसगढ, भारत

भारती बन्धु छत्तीसगढ के तीसरे ब्लागर्स बने


राज्य के गौरव और सुप्रसिद्ध कबीर गायक न केवल अब कबीर की दुनिया तक सुधी श्रोताओं को पहुँचायेंगे बल्कि अपने बेवब्लाग से इंटरनेट के माध्यम से संपूर्ण दुनिया की सैर भी कर सकेंगे । उन्होंने अपना ब्लाग बना लिया है । नाम रखा है उन्होंने "कबीर गायक भारती बन्धु" । जी हाँ, वे अब अपने प्रशंसकों से निरंतर संवाद भी कायम कर सकेंगे । सुना है इस जगह पर वे अपनी जीवन-यात्रा का विवरण, सृजनकर्म की संपूर्ण जानकारी, भविष्य के कार्यक्रमों की विस्तृत जानकारी, ऐतिहासिक क्षणों की तस्वीरें, चुनींदे भजनों का आडियो और वीडियो भी मुक्त में रख रहे हैं ताकि समूचे आध्यात्मिक जगत् तक यानी कि देश-विदेश तक उनकी पहुँच सरल हो सके । इसे कहते हैं भारतीय आध्यात्म को समूचे विश्व में विस्तार देने की ललक । शायद आपको यह नहीं पता कि वे छत्तीसगढ के ऐसे ब्लागर हो चुके हैं जिनका नाम तीसरे क्रम पर आता है । क्या आप जानते हैं कि वे इंटरनेट के कौशल से परिचित मात्र हैं पर उन्होंने प्रोग्रामिंग की कोई तकनीक नहीं जानते । वे कैसे हिन्दी के सबसे पुराने संत-कवि कबीर की वाणी को जग में विस्तार देने के लिए अंतरजाल में कूद पडे हैं । आप भले ही संगीतकार नहीं पर कुछ कार तो जरूर हैं । आप कुछ कार भी न हों । पर आप के पास शायद अपनी कार हो । चलिये हम आपकी कार की ही बात कर सकते हैं । आप उस कार में कितनी दूर पहुँच सकते हैं ? पर आप ब्लाग बनाकर पलक झपकते ही फ्रांस या अमेरिका के हिन्दीभाषी व्यक्ति से जुड सकते हैं ।
सच-सच कहिये आपमें भी स्वयं को व्यक्त करने की कश्मकश चल रही है ना । शरमाते क्यों हैं आप ? अभिव्यक्ति को अपना हथियार बनाना चाहते हैं तो कुछ मत करिये । सिर्फ इंटरनेट से जुड जाईये । कैसे ? जैसे भारती बन्धु जुडे । और कैसे ?

1/06/2006

हिन्दी के ब्लागर्स अब पायेंगे पुरस्कार- सत्यनारायण शर्मा

रायपुर । छत्तीसगढ की महत्वपूर्ण सांस्कृतिक संस्था सृजन सम्मान द्वारा हिन्दी भाषा के अंतरजाल में विकास हेतु अब सम्मान दिया जायेगा । इसके हकदार ब्लागर होंगे । वर्ष के सबसे उत्कृष्ट ब्लाग को संस्था के वार्षिक एवं अखिल भारतीय साहित्य महोत्सव में ५००० रुपए की नगद राशि, सम्मान पत्र, प्रतीक चिन्ह, शाल, श्रीफल, १००० रुपए की किताबें आदि अनेक भेंट प्रदान किये जायेंगे । सृजन-सम्मान के प्रादेशिक अध्यक्ष व पूर्व शिक्षा मंत्री श्री सत्यनारायण शर्मा ने बताया है कि संस्था द्वारा अब तक रचनात्मकता के २८ विधाओं पर क्रमशः 21हजार,10 हजार,05 हजार के पुरस्कार दिये जाते रहें हैं । देश एवं विदेश के सभी ब्लागर्स, बेबसाइट संपादक अपनी प्रविष्टि के रुप में बायोडाटा, फोटो, साइट का एड्रेस, लिंक आदि जानकारी मेल पता के साथ संस्था के पता महासचिव, सृजन सम्मान, एफ-३, छत्तीसगढ़ हायर सेकेण्डरी बोर्ड, आवासीय कालोनी, पेंशनवाडा, रायपुर, छत्तीसगढ़, भारत, ४९२००१ याe-mail : srijansamman@yahoo.co.in या e-mail : rathjayprakash @gmail पर भेज सकतें हैं । अंतिम तिथि - 15 अगस्त 2006 तक भेज सकते हैं । विस्तृत जानकारी के लिए हमें मेल भी कर सकते हैं ।

सृजन-सम्मान द्वारा हिन्दी चिट्ठाकारी को प्रोत्साहन

पिछले एक दशक से संस्था की चिन्ता एवं लक्ष्य में हिन्दी का विकास सबसे महत्वपूर्ण बिषय रहा है । संस्था ने पिछले 2 वर्षों में अपने राज्य के रचनाकारों, पत्रकारों, बुद्धिजीवियों की अंतरजाल(INTERNET) में उपस्थिति के अध्ययन के लिए लगातार मेहनत की । संस्था के सदस्यों ने जयप्रकाश मानस के संयोजन में इस दरमियान अंतरजाल पर लगभग 77000 बेबसाईट्स को खंगाला । अधुनातन एवं सभी सर्च इंजिनों का सहारा लिया गया । हमने पाया कि हम और हमारे विचारों को अंतरजाल में नहीं के बराबर जगह मिली है । यदि हम 2-4 जगह हैं तो भी अपनी भाषा में अभिव्यक्त नहीं हो पाये हैं । यानी कि वहाँ हिन्दी-छत्तीसगढी का चेहरा अंग्रेजी भाषा के दर्पण में दिखाई देता है ।
संस्था का अपना विश्वास रहा हैं कि प्रत्येक भाषा की अपनी मौलिक अस्मिता, संस्कृति और संस्कार होते हैं । प्रत्येक भाषा के अपने निजी शब्द होते हैं । उन प्रत्येक शब्दों का अपना विशिष्ट कौशल व आलोक-वलय होते हैं, जिसकी बराबरी अन्य भाषा के समांतर शब्द भी नहीं कर सकते हैं । अनुवाद में भी मूल रचना या भाव के साथ कहाँ न्याय हो पाता है ? जाहिर है हिन्दी या छत्तीसगढी की आत्मा तक पहुँच मार्ग अन्य कोई भाषा नहीं हो सकती है । इतर भारतीय भाषा तो हिन्दी के पाठकों को हिन्दी की जडों तक कतई नहीं पहुँचा सकती हैं ।
हमें यह देख कर बडा ही दुख होता था कि हिन्दी का अस्तित्व अंतरजाल में अत्यंत क्षीण है । जबकि इसे विश्व की दुसरी सबसे भाषा होने का गौरव प्राप्त है । हम झटपटाते रहे साथ ही शर्माते भी रहे कि हमारे अपने गृहराज्य छत्तीसगढ की स्थिति तो अत्यंत दयनीय है । ठीक विपरीत धुर्वों से हमारे राज्य के आई.टी. स्पेश्लिष्ट दावा करते हैं कि छत्तीसगढ में लगभग 33 हजार बेबसाईट्स बन चुके हैं । हम अपनी कमजोरी बखुबी समझते थे कि तकनीकी रूप से विकसित नहीं हो पाने के कारण यह सरल और संभव भी नहीं था कि अतंरजाल में हिन्दी ही हिन्दी नजर आये और उस मातृभाषा हिन्दी को अंतरजाल में विशेष रूप से प्रतिष्ठित कराने में छत्तीसगढ के लोगों को अव्वल होने का श्रेय जाय । जैसे कि हम अन्य क्षेत्र में अव्वल होने की बात छेडकर आत्ममुग्ध होते रहते हैं ।
कुछ दिन पहले की ही बात है-हमें पता चला कि अब यह तकनीक विकसित हो चुका है कि कोई भी व्यक्ति अपनी बात इंटरनेट में और वह भी हिन्दी या छ्त्तीसगढी में रख सकता है । स्वयं को अभिव्यक्त कर सकता है । दुनिया के कोने-कोने तक अपनी बात नियमित रूप से पहुँचा सकता है । उस पर विश्व में कहीं भी बैठे पाठक, व्यक्ति की प्रतिक्रिया भी जान सकता है । यानी कि वह परस्पर संवाद भी कायम कर सकता है । अब हमारे पाँव अब जमीं पर नहीं थे । इस खुशी के लिए यहाँ हमारे साथी श्री अशोक शर्मा और श्रीमती अमिता शर्मा जी का जिक्र करना समीचीन होगा । हम "ब्लाग" जैसे जादूई चमत्कार का मंत्र पा चुके थे । हमने सबसे पहले अपना ब्लाग बनाया । हम तो देख कर ताज्जुब रह गये कि कुछ ही मिनटों में हम अपना साईट स्वयं गढ चुके हैं । हिन्दी के माध्यम से हम अब समूचे दुनिया तक अपनी बात रखने में सक्षम हो चुके हैं । दरअसल यह हमारा प्रयोग था कि इसमें कम्प्युटर और तकनीकी ज्ञान, कौशल की कितनी जरूरत है ? सच बतायें यह तो अल्लदीन का चिराग है भाई, उनके लिए जो हिन्दी में काम करते हैं । जो प्रोग्रामिंग नहीं जानते । न किसी फोंट का झगडा, न ही किसी लिपि का झंझट । न ही जेब काटने पर ही हिन्दी या छत्तीसगढी के सेवक सिद्ध हो पाने की विवशता । और क्या चाहिए- कम्प्युटर और इंटरनेट के एक सामान्य जानकार के लिए समूचे विश्व में छा जाने के लिए ?
अतंरजाल में हिन्दी की प्रतिष्ठा के लिए स्वैच्छिक अभियान-संस्था ने तय कर लिया है कि अब अंतरजाल में हिन्दी को प्रतिष्टित कराने में वह तब तक सतत् रूप प्रोत्साहन, प्रशिक्षण, अनुश्रवण कार्य करती रहेगी । जब तक हमारे अपने राज्य और राजधानी रायपुर का नाम भारत और शायद दुनिया के सबसे बडे हिन्दी चिट्ठाकारों का अड्डा के लिए न जाना जाय । निर्णयानुसार हम लगातार कार्यशालाओं (ऑफलाईन या ऑनलाईन) का आयोजन करते रहेंगे । जिसमें कोई भी बिना किसी फीस, बिना किसी शर्त्त के अपने स्वयं का बेवब्लाग या इंटरनेट डायरी तैयार कर सकता है
कार्यशालाओं में हम निम्नलिखित वर्ग को प्रथम चरण में सम्मिलित कर रहे हैं:-
1. पत्रकार
2. साहित्यकार,
3. शिक्षाविद् और शिक्षा-प्रशासक, शिक्षक
4. कॉलेज और स्कूल के विद्यार्थी
5. कैफे संचालक
6. बुद्धिजीवी (वकील, चिकित्सक एवं अन्य)
7. जन सामान्य
इच्छुक व्यक्ति संस्था के महासचिव ( 98262-48165)से संपर्क कर सकता है ।
सुझाव आमंत्रित- आप में से कोई भी इस अभियान के संबंध में अपना सुझाव निसंकोच प्रदान कर सकता है । हम आपके स्वागत में पलक लगाये बैठे हैं ।
आईये, आप भी कुछ सोंचे इस दिशा में । क्या आपके शहर या राज्य में हिन्दी या मातृभाषा की सेवा के लिए इतना योगदान-समयदान नहीं दिया जा सकता है ?