1/27/2006

खंडकाव्यः संकटमोचन

प्रथम सर्ग

मंद-मंद स्वच्छंद सुगंधित मलय-पवन
तन-मन के सारे तापों का करे शमन
चारों ओर वृक्ष-पौधों से प्रमुदित वन
मानो ऋतुपति ने पाया चिर आमंत्रण
खगकुल-कल कूजन, भौरों का मधु गुंजन
और सिद्ध-ऋषि-मुनियों का मंत्रोच्चारण
सदा अलौकिक आभा-मंडित वन-प्रांगण
तीर्थ प्रभास जिसे कहते थे ज्ञानी जन

वन-प्रांतर था, सारा वन रजधानी थी
राजा थे केसरी, अंजना रानी थी
क्या ने देवोपम थे, अथवा नर थे वे
कामरूप इच्छाधारी वानर थे वे

यहीं पास ही भरद्वाज का आश्रम था
नदी-स्नान का प्रतिदिन का जिन का क्रम था
धवल नाम का हाथी एक क्षुधातुर था
उसे क्या पता, पीछे राजबहादुर था
ज्यों ही झपटा मुनि पर, राजा हुए विकल
टूट पडे वे तत्क्षण, आहत हुआ धवल
प्राणों की रक्षा से हर्षित थे मुनिवर
कहा केसरी से- “प्रिय, मुझ से माँगो वर”

विद्या-बल-वैभव से आँचल पूरा था
रानी का मातृत्व परंतु अधूरा था
“एक पुत्र ऐसा माँगूँ, जो हो अनन्य”
“एवमस्तु” सुन कर राजा हो गए धन्य

शिव की उपासना में थी अंजना उधर
सब कुछ न्याछावर करने को भी तत्पर
पति-पत्नी जब दृढ निश्चय कर लेते हैं
स्वयं ईश भी आग्रह से वर देते हैं

पुत्र-रूप में रूद्र स्वयं गर्भस्थ हुए
रूद्रवतार से सुर-मुनि आश्वस्त हुए
“विद्या-बुद्धि-शक्ति का अद्भूत समीकरण
सदाचार-सेवा का होगा उदाहरण
चिरंजीव होगा सुत पाएगा वंदन
परहित धर्म निभाएगा संकटमोटन ”

अंतर्धान हुए शिव दे कर दान महा
श्रद्धा से सब सुलभ, किसी ने ठीक कहा

तीन रानियाँ थीं कोसलपति दशरथ के
निष्फल कभी न होते राही सत्पथ के
संसृति के सार-रूप की परिणति है
संतति की चिंता से राजा थे विह्वल
उन के पास नहीं था उस का समुचित हल
गुरु वसिष्ठ ने किया यज्ञ-का आयोजन
“अग्निदेव का दान ग्रहण कर लो राजन् ”
चार प्रतापी पुत्रों के तुम अधिकारी
रह जाएगी और न कोई लाचारी ”
कौसल्या –कैकयी के हिस्से दे कर
ज्यों ही उए सुमित्र को देने तत्पर
क्षीर की जगह चंचु आ गया दोने में
क्षण भर लगा चील को ओझल होने में
क्षीर वस्तुतः और किसी को मिलना था
शिव-पसाद से भाग्य किसी का खिलना था
छूटा दोना, चील-चंचु से गिरा वहाँ
अंजलि खोले तपोनिरत अंजना जहाँ
पवनदेव ने कहा-“शुभे, यह ग्रहण करो
यह चरु शिव का पत्र-प्राप्ति-वर वरण करों ”
चैत्र शुक्ल का एकादश था मंगलवार
जिस दिन मेरा हुआ इस धरा प अवतार
मिला अंजना माता को यह धन अमूल्य
पटरानी का सुख-वैभव भी था अतुल्य
हुआ असाधारण उत्सव का आयोजन
सिद्ध-साधकों, तपस्वियों का शुभागमन
दिया सभी ने मुझ को वह आशीर्वचन
जिस को पा कर धन्य हुआ मेरा जीवन
जिस के स्मरण-मात्र से खिल जाता है मन
सचमुच कितना प्यारा होता है बचपन
जहाँ न कोई सीमा और नहीं बंधन
सचमुच बचपन वही, वही सचमुच बचपन
चंचल बच्चों को कपि कहने का प्रचलन
कपि के बचपन का अनुपम है उदाहरण
भूख लगी, देखा मैं ने घर सूना है
माँ न अगर हो घर में, तो दुख दूना है
पिता केसरी नहीं, बढ गया सूनापन
तीव्र भूख से व्याकुल तन था, व्याकुल मन
फल की इच्छा से देखा जब इधर-उधर
पत्तों से भी थे विहीन सारे तरुवर
पतझर थी, पर भूख भूख ही होती है
तभी लाल गोलाकृति-सा फल दीख पडा
मन में हलचल मची, नहीं रह सका खडा
पवन-वेग से उडने लगा खाद्य की ओर
पता नहीं था, वह इतना होगा अछोर
बढता जाता नभ-पथ में आगे-आगे
लगता मानो वह फल भी भागे-भागे
क्षण भर को मन खिन्न हुआ, पर थका नहीं
ऐसी इच्छा क्या, जिस को पा सका नहीं
ज्यों ही आगे बढा, प्रतनु हो गया समीर
लगा तैरने स्वयं हवा में सूक्ष्म शरीर
कुछ क्षण बाद लगा, यह तन जल जाएगा
फल का जो इच्छुक, वह क्या फल पाएगा
वह फल नहीं, सूर्य था, उस दिन सूर्यग्रहण
अंधकार से ग्रसित हो गया धरावरण
राहु इस तरह भी उत्पात मचाता है
कभी न देखा, जाने कौन बचाता है
इंद्रदेव की ओर सभी का ध्यान गया
अभिमानी से कहाँ अभिमान गया
उसने छोडा वज्रवाण, मैं क्षुबब्ध हुआ
हुआ पर्वताकार, सूर्यमंडल के पास
लोगों ने सोचा- यह कोई महाग्रास
ज्योंही भूतल पर मैं लौटा संज्ञाहीन
मता-पिता तुरंत हो गए सेवालीन
माँ को स्नेह-स्पर्श दे गया नवजीवन
पिता भवन का भी मझ को संरक्षण
लगता है अभिशाप, मिला वरदान मुझे
वज्र-अंग, “बजरंग” मिली पहचान मुझे
“हनूमान” यह नाम तभी से प्रचलन में
मैं ही “शंकरसुवन” “ केसरीनंदन” मैं
“आंजनेय”, “मारुति”, आदिक नामों का सार
स्वतः सिद्ध करता है नामों का आधार
नाम-रूप का द्वंद्व सदा भटकाता है
इसीलिए मुझ को कुरूप भी भाता है

वानर जाति, स्वभाव सदा है उच्छृंखल
यज्ञ आदि कर्मों में निरत तपस्वीदल
मैं शिशु, मुझ को ज्ञान-ध्यान से क्या मतलब
घर या बाहर, मुझ को लगें बराबर सब
खेल-खेल में वृक्ष उखाडा करता था
आश्रम-यज्ञस्थली उजाडा करता था
ऋषि-मुनि-तापस सब मुझ से संत्रस्त हुए
विस्मृति को अभिशाप दिया, आश्वस्त हुए

रूप-शक्ति को अगर याद करता रहता
मद का घडा अभी तक क्या भरता रहता
अहंकार के रहते क्या प्रभु मिल पाते
होंठ राम गुण गाने का क्या हिल पाते

(डॉ. चित्तरंजन कर देश के प्रख्यात भाषाविद् हैं । वर्तमान में पं. रविशंकर विश्वविद्यालय में अध्यक्ष, साहित्य एवं भाषा अध्ययनशाला के पद पर कार्यरत हैं । अभी तक इनकी भाषाविज्ञान की 10 साहित्य-समीक्षा की 14 पुस्तकें एवं 51 शोध पत्र राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं । इनके निर्देशन में 16 छात्रों ने पी-एच. डी. एवं 100 छात्रों ने अम.फिल किया है । छत्तीसगढी गीत, हिन्दी बालगीत एवं समकालीन कविता के क्षेत्र में इन्हें विशेष रूप से जाना जाता है । संगीत से गहरी अभिरूचि है इन्हें । हाल ही में उनका एक खंडकाव्य “ संकटमोचन” नाम से प्रकाशित हुआ है जिसमें हनूमान के चरित्र को नये आयाम से उभारा गया है । हिन्दी साहित्य की दृष्टि से इसे महत्वपूर्ण कृति मानी जा रही है । इस खंडकाव्य में कुल 11 सर्ग हैं जिसे हम क्रमशः सृजन-सम्मान की ओर से हमारे पाठकों के लिए प्रकाशित कर रहे हैं । प्रस्तुत है प्रथम सर्ग । हम अपने पाठकों की राय का बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं । संपादक )

1 टिप्पणी:

Unknown ने कहा…

जी आप जेसे लोग अब ब्लोग दुनिया मे आकर अपना ग्यान बांटे वो सराहनीय बात है| आशा करता हु इस माध्यम के द्वारा आप ज्यादा से ज्यादा लिखते रहेंगे|