7/12/2008

समकालीन साहित्य सम्मेलन का 30 वाँ अंतरराष्ट्रीय अधिवेशन दुबई में

मुंबई । समकालीन साहित्य सम्मेलन का 30 वाँ अंतरराष्ट्रीय अधिवेशन संयुक्त राज्य अमीरात के दुबई में होने जा रहा है । मुख्य सम्मेलन 29 जुलाई से 3 अगस्त 2008 तक होगा । ज्ञातव्य हो कि इस संगठन का गठनम धर्मयुग के पूर्व उप संपादक और वरिष्ठ रचनाकार श्री महेन्द्र कार्तिकेय ने किया था । विगत सम्मेलन ब्रिटेन में किया गया था जिसमें अनेक देशों के शताधिक रचनाकारों ने अपना हस्तेक्षेप किया था ।

इस सम्मेलन में विश्व भर के 200 से अधिक अधिक साहित्यकार, हिंदी सेवी, प्रचारक और शिक्षाविद् सम्मिलित हो रहे हैं । सम्मेलन में कई विषयों पर संगोष्ठी होगी जिसमें 1. हिंदी भाषा का साहित्य का अतंरराष्ट्रीय परिदृश्य 2. हिंदी काव्य एवं साहित्य में नारीवाद (उपन्यास एवं कहानी के संदर्भ में) 3. हिंदी उपन्यास में यथार्थ प्रमुख सत्र हैं । इसके अलावा अंतरराष्ट्रीय काव्यपाठ का आयोजन भी इस दरमियान किया जा रहा है।

समकालीन साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष एवं पूर्व सांसद श्री रत्नाकर पांडेय तथा सचिव श्री वैभव कार्तिकेय ने अपनी विज्ञप्ति में बताया है कि इस आयोजन में विश्व भर के हिंदी रचनाकारों को एक दूसरे की रचनाशीलता को समझने और परखने का भी मौक़ा मिलेगा । यह सम्मेलन दुबई में होगा । इसके अलावा हिंदी संस्कृति से जुड़े रचनाकार सद्भाव यात्रा में शरजाह, आबुधाबी, रसलखेमा और रेगिस्तान इलाकों में अपनी दस्तक देंगे । इसमें अभी तक 20 से अधिक देशों के साहित्यकारों ने अपनी सहभागिता सुनिश्चित की है ।

इस सम्मेलन में भारत के 16 राज्यों के साहित्यकारों के साथ छत्तीसगढ़ से जयप्रकाश मानस, डॉ. सुधीर शर्मा, डॉ. जे.आर.सोनी, डॉ. राजेन्द्र सोनी, एच.एस. ठाकुर, सुरेश तिवारी, संजीव ठाकुर, सत्यदेव शर्मा, आर. साहू, रामशरण टंडन, टामन लाल सोनवानी आदि साहित्यकार भाग ले रहे हैं ।

संगोष्ठी में प्रतिभागिता व विस्तृत जानकारी के लिए जयप्रकाश मानस संपादक, सृजन गाथा, एफ-3, माध्यमिक शिक्षा मंडल, पेंशनवाडा, विवेकानंद नगर, रायपुर, छत्तीसगढ़ से संपर्क कर सकते हैं ।

(वैभव कार्तिकेय, मुंबई की रपट)

7/11/2008

ये हैं बस्तर के गांधी


हमें कवर्धा से रमला देहारी का यह लेख मिला है, उसे हम बिना किसी काट-छांट के यहां छाप रहे हैं । देहारी शिक्षक हैं और आदिवासी के लिए कुछ खास अध्ययन से जुड़े हैं । वे मूलतः दंतेवाड़ा ज़िले के निवासी हैं । - संपादक

मैं दंतेवाड़ा जिले में दंतेश्वरी मंदिर में विराजनेवाली लोकदेवी दंतेश्वरी और वहाँ के आदिवासियों के बारे में सबकुछ जानते हुए भी वैसे नहीं जानता जिसे मैं व्यक्तिवाचक संज्ञा में जान सकूँ । हो सकता है कि यह मेरी कमज़ोरी ही कहलायेगी कि मैं बस्तर के किसी गांधीवादी हिमांशु कुमार को नहीं जानता । यह कैसे संभव है कि मैं हर गांधीवादी को जान भी लूँ । पर जिस तरह से मैं कथित गांधीवादी हिमांशु कुमार को अब जान पाया हूँ उससे कह सकता हूँ और समझ सकता हूँ कि क्योंकर गांधीवाद पर आज की पीढ़ी विश्वास नहीं करती ।

मैं कोई पहेली नहीं बुझा रहा । सीधे मुख्य बात की ओर आपको ला रहा हूँ । मैंने बहुत पहले एक लेख पढ़ा था । कभी-कभी मैं इंटरनेट पर प्रकाशित होने वाले ब्लॉग लेखों को पढ़ लेता हूँ । उस लेख का शीर्षक था - ................ और जहाँ तक मुझे याद है, उसके लेखक थे विश्वरंजन । राज्य के पुलिस महानिदेशक और पुलिस महानिदेशक ।


चाहें तो आप भी उसे पढ़ सकते हैं – यह रहा उसका पता (लिंक)


यदि आप उस लेख को पढ़ चुके हों तो आप भी सहमत होंगे कि उस लेख में कहीं भी किसी हिंमांशु कुमार का ज़िक्र नहीं हुआ है । न इशारों में, न बिम्बों में । नामधारी तो प्रश्न ही नहीं उठता । मुझे इस लेख से सुखद आश्चर्य हुआ कि राज्य के पुलिस महानिदेशक के रूप में हमने एक ऐसे विचारक को भी पा लिया है जो राज्य की इज्जत और आदिवासी अस्मिता को भली भाँति पहचानता है और इतना ही नहीं वह प्रजातंत्र के लिए उस तरह से वैचारिक कक्षों में भी पूरी तरह सक्रिय और कटिबद्ध है जितना इस दौर के माओवादी यानी कि अराजक तत्व जो सशस्त्र क्रांति की ज़िद पर दीन आदिवासियों को ही अपनी हिंसा का शिकार कर रहे हैं । इससे पहले हम किसी भी पुलिस अधिकारी की ओर से अपने पक्ष मे वैचारिक फ़ोरमों पर लड़ते हुए नहीं देख पाये । यह पूर्व मध्यप्रदेश के ज़माने की बात न हो तो न हो, पर नये राज्य छत्तीसगढ़ में तो उन्हें इस रूप में अपने हितैषी के रूप में उन्हें मैं आदिवासी होने के नाते नमन करता हूँ जो हमारी वेदना को स्वर दे रहे हैं । हमारे दर्द की दरख़्वास्त स्वयं लिख रहे हैं । इससे पहले हमने पुलिस के अधिकारियों को माँ-बहन की गाली देते अधिक, गुलछर्रे उड़ाते अधिक और व्यवस्था के नाम पर चिंतित कम ही देखा है । और शायद यही कारण हो सकता है कि कार्यपालिका के पंगु, भ्रष्ट और कामचोर हो जाने के कारण ही हम आदिवासियों को शोषण और अपनी मूर्खता का शिकार होना पड़ा । ख़ैर... मेरा उद्देश्य यहाँ विश्वरंजन की भाटगिरी नही है पर मेरी नैतिकता की ओर से तकाज़ा था कि मै एक आदिवासी और पढ़ा लिखा आदिवासी होने के कारण जो महसूसता हूँ उसे ज़रूर लिखूँ । सो लिख रहा हूँ । मैं नहीं जानता कि कितने ऐसे लोग हैं जो मेरी अभिव्यक्ति को वास्तविक मानें । क्योंकि सारी दुनिया हमे अनपढ़, ज्ञानहीन, पिछड़ा, पंरपरावादी और जंगली घोषित करने पर तुला हुआ है । और इस समय भी जबकि हम इक्कीसवीं सदी मे पहुँच चुके हैं और उसकी तब्दीली की आँच को धीरे-धीरे महसूस रहे भी हैं ।


बहरहाल मुख्य विषय पर आता हूँ । दंतेवाड़ा सहित बस्तर और अबुझमाड के बहुत सारे एनजीओ के बारे में सामान्य जानकारी रखता हूँ । मेरे बचपन के मित्र भी वहाँ रहते हैं । मैं तो फिलहाल इन दिनों कवर्धा में रहता हूँ और मास्टरी करता हूँ । मेरा नाम गोवर्धन दिहारी है । मेरा जन्म भी दंतेवाड़ा में हुआ है और बचपन भी वहीं गुज़रा है । मैं पिछले कई वर्षों के समय को जानता हूँ कि कैसे सरकारी लोगों के साथ-साथ एनजीओ के फर्जी दुकानकारों ने अपने स्वार्थ के लिए हम आदिवासियों को लूटा और और वह संकट आज भी जारी है ।

पिछले दिनों मैं रायपुर होते हुए जगदपुर से कवर्धा लौट रहा था । रेल्वे स्टेशन पर बैठे-बैठे भूख लगी तो सोचा कुछ खा पीलूँ । एक छोटे से होटल मे मैने भजिया खरीदी । अचानक मुझे भजिया खरीदते समय एक पीले रंग के अखबार, (जो मुझे लपेट कर भजिया दिया गया था) मैं मेरे पड़ोसी जिले के किसी हिमांशु कुमार का नाम दिखा और मुख्य शीर्षक – वनवासी चेतना आश्रम का पत्र डीजीपी के नाम । (आप चाहें तो उसे पढ़ सकते हैं । मैंने उसे कवर्धा के एक कैफे वाले से स्कैनिंग करवा के यहाँ सबूत के लिए रखा है)

मैंने पहले डीजीपी का एकमात्र लेख पढ़ा था । मुझे तत्काल सदर्भ समझने में कोई दिक्कत नहीं हुई । सो मेरी जिज्ञासा एकाएक बढ़ गई । सोचा कुछ होगा । वह भी मेरे अपने क्षेत्र के बार में है तो क्यों न उसे सहेज के रख लिया जाय । मैं भजिया को खाते समय प्रयास करता रहा कि वह पेपर कहीं से भी अपठनीय न बन जाये । मैं उसे समेट के रख लिया ।

मैं तो पढ़ ही चुका हूँ । आप पढ़ चुके हों तो बतायें कि डीजीपी साहब के इस लेख मे कहाँ लिखा है कि हिमांशु कुमार ऐसा करते हैं, वैसा करते हैं । जब मेरी समझ में नही आयी तो मैं अपने हायर सेकेंडरी के प्रिंसिपल साहब से राय लेना उचित समझा जो हिंदी और राजनीति विज्ञान में अर्थात् दो-दो विषय में एमए हैं । कि सर इस दोनों लेखों को पढ़कर बताये कि कौन वास्तव में बुरा है ? कुछ और भी व्याख्याता भी जुड़ गये मेरी इस उलझन में ।

हम सब लोगों ने जो अंति राय बनायी । इसमे यदि मैं केवल अपनी व्यक्तिगत बात कहूँ तो भी ऐसे हिमांशु कुमार जैसे कथित गांधीवादियों ने ही बस्तर को बेचने और माओवादियों जिसे दुनिया नक्सली या नक्सलवादी कहती है के लिए पोस्टआफिस का काम किया है । ये लोग भी कम दुनियादार नही है जिनका केवल उद्देश्य दिखावा और भीतर से पैसा कमाना है ।

मैंने पत्र लिखकर दंतेवाड़ा के कई लोगों से पूछा कि क्या कोई हिमांशु कुमार नामक कोई व्यक्ति है जो गांधी का गुण गाता है ?

मैं अब इस संकट मैं तो खुद को नहीं फँसा सकता । इसलिए सभी मित्रों का नाम नहीं ले सकता । पर जो मुझे वहाँ से जानकारी मिली है उसे यहाँ रखने में कोई गड़बड़ी नहीं है । मुझे मिली जानकारी अनुसार-

“ हिमांशु नामक व्यक्ति के बारे मे सबकुछ हम नहीं जानते । उसका सब कुछ ऐसा नही है कि आर-पार देखा जा सके । गांधीवादी होता यदि वह, तो उसके बारे में सबकुछ हम जान सकते हैं । वह कब आया – हमे ठीक-ठीक तिथि नही पता । वह जब दंतेवाड़ा आया तो वैसा नहीं था, जैसा आज है । पहले वह कम दाम का कपड़ा पहनता था । उसके पास कोई साईकिल भी नहीं थी । पर अब वह सुनते हैं हवाई जहाज में देश विदेश बुलाया जाता है । उसके जूते भी अब महँगे हैं । एक सयाने पिता का यह भी कहना है कि पहले वह सिर्फ हिंदी जानता था अब कुछ स्थानीय बातों को भी जान चुका है । पहले वह एक घर के लिए कई लोगों के सामने गिड़गिड़ाता रहा। भोले आदिवासियों में से कई लोग उसे अपनी सुविधा अनुसार कुछ जगह देने के लिए तैयार हो गये थे । अब जो भी गैर भारतीय आते हैं उससे ही मिलते हैं । वही वहीं ले जाता है जहाँ हम भी जाने से डरते हैं । हमारे मन में यही प्रश्न उठता है कि यह क्या जादू जानता है, भगवान जाने । पर हमे इससे कोई दिक्कत नहीं । पर हम इसे व्यक्ति पर पूर्ण निर्भर नहीं है । हम इतना तो जानते हैं कि ऐसे लोंगों को सरकार भी पैसा देती है कि वे हमारे बीच रहें । ”
एक मित्र का पत्र में लिखा है कि – यह हिमांशु का एक बार एक व्यक्ति से झगड़ा भी हो चुका है । और कई आदिवासी लोग उसके बारे में बहुत अच्छा नही सोचते । वह जो करता है उससे हमे लाभ हो रहा है पर वह कई बार दादाओं (नक्सलियों का स्थानीय संबोधन) के एरिया में क्यों चला जाता है – खास कर तब जब दिल्ली, विदेश के लोग आते हैं तो – क्या वही उनसे मिलाने के लिए नियुक्त किया गया है ? हम उसका तो बिगाड़ नहीं सकते । न ही उसका बिगाड़ना हमारा उद्देश्य । पर उसके पत्नी और रिश्तेदारों के रहन सहन के बारे मे जो जानकारी मिली है उससे हम कह सकते हैं कि वह गांधी के नाम पर केवल संस्था चलाता है । गांधी जैसा है या नहीं ।

जो जानकारी मिली है उसके अनुसार किसकी हिमांशु कुमार नामक व्यक्ति ने किसी आदिवासी के नक्सलवादियों के हाथों मारे जाने या सताये जाने पर कभी भी पेपर में बयान नहीं दिया है न ही हम आदिवासियों की मीटिंग लिया है न ही हम लोगो को उनके विरूद्द लड़ने के लिए बात किया है । वैसे भी हम उनकी ताकत तो जानते हैं ही हैं । हम यहाँ ऐसा नही कहना चाहते हैं कि वह गांधी जैसा नहीं रहता पर वह जाने क्यों वह हम गरीब जैसा न रहता है न खाता पीता है । वह जो भी करता है देश और विदेश के पैसों सो करता है । हम कैसे उस पर विश्वास करें कि वह हमारे लिए ही आया है ।
जहाँ तक किसी हिमांशु के बारे में हम जितना जानते हैं वह कभी दिल्ली के किसी बड़े नेता का अपने को खास बताता है । गांधी राम या ईश्वर या कि आम आदमी के अलावा स्वय को खास नही बताते थे ।
गांधी उपवास करके लोगों को झुका देते थे । हमने कभी नहीं देखा और नहीं सुना वे दादाओं को समझाने के लिए उपवास रखे हैं । गांधी हिंसा का जवाब अहिंसा से देते हैं । यहाँ वाले हिमांशु जिसके बारे में हम जानते हैं वे हर दिक्कत पर हम आदिवासियों को कोर्ट कचहरी और कानून के लिए जाने की बात करते हैं । कभी नही कहते कि हम अपनी बात को अपनी गुड़ी में ही सुलझायें । गांधी पंचायती राज पर विश्वास करते थे ।
राजनेताओं से कैसे संबंध हैं उनके के जवाब में मेरे परिचितों का कहना है कि राजनेताओं के बारे में हम कम जानते हैं । तो उनके बारे में कैसे जाने कि वे किधर के हैं ?

क्या उस पर विश्वास किया जा सकता है ? के जवाब में कहा गया है कि जो हमारे जैसा नहीं रह सकता । जो हमारे जैसे नहीं सोच सकता । जो हमारे जैसे कपड़े नहीं पहन सकता । जो हमारे कुल गोत्र का न हो । जो हमारे कुल देवता की पूजा नही करता । जो जंगल झाड़ी को अपना आवास नहीं समझता वह कैसे हमारा हो सकता है । और कैसे उस पर पूरा विश्वास करें हम । यदि वह सचमुच गांधी जैसा काम करता तो सभी नक्सवादी नही तो कम से कम दो चार नक्सवादी उससे प्रभावित होकर आत्मसमर्पण कर चुके होते । हमारे कुछ पढ़े लिखे मित्र कहते है कि इनकी संस्था के कर्ता धर्ता स्वयं ये और उनकी पत्नी ही हैं । और कोई लोग या आदिवासी भले ही उनकी संस्था में काम करते हैं वह वे कार्यकारिणी या कोषाध्यक्ष या सचिव के रूप मे हैं ही नहीं । इनके सारे बैंक खातों संचालन वे स्वयं करते हैं । गांधी कम से कम ऐसा नहीं करते थे । वे ट्रस्टीशिप के हिमायत थे ।
हाँ उसकी प्रशंसा करनी होगी कि वह दिल्ली का होकर भी यहाँ रहता है । वास्तव में किन अर्थों में रहता है हमने जानने की पूरी कोशिश नही की है । न ऐसा सोचा है ।

यह सब बात जानने के बाद मैं यही कहना चाहता हूँ कि यह कैसा गांधीवादी है जो कहीं भी लड़ने झगड़ने के लिए तैयार बैठा है । मैं नहीं जानता कि विश्वरंजन कितने आदिवासी प्रिय हैं या यह गांधीवादी । पर दोनों लेखों को पढ़ने के बाद मैं कह सकता हूँ कि विश्वरंजन गांधीवाद के नाम पर शोषण करने वालों के खिलाफ हैं । जबकि हिमांशु कुमार स्वयं को गांधीवाद मानकर विश्वरंजन को चिढ़ाना चाहते हैं – यह कह कर कि यदि गांधी होते तो आदिवासियों की तरफ से लड़ रहे होते और आपकी (विश्वरंजन की हिरासत में होते) और आप यानी विश्वरंजन के रूप में ड़ीजीपी उन्हें माओवादी का खिताब दे चुके होते ।
यहाँ यह साफ समझ में आता है कि पुलिस या राज्य को माओवादी से आपत्ति है और यह भी समझ आता है कि माओवाद से हिमांशु को कोई आपत्ति नहीं है । यह कैसे विश्वास किया जा सकता है कि गांधी माओवाद को पंसद करते । यदि आज वह होते । हिमांशु की बात यानी पत्र से साफ यह भी कहा जा सकता कि वे अपने को गांधी का औलाद कहकर एक और गांधीवाद के नाम बस्तर में अपनी निरंतर उपस्थिति की गांरटी भी चाहते हैं और दूसरी और माओवाद के पक्ष में भी वातावरण बनाना चाहते हैं । यह राजनीति हैं । गांधी होते तो सीधे सीधी अहिंसा की बात करते । पर ऐसा करते वक्त वह हिंसक और आंतकवादियों (नक्सलियों की) के आत्म सुधार के लिए प्रार्थना, उपवास करते । हिमांशु यह कब करते हैं हमे नहीं पता ।
हिमांशु के जबरदस्ती लेख से यह भी मुझे लगता है कि माओवाद को सिर्फ पुलिस का दुश्मन समझते हैं - जब वे कहते हैं कि –
1. सलवा जुडूम के कहने से बच्चों के मुंह से कौर छीन लिया है । और बीमार आदिवासियों की दवा बंद कर दी है ।
2. पुलिस आज भी कानून पर ड़ट जाये ... तो माओवादियों को छोड़ जनता आपके पीछे हो लेगी ।
3. गांट घर बैठे ही आयी है ।

यहाँ मेरा कुछ प्रश्न है कथित हिमांशु जी से, जिसे मैं कभी भी नहीं मिला ।
1. सलवा जुड़ूम नहीं था तो बच्चों के मुंह से कौन नहीं छीनता था । और बीमार आदिवासियों की दवा भी बंद नहीं होती थी । इसका मतलब तो यही हुआ कि बस्तर में सब खुशहाल थे और अस्पताल भी काम करते थे । तब कैसे माओवादी वहां आ धमके । कैसे आपने वहाँ पाँव जमाने का विरोध नहीं किया ? आप तो माओवादी यानी हिंसा के विरोधी थे । गांधीवादी थे । यानी अहिंसक भी । आप यह बतायें यह अस्पताल कौन बर्बाद कर रहा है अब । पुलिस या सरकार या नेता या माओवादी ? क्योंकि आप भी तो वहाँ कई साल से वहाँ रह रहे हैं । क्या पुलिस के आने मात्र से ही बस्तर में सब कुछ बिगड़ गया । और माओवादियों के रहने से सब कुछ ठीक ही चल रहा था । यदि ठीक नहीं चल रहा था तो एक गांधीवादी के रूप मे आपने क्या क्या और कब कब ठीक किया । आपने अपने घर से कितना पैसा लगाया । कितना पैसा रूपया लगाया भारत सरकार का या किसी अन्य देश का । आपने क्या कभी माओवादियों की हिंसा का शांतिपूर्ण विरोध किया ? यदि नहीं किया तो आप कैसे प्रजातंत्र के हिमायती है ? यदि नही हैं तो फिर कैसे गांधी का नाम मिट्टी में मिला रहे हैं ? आप यह बताये कि जब आज आदिवासियों के हर सरंक्षकों को एक एक कर और चुन चुनकर माओवादी मौत के घाट उतार रहे हैं तो आपको कैसे वे छोड रहे हैं जबकि आप तो आदिवासी चेतना के लिए पैसा लेकर काम कर रहे हैं । यह कौन सा गांधीवादी रहस्य है ?
2. आपका मतलब यही है कि पुलिस कानून पर नही डटी है ? या नहीं ड़टी थी । तब क्या आप स्वयं चाहते हैं कि बस्तर पुलिस का अड़्ड़ा बन जाये ? आपके कहने का एक मतलब क्या यही तो नही कि जो भी बस्तर की समस्या है उसके पीछे सिर्फ पुलिस की नाकामी नहीं है । यदि ऐसा है तो वही तो पुलिस राज्य के आदेश पर कर रही है । और राज्य ही क्यों आपके केंद्र का भी तो यही इशारा है । आप जब यह कहते हैं कि माओवादी को छोड़कर जनता पुलिस के पीछे ही हो लेगी – तो क्या इसका मतलब यह नहीं है कि आप माओवादियों की उपस्थिति से पूरी तरफ वाकिफ़ है । इसका यह भी मतलब है कि आप माओवाद की उपस्थिति को पुलिस की अनुपस्थिति में वांछित समझते हैं । या विकल्प समझते हैं । यदि ऐसा नही होता तो आपके लेख में माओवादियों के बारे में भी पोल खोला जाता । गांधीवाद के नाम पर उनकी भर्त्सना की जाती जिसे आपने कभी नहीं किया । मैंने बार-बार आपके नाम को इंटरनेट पर सर्च किया तो मुझे यही मिला कि आप सदैव व्यवस्था के विरोध में बोलने के आदि हैं । और ऐसा मैं बीबीसी हिंदी मे प्रसारित समाचारों के प्रमाण पर कह पा रहा हूँ । वहाँ पिछले वर्षों में जो कुछ भी लंदन बीबीसी से बस्तर के बारे में प्रसारित हुआ है उसमें आपका संदर्भ अधिक है जैसे आपके अलावा दंतेवाड़ा का कोई भी अन्य हितचिंतक था ही नहीं या है ही नहीं । और हितचिंतक ही क्यों मीडिया कर्मी या समाजसेवी भी । बाकी कलेक्टर, बीड़ीओ, आदिवासी नेता, समाजसेवी जायें भाड़ में । क्या आप बताना चाहेंगे कि यह कैसे संभव होता है कि बीबीसी जैसी संस्था केवल आपको ही कोट करती है ? और आप हर बार बस्तर में व्यवस्था का विरोध करते हैं । हाँ आप कभी भी खुलकर हिंसावादियों, नक्सवादियों और माओवादियों के बारे नहीं बोलते । जो भी बोलते हैं उसका मतलब इतना गैर गंभीर होता जिससे किसी भी नक्सलियों की मान हानि नहीं होती ।
3. आपको ग्रांट घर बैठे कैसे मिलती है ? यह हमें सिखने या जानने की नई बात है । या तो आप बड़े तोप से जुड़े हैं या फिर आप इतना तो रिश्वत तो देते हैं - संबंधित ग्रांट वालों को कि वे फट से राशि घर पहुँचा देते हैं । वह भी ऐसे बस्तर में जहाँ कोई फंड आज तक समय से नहीं पहुँचता और वह भी बिना रिश्ववत के । क्या आपको फंड़ देने वाले इतने कारगर व्यवस्था वाले हैं । यदि आपको विदेशी फंड़ मिलता है तो हमें यह भी पता है कि वह किन किन उद्श्यों के लिए और किन किन हांथों से होकर मिलती है ? कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं ? यदि ऐसा है तो आपने अब तक बस्तर या दंतेवाड़ा के विकास के लिए कितनो युवाओं की संस्थाओं का निर्माण किया है ? कितनो को उनके द्वारा स्वयं प्रोजेक्ट उनके ही इलाके में चलाने की पहल की है ? नहीं ना । ठीक भी है । कोई भी दुकानदार ऐसा नहीं करता । किसी और को .... दू बनाना भाई जी ।

हम आदिवासी हैं । आप हमारे नाम पर ज्यादा राजनीति ना करें । प्रचार का भूखा गांधी जी भी नहीं थे । वे केवल काम पर विश्वास करते थे । यदि आपको चेतना ही फैलानी है तो बिलावजह राजधानी की ओर न लपकें । आपका कर्मक्षेत्र पेपरबाजी नहीं । आप चेतना के ज्ञाता है । दंतेवाड़ा में चेतना फैलायें । पेपर में लिखकर असत्य के लिए समय न गवांये । क्योंकि आप तो गांधी के अनुयायी है । सच के अनुयायी हैं । हाँ इसमें यदि आपकी राजनीति हो तो मुझे कुछ भी नहीं कहना । प्रजातंत्र है । कोई भी कुछ कह सकता है । पर सच्चे गांधीवाद है तो अपनी अहिंसा से दंतेवाड़ा की हिंसा को रोकने का कोई करतब दिखाइये आखिर आपके पास भी तो किसी ना किसी रूप में देश विदेश से दंतेवाड़ा के हम परिवारों के लिए एक बड़ा राशि बार बार हर साल मिलती ही जा रही है ।

7/04/2008

दिल्लीवाले भी सच देखना-बोलना सीख रहे हैं..

दिल्ली की पत्रकारिता ने उस मिथक को त्यागना शुरु कर दिया है जिसके लिए उसे अंधा, गूँगा, बहरा और लूला भी कहा जाता था । प्रकारांतर से उसे हितनिष्ठ और स्वार्थी कहा जाता रहा है । दिल्ली, जिसे अल्प पहचानवालों की भाग्यरेखा तय करने का इगो था, लगता है वे अब सच कहने लगे हैं, अपने अंहकार को त्यागकर ।

हो सकता है इसे आप दिल्ली के अपवाद के रूप में भी मानें । पर वास्तविकता यही है कि दिल्ली अब तक छत्तीसगढ़ की माँ-बहन एक करने पर तुला हुआ था । वह कही गयी या पढ़ायी गई बात ही दुनिया को बताती रही । अब इससे कहीं आगे निकलने और दुध का दुध करने के लिए नयी पीढ़ी तैयार दिखती है । जी हाँ, इसकी पहल होती है उमाशंकर जैसे खोजी पत्रकारिता और तटस्थ दृष्टि के मालिक युवा पत्रकार ने, जिसे उसके चाहनेवालों ने बस्तर जाने से रोका भी था । और न जाने क्या-क्या हिदायत दी थी ।

उन्होंने पत्रकारिता की नाक रख ली है । उन्होंने मानवाधिकार के लम्बरदार गौंटिया (जमींदारों के पिठलग्गूओं) के लिए एक नया सबक दिया है कि वे ही सही नहीं है । उनकी आँखों पर अब दुनिया विश्वास नही करने वाली । कहिए कैसे ? तो वह ऐसे कि जिसे परखने के लिए आपको उनकी यह बात पढ़नी होगी । धैर्य के साथ । कुंठा को खूँटी पर टाँग कर । अपने पूर्वाग्रहों को तिलांजलि देकर । यदि आप तैयार हैं तो पढ़िये उनकी सत्यनिष्ठ और संपूर्ण तटस्थ पत्रकारिता की रिपोर्ट जो यहाँ संदर्भित है -

दंतेवाडा़ के सलवा जुडूम कैंप को देखने के बाद मैंने रायपुर की ओर कूच कर दिया। मैं जानना चाहता था कि भारी-भरकम बजट और विदेशी सहयोगियों के सहारे चलनेवाले मानवाधिकार आंदोलनों का जमीनी जुड़ाव क्या है और ऐसा करने के पीछे उनके अपने तर्क क्या हैं? मन में यह सवाल था कि सुरक्षाकर्मी यदि लोगों के मानवाधिकार का हनन कर रहे हैं तो नक्सली क्या कर रहे हैं?

रायपुर में रहकर कई तरह की बातें मानवाधिकारवादियों के बारे में सुनने को मिल रही थी। जिनमें से एक था कि मानवाधिकारवादी सलवा जुडूम का विरोध करके नक्सलवाद को जस्टीफाई कर रहे हैं। दूसरी ओर महेंद्र कर्मा तथा डीजीपी विश्वरंजन से जब मुलाकात हुई तो उन्होंने इस तरह की कवायदों को सलवा जुडूम के खिलाफ एक दुष्प्रचार करार दिया। डीजीपी ने तो यहां तक कहा कि दुष्प्रचार करने वालों को यह तय करना होगा कि आप किसके साथ हैं, प्रजातांत्रिक व्यवस्था के साथ या फिर नक्सलवाद के साथ, यदि आप नक्सलवाद के साथ हैं तो आपको इस देश के संविधान के मुताबिक यहां की सुरक्षा एजेंसियों से कोई नहीं बचा पाएगा। इस तरह उहापोह को लेकर मैंने किसी मानवाधिकार कार्यकर्ता से मिलकर जिज्ञासा शांत करने का निर्णय लिया। रायपुर पहुंचकर मैंने मानवाधिकार कार्यकर्ता सुभाष महापात्र को फोन लगाया तो किसी महिला ने फोन उठाया और कहा कि आप आ जाइये, सुभाष जी अभी घर पर ही मिलेंगे। सवेरे ही मैं ऑटो पकड़ कर सुभाष महापात्र के महावीर नगर स्थित घर की तरफ निकल पड़ा। रास्ते में मैं डीजीपी विश्वरंजन की वह बात बार बार मस्तिष्क में झंझावात उत्पन्न कर रही थी, जिसमें उन्होंने कहा था कि `नक्सली इस देश का संविधान ही नहीं चाहते हैं।´ फिर नक्सलवादियों के आदर्श माने जाने वाले `माओ´ की बात भी याद आती है कि `सत्ता बंदूक की गोली से निकलती है।´ मन में सवाल उठ रहा था कि क्या नक्सलवाद वास्तव में इस देश के संविधान, प्रजातंत्र के लिए ख़तरा है?

यही सब सोचते सोचते मैं महावीर नगर के नाके पर पहुंच गया, मुझे वहां से एमआईजी-22 सहयोग अपार्टमेंट जाना था। पूछने पर पता चला कि सहयोग अपार्टमेंट अभी करीब डेढ़ दो किलोमीटर की दूरी पर है। रिक्शे में बैठकर मैं सहयोग अपार्टमेंट की तरफ चल पड़ा। सहयोग अपार्टमेंट पहुंचकर रिक्शा छोड़कर पैदल ही एमआईजी-22 को खोजना शुरु कर दिया। कई गलियों में ढूंढा, लेकिन जब नहीं मिला तो मैने एक लड़के से पूछा। उस लड़के ने कहा कि `भाई साहब यहां कई लोग आते हैं जो एमआईजी-22 के बारे में पूछते हैं, लेकिन मुझे लगता है कि यह पता ही गलत है।´ उसकी बात सुनकर एक बार तो मैं चकरा गया और संदिग्धता तनिक और बढ़ गई। लेकिन मैं उस गली से बाहर निकल कर आया और नुक्कड़ के एक जनरल स्टोर के मालिक से पता पूछा तो उसने इशारा करते हुए बताया कि उस गली के कोने पर एमआईजी-21 है और एमआईजी-22 भी वहीं होना चाहिए। इतना बताकर उस व्यक्ति के मुंह से सहज ही निकल पड़ा कि वहां तो विदेशी (अंग्रेज) रहते हैं। उसकी बात सुनकर मुझे विश्वास सा हो गया कि हो न हो, वही मेरा गंतव्य स्थान है, क्योंकि अपने देशवासियों के मानवाधिकार की वकालत हम खुद तो कर ही नहीं सकते न, इसके लिए हमें विदेशियों की शरण में जाना ही पड़ता है। वहां जाकर देखा तो एक बड़े से मकान के बाहर बड़ा सा लोहे का गेट लगा हुआ था। गेट पर एक आदिवासी पुरुष लुंगी लपेटे खड़ा था और लुंगी के दूसरे सिरे को घुमाकर उसने कंधे पर रखकर अपने एक हाथ को ढका हुआ था। ध्यान से देखने पर पता चला कि उसका वह हाथ जिसको ढका गया था, इंजर्ड होने के कारण सूजा हुआ था। उस घायल आदिवासी को देखकर यह तो निश्चित हो गया था कि यही मानवाधिकार कार्यकर्ता का घर होना चाहिए।

मैंने उस आदमी को बुलाकर दरवाजा खोलने के लिए इशारा किया। पहले तो आदिवासियों की सहज प्रवृत्तिवश वह सकुचाता हुआ सिर झुकाकर दूसरी तरफ चला गया, लेकिन मैंने जब दुबारा बुलाया तो उसने आकर दरवाजा खोल दिया। अंदर घुसते ही दाहिने हाथ पर दरवाजे के बाहर छोटी सी तख्ती लगी हुई थी, जिस पर लिखा था `एफएफएफडीए´ (फोरम फॉर फैक्ट फाइंडिंग डाक्युमेंटेशन एण्ड एडवोकेसी)। यह सुभाष महापात्र द्वारा चलाए जा रहे मानवाधिकार संगठन का नाम है। दरवाजा खोलते ही सामने एक रॉकस्टार की तरह बाल बढ़ाए हुए गोरा विदेशी कम्प्यूटर स्क्रीन पर नजर गड़ाए हुए बैठा हुआ था। मैने उससे सुभाष महापात्र के बारे में पूछा तो इशारा करते हुए उसने अंदर जाने को कहा। उसके भावविहीन चेहरे को देखकर लग रहा था मानो वह भारत में हो रहे इस तथाकथित मानवाधिकार को लेकर बेहद चिंतित हो। अंदर जाने के लिए जैसे ही मैं बढ़ा तो वहीं पर संभवत: दो अन्य विदेशी मानवाधिकारवादी कम्पयूटर पर नजरे गड़ाए ऐसे तल्लीन बैठे थे, मानो वे निरंतर कुछ ट्रैक करने में जुटे हुए थे। उनमें एक महिला थी, जिसने कानों में हैडफोन भी लगाया था। थोड़ा और आगे बढ़ने पर सामने ही कुछ और लोग खड़े दिखाई दिये, जिनमें कई लोग विशुद्ध जनजातीय वेशभूषा में थे, जिन्हें देखकर सहज ही अनुमान लगाया जा सकता था कि वे आदिवासी हैं।

अंदाजा लगाया जा सकता है कि जब तक आप किसी चीज से अनभिज्ञ हैं तब तक आप समान्य व्यक्ति की तरह बेपरवाह होकर जीवन जी रहे होते हैं, लेकिन जब आप चीजों को समझने लगते हैं तो आप संतोष का अनुभव होता है अथवा निराशा में डूब कर व्यक्ति मानसिक तौर पर अशांत होने लगता है। कुछ ऐसा ही मुझे उन देशी विदेशी मानवाधिकारवादियों और उनके बीच मुंह लटकाये खड़े करीब दर्जन भर आदिवासियों को देखकर महसूस हो रहा था। लेकिन मैंने सहज होने की कोशिश करते हुए पूछा, क्या बात है? सुभाष जी, आप काफी टेन्श दिखाई पड़ रहे हैं। वे बोले हां, अब देखिये न इन लोगों को कोई रात को तीन बजे यहां छोड़कर चला गया और बताया भी नहीं कि ये लोग कौन हैं। सुभाष ने बताया कि उन आदिवासियों में से दो को पुलिस की गोली भी लगी है। यह सुनते ही मेरे मन में सवाल उठा कि क्या ये आम आदिवासी ही हैं, जिन्हें गोली लगी है? संभवत: नक्सली भी हो सकते हैं, क्योंकि दंतेवाड़ा में जिन सुरक्षा बलों पर बाजार में नक्सलियों ने हमला किया था, वे भी तो आम आदिवासियों की ही वेशभूषा में थे. हालांकि यह मेरी तत्कालीन मन:स्थिति की उपज हो सकती है, इसे निर्णायक नहीं माना जाना चाहिए।
उनके पूछने पर मैने बताया कि सलवा जुडूम को लेकर मुझे बात करनी है। इतना सुनकर सुभाष महापात्र थोड़ा अचकचाए फिर उन्होंने कहा कि `सलवा जुडूम तो 2005 से पहले ही शुरु हो गया था। पुलिस इसके लिए काफी पहले से ही रिहर्सल कर रही थी और 2003 में बीजेपी सरकार के आने पर ही इसकी शुरुआत हो गई थी। बकौल सुभाष सलवा जुडूम को नेता लोग चला रहे हैं। मैंने पूछा कि आखिर नेता इस आंदोलन को क्यों चला रहे है? जबकि सरकार और यहां तक कि विपक्ष के नेता महेन्द्र कर्मा भी यह कहते हैं कि यह लोगों का स्व-स्फूर्त आंदोलन है। जवाब में वे कहते हैं कि ऐसा सरकार जंगल में कंपनियों के सम्राज्य को खड़ा करने के लिए कर रही है। लोगों को गांवों से निकालकर लाया जा रहा है, जिससे कंपनियों का रास्ता साफ हो सके। लेकिन साथ ही इस ओर भी ध्यान देना होगा कि आदिवासियों के वनक्षेत्र में बसे गांव छोड़ देने से नक्सलियों की ढाल खत्म हो जाएगी। यह भी नक्सलियों के लिए चिंता का एक विषय है। मैनें अगला सवाल पूछते हुए कहा कि महेन्द्र कर्मा, जो इस आंदोलन के नेता है वे तो बाद में इस अभियान से जुड़े थे, जबकि आप कह रहे हैं कि यह नेताओं द्वारा शुरु किया गया है? इस पर वे कहते हैं कि अगर कर्मा बाद में सलवा जुडूम से जुड़े थे तो वे नेता कैसे बन गए। मैनें पूछ लिया कि नक्सलियों का संघर्ष किससे है और किस वर्ग के हित की लड़ाई वे लड़ रहे हैं? सुभाष थोड़ा तिलमिला जाते हैं और कहते हैं कि इसका जवाब देना मेरा काम नहीं है, मैं एक सामाजिक कार्यकर्ता हूं, यह सवाल आप नक्सलियों से जाकर पूछिये।

सुभाष कहते हैं कि जनता ने वोट के रूप में अपनी शक्तियां सरकार को दे दी हैं और सरकार की जिम्मेदारी बनती है कि वह जनता की रक्षा करे। मैनें कहा कि सरकार ने सुरक्षा के लिए ही तो सलवा जुडूम कैंपों में सुरक्षा बल तैनात किये हैं। जवाब में वे कहते हैं कि आखिर कैम्प में क्यों आदिवासियों को रखा जा रहा है? क्यों नहीं उन्हें उनके गांव में रहने दिया जाता? मैंने कहा कि यदि सलवा जुडूम शिविरों से सुरक्षा हटा ली जाए तो क्या नक्सली गांव वापस जाने पर उन आदिवासियों को जिन्दा छोड़ेंगे? तब क्या आदिवासियों का मानवाधिकार हनन नहीं होगा? वे कहते हैं कि इस बात की क्या गारंटी है कि शिविरों में रहने पर पुलिसवाले इन लोगों को नहीं मारेंगे, उनका मानवाधिकार हनन नहीं करेंगे? वे कहते हैं कि सरकार और प्रशासन ने इस तरह की परिस्थितियों को पैदा किया हैं। आप आदिवासियों को सुरक्षा नहीं दे पाए, विकास नहीं किया जिसका आक्रोश नक्सलवाद के रूप में उभर कर आता है। वे कहते हैं कि व्यवस्था में भ्रष्टाचार है, इसलिए नक्सली टावर गिरा देते हैं। आप इसकी भी सुरक्षा नहीं कर पाते हैं। जब उनसे पूछा गया कि क्या बिजली का टावर गिराने से बस्तर के करीब 20 लाख लोगों का मानवाधिकार हनन नहीं हुआ? इसका जवाब वे गोलमोल कर जाते हैं और कहते हैं कि इसकी परिस्थितियां सरकार ने ही पैदा की हैं।

जब उनसे सवाल किया कि सर्वहारा की वकालत करने वाले नक्सली आखिर उनकी आजीविका के एकमात्र साधन हाट बाजार को क्यों जला देते हैं, उनके गांवों को क्यों जला देते हैं, आंगनबाड़ियों और बाल आश्रमों को क्यों धवस्त कर देते हैं, क्या यह मानवाधिकार हनन नहीं है? सुभाष सीधे तौर पर इसके लिए सलवा जुडूम के नेता महेन्द्र कर्मा पर निशाना साधते हुए कहते हैं कि `गांवों को तो ये नेता लोग जलवा रहे हैं, जिससे आदिवासियों को वहां से बाहर लाया जा सके।´ मैंने पूछा कि दूर दराज के गांवों में बसे करीब 60 हजार आदिवासी किसी नेता के कहने पर क्या इकट्ठा किये जा सकते हैं, जबकि उन्हें यह मालूम हो कि ऐसा करने पर वे नक्सलियों की बंदूक के निशाने पर आ जाएंगे? इस प्रश्न का वे संतोषजनक उत्तर नहीं दे पाते हैं और कहते हैं कि लोगों को जर्बदस्ती कैंपों में लाया जा रहा है। लेकिन जब यह पूछा जाता है कि पुलिसकर्मी भी तो इस लड़ाई में मर रहा है, क्या उसका और उसके परिवार का कोई मानवाधिकार नहीं है? जवाब मिलता है `नहीं, पुलिस का कोई मानवाधिकार नहीं होता, वह तो ड्यूटी पर होता है, मानवाधिकार तो आम नागरिकों का होता है।" क्या हमें सुभाष महापात्र की बात मान लेनी चाहिए?

सुभाष सवाल उठाते हैं कि आपने सलवा जुडूम क्यों शुरु किया? कंधार का उदाहरण देते हुए वे "सेफ पैसेज" की भी बात करते हैं। पुलिस व्यवस्था पर आरोप लगाते हुए वे कहते हैं कि पुलिस भ्रष्ट है, यही कारण था कि नक्सलियों से लड़ने के लिए आए केपीएस गिल भी वापस लौट गए? लेकिन जब उनसे पूछा गया कि केपीएस गिल ने जिस तरह की कार्यवाही पंजाब में की थी, क्या वैसा ही बस्तर में भी हो सकता है? जवाब में सुभाष कहते हैं कि पुलिस को चाहिए की नक्सलियों को गिरफतार करे और कोर्ट में ट्रायल करवाए। अंत में सुभाष कहते हैं कि हो सकता है आप मेरी बातों का संदर्भ बदलकर प्रस्तुत कर दें, क्योंकि अक्सर ऐसा किया जाता है और हम भी ऐसा ही करते हैं। वे कहते हैं कि अगर आप ऐसा करते हैं तो मुझे खण्डन करना पड़ेगा। उस पल मुझे अपने पास टेपरिकार्डर न होने की कमी बेहद खली थी, क्योंकि उनकी इस बात से ऐसा लगा कि संभवत: वे मेरे लिखे को भी गलत ठहरा दें। ख़ैर जो भी हो, इस उठापटक का दुष्परिणाम आखिरकार आम आदिवासियों को ही भुगतना पड़ रहा है।


सच है ना !
अब सचमुच दिल्ली सच कहना सीख रही है । विस्फोट के प्रति आभार । आभार उमाशंकर मिश्र के प्रति भी

दुनिया की सबसे अच्छी पत्रिका तक पहुँचने का रास्ता

इस अंक में
संपादकीय
संपादक को सिर्फ़ संपादक ही बचा सकता हैसंपादक व्यवसायी नहीं । जिस दिन से उसे व्यवसाय का हिस्सा बनाया जा रहा है, उस दिन से वहाँ गंदी नाली का पानी बह रहा है । वहाँ केवल सडांध है । वहाँ न विचार है न संवाद । ऐसे में, उसे कैसे बचाया जा सकता है कि उसे डायरिया न हो। मलेरिया ना हो । व्यवसाय वह मादा ऐनाफिलीज है जिसके काटते ही संपादक मैनेजर हो जाता है । संपादक को बचाने का काम केवल संपादक कर सकता है । मालिक नहीं । मैनेजर नहीं ।

समकालीन कविताएँ
◙ स्मरणीय- नरेश मेहता एवं धूमिल
जितेन्द्र श्रीवास्तव
स्वप्निल श्रीवास्तव
जसवीर चावला
सुभाष नीरव
◙ प्रवासी कवि - सत्येंद्र श्रीवास्तव
माह का कवि - इंदिरा परमार

छंद
ज़हीर कुरैशीरमेशचन्द शर्मा 'चन्द्र'विजय किशोर मानव
विनीता गुप्ताश्याम सखा 'श्याम'देवमणि पांडेय
अनिरूद्द नीरव
◙ माह के छंदकार - योगेन्द्र दत्त शर्मा
◙ प्रवासी क़लम - कमल किशोर सिन्ह
◙ अजय गाथा - उमरिया कैसे बीते राम

भाषांतर
बदचलन औरत - अलबर्ट कामू की कहानी
रेत(पंजाबी उपन्यास/भाग-8 ) - हरजीत अटवाल/सुभाष नीरव

हस्ताक्षर
प्रेमचंद की 128 वीं जयंतीः31 जुलाई पर विशेष पर विशेष
प्रेमचंद के सामाजिक,साहित्यिक विमर्श-कृष्ण कुमार यादव
अपने वैयक्तिक जीवन के संघर्षों से प्रेमचन्द ने जाना था कि संघर्ष का रास्ता बेहद पथरीला है और मात्र संवेदनाओं व हृदय परिवर्तन से इसे नहीं पार किया जा सकता। यही कारण था कि प्रेमचन्द ऊपर से जितने उद्विग्न थे, अन्दर से उतने ही विचलित। वस्तुत: प्रेमचन्द एक ऐसे राष्ट्र-राज्य की कल्पना करते थे जिसमें किसी भी तरह का भेदभाव न हो- न वर्ण का, न जाति का, न रंग का और न धर्म का।

कथोपकथन
प्रेमचंद की 128 वीं जयंतीः31 जुलाई पर विशेष पर विशेष
प्रगतिशीलों ने प्रेमचंद के जीवन के तथ्यों को छिपाया
कमल किशोर गोयनका से जयप्रकाश मानस की विशेष बातचीत
असल में कम्युनिस्टों को भारत में पैर जमाने के लिए भारत के हृदय – हिंदी प्रदेश में प्रवेश करना ज़रूरी थी और वे इसके लिए किसी राजनेता का सहारा नहीं ले सकते थे। उन्हें प्रेमचंद से अधिक उपयुक्त कोई साहित्यकार नहीं मिल सकता था, जिसकी लोकप्रियता हिंदी तथा उर्दू दोनों भाषाओं में थी। यही कारण है कि प्रेमचंद ने ‘प्रगतिशील’ शब्द को ही निरर्थक माना, क्योंकि वे इस शब्द को कम्युनिज्म से जोड़ने को तैयार नहीं थे ।

मूल्याँकन
1857 का सच - रमणिका गुप्ता
ग़ज़ल में व्यंग्य की धार - द्विजेन्द्र द्विज

बचपन
तीन बाल गीत - शरद तैलंग

लोक-आलोक
छत्तीसगढ़ी की तीन लोककथाएँ - जयप्रकाश मानस

शेष-विशेष

आधी दुनिया....
अमेरिका की आधी दुनिया - रचना श्रीवास्तव
तकनीक...
एसएमएस की रंगीन दुनिया - रविशंकर श्रीवास्तव
विचार...
पाला चुनने का अधिकार - संतोष गौड़ राष्ट्रप्रेमी
बिदा करना चाहते हैं, हिंदी को कुछ अख़बार - प्रभु जोशी
आत्मकथा....
मुसाफिर हूँ यारों - संजय द्विवेदी
शोध....
दक्षिण भारत की हिंदी पत्रकारिता - डॉ. सी. जय शंकर बाबु

प्रवासी-पातियाँ
अमेरिका की धरती से....
अमेरिका में क्या देखा - लावण्या शाह
◙पिट्सबर्ग की देन - अनुराग शर्मा


कहानी
सलीना तो सिर्फ़ शादी करना चाहती थी-उषा राजे सक्सेना
दूसरे पलँग पर तकिए के सहारे अधलेटे बोखारी ने जब सलीना के रुदन की आवाज़ सुनी तो वह लेटा नहीं रह सका, किडनी निकाले जाने के कारण बोखारी के 'ब्लैडर' और दूसरी किडनी में बुरी तरह 'इन्फेक्शन' फैल गया था वह तेज़ बुखार में तड़प रहा था फिर भी दर्द से कराहता, ड्रिप स्टैन्ड के साथ खुद को घसीटता हुआ सलीना के बिस्तर के पास रखी कुर्सी पर आ बैठा, 'सलीना, मेरी सलीना, रो मत, मेरी जान' क़हते हुए उसने सलीना माथे को सहलाते हुए आगे कहा, 'सल्लो तू दिल ना छोटाकर तू सिटीकाक्रोफ़' और 'वाशोवा' पहनकर मेरे साथ आइल पर चलेगी ।
चंदमुखी - गोवर्धन यादव
एक और द्रौपदी - शेर सिंह
धरती की ममता - स्टीफनज्विग

धारावाहिक उपन्यास
पाँव ज़मीन पर - शैलेन्द्र चौहान - भाग 3
हमारे घर के एक ओर डोकरी अइया का घर था तो दूसरी ओर एक पतली गली के बाद पलटू दाऊ रहते थे । उनकी पूरी तरह रुई की तरह सफेद हुई दाढ़ी मुझे बहुत अच्छी लगती थी । दाढ़ी थी भी खूब लंबी, एकदम दिव्य पुरुष लगते थे वे, गाँव वाले उन्हें साधू कहते । उनके साथ उनकी एक मात्र संतान बिट्टी रहती थी और बिट्टी का लड़का किशन । किशन मुझसे पाँच छ: वर्ष बड़ा था । हमारे गाँव में स्कूल नहीं था सो किशन कोई दो तीन मील दूर घिटौली पढ़ने जाता । वह कभी-कभी ही हमारे साथ खेलता । एक दिन उनके घर के सामने खड़ा बड़ा सा नीम का पेड़ गिर गया, अब तो हमारे मजे ही आ गए ।

व्यंग्य
मँहगाई है जहाँ, आन-बान-शान है वहाँ - अविनाश वाचस्पति

लघुकथा
तीन लघुकथायें - अभिज्ञात

ललित निबंध
चुनाव जीत गया - गाँव हार गया-कृष्ण बिहारी मिश्र

संस्मरण
सागर मध्य पहाड़ी आश्रय - काप्रि - सुभाष काक

पुस्तकायन

दिल से दिल तक - देवी नागरानी
बेहत्तर दुनिया के लिए - डी डी मायर्स
कारवाँ लफ़्जों का - जयंत कुमार थोरात

ग्रंथालय में (ऑनलाइन किताबें)
लौटते हुए परिंदे(कहानी संग्रह) - सुरेश तिवारी
कारवाँ लफ़्जों का (मुक्तक एवं ग़ज़ल संग्रह) - जयंत थोरात
प्रिय कविताएँ - भगत सिंह सोनी

हलचल
(देश विदेश की सांस्कृतिक खबरें)
उषा राजे सक्सेना का नया कहानी संग्रह विमोचित
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