7/04/2008

दुनिया की सबसे अच्छी पत्रिका तक पहुँचने का रास्ता

इस अंक में
संपादकीय
संपादक को सिर्फ़ संपादक ही बचा सकता हैसंपादक व्यवसायी नहीं । जिस दिन से उसे व्यवसाय का हिस्सा बनाया जा रहा है, उस दिन से वहाँ गंदी नाली का पानी बह रहा है । वहाँ केवल सडांध है । वहाँ न विचार है न संवाद । ऐसे में, उसे कैसे बचाया जा सकता है कि उसे डायरिया न हो। मलेरिया ना हो । व्यवसाय वह मादा ऐनाफिलीज है जिसके काटते ही संपादक मैनेजर हो जाता है । संपादक को बचाने का काम केवल संपादक कर सकता है । मालिक नहीं । मैनेजर नहीं ।

समकालीन कविताएँ
◙ स्मरणीय- नरेश मेहता एवं धूमिल
जितेन्द्र श्रीवास्तव
स्वप्निल श्रीवास्तव
जसवीर चावला
सुभाष नीरव
◙ प्रवासी कवि - सत्येंद्र श्रीवास्तव
माह का कवि - इंदिरा परमार

छंद
ज़हीर कुरैशीरमेशचन्द शर्मा 'चन्द्र'विजय किशोर मानव
विनीता गुप्ताश्याम सखा 'श्याम'देवमणि पांडेय
अनिरूद्द नीरव
◙ माह के छंदकार - योगेन्द्र दत्त शर्मा
◙ प्रवासी क़लम - कमल किशोर सिन्ह
◙ अजय गाथा - उमरिया कैसे बीते राम

भाषांतर
बदचलन औरत - अलबर्ट कामू की कहानी
रेत(पंजाबी उपन्यास/भाग-8 ) - हरजीत अटवाल/सुभाष नीरव

हस्ताक्षर
प्रेमचंद की 128 वीं जयंतीः31 जुलाई पर विशेष पर विशेष
प्रेमचंद के सामाजिक,साहित्यिक विमर्श-कृष्ण कुमार यादव
अपने वैयक्तिक जीवन के संघर्षों से प्रेमचन्द ने जाना था कि संघर्ष का रास्ता बेहद पथरीला है और मात्र संवेदनाओं व हृदय परिवर्तन से इसे नहीं पार किया जा सकता। यही कारण था कि प्रेमचन्द ऊपर से जितने उद्विग्न थे, अन्दर से उतने ही विचलित। वस्तुत: प्रेमचन्द एक ऐसे राष्ट्र-राज्य की कल्पना करते थे जिसमें किसी भी तरह का भेदभाव न हो- न वर्ण का, न जाति का, न रंग का और न धर्म का।

कथोपकथन
प्रेमचंद की 128 वीं जयंतीः31 जुलाई पर विशेष पर विशेष
प्रगतिशीलों ने प्रेमचंद के जीवन के तथ्यों को छिपाया
कमल किशोर गोयनका से जयप्रकाश मानस की विशेष बातचीत
असल में कम्युनिस्टों को भारत में पैर जमाने के लिए भारत के हृदय – हिंदी प्रदेश में प्रवेश करना ज़रूरी थी और वे इसके लिए किसी राजनेता का सहारा नहीं ले सकते थे। उन्हें प्रेमचंद से अधिक उपयुक्त कोई साहित्यकार नहीं मिल सकता था, जिसकी लोकप्रियता हिंदी तथा उर्दू दोनों भाषाओं में थी। यही कारण है कि प्रेमचंद ने ‘प्रगतिशील’ शब्द को ही निरर्थक माना, क्योंकि वे इस शब्द को कम्युनिज्म से जोड़ने को तैयार नहीं थे ।

मूल्याँकन
1857 का सच - रमणिका गुप्ता
ग़ज़ल में व्यंग्य की धार - द्विजेन्द्र द्विज

बचपन
तीन बाल गीत - शरद तैलंग

लोक-आलोक
छत्तीसगढ़ी की तीन लोककथाएँ - जयप्रकाश मानस

शेष-विशेष

आधी दुनिया....
अमेरिका की आधी दुनिया - रचना श्रीवास्तव
तकनीक...
एसएमएस की रंगीन दुनिया - रविशंकर श्रीवास्तव
विचार...
पाला चुनने का अधिकार - संतोष गौड़ राष्ट्रप्रेमी
बिदा करना चाहते हैं, हिंदी को कुछ अख़बार - प्रभु जोशी
आत्मकथा....
मुसाफिर हूँ यारों - संजय द्विवेदी
शोध....
दक्षिण भारत की हिंदी पत्रकारिता - डॉ. सी. जय शंकर बाबु

प्रवासी-पातियाँ
अमेरिका की धरती से....
अमेरिका में क्या देखा - लावण्या शाह
◙पिट्सबर्ग की देन - अनुराग शर्मा


कहानी
सलीना तो सिर्फ़ शादी करना चाहती थी-उषा राजे सक्सेना
दूसरे पलँग पर तकिए के सहारे अधलेटे बोखारी ने जब सलीना के रुदन की आवाज़ सुनी तो वह लेटा नहीं रह सका, किडनी निकाले जाने के कारण बोखारी के 'ब्लैडर' और दूसरी किडनी में बुरी तरह 'इन्फेक्शन' फैल गया था वह तेज़ बुखार में तड़प रहा था फिर भी दर्द से कराहता, ड्रिप स्टैन्ड के साथ खुद को घसीटता हुआ सलीना के बिस्तर के पास रखी कुर्सी पर आ बैठा, 'सलीना, मेरी सलीना, रो मत, मेरी जान' क़हते हुए उसने सलीना माथे को सहलाते हुए आगे कहा, 'सल्लो तू दिल ना छोटाकर तू सिटीकाक्रोफ़' और 'वाशोवा' पहनकर मेरे साथ आइल पर चलेगी ।
चंदमुखी - गोवर्धन यादव
एक और द्रौपदी - शेर सिंह
धरती की ममता - स्टीफनज्विग

धारावाहिक उपन्यास
पाँव ज़मीन पर - शैलेन्द्र चौहान - भाग 3
हमारे घर के एक ओर डोकरी अइया का घर था तो दूसरी ओर एक पतली गली के बाद पलटू दाऊ रहते थे । उनकी पूरी तरह रुई की तरह सफेद हुई दाढ़ी मुझे बहुत अच्छी लगती थी । दाढ़ी थी भी खूब लंबी, एकदम दिव्य पुरुष लगते थे वे, गाँव वाले उन्हें साधू कहते । उनके साथ उनकी एक मात्र संतान बिट्टी रहती थी और बिट्टी का लड़का किशन । किशन मुझसे पाँच छ: वर्ष बड़ा था । हमारे गाँव में स्कूल नहीं था सो किशन कोई दो तीन मील दूर घिटौली पढ़ने जाता । वह कभी-कभी ही हमारे साथ खेलता । एक दिन उनके घर के सामने खड़ा बड़ा सा नीम का पेड़ गिर गया, अब तो हमारे मजे ही आ गए ।

व्यंग्य
मँहगाई है जहाँ, आन-बान-शान है वहाँ - अविनाश वाचस्पति

लघुकथा
तीन लघुकथायें - अभिज्ञात

ललित निबंध
चुनाव जीत गया - गाँव हार गया-कृष्ण बिहारी मिश्र

संस्मरण
सागर मध्य पहाड़ी आश्रय - काप्रि - सुभाष काक

पुस्तकायन

दिल से दिल तक - देवी नागरानी
बेहत्तर दुनिया के लिए - डी डी मायर्स
कारवाँ लफ़्जों का - जयंत कुमार थोरात

ग्रंथालय में (ऑनलाइन किताबें)
लौटते हुए परिंदे(कहानी संग्रह) - सुरेश तिवारी
कारवाँ लफ़्जों का (मुक्तक एवं ग़ज़ल संग्रह) - जयंत थोरात
प्रिय कविताएँ - भगत सिंह सोनी

हलचल
(देश विदेश की सांस्कृतिक खबरें)
उषा राजे सक्सेना का नया कहानी संग्रह विमोचित
संतोष चौबे को रामेश्वर गुरू पुरस्कार
हिंदीभाषियों को इंटरनेट से जोड़ने अनूठी पहल-रफ़्तार
"ज़िंदगी ख़ामोश कहाँ'' हुई लोकार्पित

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