5/20/2006

साहित्य के एकांगी प्रवक्ता और उत्सुक पीढ़ी का असमंजस

आलेख

साहित्य के एकांगी प्रवक्ता और उत्सुक पीढ़ी का असमंजस

*विजय कुमार देव

आज असमंजस में वे हैं जो साहित्य को जानना चाहते हैं, जिन्होंने जान लिया उनकी मान्यताएं भी रुढ़ और दृढ़-सी हो गई हैं । साहित्य क्या है ? इस पर बहुत कुछ, लिखा कहा गया है ।

‘कविता क्या है ?’ निबंध में आचार्य रामचंद्र शुक्ल बहुत गहराई तक विवेचन करते हैं। हमारे यहां काव्य को ही साहित्य कहा गया है। मोटे तौर पर इसी मान्यता के आसपास जब साहित्य-जगत में प्रवेश के लिए उत्सुक पीढ़ी अपने समय के लेखकों के पास जाती है और यह सवाल पूछती है कि परिवर्तन के साथ साहित्य के मापदंड भी बदलते हैं या नहीं ? बदलते हैं, तो आज साहित्य की कोई प्रतिनिधि या लगभग आदर्श परिभाषा उसके पास होनी चाहिये ।

हमारे अग्रज आखिरकार हमें फिर संस्कृत आचार्यो की साहित्य के बारे में दी गई मान्यताओं के पास ले जाते हैं जहां पर कोई शब्द को काव्य कहते हैं, कोई अर्थ को और कोई आनंद देने वाली कृति को । जब अपने समय के लेखकों की मान्यताओं का वह परीक्षण करती है तो पाती है कि स्थिति बहुत आगे नहीं है । जैसे संस्कृत आचार्य एक छोर पकड़कर कह रहे थे, प्रकारान्तर से चालाकी से ये भी वही कह रहे हैं । पूरा सच कोई भी नहीं बता पा रहा है । सब आपस में टकरा रहे हैं । भटकन यहीं से शुरू होती है और उत्सुक पीढ़ी पाश्चात्य शास्त्र अध्ययन की ओर उन्मुख होती है ।

वहाँ उसे पता चलता है कि जो कुछ अंश तक उन्हें परोसा गया उसमें आधा संस्कृत आचार्य का और आधा पाश्चात्य से उधार लिया हुआ था । पाश्चात्य शास्त्र भी उसे पूरा सच नहीं बता पाते । वहां कोई कला, कला के लिए या कला जीवन के लिए जैसे द्वन्द्व में हैं । अपने देश, काल के संदर्भ में साहित्य के प्रसंग में उसकी समस्या का मौलिक समाधान उसे नहीं मिल पाता । इस स्थिति का जानकार होने के बाद उसे लगने लगता है कि जैसे हमारे अग्रज कभी कला, सौंदर्य, आधुनिकता, वैज्ञानिकता, प्रकृति, ईश्वर, प्रगतिशीलता, भौतिकता में से किसी एक को पकड़कर जीवन की अभिव्यक्ति का कमाल करते रहे हैं, तो किसी एक को उन्हें भी अब पकड़ लेना चाहिए । शायद इसी से साहित्य का सच सामने आ जाए । अंततः एक स्थिति में यह पीढ़ी भी किश्त-दर-किश्त उसी जड़ता की गुहा में प्रविष्ट करती हुई एक समय पर साहित्य की एकांगी प्रवक्ता हो जाती है ।

आखिर पूरा सच क्या है ? इस सच को कौन रचता है ? इसकी परिधि क्या है, आयाम क्या है ? इस प्रश्न का समुचित उत्तर जाने बिना न तो साहित्य का सच प्रकट होता है, न साहित्य की आलोचना का । विद्वानों से क्षमा सहित मुझे यह कहना है कि उत्सुकजनों के सामने साहित्य के नाम पर पहले पाठ्यक्रम आते हैं फिर आता है बाज़ार ! जो कुछ हासिल होता है उसमें एक तो चिकने पृष्ठों पर सस्ती फिसलन भरी कृतियां जो मनोरंजन करती हैं, मनोरंजन साहित्य की एकक विशेषता हो सकती है लेकिन सिर्फ मनोरंजन साहित्य की एक विशेषता हो सकती है लेकिन सिर्फ मनोरंजन साहित्य नहीं हो सकता । इसके सर्वाधिक पाठक मिलते हैं, यानी सिर्फ पाठक संख्या भी साहित्य की कसौटी नहीं हो सकती । इससे ऊबा हुआ वर्ग उन लेखकों की किताबों के पास पहुंचता है, जो शिष्ट ढंग से आनंदित करती हैं, एक तरह से उनमें पाठक का मन रमता है लेकिन सिर्फ तात्कालिक आनंद के उसमें स्थायी उपलब्धि नहीं होती ।

क्या कोरा आनंद साहित्य है ? पाठक फिर यथास्थिति के वर्णन वाली पत्रकारिता की विधा के आसपास लिखी किताबें ढूंढ़ता है, लेकिन यहाँ सिर्फ यथास्थिति का वर्णन मिलता है और सिर्फ यथास्थिति का रूप भी साहित्य नही है। चिंतन और विचार की तलाश में पाठक कुछ भारी किताबें उठाता है और उसमें सिर्फ एक खास विचार का प्रतिपादन दृष्टिगोचर होता है । इन सबमें किसी में भाषा का किसी में कथ्य का और किसी में शिल्प का प्रभाव मिलता है ।

मित्रों, इतनी लंबी यात्रा में एक जिंदगी कम पड़ती है । थका हुआ पाठक तब भी यह निष्कर्ष नहीं निकाल पाता कि साहित्य क्या है ? क्या मनोरंजन, आनंद, यथास्थिति चित्रण, विचार या भाषा, कथ्य, शिल्प में से किसी एक की उपस्थिति भी साहित्य हो सकता है ? क्या जीवन को सिर्फ मनुष्य के संदर्भ में ही स्वीकार किया जाएगा ? यहीं से साहित्य में दार्शनिक जिज्ञासाओं का जन्म होता है और किसी विचार को जन्म लेने में एक शताब्दी भी कम पड़ जाती है । तो मित्रों, जब मनुष्य अपने में पूर्ण नहीं है तो साहित्य कैसे पूर्णता को प्राप्त कर सकता है लेकिन लगभग आदर्श या प्रतिनिधि मान्यता का अभाव मौलिक चिन्तन की दरिद्रता का परिचायक है।

साहित्य के विधायक त्तवों की अनुपस्थिति वाला तथाकथित साहित्य दीर्घकालीन नहीं हो सकता । यदि साहित्य में विचार आवश्यक है तो उसकी एक लय भी जरूरी है जिसमें उसे गुना-बूना जा सके । त्याज्य का यदि खंडन आवश्यक है तो मंडित योग्य का तर्क भी आवश्यक है । न तो सिर्फ विद्रोह और न ही अंधभावुकता की अभिव्यिक्ति साहित्य है । साहित्य में जो सहित का भाव है वह संवेदन, अनुभूति अनुभव से गुजरकर समष्टि के धरातल पर अभिव्यक्त होकर सम्प्रेषित होने पर ही सार्थकता पाता है। कोरी शब्द क्रीड़ा, अर्थ विलासिता मात्र भावुक विद्रोह है । जिसका संसार जितना छोटा होगा उसका साहित्य उससे बड़ा भला कैसे होगा।

संसार में हर चीज़ बदलती है और इस बदलाव के बावजूद एक सनातन सत्य, समष्टि का रहस्य निरन्तर जीवित रहता हैं । इसी की खोज में अपने अंगो-उपांगो के साथ साहित्य प्रयत्नशील रहता है । अपने-अपने समय में इस रहस्य को खोजने के लिए प्रयोग होते रहते हैं, लेकिन अंतिम सत्य आज भी रहस्यमय है । जब तक सत्य छिपा हुआ है, साहित्य चलता रहेगा। चूंकि साहित्य का दूसरा, स्रष्टा मनुष्य है इसलिए यह आरोप बेबुनियाद नहीं कि उसने अधिकांश अभिव्यक्तियां स्वकेंद्रित या स्व के आसपास की है । ‘स्व’ से मुक्त होने पर साहित्य समष्टि का मार्ग अपनाता है । इसीलिए आम पाठक की भी यात्रा की शुरुआत ‘स्व’ से रुबरु होते हुए होती है। इसका भटकाव अस्वाभाविक नहीं है । सवाल फिर वहीं छुट गया देश, काल के सन्दर्भ में साहित्य को परिभाषित होना चाहिए या नहीं होना चाहिए ?
जब साहित्य दार्शनिक प्रश्नों से जूझता है तो ये बातें गौण हो जाती हैं । देश, काल का अतिक्रमण करते हुए वैश्विक स्तर पर साहित्य के प्रतिमानों में परिवर्तन अवश्यंभावी है । सौंदर्य का प्रतिमान यदि दक्षिण अफ्रीका में ‘ब्लैक इज ब्यूटी’ है तो गोरों के देश में इसके विपरीत और अन्यथा होना अस्वाभाविक तो नहीं है । समष्टि के धरातल पर पहुंचा सर्जक, विश्वदृष्टा वैश्विक साहित्य सर्जन के पूर्व ‘स्व’ की घेरेबन्दी से निकलकर ‘आत्मा’ के एकरुप सौंदर्य का प्रतिमान रचता है, परमतत्व के साक्षात्कार की प्रक्रिया से गुजरता है । महान साहित्य इस सूक्ष्म आध्यात्मिक साधना की परिणति होता हैं, साहित्य की सर्वसमावेशिता और सार्वभौमिकता इसी बिन्दु पर सिद्ध होती है जहाँ शब्द समाप्त नहीं होते और अनुभूत सम्पूर्ण आन्द अपने पूरे वेग से अभिव्यक्त होना चाहता है । ‘गीतांजलि’ में रवीन्द्रनाथ ठाकुर कहते हैं –

जन्म भर अपने गीतों द्वारा मैं अपने अन्तः करण व जगत् के
दिशा-दिशान्तर में तेरी खोज करता रहा हूं ।
मेरे गीत मुझे घर-घर द्वार-द्वार ले जाते रहे ।
इन गीतों द्वारा मैंने कितनी ही बार इस भुवन में
तेरा संदेश दिया, कितने ही गुप्त
रहस्यों का उद्घाटन किया, कितनी सीख मिली,
हृदय-गगन के कितने ही / तारों से मेरा परिचय हुआ ।
नानाविध सुख-दुख भरे प्रदेशों में मेरे गीतों ने भ्रमण किया
और अन्त में,
संध्या वेला में ये गीत अनेकों रहस्यलोकों से मुझे
न जाने किस भवन में ले आये हैं ।

दिशा दिशान्तर में साहित्य के माध्यम से परमतत्व की खोज का कार्य सर्जक करता है । जिस भी देश के, जिस भी युग में, साहित्य की साधना इस उद्देश्य को लेकर हुई, वह साहित्य काल को अत्क्रमित करता हुआ महान और शाश्वत बना रहा।

समष्टिगत अभिव्यक्ति के सार्थक समुच्चय रचते हुए सर्जक भौतिकता के द्वन्द्व से निःसृत सार्थ क अनुभवों को पिरोता है । समष्टिगत अभिव्यक्ति का तात्पर्य कल्पित अलौकिक अनुभूति की सरलीकृत प्रस्तुति नहीं है । यह एक अनुभव से दुसरे बहुआयामी अनुभव में सर्जकीय रूपांतरण की अविराम यात्रा है। यह महानुभव की महाभिव्यक्ति की दूर्लभ स्थिति है, जहां पहुंचकर साहित्य सर्वत्र अपेक्षाकृत दीर्घजीवी होने की संभावनाओं को जन्म देता है ।

मित्रों,इतनी लम्बी है साहित्य की यात्रा ! उत्सुकरजनों को शीघ्र निराश नहीं होना चाहिए । जो है उससे स्वस्थ और बेहतर की समावेशी दृष्टि अंततः अपनी चरम स्थिति में इसी महानुभूति को छूती हुई सृजन का अप्रतिम सुख पाती है । साहित्य का लगभग सत्य यही है ।
*****
(विजय कुमार देव हिन्दी की प्रख्यात पत्रिका 'अक्षरा' के संपादक हैं । भोपाल में रहते हैं । उन्हें देश के कई संस्थानों द्वारा संपादन कार्य हेतु सम्मानित किया जा चुक है । वे अब 'सृजन-गाथा' के लिए लगातार लिखते रहेंगे । संपादक)

मोहन गेहानी को राष्टीय पुरस्कार

बधाई
रायपुर । मुंबई निवासी सिन्धीभाषी साहित्यकार श्री मोहन गेहानी को अखिल भारत सिन्धी बोली साहित्य सभा द्वारा उत्कृष्ट साहित्य सृजन के लिए सम्मानित किया जा रहा है । श्री गेहानी को 25 हजार रूपयों की सम्मान राशि और सम्मान प्रतीक दिया जायेगा। श्री गेहानी सिन्ध के इतिहास के साथ ही 5 अन्य पुस्तकों के रचयिता है । उन्होंने हाल ही में सिन्ध के हिन्दु राजा सम्राट डाहिरसेन की देशभक्ति और योगदान पर नाटक भी लिखा है । मुहिजो नगर कहिरो(मेरा नगर कौन सा ?) सिन्धी काव्य संग्रह पर आपको मानव संसाधन विकास मंत्रालय नई दिल्ली ने भी पुरस्कृत किया है । (अशोक मनवानी भोपाल द्वारा)
रचनाकार को सृजन-सम्मान परिवार की ओर से हार्दिक बधाई ।

5/19/2006

जयप्रकाश मानस की 2 बाल कविताएँ


मजा चखायेंगे

गीति-नीति गये बाजार,
लाये दर्जन भर अनार।

अनार में लाल दाना नहीं,

मम्मी से बोले ‘खाना नहीं’ ।

अबकी मजा चखायेंगे,
कागज के नोट दे आयेंगे ।


पुलिस उसे लेगी पकड़,
रोयेगा नाक रगड़-रगड़ ।



माँ को खबर लगाती गौरैया

चीं-चीं, चीं-चीं गाती गौरैया,
किसी से ना घबराती गौरैया ।

पास खेलती पास गये तो,
फुर्र से उड़ जाती गौरैया ।

धूम मचाती दिन भर घर में,
शाम ढले सो जाती गौरैया ।

दर्पण में देख रूप अपना,
चोंच उससे लड़ाती गौरैया ।

दूध चुराने जब आती बिल्ली,
माँ को खबर लगाती गौरैया ।

छोटी सी है प्यारी-प्यारी,
रूठकर दूर ना जाती गौरैया ।

जयप्रकाश मानस

5/18/2006

बाल कहानी


बाल कहानी..........डॉ.मालती शर्मा
चंदा, सूरज और पृथ्वी
सूरज बहुत सुन्दर लड़की थी और चन्द्रमा एक सुन्दर लड़का । दोनों को एक दूसरे से प्रेम हो गया सो उन्होंने विवाह कर लिया ।
ठीक समय पर उनके एक लड़की हुई जो माँ की तरह सुन्दर पिता की तरह हंसमुख थी । दोनों उसे अत्यधिक प्यार करते । उन्होंने उसका नाम पृथ्वी रखा । सारे तारे पृथ्वी को पाकर बहुत खुश हुए । ये उसके स्वागत के लिए और झिलमिलाते हुए चमकने लगे ।
चंदा और सूरज को अपनी बेटी पृथ्वी पर बहुत गर्व था । वे अपनी नन्हीं बेटी को आँखों से तनिक भी ओझल नहीं होने देते । दिन और रात सावधानी से उसकी देखभाल करते ।
वे पृथ्वी से इतना प्यार करने लगे कि यह भी भूल गये कि वे एक दुसरे से कितना प्यार करते थे, वे एक दूसरे से दूर छिटकते गये । उनमें झगड़े होने लगे । इससे पहले कि वे एक दूसरे की सूरत भी न देखना चाहने की स्थिति में आयें, उन्होंने अलग हो जाता तय किया ।
अलग होने की व्यवस्था आसानी से हो गई पर पृथ्वी का क्या हो ? दोनों में से एक भी अपनी प्यारी बेटी एक दूसरे को देने को राजी नहीं था । उन्होंने तारों से निवेदन कियाकि वे निर्णय करें कि उन दोनों में से कौन पृथ्वी की देखभाल के लिए श्रेष्ठ रहेगा; पर ऐसा निर्णय बहुत मुश्किल था । तारे यह तय न कर सके । अन्त में उन्होंने कहा कि सूरज और चंदा एक दूसरे के विरूद्ध दौड़ में जीतने वाले के पास पृथ्वी रहेगी ।
दौड़ने का दिन आया ।
चंदा की हवाओं से हमेशा दोस्ती रही थी । उसने हवाओं से पूछा कि क्या वे उसकी दौड़ जीतने में मदद करेंगी ? क्योंकि उसने पृथ्वी को न छोड़ने का निश्चय किया है हवाओं ने मदद की हामी भरी ।
बादल यह बात सुन रहे थे । उन्हें यह उचित नहीं लगा कि सूरज को लड़ने के लिए अकेला छोड़ दिया जाय और चाँद की मदद की जाय । सो बादलों ने पूरी दौड़ को सावधानी से देखकर कोई ऐसा रास्ता निकालना तय किया जिससे सूरज की मदद हो सके ।
तारों ने दौड़ का चक्र तय किया । सूरज और चाँद ने एक साथ दौड़ना शुरू किया पर हवाएँ चाँद के पीछे बहुत तेजी से चलीं इसीलिये चाँद सूरज से तेजी से दौड़ने लगा और उससे आगे निकल गया । उसने जीतने के लिए अपनी गति और तेज़ कर दी ।
पर बादल यह देख रहे थे । उन्होंने तारों को ढक लिया ताकि चाँद यह न देख सके कि कहाँ से मुड़ना है और वह तेज़ गति से दौड़ता चक्र के बाहर चला गया । किन्तु जब सूरज मोड़ पर आया तो बादल तितर-बितर होकर हट गये । तब चाँद यह देख सका कि वह रास्ते से कहाँ हट गया है पर तब तक तो सूरज काफी आगे निकल गया था ।
बहरहाल हवाओं ने चाँद की फिर मदद की और वह फिर रास्ता पकड़ने में सफल रहा और दौड़ का अन्त फिर यह हुआ कि चाँद और सूरज दोनों अंतिम रेखा पर बिलकुल एक साथ पहुँचे और बराबर रहे ।
और इस तरह यद्यपि तारों ने दोनों के बीच का मामला सुलझाने को कोशिश की थी पर वे असफल रहे क्योंकि दोनों दौड़ में बराबर रहे हैं तो यही न्यायोचित होगा कि ये पृथ्वी को आपस में बाँट लें और उन्होंने समय का विभाजन कर कहा कि सूरज दिन के समय पृथ्वी की देखभाल करेगा, साथ रहेगा, जबकि चाँद रात के समय पृथ्वी को देखेगा, साथ रहेगा ।
या तो दोनों यह निर्णय मानें या पृथ्वी को छोड़ दें और भूल जायें । सूरज चाँद दोनों इस पर सहमत हो गये । दोनों के बीच हुआ वह करार आज तक चला आ रहा है । सूरज दिन में पृथ्वी को देखता है, चाँद रात में देखभाल करता है ।
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संपर्कः- फ्लैट न. ब- 8 मधु अपार्टमेंट 1034/1, माडल कालोनी, कैनाल रोड़, पुणे, महाराष्ट्र, 4110156दूरध्वनिः 020-25663316

व्यर्थ होते हुए अथाह में (समीक्षा)

व्यर्थ होते हुए अथाह में

पुस्तक समीक्षाः रमेश अनुपम

‘इतने गुमान’ सुदीप बनर्जी का तीसरा और सद्यः प्रकाशित काव्य-संग्रह है । सुदीप बनर्जी के पहले दो संग्रहों से उनकी पहचान एक कवि के रूप में बनी है जिनके यहाँ समकालीनता का आग्रह या दबाव उस तरह से नहीं है जिस तरह अनेक दुसरे कवियों की कविताओं में है । इधर की हिंदी कविता जिस चातुर्य के साथ अपने समय और समाज में उपस्थित संकटों तथा चुनौतियों से जहाँ बच निकले की कोशिश करती हुई दिखाई पड़ती है, वहीं सुदीप बनर्जी की कविताएँ जैसे सप्रयास इस संकटों और चुनौतियों से जूझने का उपक्रम करती हैं ।
‘इतने गुमान’ में सगृहित कविताएँ एक ऐसे वयस्क कवि की कविताएँ हैं जिसे अपने समय में हो रहे सामाजिक अवमूल्यन और राजनैतिक षड़यंत्रों की सबसे अधिक चिंता है । इस संग्रह की कविताएँ पिछले एक दशक में देश में उभरी हुई ‘नव्य साम्प्रदायिक प्रवृत्ति’ को भी लक्ष्य करती है । उसमें पिसते हुए भारतीय जन-मन की आहत संवेदना और करुणा को दृढ़ता के साथ दृश्य पर रचने का जोखिम उठाती हैं । एक गहन मार्मिकता और प्रखर वेचारिकता इन कविताओं में अलग से दिखाई देता है –

‘उनकी आँखों में झाँकना है
जिन्हें जिंदगी से अभी भी उम्मीद है
जो मंदिर नहीं जाते पर
अपने बच्चों से प्यार करतेहैं
उन्हें पुकारना है अपने अंतरंग तक ।’

सुदीप बनर्जी के इस संग्रह में कुछ कविताएँ अपने दौर के कवि और कविताओं पर भी है । पर यह होना किसी तरह की टिप्पणी की तरह नहीं बल्कि कवि के दुख एवं अवसाद की एक तरह से सफल अभिव्यक्ति है । कवि कविताओं की निरर्थकता और उनके अपने समय के समक्ष व्यर्थ होते जाने की दुखद परिणति को कुछ इस तरह से रचते हैं –

‘इस तरह कविताओं में जीवन को छिपाता हुआ
शुरुआत में होनहार अंततः फकीर
वह चला गया भाषा के अथाह में महज
एक शब्द लाश
कविताएँ प्राण नहीं फूँकेंगी इस खाक में
ग़म ग़लत नहीं करेंगी गुज़िश्ता का
खाली वह एक शब्द लाश
यहाँ वहाँ सेंध करेगा पदावली में जो
निभा नहीं पाएगी अपने वचन
कविताएँ कविताओं को पुकारतीं
हारतीं इस तरह
गज़ब के मुहाने में
व्यर्थ होते हुए इस अथाह में’
(अथाह में)

हमारे समय में ऐसे कवि कम ही हैं जो कविता को लेकर इतने संशय और द्विविधा से भरे हुए हों, जो कविता के निरंतर (अपनी अंतर्वस्तु और अपनी समूचीसंरचना में) संकुचन पर इतनी गंभीरता के साथ सोच रहे हों । सुदीप बनर्जी की कविता लगातार ओट में किए जा रहे इस अत्यंत महत्वपूर्ण विषय को भी दृश्य पर रचने का उपक्रम करती हैं । एक तरह से कविता की आलोचना में आई हुई बाढ़ पर एक बेहतर टिप्पणी की तरह है ।

‘उतना कवि तो कोई भी नहीं
जितने अन्तर्मन के प्रसंग
आहत करती शब्दावलियाँ फिर भी
उंगलियों को दुखाकर शरीक हो जातीं
निर्लज्ज भाषा के निराकार शोर में ।’

सुदीप की भाषिक संरचना पर भी नए सिरे से विचार करने क जरूरत है, जिसमें उर्दू के शब्दों को वे जानबूझकर हिंदी के तद्भव शब्दों के साथ मिलाकर अपनी कविता को बुनते हैं । सुदीब बनर्जी की इस संग्रह की कविताएँ अपने पूर्ववर्ती दोनों काव्य संग्रह की कविताओं की तरह हिंदी आलोचना के लिए भी कोई कम बड़ी चुनौती नहीं है । समकालीनता के प्रचलित काव्य मुहावरों का निषेध करती हुई और अपने लिए नए काव्य मुहावरों की तलाश करती हुई इन कविताओं को गंभीरता से विश्लेषित किए जाने की जरूरत है ।
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संपर्कः डब्ल्यू.क्यू- 4, साइंस कॉलेज कैम्पस, रायपुर छत्तीसगढ़

राजभाषा प्रौद्योगिकी संगोष्ठी

समाचार
मुंबई । पश्चिम रेल्वे हिंदी कंप्यूटिंग फाउंडेशन द्वारा दो दिवसीय भाषा प्रौद्योगिकी संगोष्ठी एवं राजभाषा सम्मेलन आयोजित किया गया । संस्था के सचिव डॉ. राजेन्द्र गुप्त द्वारा द्वारा स्वागत के बाद सरस्वती वंदना कार्यक्रम का शुभारंभ हुआ । पश्चिम रेल के मुख्य प्रशासनिक अधिकारी उत्तम चंद, पश्चिम रेलवे के मुख्य राजभाषा अधिकारी तथा फाउंडेशन के अध्यक्ष ने कहा रेल ने राजभाषा के रथ को प्रगति पर ले जाने में सदा पहल की है तथा पश्चिम रेल हिंदी कंप्यूटिंग फाउंडेशन की स्थापना भी इसी दिशा में एक कदम है । संगोष्ठी का विषय प्रवर्ईतन डॉ. मोतीलाल गुप्त ने किया । इस अवसर पर आयात निर्यात बैंक के नवल किशोर शर्मा, वायदा बाजार आयोग के डॉ. सतीश शुक्ल, हिंदुस्तान पेट्रोलियम के रामविचार यादव, हिंदुस्तानी प्रचार सभा की डॉ. सुशीला गुप्त ने अपने विचार व्यक्त किए । इसके अतिरिक्त ‘एक गांव – एक कंप्यूटर’ प्रकल्प प्रमुख अनिल सालिग्रामकर, आइएल इंफोटेक के निनाद प्रदान तथा साइबर स्पेस मीडिया के एम. एल. श्रीधर ने भाषाई सुविधाओं से युक्त सॉफ्टवेयरों पर अपने प्रस्तुतिकरण भी किए । विशेष अतिथि के रूप में साहित्यकार गिरिजाशंकर त्रिवेदी ने कहा कि जब गांव-गांव की भाषा में कंप्यूटर काम करने लगेगा तभी सही मायनों में विकास होगा । मुख्य अतिथि के पद से बोलते हुए पश्चिम रेल के अपर महाप्रबंधक विवेक सहाय ने कहा कि आयार्य रामचंद्र शुक्ल और पंडित महावीर प्रसाद द्विवेदी, जो हिंदी के पुरोधा कहे जाते हैं वे रेलकर्मी थे । रेल और राजभाषा का पुराना साथ है । इस संस्था की कोशिश भारतीय भाषाओं को कंप्यूटर पर लाने की है । यदि हिंदी कंप्यूटर पर नहीं रही तो प्राकृत और पाली की तरह लुप्त हो जाएगी । प्रमुख वक्ताओं के अलावा संगोष्ठी में विशेष सहभागिता के लिए हिंदी शिक्षण योजना के अनंत श्रीमाली और हिंदुस्तान पेट्रोलियम के राजीन सारस्वत को शॉल व स्मृति चिन्ह देकर सम्मानित किया गया । इसके उपरांत मधु राय लिखित नाटक अश्वत्थामा का मंचन हरवंश सिंह के निर्देशन में हुआ । इस नाटक को पश्चिम रेल महाप्रबंधक राजकमल राव ने पांच हज़ार रुपए पुरस्कार स्वरूप दिए ।
सम्मेलन के दूसरे दिन डॉ. राजेन्द्र गुप्त ने फाउंडेशन द्वारा विकसित सॉफ्टवेयर ‘हिंदी शिक्षक’ और ‘राजभाषा आफिस’ का प्रदर्शन किया । विशेष वक्ता पद्मभूषण न्यायमूर्ति चंद्रशेखर धर्माधिकारी ने कहा कि देवनागरी में हस्ताक्षरऔर घर में मातृभाषा के प्रयोग का संकल्प लें । मुख्य अतिथि माननीय अतिथि रेल राज्य मंत्री नारणभाई राठवा ने राजभाषा आफिस और राजभाषा स्टार्टर की सीडी तथा संस्था की स्मारिका का लोकार्पण करते हुए कहा कि रेल और रेलयात्री हिंदी के प्रचार का सबसे अच्छा जरिया है । फाउंडेशन के प्रयासों को बढ़ावा देने के लिए श्री राठवा ने एक लाख रुपए का सहयोग देने की घोषषा कर डाली । कार्यक्रम का संचालन पश्चिम रेल के जनसंपर्क अधिकारी महतपुरकर ने किया ।
(राजीव सारस्वत, मुंबई ने भेजा। )

मीनाक्षी की लघुकथाएँ


एकः अपाहिज

“अनूप लड़की पसंद आई ?” बिचौलिए ने लड़की वालों के घर से बाहर निगलते हुए लड़के से पूछा ।
“जी... ठीक है...” अनूप ने हकलाते हुए कहा ।

“क्यूं बहन जी आपका क्या विचार है !” बिचैलिए न लड़के की मां से पूछा ।
“विचार... हुंह... पसंद आने लायक है क्या इस लड़की में, न कद-काटी, न रंग-रूप और खानदान देखो...! टटपूंजिए कुछ देने की हैसियत ही नहीं इनकी... और उस पर देखा नहीं... बैसाखियां पकड़े खड़ी थी । अरे यही अपाहिज रह गई है क्या मेरे राजकुमार से लड़के के लिए ।” लड़के की मॉ ने तिलमिलाते हुए कहा।
“अपाहिज ! अरे यही तो सबसे बड़ा गुण है उसका । इसी वजह से सरकारी नौकरी मिली हुई है उसे, पुरे बारह हज़ार रुपए कमाती है हर महीने । और, आपके लड़के के पास है ही क्या, सिवाय डिग्रियों के, बेरोजगार घूमता है... असल में अपाहिज तो यह है न कि वह लड़की ।” बिचैलिए ने तिरछी नज़रों से अनूप की तरफ देखते हुए कहा ।
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दोः त्यौहार
बापू, हम कब मनाएंगे त्यौहार ?
मज़दूर दीनू के बेटे ने ललचाई नज़रों से पड़ोस के अमीर बच्चों को दीवाली के दिन नए कपड़े पहने, मिठाइयां खाते और पटाखे छोड़ते देख मायूस स्वर में पूछा ।
बस्स... बेटा । दो चार दिन की और बात है, फिर चुनाव होने वाले हैं और चुनाव के दिनों में तो नेताजी को हम जैसे गरीबों की याद आती है और वे हमें राशन-पानी, मिठाइयां, कपड़े लत्ते आदि देते हैं ताकि हम खुश होकर उन्हें वोट दें । बस्स... तब ही हम त्यौहार मनाएंगे । दीनू ने उम्मीद भरे स्वर में कहा ।
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मीनाक्षी जिजीविषा
1 ए/29 ए, एनआईटी,
फरीदाबाद, हरियाणा

5/16/2006

डॉ. लाहा की 2 लघुकथाएँ

बदलते रिश्ते

डाक्टर भंडारी आज मजबूरी में रोग साईड से जा रहे थे । एक रोगी की हालत बहुत ख़राब थी । रोगी सड़क के उस पार रहता था । सही रास्ते से जाने में आधा घंटा अधिक लग सकता था ।
यातायात पुलिस ने उन्हें पकड़ लिया । पर फिर उतनी ही आसानी से उन्हें छोड़ भी दिया । उसने कहा, ‘डाक्टर’ तो भगवान का रूप होता है, ‘मेरे लड़के का इलाज आपकी देखरेख में हो रहा है । ज़रा ख़याल रखिएगा ।’
सात दन बाद फिर वैसा ही हुआ । डाक्टर भंडारी पुनः रांग साईड से जा रहे थे । यातायात पुलिस वाले ने उन्हें पुनः पकड़ा । पर अब की बार उसने नहीं छोड़ा नहीं । डाक्टर साहब का चालान काट दिया। वह बोला, ‘उस दिन की बात और थी । मेरा लड़का आपकी देखरेख में था, आज बात और है । लड़का अब दूसरे डाक्टर की देखरेख में है । अब आपकी क्यों सेवा करूंगा ?’
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फैशन

ईश्वर का न्याय भी कुछ अज़ीब ही है । उसने अपने भक्तों में से कुछ को बहुत कुछ दिया है, तो कुछ को कुछ भी नहीं । संसार में बराबर का पलड़ा शायद ही कहीं हो ।
शहर के नुक्कड़ पर शिवदयाल क दुकान है । शिवदयाल दर्जी है, खासा मशहूर है, जितना कमाता है उसमें बर घर चला पाता है ।
उस दिन, एक बड़ी-सी कार दुकान के सामने आकर रूकी । एक फैशनबुल लड़की कार से उतरी । शिवदयाल की दुकान में जाकर बोली, ‘आप मेरे लिए एक खास प्रकार की ड्रेस तैयार कर सकेंगे ?’
शिवदयाल ने ड्रैस का विवरण सुना तो दंग रह गया । ड्रेस में तन का ढकना अत्यधिक कम था । खैर, उसे क्या, उसने नाप ले लिया ।
उस रात शिवदयाल की नींद उचट गई । पास वाले कमरे में लाइट जल रही थी । आइने के सामने शिवदयाल की सोलह वर्षीया लड़की अपने आपको निहार रही थी ; हाथ में वही सुबह वाली लड़की का कपड़ा था ।
पिता को देखकर वह लजा गई ।
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डा. नरेन्द्रनाथ लाहा
(ग्वालियर के मेडिकल कालेज में अध्यापन किया । प्रोफेशन से संबंधित 3 पुस्तकें लिखीं । हिन्दी और अंगरेज़ी में लेखन । अब तक 9 किताबें प्रकाशित, राष्ट्रीय स्तर पर लघुकथा प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत
संपर्क सूत्रः- 27, ललितपुर कालोनी, डा.पी.एन.लाहा मार्ग, ग्वालियर, मध्यप्रदेश-474009, दूरभाषः 322777)

रंजना जायसवाल की दो कविताएँ



स्त्री

सज-सँवरकर
तस्वीर में
बैठने के लिए नहीं है स्त्री
वह छटपटाती है
और बाहर निकल आती है
मुँह ताकता रह जाता है
खाली फ्रेम

सौन्दर्य-बोध

मेरे केश काली घटाओं जैसे नहीं हैं
न आँखें मछलियों-सी
चाँद जैसी उजली हूँ
न फूलों-सी नाजुक

मेरे हाथ खुरदुरे और मजबूत है
धूप में काम करने से
साँवला रंग पड़ गया है स्याह
जुटा लेती हूँ मेहनत-मशक्कत करके
अपना भोजन स्वयं
दूसरों के धन पर नहीं गड़ाती आँख
मेरे देह से फूटती है
एक आदिम गन्ध

रंजना जायसवाल
श्रीपल्ली, गली न.-2, पोस्टः सिलीगुड़ी बाजार,
सिलीगुड़ी-734005