2/23/2010

पंजाबी साहित्यिक जगत की अपूरणीय क्षति

गुलजार सिंह संधू
कई प्रसिद्ध पंजाबी साहित्यकारों का एक महीने के अंतराल में निधन बेहद दुखद है। जोगिन्द्र सिंह राही की साहित्यिक आलोचना बेजोड़ थी। हरभजन सिंह को ज्ञानपीठ पुरस्कार देने वाली कमेटी को उनकी रचना ‘रुख व ऋषि’ की चार लाइनों ने ही मंत्रमुग्ध कर दिया था।

टीआर विनोद की साहित्यिक मूल्यांकन लोगों के दिलों पर स्थायी प्रभाव डालने वाली थी तो संतोख सिंह धीर ने भी साहित्यिक जगत को कई अनमोल रचनाएं प्रदान कीं। हरिन्द्र महबूब ने अपनी लेखनी से खालसा की आन-बान-शान को आगे बढ़ाया और राम स्वरूप अणखी ने पूरे पंजाबी सभ्याचार को मालवा से परिचित करवाया।

भविष्य की युवा पीढ़ी इन लेखकों द्वारा साहित्यिक जगत में दिए गए अनमोल उपहारों की सदा ऋणी रहेगी। इस दुखद सफर का एक यात्री मैं भी हूं। कुछ साहित्यिक संस्थाओं का बुजुर्ग प्रतिनिधि होने के नाते इन प्रोग्रामों पर जाने की जिम्मेदारी भी मुझ पर आन पड़ती है जिन्हें श्रद्धांजलि समारोह कहा जाता है। अचानक ऐसी परिस्थितियां जब सामने आती हैं तो बहुत दुख होता है। ऐसे समय में मेरा ध्यान परम सत्ता के उस द्वार की ओर चला जाता है जो हंसते-खेलते परिवारों और भाईचारे का सुख-चैन छीनने के लिए वक्त-बेवक्त खुलता है। कई बार इस पर गुस्सा भी आता है पर उसकी इच्छा के आगे किसका जोर चलता है। महबूब के स्वर्गवास की खबर मुझे दिल्ली यात्रा के दौरान मिली। इससे तीन दिन पहले ही मैं चंडीगढ़ में धीर की शोकसभा में शामिल होकर आया था। पहला शोक समाचार ही दिल को बेचैन कर रहा था कि मोबाइल पर अणखी के स्वर्गवास की भी सूचना मिल गई।

दिल्ली पहुंचकर पंजाबी साहित्यिक सभा की बैठक में पांचों महारथियों को श्रद्धांजलि देने हेतु दो मिनट का मौन रखा गया। अगले दिन साहित्य अकादमी की जनरल कौंसिल की रवीन्द्र भवन में मीटिंग हुई। उन्होंने 24 भाषाओं के दिवंगत साहित्यकारों के नाम प्रकाशित किए थे। कुछेक के जीवन का संक्षिप्त विवरण भी साथ में दिया गया था। सूची को पूर्णता प्रदान करने के लिए इसमें 38 नाम और शामिल किए गए जिनमें से चार पंजाबी साहित्यकार थे, आठ उर्दू साहित्यकार और 11 हिंदी के। प्रबंधकों ने खड़े होकर दिवंगतों के लिए दो मिनट का मौन धारण करने के लिए कहा और फिर बैठक में लिए जाने वाले निर्णयों पर बहस शुरू हो गई। संस्कृत के समर्थक साहित्य अकादमी से संस्कृत के लिए विशेष स्थान का आग्रह करने लगे। एक सदस्य ने इसका विरोध करते हुए कहा कि अगर संस्कृत इतनी ही बेहतर है तो इसे हर साल पुरस्कार क्यों नहीं मिलता? जब इस दलील का कोई असर नहीं पड़ा तो एक सदस्य ने इस वर्ष स्वर्गवास हुए साहित्यकारों की सूची में भी संस्कृत के साहित्यकारों की गैरमौजूदगी पर इशारा किया।

मैंने जब इस सूची पर नजर डाली तो सच में इसमें पंजाबी, हिंदी और उर्दू के साहित्यकारों के काफी नाम थे पर संस्कृत के किसी साहित्यकार का नाम नहीं था। मनचले सदस्य की दलील हास्यास्पद थी लेकिन एक क्षण के लिए मुझे लगा जैसे धर्मराज की जल्दबाजी से हमारी भाषा का सम्मान ही नहीं बढ़ा बल्कि जाने वालों को शहीद का भी रुतबा मिल गया। भगवान में आस्था रखने वाले लोग पंजाबी साहित्यकारों के निधन को अपने ढंग से ले सकते हैं पर पंजाबी साहित्यिक जगत को जो नुकसान हुआ है, उसकी क्षतिपूर्ति के लिए हमें मिलकर प्रयास करने होंगे।(दैनिक भास्कर में छपा)

2/21/2010

सत्यजीत को मिला पाटलीपुत्र नाट्य सम्मान


जगदलपुर। सांस्कृतिक एवं सामाजिक संस्था अभियान की चर्चित प्रस्तुति गांधी का सपᆬल मंचन बिहार की राजधानी पटना में आयोजित पाटलीपुत्र नाट्य महोत्सव के रजत जयंती वर्ष के उपलक्ष्य में विशेष रूप से हुई। नाटक गांधी के अलावा देशभर से पधारे चिन्हीत नाट्यकर्मियों का सम्मान भी किया गया, जिसमें बंगाल के वरिष्ठ कलाकार रूद्रप्रताप सेनगुप्ता, बिहार के वरिष्ठ नाट्य लेखक रामेश्वर प्रेम एवं छत्तीसगढ़ के रंगनिर्देशक सत्यजीत भट्टाचार्य, पाटलीपुत्र नाट्य सम्मान से सम्मानित हुए। ज्ञात हो कि सत्यजीत अभियान के माध्यम से विगत २० वर्षों से बस्तरिया कलाकारों को अखिल भारतीय मंच उपलब्ध करवा रहे हैं।अब तक इस नाटक में अंचल के कई युवाओं ने अभिनय का जौहर दिखाया है। पटना में संस्था को सांसद सिने अभिनेता शत्रुघ्न सिन्हा ने भी अपनी शुभकामनाएं दी। कलाकारों में केतन महानंदी, सुनील बघेल, विक्रम कुमार सोनी, अश्विनी अग्रवाल और सुधीर दत्त शर्मा ने अपने अभिनय का जौहर दिखाया। वही मंच परे सत्यजीत भट्टाचार्य का संयोजन, संकल्पना, निष्पादन और निर्देशन तो था ही संगीत संयोजन में श्रवण मरकाम, जबकि विशेष सहयोग हेमंत दीक्षित, सिद्घार्थ मुखर्जी व समलूराम का मिला। विश्व रंगमंच दिवस २७ मार्च को अभियान संस्था द्वारा जगदलपुर में नाटकों की श्रृंखला का मंचन करने की योजना है

2/20/2010

कहें दिनेश्वर कविराय' कविता-ग़ज़ल संग्रह का विमोचन

मुंबई : युवा कवि, पत्रकार दिनेश्वर माली रोहिड़ा रचित कविता, गीत, ग़ज़ल संग्रह `कहें दिनेश्वर कविराय' का विमोचन कालाचौकी, मुंबई स्थित मुठलिया रेजीडेंसी में जैनाचार्य चंदानन सागरजी के पावन सान्निध में भवन निर्माता तथा समाजसेवी मदनलाल मुठलिया, शांतिलाल कवाड़, उद्योगपति केआर बेदमुथा की ओर से किया गया। ह्मकहें दिनेश्वर कविराय' काव्य-संग्रह की भूमिका वरिष्ठ पत्रकार, मीडिया विशेषज्ञ निरंजन परिहार ने लिखी है। कवि दिनेश्वर माली राजस्थान के सिरोही जिले में स्थित रोहिड़ा गांव के मूल निवासी हैं। २२ वर्ष की अल्पायु में उनकी कविताओं तथा ग़ज़लों की यह दूसरी पुस्तक है। इससे पहले `धारा राजस्थान' नाम से काव्य-संग्रह प्रकाशित हो चुका है। कवि माली `द फ़िल्म राइटर्स एसोसिएशन मुंबई के सदस्य हैं, जिनके रचित कविता, गीत, ग़ज़ल, आलेख, समाचार तथा साक्षात्कार देश की विविध लोकप्रिय पत्र-पत्रिकाओं तथा समाचार पत्रों में प्रकाशित होते रहे हैं। उल्लेखनीय है कि दिनेश्वर माली रोहिड़ा अब तक क़रीब २ ह़जार से अधिक कविताएं लिख चुके हैं, `जिन्हें' अल्पायु में काव्य साहित्य तथा पत्रिकारिता के क्षेत्र में विशेष कार्य करने के उपलक्ष्य में मानवाधिकार सुरक्षा समिति, राजस्थान के प्रदेश अध्यक्ष महेंद्र भाटी की ओर से `किसान कवि' की उपाधि से सम्मानित किया जा चुका है। कवि माली लिखित `मुंबई में मारवाड़', `मैं और मेरी मुलाकातें', `माली ओलखाण मुंबई', `सिरोही की शान' इत्यादि पुस्तकें संकलन तथा संपादन में हैं तथा `मैं और मेरी मुरली', `कविराज' `दरीए में प्यास पानी', `दुल्हन के कंगन' आदि कविता, गीत, ग़ज़ल की पुस्तकें प्रकाशनाधीन हैं। `कहें दिनेश्वर कविराय' के सफ़ल प्रकाशन पर गुजरात के मुख्य मंत्री नरेंद्र मोदी, राजस्थान के मुख्य मंत्री अशोक गहलोत, राजस्थान साहित्य अकादमी के पूर्व अध्यक्ष अजीत गुप्ता, आबू समाचार के संपादक संजय चतुर्वेदी, ऑल इंडिया एंटी करप्शन कमेटी से जुड़े उत्तम जैन, विधायक राज के पुरोहित, सांचौरी माली समाज युवा समाज के संगठन मंत्री सांवलाराम माली सहित मानवाधिकार सुरक्षा समिति, राजस्थान के प्रदेश अध्यक्ष महेंद्र भाटी, सुरेश सोलंकी, राजेंद्र परमार ने शुभकामना संदेश प्रेषित कर कवि माली को शुभकामनाएं प्रदान की हैं।

लोकार्पण संपन्न जुन्याली आस सशक्त उत्तराखंडी रचना ``गढ़माऊं'' के उत्तराखंड की भाषा बनाये जाने पर गंभीर चर्चा

मुंबई : उत्तराखंडी लोक साहित्य एवं संस्कृति को समर्पित हिमाद्रि, हिमालयन कल्चरल सोसायटी एवं उत्तरांचल विचार मंच के संयुक्त तत्वावधान में विगत २४ जनवरी अपराह्न में काशीनाथ धुरू सभागार दादर में पूर्ण मनराल की उत्तराखंडी काव्यकृति ``जुन्याली आस'' का लोकार्पण समारोह अध्यक्ष नंदकिशोर नौटियाल (प्रखर पत्रकार संपादक `नूतन सवेरा') के करकमलों से संपन्न हुआ। अपने वक्तव्य में श्री नौटियाल ने कहा कि पूर्ण मनराल साहित्य को समर्पित एक जुनूनी व्यक्तत्व है, उनके सशक्त लेखन की छाप ``जुन्याली आस'' है।

इससे अन्य रचनाकारों को भी उत्तराखंडी बोली भाषा में लिखने का हौसला मिलेगा। उत्तराखंडी प्रवासी समाज की भारी उपस्थिति में पूर्ण मनराल के रचना संसार पर सर्वश्री राजेंद्र रावत, श्रीमती हंसा कोश्यारी, दयाकृष्ण जोशी, केसर सिंह बिष्ट, डॉ राजेश्वर उनियाल, प्रो. राधा बल्लभ डोमाल, दिनेश ढौडियाल, हरवंश बिष्ट तथा श्रीमती राजेश्वरी नेगी, राके खटरियाल, गोविंद सिंह रावत ने अपने वक्तव्यों में उन्हें एक सशक्त कवि-कथाकार बताते हुए कहा कि ``जुन्याली आस'' ने उत्तराखंडी बोली भाषा के सहज रूप में एक उत्कृष्ट रचना समाज को दी है, जिसमें उत्तराखंड के जनजीवन की काव्यात्मक झलक मिलती है। श्री भीष्म कुकरेती ने उत्तराखंड की बोली भाषा पर विस्तार से बोलते हुए कहा कि पूर्ण मनराल बधाई के पात्र हैं जिन्होंने मुंबई में ४६ वर्ष बाद उत्तराखंड की बोली-भाषा में अपनी नाट्य कृति समाज को दी है।
लोकार्पण पर उत्तराखंडी बोली भाषा पर परिसंवाद एवं उत्तराखंडी सुरमई काव्य गोष्ठी का भी आयोजन किया गया जिसमें सर्वश्री भुवनेंद्रसिंह बिष्ट गुरुजी, केसर सिंह बिष्ट, बलदेव राणा, डॉ. दीवा भट्ट, डॉ. राजेश्वर उनियाल, हरि मृदुल, पूर्ण मनराल, डांमूखूड़ी, भीमसिंह राठौड़, रामचमोली, राजेश बहुगुणा, भगतसिंह शाह, संजय बलोदी आदि ने अपनी रचनाआें से वातावरण को जीवंत कर दिया। सभी वक्ताओं ने उत्तराखंड की एक भाषा, के रूप में गढ़वाल और कुमाऊं के संधि स्थल की भाषा को ``गढ़माऊं'' के रूप में विकसित करने की जरूरत बताते हुए राज्यस्थापना के बाद उत्तराखंडी बोली भाषा की समृद्धि के लिए मिलजुलकर कार्य करने का आह्वान किया। इससे पूर्व प्रवासी समाज द्वारा समारोह में सर्वश्री गौरीदत्त बिनवाल, द्वारका प्रसाद भट्ट, दर्शनसिंह रावत, श्रीमतीआरएस रावत, हरवंश सिंह बिष्ट, विमल मनराल, मीनाक्षीचंद, अनीता ढौडियाल, शेरसिंह पुजारा, एनबी चंद, प्रकाश नेगी, मोहन सिंह बिष्ट, चंदन मनराल, श्रीमती जया बिष्ट, सुधाकर थपलियाल, बुद्धि प्रसाद देवली, सूर्यमणि पंत, धर्मानंद खतूड़ी महाराज, प्रताप जखमोला, महीपाल सिंह नेगी, सीआर नौटियाल, गोपाल मेहरा, महेंद्र सिंह सौनी, दिनेश बिष्ट, गोविंदसिंह रावत, रमेश गोदियाल, ज्योति राठौर आदि गणमान्य भारी संख्या में उपस्थित थे।
श्री नंदकिशोर नौटियाल मुख्य अतिथि डॉ. दीपा भट्ट और श्री पूर्ण मनराल का शॉलएवं पुष्प गुच्छ देकर सत्कार किया गया।

जगदीश किंजल्क को `अभिनव शब्द शिल्पी' अलंकरण

भोपाल : राष्ट्रीय ख्याति के अंबिका प्रसाद दिव्य स्मृति प्रतिष्ठा पुरस्कारों के संयोजक, लोकप्रिय पत्रिका `दिव्यालोक'' के संपादक, साहित्यकार जगदीश किंजल्क को विगत २४ जनवरी को स्थानीय रवींद्र भवन में अभिनव कला परिषद, भोपाल की सैंतालीसवीं साल गिरह के अवसर पर आयोजित एक भव्य समारोह में मध्य प्रदेश शासन के स्थानीय शासन मंत्री श्री बाबूलाल गौर के हाथों `अभिनव शब्द शिल्पी' की मानद उपाधि प्रदान की गयी। समारोह की अध्यक्षता प्रसिद्ध साहित्यकार कैलाश चंद्र पंत ने की।

भोलानाथ कुशवाहा का जयपुर में सम्मान

जयपुर : भोलानाथ कुशवाहा को जयपुर के पिंकसिटी प्रेस क्लब में २४ अक्टूबर को चतुर्थ राजेंद्र बोहरा स्मृति काव्य पुरस्कार प्रदान किया गया। भोलानाथ इलाहाबाद में `आज' अखबार में समाचार संपादक पद पर कार्यरत हैं। उन्हें यह पुरस्कार वरिष्ठ साहित्यकार नंदकिशोर आचार्य ने प्रदान किया। उन्हें शॉल और स्मृति चिह्न भेंट कर सम्मानित किया गया। स्व. बोहरा की पत्नी इंदिरा शर्मा ने उन्हें पांच हज़ार रुपये का चेक भेंट किया।

सूत्र सम्मान कल

ठा।पुरन सिंह स्मृति सूत्र सम्मान समारोह २१ फरवरी को जगदलपुर के गोयल धर्मशाला में संपन्न होगा। सूत्र जगदलपुर द्वारा आयोजित इस साहित्यिक समारोह में देशभर के रचनाकारों की उपस्थिति में युवा कवि केशव तिवारी को सूत्र सम्मान से सम्मानित किया जाएगा। गोयल धर्मशाला में आयोजित होने वाले इस विशिष्ट साहित्यिक समारोह में मुख्य अतिथि के रूप में रचनाकार श्री वाचस्पति, वाराणासी उपस्थित रहेंगे एवं कार्यक्रम की अध्यक्षता चर्चित आलोचक जीवनसिंह, जोधपुर करेंगे। साथ ही विशिष्ट अतिथि के रूप में युवा कवि त्रिलोक महावर, जांजगीर एवं ठा रामसिंह नारायणपुर उपस्थित रहेंगे।प्रातः ११.३० बजे से आयोजित होने वाले इस साहित्यिक आयोजन के प्रथम सत्र में सूत्र सम्मान कार्यक्रम में युवा कवि केशव तिवारी की कविताओं पर बसंत त्रिपाठी, शाकीर अली एवं रजत कृष्ण अपना आलेख प्रस्तुत करेंगे, तत्पश्चात दूसरे सत्र में दोपहर के २.३० बजे कविता पाठ का कार्यक्रम संपन्न होगा जिसमें नगर एवं बाहर से आए कवियों का कविता पाठ होगा। इस सत्र में युवा कवि केशव तिवारी, महेश चंद्र पुनेठा एवं संतोष अलेक्स के कविता संग्रह आसान नहीं विदा कहना, भय अतल में एवं कविता के पक्ष में नहीं, अंग्रेजी कवि जयंत महापात्र का हिन्दी अनुवाद व साहित्यिक पत्रिका सर्वनाम का लोकार्पण कार्यक्रम भी संपन्न होगा। इन दोनों सत्रों का संचालन जीएस मनमोहन एवं भास्कर चौधरी करेंगे। सूत्र सम्मान के महत्वपूर्ण आयोजन में रचनाकार शिरकत कर रहे हैं। जिसमें महत्वपूर्ण है बसंत त्रिपाठी नागपुर, संतोष एलेक्स विशाखापटनम, नासिर अहमद सिकन्दर, कमलेश्वर साहू भिलाई, शाकिर अली रायगढ़, संजय शाम, नंद कसारी रायपुर, रजत कृष्ण, शैलेष साहू बागबहारा, विजय राठौर, नरेन्द्र श्रीवास्तव,सतीश सिंह, नागवंशी जाजंगिरी, त्रिजुगी कौशिक, देवांशु पाल बिलासपुर, पाथिक तारक नांदगांव, मांझी अनंत, युगल गजेन्द्र, कमेश्वर कुमार, सुबोध देवांगन धमतरी, निर्मल आनंद कोमा, भास्कर चौधरी, सूरज प्रकाश राठौर कोरबा सहित नगर के समस्त रचनाकार उपस्थित रहेंगे।
बंटवारा का मंचन
अंचल की नाट्य, लोकनृत्य, रंगारंग सांस्कृतिक कार्यक्रम तथा बाल नाट्य शिविर आयोजित करने वाली संस्था प्रतिबिम्ब कला परिषद २० फरवरी को राष्ट्रीय विद्यालय मंच में संध्या ७.३० बजे से लेखक वीरेन्द्र कुमार भारद्वाज की कृति नाटक बंटवारा का मंचन करेगी।

2/19/2010

हाशिए पर ईमानदारी !

आर के विज

माँ-बाप बच्चों को रोज ईमानदारी का एक पाठ पढ़ाया करते थे। आजादी की लड़ाई के किस्सों में, ईमानदारी और समर्पण की भावना ओत-प्रोत रहती थी। दादी माँ की कहानियाँ आदर्श नागरिक बनने की नसीहत के साथ खत्म होती थी। परंतु, आजकल ईमानदारी, बुजुर्गों के घर के कोने में रखी पुरानी लाठी की तरह हो गई है। जिसकी कभी-कभार याद आने पर ही सुध ली जाती है। ईमानदारी की कीमत तो कई बार प्रताड़ित या अपमानित भी होकर चुकानी पड़ती है। चारों ओर भ्रष्टाचार का बोलबाला है। अखबारों में बेईमानों के यशगान और अकूत संपत्ति का लेखा-जोखा प्रतिदिन मुख्य पृष्ठ पर पढ़ने को मिलता है। मानो उनके शरीर में रक्त के स्थान पर बेईमानी प्रवाहित हो रही हो। ईमानदारी का किस्सा, यदि अखबार में जगह पा भी जाए तो अक्सर ऐसे पन्ने पर छपता है, जहाँ शायद ही किसी की नजर जाए। समूचे संसार में ०९ दिसंबर को भ्रष्टाचार विरोधी दिवस के रूप में मनाया जाता है। परंतु, यह तारीख शायद ही किसी को याद हो। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भ्रष्टाचार को मापने का सूचकांक भी है। ट्रांसपेरेन्सी इंटरनैशनल एक गैर शासकीय संस्था द्वारा वर्ष १९९५ से लगभग सभी देशों का सर्वेक्षण करके एक भ्रष्टाचार सूचक दृष्टिकोण सूचकांक प्रकाशित किया जा रहा है। कुल १८० देशों के सर्वेक्षण में भारत ने वर्ष २००९ में ८४ वाँ स्थान प्राप्त कर अपने भ्रष्ट होने का ओहदा पिछले वर्ष के लगभग बराबर बनाए रखा है। वर्ष २००७ में हम ७४ वें स्थान पर थे। यह सूचकांक सरकारी संस्थाओं, नौकरशाहों एवं राजनेताओं द्वारा किए जा रहे भ्रष्टाचार का सूचक है। लोगों की सोच एवं दृष्टिकोण का सूचक जो रिश्वत लेने एवं खरीद-फरोख्त में की जाने वाली अनियमितताओं का द्योतक है। भ्रष्टाचार की होड़ ने देश में बाघों की तरह तेजी से लुप्त हो रही ईमानदारी को मापने का सूचक बनाने की मशक्कत भला कौन करे? वर्ष १९०१ की बात है। राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी दक्षिण अफ्रीका से वापस भारत लौटने की तैयारी में थे। परंतु, एक वर्ष के भीतर यदि आवश्यकता पड़ी तो उन्हें वापस दक्षिण अफ्रीका लौटना पड़ेगा। दक्षिण अफ्रीका से आत्मिक लगाव के कारण गाँधी जी यह शर्त मान गए। उन्हें विदाई देने वालों का तांता लग गया। लोगों ने गाँधी जी को सम्मान में महँगे-महँगे तोहफे भी दिए। सोने की घड़ी, हीरे की अँगूठी और कस्तूरबा को सोने की चैन। तोहफा देने वाले लगभग सभी गाँधी जी के मुवक्किल थे। परंतु, इन कीमती तोहफों ने गाँधी जी की नींद हराम कर दी। वह रात भर सो नहीं सके और कमरे में चहल-कदमी करते रहे। सोचने लगे, क्या एक लोकसेवक को ऐसे तोहफे स्वीकार करना चाहिए? काफी मानसिक द्वंद्व के बाद गाँधी जी ने एक दस्तावेज तैयार किया और समाज के हितार्थ एक ट्रस्ट बनाने का लेख एक पारसी (रूस्तम जी) के नेतृत्व में न्यासियों के नाम लिख डाले। वर्ष १८९६ से १९०१ तक मिले सभी तोहफे उन्होंने वापस कर दिए और भारत लौट आए। तोहफे, सम्मान का प्रतीक न होकर अधिकार का पर्याय बन गए हैं। जिसे देखो, हर मौके पर तोहफे मिलने की आस लगाए रहता है, न मिलने पर कभी-कभी गुर्राने भी लगता है। कुछ भेंटकर दो तो फाइल को पंख लग जाते हैं और फटाफट टेबल बदलने लगती है। सरकार ने लोकसेवकों के लिए आचरण नियम भी बनाए, परंतु पालन कराने वालों को ताकत नहीं दी। भ्रष्टाचार कम करने के लिए कई कमेटियाँ बनीं, वर्षों अध्ययन पश्चात कमेटियों ने अपनी अनुशंसाएँ भी दीं। इंजीनियर लोगों पर प्रायः हर कार्य में परसेंटेज लेने के आरोप लगते हैं तो पुलिस पर रिपोर्ट न लिखने के। अब तो आफिस के बाबू भी रंग जमाने में लगे रहते हैं। विलियम शेक्सपियर ने कहा था : "ऑनेस्टी इज द बेस्ट पॉलिसी। इफ आई लूज माइन ऑनर, आई लूज माइ सेल्फ।" परंतु, जॉर्ज बर्नार्ड शॉ ने कहा : "वी मस्ट मेक द वर्ड ऑनेस्ट बिफोर वि केन ऑनेस्टली से टू ऑर चिल्ड्रन दैट ऑनेस्टी इज द बेस्ट पॉलिसी।" अर्थात बच्चों को ईमानदारी का पाठ पढ़ाने से पहले हमें स्वयं यह पाठ पढ़ना होगा और अपने आचरण में सुधार लाना होगा। ईमानदारी के पक्ष में इसका गुणगान करना होगा, साथ ही साथ ईमानदारी को हाशिए से ऊपर उठाकर मुख्यधारा में लाना होगा। अतिशयोक्ति नहीं होगी, अगर इसके लिए एक अलग मंत्रालय ही खोल दिया जाए-डिपार्टमेंट फॉर ऑनेस्टी ।(लेखक छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ पुलिस अधिकारी हैं।)

2/06/2010

छत्तीसगढ़ी साहित्य में समकालीन चेतना -

अशोक सिंघई
विकास के नैरंतर्य में मनुष्य ने समूहों, समाजों और संगठनों में रहने की कला का निरन्तर विकास किया। सफलता, उपलब्धि और अस्तित्व की सुरक्षा की जिजीविषा से आतप्त मनुष्य ने सहेजने, सँवारने और बाँटने की क्रियाओं की अनिवार्यता को अपनी प्राकृतिक शक्तियों में समाहित किया। दुनिया को और उसके अनंत सांसारिक व्यापार और व्यवहार से अपना रिश्ता ढूँढती, समाज व समूहों से तादात्म्य स्थापित रखती मनुष्य की अपनी एकाकी काया अपनी अस्मिता की भी तलाश करती है। आकाश के अबूझ सितारों से लेकर भूगोल की घाटियों में भटकती, इतिहास की परतों और भविष्य की धुँध को टटोलती उसकी जिज्ञासा की अँगुलियाँ, सह-अनुभूतियों एवं सह-अनुभवों के शीतोष्म को जब महसूसती हैं तो वह उसे संचित ज्ञान के कोष अर्थात् साहित्य-रूप में अपनी नस्ल को विरासत के तौर पर सौंपने के सत्कर्म को स्वीकारती है।इस आदिम सोच ने साझे के सिद्धांत को अपनाते हुए मनुष्य को अपनी अदृश्य और अनूठी शक्तियों- शक्ति, स्मृति और फिर कल्पना का आभास हुआ होगा। हर मनुष्य के लिए मानवता की यह सतत-यात्रा प्रारंभ और अंत के वलय से गुज़रती है। यह उसके लिए अंतिम, पर मानव की नस्ल के लिए अनन्तिम और अनन्त होती है। हर मनुष्य अपने जीवन में पूर्वातीत की सारी यात्राओं को एक बार फिर जीता है। हर मनुष्य मानवता की चिर और निरन्तर यात्रा का अपने तईं संवाहक होता है।मनुष्य ने स्वप्न बुने। प्रस्तर-युग से चिप-युग तक की यात्रा में मनन-चिन्तन, विचार, व्यवस्था, सत्ता, संगठन जैसे दुधारी हथियार उसके हाथ लगे। हमारी सोच, हमारे विचार, संजोया ज्ञान और अनुभव, समय की समझ और समय की माँग, हमारे स्वप्न, हमारे आदर्श, हमारे लक्ष्य साझे होने चाहिए, सबके होने चाहिए, सबके लिए होने चाहिए। जैसे-जैसे ज्ञान बढ़ता जाता है, वैसे-वैसे यह बोध भी बढ़ता है कि अभी भी कितना कुछ अज्ञात है। हमारी सारी संगठनात्मकता, हमारा सारा ज्ञान ऐसा हो जो मनुष्य और अंततः मानवता के पक्ष में खड़ा नज़र आये। इन्द्रियों की शक्ति, ज्ञान और चेतना के नैरंतर्य ने हमारी निर्भीकता बढ़ाई, हममें सौन्दर्यबोध विकसित किया, हमारे सपनों को रंग दिये। मुद्रा के आविर्भाव के पूर्व लेन-देन की आविष्कृत संक्रिया से व्यवसाय की समझ विकसित हुई। यात्राओं ने दूरियाँ घटाईं। उत्तर से दक्षिण, पूरब से पश्चिम, यात्राओं के आध्यात्मिक और व्यावसायिक दौर का सदियों का इतिहास है। पूरा विश्व पहुँच के भीतर समाने लगा। अर्थ की अद्भुत विनिमयता से बाज़ार बना और यह वामनावतार सिद्ध हुआ। सौन्दर्य-बोध ने सर्वश्रेष्ठता की परिकल्पना को साकार किया और फिर शुरू हुई प्रतिस्पर्धा। क्षमतायें समृद्ध होतीं हैं, प्रतिस्पर्धा सेे। प्रतिस्पर्धा के लिये किसी भी समूह अथवा संगठन का सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण हथियार होता है मनुष्य। आज का युग तकनीक का युग है। तकनीक से मनुष्य जुड़ा है और मनुष्य से मनुष्य। मनुष्य की दक्षता और क्षमता की कोई अंतिम सीमारेखा नहीं है। इकाई में व्यक्ति अपनी एक विशिष्ट और वैयक्तिक सत्ता रखता है। व्यक्ति और व्यक्ति मिलकर समूह बनाते हैं। समूहों और समाजों के समुच्चय से राष्ट्र बनता है। प्रकृति प्रदत्त सारे संसाधनों के मूल्य सम्वर्धन (वेल्यु एडीशन) में मानव संसाधन ही एकमात्र ऐसा संसाधन है जिसका कि प्रबंधन देश को सर्वोच्च बनाता हुआ प्रगति के शिख तक ले जाता है। ज्ञान मनुष्य की मूल शक्ति है, सम्वेदना नहीं। ज्ञान से शक्ति का और सम्वेदना से प्रेम और करुणा का सीधा संबंध होता है। ज्ञान से सम्वेदना की उत्पत्ति होती है अथवा सम्वेदना से ज्ञान की। मुक्तिबोध जैसे मूल वैज्ञानिक चिंतक और प्रखर समाजशास्त्री साहित्यकार इस गुत्थी को सुलझाने में ताउम्र लगे रहे। उन्होंने यूँ ही ज्ञानात्मक सम्वेदना और सम्वेदनात्मक ज्ञान की बात नहीं की थी। जरा विचार करें, सम्वेदना शून्य ज्ञान विष और ज्ञान शून्य सम्वेदना बाँझ होती है। वस्तुतः ज्ञान और सम्वेदना की सहक्रिया से ही विकास का भु्रूण पनपता है। किसी भी प्रदेश और देश को मानव के संबंध में उसकी सम्वेदना एवं प्रवृत्ति को हमेशा ध्यान में रखना होता है। हमारी इक्कीसवीं सदी में यह अनहोनी हो रही है कि बाज़ारवाद की अन्तर्वृत्ति से विकसित हो रही औद्योगिक संस्कृति में ज्ञान को सूचना से और सम्वेदना की नैसर्गिक प्रवृत्तियों को लाभ-हानि की त्वरित गणना से विस्थापित किया जा रहा है। पत्थरों के ईश्वरों को पूजते-पूजते हम ईश्वर बनने की राह में पत्थर होते जा रहें हैं। मिथेले फूको ने कहा है कि - विचारों के इतिहास को टटोलते हुए परंपराओं की निरंतरतायें नहीं, विच्छिनतायें और क्रम-भंगतायें अधिक महत्वपूर्ण हैं। ये अवरोध ज्ञान के संग्रहण में दख़ल देते हैं तथा ज्ञान की तानाशाही को रोकते हुए, ज्ञान के आधिपत्य को भंग कर एक नए समय को दर्ज़ कराने का दबाव बनाते हैं।विज्ञान और संस्कृति की उपलब्धियाँ अब कमोबेश सार्वभौम हैं। अगर पश्चिम का अंधानुकरण या तीब्र आधुनिकीकरण सामाजिक परिवर्तन का विवेकपूर्ण रास्ता नहीं है, तो भारतीय रूढ़िवाद इसका विकल्प भी तो नहीं है। हमारा अतीत हमारी रक्षा करने में समर्थ नहीं है। हमारा वर्तमान भविष्य के आकर्षण में तेजी से अतीत से पल्ला छुड़ाता नज़र आता है। अतीत में झाँकने पर भविष्य नज़र आता है वैसे ही जैसे झील में चाँद का अक्स। यह तो सिद्ध हो गया है कि भाषा, शिक्षा, आवागमन और संचार परिवर्तन के प्रमुख कारक है। मानव समूह की भाषा और शिक्षा इस अमूल्य और असीम संसाधन की उत्पादकता सुनिश्चित करते हैं। दिक़्कत यह है कि हम स्कूलों में तो अँग्रेज़ियत चाहते हैं और घरों में पौराणिक कथाओं के सीरियल्स् अथवा आस्था व संस्कार के चेैनल्स्। आधुनिकता और परंपरा के संबंध द्वन्द्वात्मक रहे हैं। उसी तरह अतीत और भविष्य के संबंध द्वन्द्वात्मक हैं।व्यावसायिक प्रतिस्पर्धा के दर्शन पर टिका है हमारा वर्तमान। प्रतिस्पर्धा का अस्तित्व ही ’श्रेष्ठता-भाव’ के बचे रहने का बोध है। प्रतिस्पर्धा का अस्तित्व तभी तक है, जब तक सर्वोत्कृष्ट होने की शेष अभिलाषा है। प्रतिस्पर्धा का कोई एक रूप नहीं होता। यह बहुरूपिया है। सफल होने और शीर्ष पर बने रहने के लिए इसे पहचानना हर युग की अनिवार्यता है। सर्वोत्कृष्ट होने की दुर्धर्ष जिजीविषा से प्रतिस्पर्धा प्रारंभ होती है और इस जिजीविषा के क्षरण से संगठन विनष्ट हो जाते हैं। बाज़ार में टिके रहने के लिए, बने रहने के लिए दिलो-दिमाग, दोनों की ज़रूरत है। प्रश्न यह है कि अपनी स्थायी इकाई मानव यात्रा में हम क्या कर रहे हैं? छत्तीसगढ़ प्रदेश के हर एक नागरिक को अपनी भूमिका के प्रति संवेदनशील, सक्रिय और जागरूक होना होगा। हम सामुहिक रूप से अधिक परिणाम दे सकते हैं। क्या खूब कहा गया है, ‘‘है ज़रूरी दूरियों पर सोचना, अपनी भी रफ्तार देखा कीजिये; हाँथ दिखते हैं सभी के एक से, हाँथ के हथियार देखा कीजिये।’’इक्क्ीसवी सदी का पहला दशक अपने अंतिम चरण में एक विश्वव्यापी मंदी का एक वैसा ही दौर लेकर आ रहा है जैसा कि विश्वयुद्धों के उपरान्त अनुभव में आया था। आधुनिकता, उच्च जीवन-स्तर और विज्ञान तथा तकनीकी के सारे लाभों का आस्वाद खारा होने लगा है। जब भी समुद्र-मंथन करना होता है, तब मानव और दानव, दोनों ही शक्तियों को एक धरातल पर खड़ा होना पड़ता है। विश्व-बाज़ार समुद्र है, आपूर्ति और माँग वासुकि के दो छोर हैं। उत्पादक शक्तियों से बनता है पर्वत मेरू। प्रश्न यह है कि हमारेे पास क्या शिव हैं? हलाहल का क्या होगा? मंथन के बाद वैसे भी अमृत उन्हीं में बँट जाता है जिन्हें कभी विष नहीं पीना होता। किसी भी संगठन में, किसी भी मनुष्य में देव और दानव, दोनों ही प्रवृत्तियाँ कमोबेश उपस्थित रहती हैं। अगर निरापद अमृत लक्ष्य है तो दानवत्व को देवत्व में बदलते रहने के उपक्रम गंभीरता से जारी रखने होंगे और इन सबमें साहित्य की भूमिका के महत्व से भला कौन इंकार कर सकता है। मनुष्य ईश्वर की सर्वोत्तम कृति है उसके मानवीय सदगुणों, क्षमा, परोपकार, परदुखकातरता, कार्य के लिए समर्पण, परिश्रम एवं लगन से कार्य करने पर वह आदर्श मनुष्य कहलाता है। सम्प्रेषण अनिवार्य है। सटीक सम्प्रेषण के लिये भाषा भी सटीक होनी चाहिये। उल्लेखनीय है कि काम को सहजता से करने की दृष्टि एवं समस्त मानवीय संसाधन को एकजुट करने में जमीनी भाषा की सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका निश्चित है। हमारे प्रदेश में जनता की भाषा छत्तीसगढ़ी है। विकास के लिये हिमालयीन प्रयासों में जनता को दिल से जोड़ना होगा और इस भगीरथ प्रयास में जनता की भाषा अनिवार्य होगी। जहाँ चाह है, वहाँ राह है। एक अच्छा और जिम्मेदार साहित्यकर्मी भाषा के भावुक प्रवाह में नहीं बह सकता। भाषायी सौहार्द्र के मूलमंत्र को छोड़कर यदि कुछ सुगबुगाहटें होती भी हैं तो बे निर्वंश ही रह जायेंगी। भाषा को लागू करने के संदर्भ में व्यवस्थित कार्यशैली को आत्मसात् कर इसे अपने यहाँ भी वैसे ही अमल में लाने की जरूरत है जैसे कि देश में हिंदी को लाने के लिये अपनाई गई है। भाषा का काम जोड़ना है, तोड़ना नहीं। देश के दूरदर्शी नेतृत्व ने जो दीर्घकालीन योजनायें बनाईं थीं, उनके मूल में इसी सोच की ही ताकत है। कहा जाता है कि दीर्घावधि तक चले देवासुर संग्राम में अन्ततः विजयी होने के लिये देवों ने अनेक प्रयास, अनुष्ठान आदि किये। सुफल के रूप में आनंद का घट देवताओं के हाथ लग गया। आनंद शक्ति और पराक्रम का अविरल स्रोत होता है। आनंद का यह घट असुरों के हाथ न लग जाये, यह चिन्ता उन्हें सताने लगी। वे सब भारी सोच में पड़ गये कि असुरों से इसे बचाकर रखना है तो आखिर कहाँ रखें? बहुत सोचने-विचारने के बाद आखिरकार देवताओं ने एक अति-सुरक्षित स्थान खोज ही लिया और वह था हृदय। सर्वद्रष्टा सहित सभी, सब कुछ देखते हैं, पर हृदय में कोई नहीं झाँकता या यूँ कहें कि झाँक नहीं पाता। इसके लिये विशेष सामथ्र्य चाहिये। इस सबसे निरापद जगह पर देवताओं ने आनंद का घट छिपाकर रख दिया है। हम सब कुछ ढूँढते हैं, सब जगह खोजते हैं, परन्तु हृदय नहीं टटोलते। आनंद का घट वहीं सुरक्षित पड़ा रहता है। सच्चा साहित्यकार अपने मानव समाज के हृदयों को टटोलना जानता है। भाषा को कारग़र हथियार में बदलने की पहली ्यर्त है आपसी विश्वास। यह संस्कृति, भाईचारे और सम्वेदना के वेग से परिचालित अन्तःसलिला है। यह खूबी छत्तीसगढ़ी साहित्यकार अपनी रचनाओं में कैसे लायेगा है, यह उसकी अपनी रचनात्मकता होगी।