10/28/2007

35 वर्षों से 17 घंटे प्रतिदिन रेडियो सुनने वाला शख्स

रेडियो कभी नहीं मर सकता, खासकर तब जब मोहनलाल देवांगन जैसे लोग हों और उनकी दीवानगी बची रहे । दरअसल रेडियो है ही ऐसी चीज़ जिसे भी इसका चस्का लग जाये, जो भी इसके महत्व को जान ले, शायद ही वह रेडियो से दूर हो सकता है । जी हाँ, हम यहाँ ऐसे ही नायाब रेडियो प्रेमी के बारे में कुछ कहने जा रहे हैं जो विगत 35 वर्षों से प्रतिदिन 17 घंटे रेडियो सुनते हैं । उनका रेडियो तभी बंद होता है जब वे सो जाते हैं । आपके मन में प्रश्न उठ खड़ा हो रहा होगा कि वे जब चलायमान होते हैं तो कैसे करते हैं ? चलिए हम ही बताये देते हैं – उनकी साइकिल और मोटर सायकिल में भी रेडियो वर्षों से शोभा बढ़ा रहा है । वे चाहे काम पर हों या कहीं यात्रा पर हों उन्हें रेडियो के बिना देख पाना असम्भव सा है । हमें जब पता चला तो जिज्ञासा हुई कि उनसे मिला जाय। आख़िर यह शख्स करते क्या हैं ? यानी कि उनकी दिनचर्या क्या है । उनसे मिलने का जिम्मा उठाया मेरे बेटे ने । दरअसल मुझे समय भी नहीं निकाल पा रहा था । मैंने ताकीद किया – गुणी आदमी होंगे । पर तुम सहजता से बातचीत करना । बेटा प्रशांत जब मिला तो वह भी आश्चर्य हो उठा । उसने पहली ही बार में देवांगन से बातों ही बातों में साक्षात्कार जैसी चीज तैयार कर लीं । पेशे से टेलरिंग का काम करने वाले श्री देवांगन अपनी सिलाई के लिए भी जाने जाते हैं । उनके टेलरिंग शाप में कई कारीगर काम करते हैं । अब तो मेरा बेटा भी स्कूल से लौटते वक्त उनके शॉप से होकर ही घर लौटता है । वह बताता है कि चाहे कितना बड़ा आदमी भी उनके पास सुट सिलवाने क्यों न आये वे रेडियो बंद नहीं करते । लोग उन्हें टी.वी.चैनलों की बात करते हैं पर पर हँसकर टाल देते हैं । वे मानते हैं कि रेडियो ज्ञान-विज्ञान के बीच मनोरंजन का साधन है पर टी.व्ही. मनोरंजन के दुनिया से निकलने ही नहीं देता । आँखे भटकती रहती हैं । बहरहाल पढिये आप भी किशोर बालक प्रशांत और रेडियो के दीवाने श्री देवांगन के बीच हुई बातचीत का सारांश - संपादक


प्रश्न - आप रेडियो कब से सुनते है ?
उत्तर - 1972 से रेडियो सुनना प्रारंभ किया और पिछले 35 साल से सुन रहा हूँ।


प्रश्न - सबसे पहले किस उद्घोषक की आवाज़ में रेडियो सुना और कौन सा कार्यक्रम ?
उत्तर - मैनें सबसे पहले उद्घोषक बरसाती भैया और बिसाहू भैया की आवाज़ में चौपाल नामक कार्यक्रम सुना।


प्रश्न - आप पहले कौन से कार्यक्रम सुना करते थे ?
उत्तर - घर आंगन बिंदिया, आप मन के गीत, सुर-श्रृंगार, आप के गीत।


प्रश्न - आप का सबसे पहला पत्र कब और किस कार्यक्रम में सम्मिलित हुआ ?
उत्तर - मेरा पहला पत्र -आपके मीत ये गीत कार्यक्रम में 1983 में लाल राम कुमार सिंह के द्वारा सम्मिलित किया गया।


प्रश्न - कहाँ-कहाँ सुनते हैं ?
उत्तर - घर में 6-9, फिर मोटर साइकिल में । दुकान में तो आप देख ही रहे हैं ।


प्रश्न - रेडियो के बिना कैसा लगता है ?
उत्तर - लगता है जैसे दम निकल रहा हो । रेडियो मेरी प्राण है । इसके विना में नहीं रह सकता हूँ। बिजली नहीं तो बैटरी से सुनता हूँ ।


प्रश्न - आप कहां के रहने वाले हैं ?
उत्तर - वैसे तो मेरा निवास ग्राम कुम्हारी, थाना आरंग,पोस्ट गौरभाठ, जिला रायपुर छ।ग. है। पर अब वर्षों से शक्ति नगर, मेन रोड (शंकर नगर) रायपुर छ.ग. में रहता हूँ । मेरा टेलरिंग का कार्य है, जो कटोरा तालाब, रायपुर छ.ग. मे स्थित है।


प्रश्न - रेडियो से कैसे जुड़े ?
उत्तर - गाँव में स्थानीय मनोरंजन के साधनों के अलावा एक रेडियो ही था जो संचार और सूचना के साथ-साथ मनोंरजन का खास जरिया था । तब गाँव भर के लोग बड़े चाव से रेडियो सुना करते थे । वह सबसे विश्वसनीय माध्यम भी था । बचपन से रेडियो सुनते-सुनते मैं इतना रमने लगा कि आज और अभी तक रेडियो से जुड़ा हूँ।


प्रश्नौ - यदि हम घंटो की बात करें तो आप प्रतिदिन कितने घंटे रेडियो सुनते हैं ?
उत्तर - सुबह 6 बजे से रात 11 बजे तक (17 घंटा) सुनता हूँ।


प्रश्न - रेडियो से जुड़ने के पीछे मनोरंजन महत्वपूर्ण था या कुछ और ?
उत्तर - मनोरंजन तथा कार्यक्रम की विविधता, ज्ञानवर्धन और नाम प्रसिद्ध पाना।


प्रश्न - आपके प्रिय रेडियो स्टेशन कौन से हैं ?
उत्तर - क्षेत्रीय स्टेशनों में आकाशवाणी रायपुर और अंतराष्ट्रीय स्तर पर लोकप्रिय विविध भारती प्रसारण सेवा तथा एफ।एम. जो कि हमारे लिए दिल की धड़कन है।


प्रश्न -आप किन-किन भाषाओं में रेडियो सुनते हैं ?
उत्तर - हिन्दी, छत्तीसगढ़ी सिन्धी व पंजाबी भाषाओं में रेडियो सुनता हूं।


प्रश्न - आपके पत्र किस किस रेडियो स्टेशन से प्रसारित हो चुके हैं ?
उत्तर - आकाशवाणी रायपुर, इंदौर, ग्वालियर, बिलासपुर, विविध भारती, विविध भारती-एफ।एम. ऑल इंडिया उर्दू सर्विस आदि में प्रसारित हो चुके हैं। बीबीसी आदि कई विदेशी रेडियो स्टेशनों में भी


प्रश्न - आज मनोरंजन के दूसरे माध्यम जैसे टी.व्ही., वेब मीडिया जोरों पर है ऐसे में भी रेडियो पर जुड़ाव का क्या कारण है ?
उत्तर - आज के इस दौर में टी।व्ही. और वेब मीडिया कितना भी आ जाये और जो रेडियो में बात है वह किसी में नहीं है क्योंकि यह जीवन, दिनचर्या में कभी रूकावट नहीं करता, यही रेडिया से जुड़ाव का कारण है।


प्रश्न - रेडियो उद्घोषकों में आप किसे सर्वाधिक पसंद करते हैं और क्यों ?
उत्तर - क्षेत्रीय श्री श्याम वर्मा जी (उद्घोषक) उनकी आवाज् में मधुरता और हंसमुख के व्यक्ति हैं, हरेक के दिलों में समा जाने वाले व्यक्ति है। अंतरराष्ट्रीय विविध भारती के उद्घोषक कमल शर्मा जी के बारे में कहा जाये तो इनसे जब फोन इन फरमाइश कार्यक्रम में बातें होती है तो उनकी बातों से कमल के फूल की तरह, प्रकृति की याद दिलाती है और इनके बारे में जो कहे वह कम है। अमीन सयानी के बारे में क्या बतायें । लगता था उन्हें चौबीसों घंटे सुनते रहें ।


प्रश्न - रेडियो की समाज में उपयोगिता क्या है ?
उत्तर - रेडियो की समाज के लिए उपयोगिता है, जैसे बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय ज्ञानवर्धक बातें दूर दूर से इसके माध्यम से पहुँचता है।


प्रश्न - क्या रेडियो पहले जैसे स्थापित हो पायेगा ?
उत्तर - हाँ। रेडियो एवं ऐसा माध्यम है जिसे अपने कार्य करते हुए बिना डिर्स्टबेन्स के सुना जा सकता है। लोगबाग़ टीव्ही से उबने लगे हैं । रेडियो खासकर एफएम सुनने वाले लगातार बढ़ रहे हैं ।


प्रश्न - आपके पास पहला पत्र किस श्रोता का आया, और कहां से ?
उत्तर - हमारे पास पहला पत्र खेमूराम साहू / ग्राम सिंगदई, जिला राजनांदगांव छत्तीसगढ़ से आया।


प्रश्न - पत्र पाकर आपको कैसे लगा और क्या अनुभूति हुई ?
उत्तर - उनका पत्र पाकर मैं झूम उठा और रेडियो के माध्यम से उनको धन्यवाद दिया और मैने पत्र भी लिखा।


प्रश्न - क्या आप अपनी जिन्दगी कुछ परिवर्तन पाते हैं रेडियो के कारण ?
उत्तर - मेरे ज़िन्दगी में बहुत कुछ परिवर्तन हुआ। रेडियो के माध्यम से देश-प्रदेश के श्रोता लोग मुझे जानने लगे, पत्र भेजने लगे और मिलने के लिए आते रहते हैं। सैकड़ों लोग मुझसे मिलने आ चुके हैं ।


प्रशान्त रथ

10/14/2007

छत्तीसगढ़ की चमत्कारी देवियाँ

नवरात्रि के अवसर पर

चलो बुलावा आया है, माता ने बुलाया है..

नवरात्रि पर्व- नौ दिन तक देवियों की पूजा-अर्चना का सात्विक पर्व, ग्रामदेवी, ईष्टदेवी और कुलदेवी को प्रसन्न करने का पर्व। शक्ति साधक जगत की उत्पत्ति के पीछे ''शक्ति'' को ही मूल तत्व मानते हैं और माता के रूप में उनकी पूजा करते हैं। समस्त देव मंडल शक्ति के कारण ही बलवान है, उसके बिना वे शक्तिहीन हो जाते हैं। यहाँ तक कि सृष्टि के निर्माण में शक्ति ईश्वर की प्रमुख सहायिका होती हैं। शक्ति ही समस्त तत्वों का मूल आधार है। शक्ति को समस्त लोक की पालिका-पोषिता माना गया है। वह प्रकृति का स्वरूप है। इस प्रकार शाक्तों अथवा शक्ति पूजकों ने प्रकृति की सृजनात्मक शक्ति को पारलौकिक पवित्रता और ब्रह्मवादिता प्रदान की है। अत: शक्ति सृजन और नियंत्रण की पारलौकिक शक्ति है। वह समस्त विश्व का संचालन भी करती है। इसीकारण वह जगदंबा और जगन्माता है।

देवी पूजन की परंपरा मुख्यत: दो रूपों में मिलती है- एक मातृदेवी के रूप में और दूसरी शक्ति के रूप में। प्रारंभ में देवी की उपासना माता के रूप में अधिक लोकप्रिय थी। पुराणों में दुर्गा स्तुतियों में जगन्माता या जगदम्बा स्वरूप की अवधारणा में देवी के माता स्वरूप का स्पष्ट संकेत मिलता है। भारत, मिस्र, मेसोपोटामिया, यूनान और विश्व की प्राचीन सभ्यताओं में धर्म की अवधारणा के साथ ही मातृपूजन की परंपरा आरंभ हुई। सृष्टि की निरंतरता बनाये रखने में योगदान के कारण ही मातृ देवियों का पूजन प्रारंभ हुआ। माता की प्रजनन शक्ति जो सभ्यता की निरंतरता का मूलाधार है, मातृदेवी के रूप में उनके पूजन का मुख्य कारण रही है। सिंधु सभ्यता के समय से मातृदेवियों की पूजा प्रचलित थी। शक्ति वस्तुत: क्रियाशीलता का परिचायक और उसी का मूर्तरूप है। शक्ति पूजन के अंतर्गत विभिन्न देवताओं की क्रियाशीलता उनकी शक्तियों में निहित मायी गयी। तद्नुरूप सभी प्रमुख देवताओं की शक्तियों की कल्पना की गयी। देवताओं की शक्तियों की कलपना सांख्यदर्शन की प्रकृति और पुरूष तथा दोनों के अंतरावलंबन के भाव से संबंधित है। इसी कारण शिव भी शक्ति के बिना शव या निष्क्रिय बताये गये हैं। योनिपट्ट पर स्थापित शिवलिंग और अर्ध्दनारीश्वर स्वरूप की परिकल्पना वस्तुत: शिवशक्ति या प्रकृति पुरूष की समन्वय का परिचायक है। मनुष्य की विभिन्न प्रकार की शक्तियों को प्राप्त करने की अनंत इच्छा ने शक्ति की उपासना को व्यापक आयाम दिया है।

छत्तीसगढ़ में भी अनेक शक्तिपीठ बने। यहाँ देवियाँ ग्रामदेवी और कुलदेवी के रूप में पूजित हुई। विभिन्न स्थानों में देवियाँ या तो समलेश्वरी या महामाया देवी के रूप में प्रतिष्ठित होकर पूजित हो रही हैं। राजा-महाराजाओं, जमींदारों और मालगुजार भी शक्ति उपासक हुआ करते थे। अपनी राजधानी में देवियों को ''कुलदेवी'' के रूप में स्थापित किये हैं। देवियों को अन्य राजाओं से मित्रता के प्रतीक के रूप में भी अपने राज्य में प्रतिष्ठित करने का उल्लेख तत्कालीन साहित्य में मिलता है। छत्तीसगढ़ में देवियों की अनेक चमत्कारी किंवदंतियाँ प्रचलित हैं। आइये नवरात्र में देवि दर्शन को चले। भक्तगण गाते जाते हैं..चलो बुलावा आया है, माता ने बुलाया है। नवरात्रि में देवियों की कृपा प्राप्त करने के लिए देवि दर्शन की जाती हैं। ग्रामीणजनों में देवियों की प्रसन्न करने के लिए ''बलि''' दिये जाने और मातासेवा गीत गाकर किये जाने की परंपरा है। उड़ियान राज से जुड़े चंद्रपुर में चंद्रसेनी माता के दरबार में ग्रामीणजनों द्वारा बलि देकर उसे प्रसाद के रूप में ग्रहण किया जाता है। देवी मंदिरों में श्रध्दालुओं की बढ़ती भीढ़ बढ़ती जा रही है और देवी स्थल शक्तिपीठ के रूप में विकसित होते जा रहे हैं।

रतनपुर की महामाया :-

दक्षिण-पूर्वी रेल्वे के बिलासपुर जंक्शन और जिला मुख्यालय से लगभग 22 कि.मी. की दूरी पर महामाया की नगरी रतनपुर स्थित है। यह हैहयवंशी कलचुरी राजाओं की विख्यात् राजधानी रही है। इस वंश के राजा रत्नदेव ने महामाया के निर्देश पर ही रत्नपुर नगर बसाकर महामाया देवी की कृपा से दक्षिण कोसल पर निष्कंटक राज किया। उनके अधीन जितने राजा, जमींदार और मालगुजार रहे, सबने अपनी राजधानी में महामाया देवी की स्थापना की और उन्हें अपनी कुलदेवी मानकर उनकी अधीनता स्वीकार की। उनकी कृपा से अपने कुल-परिवार, राज्य में सुख शांति और वैभव की वृध्दि कर सके। पौराणिक काल से लेकर आज तक रतनपुर में महामाया देवी की सत्ता स्वीकार की जाती रही है। राजा रत्नदेव भटकते हुए जब यहाँ के घनघोर वन में आये और साँझ होने के कारण एक पेड़ पर चढ़कर रात्रि गुजारी। पेड़ की डगाल को पकड़कर सोते रहे। अचानक अर्ध्दरात्रि में पेड़ के नीचे देवी महामाया की सभा लगी दिखाई दी। उनके निर्देश पर ही उन्होंने यहाँ अपनी राजधानी स्थापित थी। यही देवी आज जन आस्था का केंद्र बनी हुई है। मंत्र शक्ति से परिपूर्ण दैवीय कण यहाँ के वायुमंडल में बिखरे हैं जो किसी भी उद्दीग्न व्यक्ति को शांत करने के लिए पर्याप्त हैं। यहाँ के भग्नावशेष हैहयवंशी कलचुरी राजवंश की गाथा सुनाने के लिए पर्याप्त है। महामाया देवी और बूढ़ेश्वर महादेव की कृपा यहाँ के लिए कवच बना हुआ है। पंडित गोपालचंद्र ब्रह्मचारी भी यही गाते हैं :-

रक्षको भैरवो याम्यां देवो भीषण शासन:
तत्वार्थिभि:समासेव्य: पूर्वे बृध्देश्वर: शिव:॥
नराणां ज्ञान जननी महामाया तु नैर्ऋतै
पुरतो भ्रातृ संयुक्तो राम सीता समन्वित:॥

देवी महामाया मंदिर ट्रस्ट बनाकर अराधकों द्वारा मंदिर का जीर्णोध्दार कराया गया है। दर्शनार्थियों की सुविधा के लिए धर्मशाला, यज्ञशाला, भोगशाला और अस्पताल आदि की व्यवस्था की गयी है। नवरात्र में श्रध्दालुओं की भीड़ '' चलो बुलावा आया है, माता ने बुलाया है...'' का गायन करती चली आती है।

सरगुजा की महामाया और समलेश्वरी देवी :-

वनांचल प्रांत की सीमा से लगा छत्तीसगढ़ का आदिवासी बाहुल्य वनाच्छादित जिला मुख्यालय अम्बिकापुर चारों ओर से सड़क मार्ग और अनुपपुर से विश्रामपुर तक रेल्वे लाईन से जुड़ा पूर्व फ्यूडेटरी स्टेट्स है। यहाँ की पवित्र पहाड़ी पर महाकवि कालिदास का आश्रम था। विश्व की प्राचीनतम् नाटयशाला भी यहाँ की रामगढ़ पहाड़ी में स्थित है। त्रेतायुग में श्रीराम और लक्ष्मण लंका जाते देवियों की इस भूमि को प्रणाम करने यहाँ आये थे। यहाँ आज भी महामाया और समलेश्वरी देवी एक साथ विराजित हैं। तभी तो छत्तीसगढ़ गौरव के कवि पंडित शुकलाल पांडेय गाते हैं :-

यदि लखना चाहते स्वच्छ गंभीर नीर को
क्यों सिधारते नहीं भातृवर ! जांजगीर को ?
काला होना हो पसंद रंग तज निज गोरा
चले जाइये निज झोरा लेकर कटघोरा
दधिकांदो उत्सव देखना हो तो दुरूग सिधारिये
लखना हो शक्ति उपासना तो चले सिरगुजा जाईये॥

कवि की बातों में सच्चाई है तभी तो सरगुजा आज अद्वितीय शक्ति उपासना का केंद्र है। छत्तीसगढ़ ही नहीं बल्कि सुदूर उड़ीसा के संबलपुर तक समलेश्वरी देवी, रतनपुर में महामाया देवी और चंद्रपुर में चंद्रसेनी देवी सरगुजा की भूमि से ही ले जायी गयी। मराठा शासकों के सैनिक और सामंतों द्वारा महामाया को नहीं ले सकने पर उसके सिर को काटकर रतनपुर ले आये लेकिन आगे नहीं ले जा सके और रतनपुर में ही प्रतिष्ठित कर दिये।

चंद्रपुर की चंद्रसेनी देवी :-

महानदी और माँड नदी से घिरा चंद्रपुर, जांजगीर-चांपा जिलान्तर्गत रायगढ़ से लगभग 32 कि।मी., सारंगढ़ से 22 कि.मी. की दूरी पर स्थित है। यहाँ चंद्रसेनी देवी का वास है। किंवदंति है कि चंद्रसेनी देवी सरगुजा की भूमि को छोड़कर उदयपुर और रायगढ़ होते हुये चंद्रपुर में महानदी के तट पर आ जाती हैं। महानदी की पवित्र शीतल धारा से प्रभावित होकर यहाँ पर वह विश्राम करने लगती हैं। वर्षों व्यतीत हो जाने पर भी उनकी नींद नहीं खुलती। एक बार संबलपुर के राजा की सवारी यहाँ से गुजरी और अनजाने में चंद्रसेनी देवी को उनका पैर लग जाता है और उनकी नींद खुल जाती है। फिर स्वप्न में देवी उन्हें यहाँ मंदिर निर्माण और मूर्ति स्थापना का निर्देश देती हैं। संबलपुर के राजा चंद्रहास द्वारा मंदिर निर्माण और देवी स्थापना का उल्लेख मिलता है। देवी की आकृति चंद्रहास जैसे होने के कारण उन्हें '' चंद्रहासिनी देवी '' भी कहा जाता है। इस मंदिर की व्यवस्था का भार उन्होंने यहाँ के जमींदार को सौंप दिया। यहाँ के जमींदार ने उन्हें अपनी कुलदेवी स्वीकार करके पूजा अर्चना करने लगा। आज पहाड़ी के चारों ओर अनेक धार्मिक प्रसंगों, देवी-देवताओं, वीर बजरंग बली और अर्ध्दनारीश्वर की आदमकद प्रतिमा, सर्वधर्म सभा और चारों धाम की आकर्षक झांकी लोगों के लिए आकर्षण का केंद्र है। कवि तुलाराम गोपाल की एक बानगी पेश है :-

खड़ी पहाड़ी की सर्वोच्च शिला आसन पर
तुम्हें देख बराह रूप में चंद्राकृति पर
जब मन ही में प्रश्न किया सरगुजहीन महानदी की बीच धार की धरती डोली।

बस्तर की दंतेश्वरी देवी :-

विशाल भूभाग में फैले बस्तर को यदि देवी-देवताओं की भूमि कहें तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। यहाँ के हर गाँव के अपने देवी-देवता हैं। हर गोव में '' देव गुड़ी '' होती है, जहाँ किसी न किसी देवी-देवता का निवास होता है। लकड़ी की पालकी में सिंदूर से सने और रंग बिरंगी फूलों की माला से सजे विभिन्न आकृतियों वाली आकर्षक मूर्तियाँ प्रत्येक देव गुड़ी में देखने को मिल जायेगी। ये यहाँ के गांवों के आस्था के केंद्र हैं। सम्पूर्ण बस्तर की अधिष्ठात्री दंतेश्वरी देवी हैं जो यहाँ के काकतीय वंशीय राजाओं की कुलदेवी है। इन्हें शक्ति का प्रतीक माना जाता है और शंखिनी डंकनी नदी के बीच में दंतेश्वरी देवी का भव्य मंदिर है। भारत के शक्तिपीठों में एक दंतेवाड़ा में शक्ति का दांत गिरने के कारण यहाँ की देवी दंतेश्वरी देवी के नाम से प्रतिष्ठित हुई, ऐसा विश्वास किया जाता है। देवी के नाम पर दंतेवाड़ा नगर बसायी गयी जो आज दंतेवाड़ा जिला का मुख्यालय है।

बस्तर के ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को दृष्टिपात करने से पता चलता है कि राजा प्रताप रूद्रदेव के साथ दंतेश्वरी देवी आंध्र प्रदेश के वारंगल राज्य से यहाँ आयी। मुगलों से परास्त होकर राजा प्रताप रूद्रदेव वारंगल को छोड़कर इधर उधर भटकने लगे। देवी अराधक तो वे थे ही, वे उन्हीं के शरण में गये। तब देवी माँ का निर्देश हुआ कि '' मार्गशीर्ष पूर्णिमा के दिन घोड़े पर सवार होकर तुम अपनी विजय यात्रा आरंभ करो, जहाँ तक तुम्हारी विजय यात्रा होगी वहाँ तक तुम्हारा एकछत्र राज्य होगा...।'' राजा के निवेदन पर देवी माँ उनके साथ चलना स्वीकार कर ली। लेकिन शर्त थी कि राजा पीछे मुड़कर नहीं देखेंगे। अगर राजा पीछे मुड़कर देखेंगे, तब देवी माँ आगे नहीं बढ़ेंगी। राजा को उनके पैर की घुंघरूओं की आवाज़ से उनके साथ चलने का आभास होता रहेगा। राजा प्रताप रूद्र्र्रदेव ने विजय यात्रा आरंभ की और देवी माँ उनकी विजय यात्रा के साथ चलने लगी। जब राजा की सवारी शंखिनी डंकनी नदी को पार करने लगी तब देवी माँ के पैर की घुंघरू सुनायी नहीं देता है तब राजा पीछे मुड़कर देखने लगे जिससे देवी आगे बढ़ने से इंकार कर दी और वहीं प्रतिष्ठित हुई। बाद में राजा ने उनके लिए एक भव्य मंदिर का निर्माण कराया और उनके नाम पर दंतेवाड़ा नगर बसायी। बस्तर में कोई भी पूजा-अर्चना और त्योहार दंतेश्वरी देवी की पूजा के बिना पूरा नहीं होता। दशहरा के दिन यहाँ रावण नहीं मरता बल्कि दंतेश्वरी देवी की भव्य शोभायात्रा निकलती है जिसमें बस्तर के सभी देवी-देवता शामिल होते हैं। नवरात्र में बस्तर का राजा दंतेश्वरी देवी के प्रथम पुजारी के रूप में नौ दिन मंदिर में निवास करके पूजा-अर्चना करते थे। इसी प्रकार खैरागढ़ में दंतेश्वरी देवी की काष्ठ प्रतिमा स्थापित है जो खैरागढ़ राज परिवार की कुलदेवी है।

डोंगरगढ़ की बमलेश्वरी देवी :-

राजनांदगाँव जिलान्तर्गत 25 कि.मी पर स्थित दक्षिण-पूर्वी रेल्वे के डोंगरगढ़ स्टेशन में ट्रेन से उतरते ही सुन्दर पहाड़ी उसमें छोटी छोटी सीढ़ियाँ और उसके उपर बमलेश्वरी देवी का भव्य मंदिर का दर्शन कर मन प्रफुल्लित हो श्रध्दा से भर उठता है। प्राचीन काल में यह कामावती नगर के नाम से विख्यात् था। यहाँ के राजा कामसेन बड़े प्रतापी और संगीत कला के प्रेमी थे। राजा कामसेन के उपर बमलेश्वरी माता की विशेष कृपा थी। उन्हीं की कृपा से वे सवा मन सोना प्रतिदिन दान किया करते थे। उनके राज दरबार में कामकंदला नाम की अति सुन्दर राज नर्तकी थी। कामकंदला वास्तव में एक अप्सरा थी जो शाप के कारण पृथ्वी में अवतरित हुई थी। राजनर्तकी को यहाँ कुंवारी रहना पड़ता था। इस राज दरबार में माधवानल जैसे कला और संगीतकार भी थे। एक बार राजदरबार में दोनों का अनोखा समन्वय देखने को मिला और राजा कामसेन उनकी संगीत साधना से इतने प्रभावित हुए कि वे माधवानल को अपने गले का हार दे दिये। मगर माधवानल ने इसका श्रेय कामकंदला को देते हुए उस हार को उसे पहना देता है। इससे राजा अपने को अपमानित महसूस किये और गुस्से में आकर माधवानल को देश निकाला दे दिया। इधर कामकंदला उनसे छिप छिपकर मिलती रही। दोनों एक दूसरे को प्रेम करने लगे थे लेकिन राजा के भय से सामने नहीं आ सकते थे। फिर उन्होंने उज्जैन के राजा विक्रमादित्य की शरण में गया और उनका मन जीतकर उनसे पुरस्कार में कामकंदला को राजा कामसेन से मुक्त कराने की बात कही। राजा विक्रमादित्य ने दोनों के प्रेम की परीक्षा ली और दोनों को खरा पाकर कामकंदला की मुक्ति के लिए पहले राजा कामसेन के पास संदेश भिजवाया। उसने कामकंदला को मुक्त करने से इंकार कर दिया। फलस्वरूप दोनों के बीच घमासान युध्द होने लगा। दोनों वीर योध्दा थे और एक महाकाल के भक्त थे तो दूसरा विमला माता के भक्त। दोनों अपने अपने इष्टदेव का आव्हान करते हैं। तब एक तरफ महाकाल और दूसरी ओर भगवती विमला माँ अपने अपने भक्त को सहायता करने पहुंचे। फिर महाकाल विमला माता से राजा विक्रमादित्य को क्षमा करने की बात कहकर कामकंदला और माधवानल को मिला देते हैं और दोनों अंतर्ध्यान हो जाते हैं। बाद में राजा कामसेन की नगरी काल के गर्त में समा जाती है। वही आज बमलेश्वरी देवी के रूप में छत्तीसगढ़ वासियों की अधिष्ठात्री है। अतीत के अनेक तथ्यों को अपने गर्भ में समेटे बमलेश्वरी पहाड़ी अविचल खड़ा है। यह अनादिकाल से जग जननी माँ बमलेश्वरी देवी की सर्वोच्च शाश्वत शक्ति का साक्षी है। लगभग एक हजार सीढ़ियों को चढ़कर माता के दरबार में पहुँचने पर जैसे सारी थकान दूर हो जाती है, मन श्रध्दा से भर उठकर गा उठता है :-

तेरी होवे जै जैकार, नमन करूँ माँ करो स्वीकार।
तेरी महिमा अनुपम न्यारी जग में सबसे बलिहारी है।
तू ही अम्बे, तू ही दुर्गा, बमलेश्वरी तेरी सिंह की सवारी।
नैया सबकी पार लगे माँ तरी जै जैकार.....।

इसी प्रकार रायगढ़, सारंगढ़, उदयपुर, चांपा में समलेश्वरी देवी, कोरबा जमींदारी में सर्वमंगला देवी, जशपुर रियासत में चतुर्भुजी काली माता, अड़भार में अष्टभुजी देवी, झलमला में गंगामैया, केरा, पामगढ़ और दुर्ग में चंडी दाई, खरौद में सौराईन दाई, शिवरीनारायण में अन्नपूर्णा माता, मल्हार में डिडनेश्वरी देवी, रायपुर में बिलासपुर रोड में तथा पंडित रविशंकर शुक्ला विश्वविद्यालय के पीछे बंजारी देवी का भव्य मंदिर है। छुरी की पहाड़ी में कोसगई देवी, बलौदा के पास खम्भेश्वरी देवी की भव्य प्रतिमा पहाड़ी में स्थित हैं। नवरात्र में यहाँ दर्शनार्थियों की अपार भीड़ होती है।

या देवी सर्वभूतेषु शक्ति रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥


प्रो. अश्विनी केशरवानी
चाम्पा-495671 (छत्तीसगढ़)

10/06/2007

पृथ्वी से बैकुंठ की दूरी 12 लाख योजन

आज के तीव्र गति वाले वैज्ञानिक युग में भले ही स्वर्ग या बैकुंठ को कपोल कल्पना समझा जाय पर शताब्दियों से भारतीय मन और मनीषा में बैकुंठ की अवधारणा पर अटूट विश्वास है । हाल ही में मिली 400 वर्षीय प्राचीन और दुर्लभ पांडुलिपि ब्रह्मांड पुराण की मानें तो पृथ्वी से बैकुंठ की दूरी 12 लाख योजन है ।

रायगढ़ जिला मुख्यालय से लगभग 50 किमी दूर एवं उड़ीसा राज्य से जुड़े ग्राम सरिया के 83 वर्षीय ज्योतिषाचार्य हरिबंधू महापात्र ने जिला प्रशासन के पुरातत्व समिति को हस्तलिखित ब्रहांड पुराण सौंपा है जिसे लगभग 400 वर्ष प्राचीन माना गया है । यह पांडुलिपि कागज़ में नहीं बल्कि ताड़पत्र में है जो उड़िया भाषा में लिखित है । ताड़ वृक्ष के पत्तों में बड़े ही सुंदर ढंग से पुस्तक की तरह निर्मित यह पांडुलिपि 244 पृष्ठों का है । इस ग्रंथ के अनुसार पृथ्वी से बैकुंठ की दूरी 12 लाख योजन है । इतना ही नहीं, ज्योतिष केंद्रित इस दुर्लभ पांडुलिपि में उड़िया भाषा में यह भी लिखा हुआ है कि पृथ्वी से सूर्य की दूरी 1 लाख योजन, चंद्रमा की 2 लाख योजन, तारागण की 3 लाख योजन, ध्रुवतारा 4 लाख योजन, यम का घर 5लाख योजन, इंद्रदेव का घर 6 लाख योजन पर स्थित है । दूरी की पारंपरिक इकाई के अनुसार एक योजन को 12 कोस माना जाता है । श्री हरिबंधू महापात्र बताते हैं कि यह पांडुलिपि उनके दादा परदादा के ज़माने से है जिसे वे भी अब तक बड़े जतन से संभाल कर रखे हुए थे, उनके अनुसार इस पांडुलिपि की सहायता से जब भी कुछ ज्योतिषीय भविष्यवाणी की है सब कुछ सही साबित हुईं हैं । वे इसे विज्ञान सम्मत ज्ञान मानते हैं । इन सिद्धियों पर विश्वास करें तो निश्चय ही कहा जा सकता है कि भारतीय विद्वानों को ब्रह्मांड भूगोल की सम्यक ज्ञान हजारों वर्षों पहले से ही था ।

श्री महापात्र के द्वारा जिन दुर्लभ पांडुलिपियों को पुरात्व समिति को जनहित में उपलब्ध कराया गया है उनमें प्राचीन शिक्षण से लेकर आधुनिक शिक्षा, ज्योतिष, खगोल विज्ञान, सामाजिक जीवन पद्धति आदि की किताबें सम्मिलित हैं । इसमें विष्णु सहस्त्रनाम, खड़ी रत्न पंजिका, झाड़-फूँक मंत्र, विवाह पद्धति, नित्याचार शैव पद्धति, भार्गव केरल ज्योतिष, ब्रह्मांड पुराण, व्रत संहिता, गृह योग पद्धति, उड़िया भाषा का शब्दकोश-अमरकोश, शिव मंदिर प्रतिष्टा, यजुर्वेद कांड संहिता, तालाब प्रतिष्ठा आदि प्रमुख हैं । रविशंकर विश्वविद्यालय के इतिहासविद् डा. रमेन्द्रनाथ मिश्र का कहना है कि यद्यपि इनमें से अधिकांश किताबें कर्मकांड की हैं किन्तु इसमें भारतीय संस्कृति की समृद्ध जीवन-पद्धति की जानकारियाँ बिखरी पड़ी हैं और वे गंभीर शोध की विषय-वस्तु हैं । प्रख्यात भाषाशास्त्री डॉ. चित्तरंजन कर के अनुसार इन दुर्लभ कृतियों से उड़िया भाषा की प्राचीनता और उसकी साहित्येत्तर विषयों पर पैठ और क्षमता का भी आंकलन किया जा सकता है ।

कई पीढ़ी पहले श्री महापात्र के पूर्वज उड़ीसा से आकर पश्चिमी उड़ीसा से लगे छत्तीसगढ़ के इस छोटे से ग्राम में बस गये थे, जहाँ वे अपने पड़ोसी गाँवों के अलावा दूर-दूर से आने वाले लोगों की अनेक समस्यायों का हल वैदिक पद्धति से बताते हैं ।

10/04/2007

सत्य, तथ्य एवं क्रिकेट

अमेरिका तथा यूरोपीय देशों में जहाँ फुटबॉल तथा टेनिस जैसे खेलों के प्रति लोगों की दीवानगी दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही है, वहीं एशियाई देशों में क्रिकेट का बुख़ार अपने चरम पर है। विशेषकर दक्षिण एशियाई देश तो लगभग पूरी तरह से क्रिकेट के रंग में रंग चुके हैं। बंगलादेश व श्रीलंका जैसे देशों ने न केवल अपनी क्रिकेट टीम का गठन कर लिया है बल्कि यह देश अब क्रिकेट जगत में विश्वस्तर पर एक चुनौती भी साबित हो रहे हैं। इसमें कोई शक़ नहीं कि एशियाई देशों में क्रिकेट के बुख़ार को आम लोगों के सिर पर चढ़ाने में सबसे अहम किरदार यदि किसी माध्यम का रहा है तो वह है मात्र टेलीविज़न का बढ़ता हुआ नेटवर्क। परन्तु ऐसे में जबकि चारों ओर क्रिकेट ही क्रिकेट नज़र आ रहा हो तथा आम लोगों का जीवन ही मात्र क्रिकेट बन गया हो, ऐसे में चन्द व्यवसायियों द्वारा क्रिकेट प्रेमियों के टेलीविज़न पर मैच देखने के अधिकारों पर ही कब्ज़ा जमा लेने को आख़िर कहाँ तक उचित ठहराया जा सकता है।

अभी पिछले दिनों 20-20 विश्व कप का आयोजन दक्षिण अफ्रीका में किया गया। वैसे तो इसमें सभी मैच बड़े ही आकर्षक व रोमांचक रहे परन्तु सेमी फाईनल के दो मैच भारत बनाम ऑस्ट्रेलिया व पाकिस्तान बनाम न्यूंजीलैंड तथा उसके बाद अन्तिम फाईनल मैच जोकि भारत व पाकिस्तान के बीच खेला गया, पूरे विश्व के क्रिकेट प्रेमियों के लिए आकर्षण का केन्द्र रहा। परन्तु आम जनता अपने-अपने टेलीविज़न सेट पर इन खेलों के प्रसारण को नहीं देख सकी। इसका कारण यह था कि किसी एक टी वी चैनल चलाने वाली कम्पनी द्वारा इस 20-20 विश्व कप को प्रसारित करने के समस्त अधिकार ख़रीद लिए गए थे। इसका सीधा सा अर्थ है कि अब केवल वही टी वी चैनल उन खेलों का प्रसारण कर सकता है, जिसके पास इस विश्व कप क्रिकेट को प्रसारित करने का अधिकार है। यदि हम यहाँ मात्र दक्षिण एशियाई देशों विशेषकर भारत, पाकिस्तान व बंगलादेश की ही बात करें तो हम देखते हैं कि इन देशों की अधिकांश जनता गांवों में रहा करती है। उनके पास या तो टेलीविज़न का अभाव है या फिर उनके टेलीविज़न पर केवल राष्ट्रीय चैनल प्रसारित होते हैं। जबकि विश्व कप को प्रसारित करने का अधिकार जिस एकमात्र प्राईवेट टी वी चैनल को दिया गया, उसे देखने हेतु केबल नेटवर्क का होना ज़रूरी है। और यदि केबल नेटवर्क न हो तो बांजार में उपलब्ध विभिन्न कम्पनियों द्वारा बेची जाने वाली डिश के माध्यम से भी उसे देखा जा सकता था। परन्तु यह सभी माध्यम चाहे वह केबल नेटवर्क हो अथवा डिश व्यवस्था, यह सब कुछ या तो सम्पन्न लोगों के वश की बातें हैं या फिर शहरों में रहने वाले लोगों की पहुँच की चीज़ें।

गत् दिनों भारत में आमतौर पर यह देखा गया कि एक ओर तो भारत व पाकिस्तान जैसे पारंपरिक प्रतिद्वन्दी विश्व कप फाईनल मैच में जीत हार के लिए जूझ रहे थे तो दूसरी ओर आम भारतीय इस मैच का सीधा प्रसारण देखने के लिए केवल इसलिए तड़प रहा था क्योंकि भारतीय दूरदर्शन द्वारा इसका सीधा प्रसरण नहीं किया जा रहा था। निश्चित रूप से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया तथा विभिन्न टी वी चैनल आदि एक विश्व स्तरीय बड़े व्यवसाय का रूप धारण कर चुके हैं। यह भी सच है कि व्यवसाय का भावनाओं से कोई रिश्ता नहीं होता। परन्तु क्या यह तथाकथित व्यवसायिकता किसी भी देश के वासियों द्वारा उनके अपने ही देश की टीम का खेल देखने के अधिकारों पर भी ताला लगा सकती है? क्या प्रसारण के अधिकारों के नियमों के अन्तर्गत इस बात की छूट नहीं दी जा सकती कि कम से कम वह देश जिनकी टीम किसी मैच में हिस्सा ले रही हो, वहां के सरकारी टी वी चैनल अथवा वे टी वी चैनल जोकि उन देशों में राष्ट्रीय स्तर पर आम जनता को उपलब्ध हों, अपने देश के मैच का सीधा प्रसारण कर सकें? यदि ऐसी व्यवस्था नहीं बनती तो इसे जनता के साथ एक बड़े सुनियोजित विश्वासघात एवं षडयन्त्र के सिवा आख़िर और क्या कहा जा सकता है। साफ ज़ाहिर है कि पहले तो इसी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के खुले प्रसारण ने आम लोगों में गरीब, मध्यम व अमीर सभी के बीच क्रिकेट के प्रति दीवानगी पैदा की तथा जब वह दीवानगी सिर चढ़कर बोलने लगी तो चन्द व्यवसायियों द्वारा इनके प्रसारण के अधिकारों को ख़रीद कर आम जनता को मैच देखने से ही वंचित कर दिया गया? इस व्यवसायिक रणनीति का सीधा सा अर्थ है कि यदि किसी को मैच देखना है तो वह रोटी, कपड़े का प्रबन्ध करे या न करे परन्तु उसे अपनी डिश ज़रूर खरीदनी होगी।

क्रिकेट के प्रति जनता की इस दीवानगी ने जहाँ व्यवसायियों को दोनों हाथों से नोट बटोरने के तमाम अवसर दिए हैं, वहीं क्रिकेट के भूत ने विशेषकर भारत के लोगों को खेल के अपने स्वर्णिम युग की ओर से भी मुँह मोड़ने के लिए मजबूर कर दिया है। कभी राष्ट्रीय खेल का दर्जा रखने वाले हॉकी के खेल को भारतीय जनता भूलती ही जा रही है। 1928 से लेकर 1956 तक का समय हॉकी का वह स्वर्णिम युग था जबकि भारत ने उस दौरान 24 ओलम्पिक मैच खेले थे तथा सभी 24 मैच पर विजयश्री प्राप्त की थी। इसमें भारत ने कुल 178 गोल किए थे। अर्थात् 7.43 गोल प्रति मैच की दर से किए गए थे। हॉकी ही एक ऐसा खेल था जिसमें भारत 8 स्वर्ण पदक जीत पाने में सफल रहा था। भारत का सर्वोच्च खेल पुरस्कार अर्जुन अवार्ड भी अब तक सबसे अधिक हॉकी के खिलाड़ियों को ही प्राप्त हुआ है। आज भले ही हम सचिन तेंदुलकर व सौरव गांगुली जैसे महान क्रिकेट खिलाड़ियों के गुणगान करते न थक पाते हों परन्तु एक वह दौर भी था जब ध्यानचंद, के डी सिंह बाबू, प्रगट सिंह, अजीत पाल सिंह, गगन अजीत सिंह, जफ़र इक़बाल, भास्करन, असलम शेर खां जैसे हॉकी के खिलाड़ियों के नामों से दुनिया थर्राती थी।

भारतीय हॉकी फेडरेशन का गठन सर्वप्रथम 1928 में ग्वालियर में किया गया था। विश्व भ्रमण पर जाने वाली भारत की पहली हॉकी टीम ही थी जिसने 1932 में मलाया, टोक्यो, लॉस एंजिल्स, ओमाहा, फिलाडेलफ़िया, एम्सर्टडम, बर्लिन, पराग्वे तथा बुड्डापेस्ट आदि देशों का दौरा किया था तथा भारतीय हॉकी के परचम को बुलन्द किया था। बेशक आज मीडिया के क्षेत्र में आई ज़बरदस्त क्रांति के चलते हमें विश्वस्तरीय खिलाड़ियों के खेल, उनके रिकार्डस तथा उनकी असाधारण प्रतिभा के विषय में सब कुछ शीघ्र अति शीघ्र बड़ी आसानी से पता चल जाता है परन्तु भारतीय हॉकी के स्वर्णिम युग के दौरान जबकि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया इतना प्रचलित नहीं था, उस समय भी पूरा विश्व भारतीय कप्तान ध्यानचंद के खेल से परिचित तथा उसका दीवाना था। 1936 के बर्लिन ओलम्पिक के हॉकी कप का वह विश्व रिकॉर्ड आज तक दुनिया की कोई हॉकी टीम नहीं तोड़ सकी है, जिसमें कि भारतीय हॉकी टीम के कप्तान ध्यानचंद ने मैच में हुए कुल 38 गोल में से 11 गोल अकेले अपनी ही हॉकी से दांगे थे। ध्यानचंद को हॉकी का जादूगर कहा जाता था।

विश्व विजेता का सपना संजोने वाले तानाशाह हिटलर ने तो ध्यानचंद के समक्ष एक रात्रिभोज में यह प्रस्ताव रखा था कि यदि वे जर्मन की नागरिकता ग्रहण करें तो उन्हें कर्नल की उपाधि से नवांजा जाएगा परन्तु अपनी रग-रग में भारतीयता व देशभक्ति का जंज्बा रखने वाले ध्यानचंद ने हिटलर के इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया। ध्यानचंद का नाम उनकी हॉकी के खेल की बदौलत उसी शिखर पर था जहाँ कि क्रिकेट में ब्रेडमेन तथा फुटबॉल में पेले जैसे महान खिलाड़ियों का था। वियाना में तो ध्यानचंद के प्रशंसकों ने हद ही कर दी थी। वियाना के एक स्पोर्टस क्लब में ध्यानचंद की स्मृति में उनकी ऐसी प्रतिमा स्थापित की गई है जिसमें ध्यानचंद के चार हाथ हैं तथा उन चारों हाथों में ध्यानचंद को हॉकी पकड़े हुए दिखाया गया है। इस प्रतिमा के विषय में वियानावासियों का कहना है कि चूंकि दो हाथ तथा एक हॉकी के साथ एक साधारण व्यक्ति ऐसी हॉकी नहीं खेल सकता जैसी कि ध्यानचंद खेलते थे। अत: उन्हें इस रूप में दिखाना ही उचित समझा गया।

बहरहाल भारत क्रिकेट में 20-20 विश्व कप विजेता हो गया है। इससे पूर्व भारत 1983 में 24 वर्ष पूर्व भी क्रिकेट विश्व विजेता हुआ था। बेशक हमारे देश के क्रिकेट खिलाड़ी इस कामयाबी के लिए बधाई के पात्र हैं परन्तु हॉकी की छाती पर चढ़कर क्रिकेट की पताका का लहराना तथा क्रिकेट की दीवानगी में किसी बड़े व्यवसायिक कुचक्र का शिकार हो जाना भी क़तई मुनासिब नहीं कहा जा सकता।
-तनवीर जाफ़री
(सदस्य, हरियाणा साहित्य अकादमी)
22402, नाहन हाऊस
अम्बाला शहर। हरियाणा

डा. श्याम सुंदर व्यास नहीं रहे



रायपुर। हिंदी के जाने-माने साहित्यकार और 'वीणा' पत्रिका के संपादक रहे डा. श्याम सुंदर व्यास का बुधवार सुबह इंदौर में निधन हो गया।

3 सितंबर 1927 को इंदौर में जन्मे डा. व्यास ने देश की सर्वाधिक प्राचीन तथा सतत प्रकाशित होने वाली एकमात्र साहित्यिक पत्रिका 'वीणा' का 35 वर्षों तक संपादन किया। इसके अलावा उनके तीन उपन्यास, पांच कथा संग्रह, तीन व्यंग्य संग्रह और बाल साहित्य तथा लघुकथाओं के भी कुछ संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। हाल ही में उन्हें पं. बृजलाल द्विवेदी स्मृति साहित्यिक पत्रकारिता सम्मान से सम्मानित किया गया था। उनके निधन पर सृजनगाथा डॉट कॉम के संपादक जयप्रकाश मानस, कुशाभाऊ ठाकरे राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय के कुलपति सच्चिदानंद जोशी, वरिष्ठ पत्रकार बबन प्रसाद मिश्र, रमेश नैयर, दिवाकर मुक्तिबोध, हिमांशु द्विवेदी, संजय द्विवेदी, गिरीश पंकज,, डा. सुधीर शर्मा ने गहरा शोक प्रगट किया है।