5/26/2008

अथ मंच कथा

बाँस-बल्ली गाड़ते वक्त पसीने से लथपथ सिर्फ़ वही हुए थे
तोरण के हर पत्तों पर उनकी अँगुलियों के ही निशान हैं
सजाये गये आसनों का बोझ उनके कांधे ही जानते हैं
गाँव-गाँव हाँका देकर लोगों को बुलाया था उन्होंने ही
वैसे तो मंच भी सिर्फ़ उन्हीं के नाम पर था
ऐसा भी नहीं कि उन्हें मंच पर बुलवाया ही नहीं गया
मालायें उन्हीं के हाथों पहनायी गयी
ताली उन्हीं से पिटवायीं गयीं
नचाया गया उन्हें ही उनकी कला के नाम पर


यह दीगर बात है कि
उनके ही दुखों पर देते रहे बयान सारे के सारे
पर दुःख चिपका रहा जस के तस उन्हीं से
वे नीचे बैठे-बैठे महसूसते रहे दुःख
उनमें से कोई बीच में बड़बड़ाया
तो फट्ट से गुर्रा कर बिठा दिया गया


उन्हें लौटना था - उनका दुःख उनके साथ लौट आया
और उनके बारे में और क्या बतायें -
उन्हें और आगे पहुँचना था – मुस्कराहट उनके साथ-साथ आगे कुलांचे भर रही थीं
0जयप्रकाश मानस

5/23/2008

लोककला से छेड़छाड़ घातक – दीपक चंद्राकर



कलाएं अपने स्वाभाविक क्रम से हर युग में अपना स्वरुप बदलती हैं और क्रमशः विकसित होती जाती है। इसलिए लोककला के विकास के लिए हमें अपने प्रयास लादने से बचना चाहिए- इन खुले विचारों के साथ लोककला की सेवा में निष्ठा से जुड़े एक मौलिक कलाकार हैं. दीपक चन्द्राकर जो लगभग बचपन से ही लोकनाट्य से जुड़े हैं। अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए वे कहते हैं- लोककला के मूलरूप से छेड़छाड़ घातक है। उसे जमाने के प्रवाह के साथ अपने-आप बदलने या विकसित होने देना चाहिए क्योंकि लोक कलाएं इसी तरह से विकसित हुई हैं। दुर्ग जिले के ग्राम अर्जुन्दा में जन्मे दीपक चन्द्राकर ने अपने पिता उजियारिसंह चंद्राकर की छत्रछाया में बढ़ते हुए कला एव सामाजिक के संस्कार ग्रहण किए और लोककला अभिनय की बारीकियों को अपने गुरु की देन रामहृदय तिवारी के सानिध्य में रहकर सीखा। वे कहते हैं- यह पिता एवं गुरु की देन है, आज उनमें मंचीय अनुशासन एवं समर्पण भरा है जिससे मुझमें आत्मविश्वास एवं मंचीय जिम्मेदारी का पूरा-पूरा अहसास है।

यूं तो ग्राम अरजुन्दा इन्हीं चंद्राकर परिवार के कारण सास्कृतिक संस्कारों से ओत-प्रोत है। उस पर दीपक चंद्राकर ने छत्तीसगढ़ी लोक सांस्कृतिक कला मंच ‘लोकरंग’ की स्थापना कर उसे पूरा संरक्षण भी दे रहे हैं और इसके निर्देशन पक्ष में वे सशक्त हस्ताक्षर के रुप में उभर रहे हैं। लोककला की जीवंतता विशेषकर समग्र प्रबंधन देखना हो तो ग्राम अर्जुन्दा आकर लोककला तीर्थ का पुण्य कमाया जा सकता है। दीपक चंद्राकर ने लोकरंग के कलाकारों के लिए आवास, रिहर्सल, प्रदर्शन के लिए यहाँ लगभग एक ग्रामीण अकादमी की संरचना की । वे बताते हैं- छत्तीसगढ़ी लोक सांस्कृतिक कला मंच ‘लोकरंग’ के माध्यम से छत्तीसगढ़ भर में तथा छत्तीसगढ़ से बाहर भी छत्तीसगढी संस्कृति, अस्मिता, स्वाभिमान, पर्व, परंपराएं, तीज-त्यौहार, नृत्यु, गीत-संगीत से परिपूर्ण अभिव्यक्ति देने के लिए प्रयासरत हैं। वे बताते हैं- सन 1992 से लेकर अब तक लोकरंग (अर्जुन्दा) के माध्यम से अब तक सौ से भी अधिक प्रदर्शन छत्तीसगढ़ तथा महाराष्ट्र, भोपाल अमेठी, दिल्ली में कर चुके हैं। लोकरंग के कलाकारों द्वारा प्रस्तुत सोनहा बिहान, लोकरंजनी, लोरिक चंदा तथा हरेली ने काफी प्रसिद्धि पाई है। छत्तीसगढ़ में लोक कलाकार के रुप में सुस्थापित दीपक चन्द्रकार ने सन 1977 से 1982 तक प्रसिद्ध छत्तीसगढ़ी लोक सांस्कृतिक संस्था सोनहा बिहान में लोक कलाकार के रुप में सक्रिय भागीदारी निभाते हुए सन 1973 से अब तक लगभग 6 सौ प्रतिभाओं को लोक कलाकार एवं लोक नर्तक के रूप में प्रशिक्षित किया है और यह स्वयं में एक रिकॉर्ड है। लोककला के क्षेत्र में इतनी लंबी एवं सशक्त यात्रा के चलते दीपक चन्द्राकर ने सन 1984-85 में राष्ट्रीय विज्ञान मंड़ई (अंजोरा) में सांस्कृतिक गतिविधियों में सक्रिय भागीदारी निभाई है। यही वजह है कि सन 1996 में छत्तीसगढी लोककला महोत्सव भिलाई में दीपक चंद्राकर को लोककला के अभिनेता, नर्तक एवं निर्देशन तथा लोकरंग संस्था के सर्जक के रुप में सम्मानित होने का गौरव प्राप्त है। जो बिरले लोक कलाकारों को मिल पाता है। लोकनाट्य संस्था लोकरंग के माध्यम से दीपक चन्द्राकर ने छत्तीसगढ़ी गीतों के आडियो कैसेट भी तैयार किया है जो पर्रा भर लाई, लोकरंग के संग, रिमझिम, चिरइया तथा तेल हरदी शीर्षक से कैसेट समूचे छत्तीसगढ़ में धूम मचा रहे हैं।

दीपक चन्द्राकर ने लोकरंग के मंच से छत्तीसगढ़ के महिमा गीत, खड़े साज के गीत, सुवा, ददरिया, सोहर गीत, सावनाही गीत, श्रम गीत, आदि छत्तीसगढी गीतों को भी संयोजित किया है, जिन्हें पर्याप्त प्रसिद्धि मिली है। वे बताते हैं- लोकरंग में चालीस लोक कलाकारों का जत्था है, जिन्होंने नए छत्तीसगढ राज्य के अभ्युदय के समय पहली नवंबर 2000 को सराहनीय प्रदर्शन रायपुर दूरदर्शन के माध्यम से किया था। दीपक चंद्राकर छत्तीसगढ़ी फिल्मों का सैलाब आने के बावजूद किंचित भी चिंतित नहीं है, वे मानते है- छत्तीसगढ़ी लोककला का भविष्य बहुत ही उज्जवल है। शर्त केवल यही है फिल्में अपनी मिट्टी, अपनी जड़ों से पूरी आत्मीयता से जुड़ी रहें और अपनी ग्रामीण माटी की आकुल पुकार अनसुनी न करें।

दीपक चंद्राकर इन दिनों चर्चित लोक अमर प्रेमकथा- लोरिकचंदा पर फिल्म निर्माण की परियोजना पर काम कर रहे हैं। वे इसके निर्माता होंगे लक्ष्मण चंद्राकर के साथ, जबकि प्रेम साइमन की कहानी को बड़े परदे पर निर्देशित करने की जिम्मेदारी रामहृदय तिवारी पर है।
0आसिफ़ इकबाल
वरिष्ठ पत्रकार, रायपुर

5/22/2008

भारतवासियों ने दिया आतंकवाद का मुँहतोड़ जवाब



13 मई 2008, एक बार फिर भारत के सुप्रसिद्ध पर्यटक स्थल गुलाबी नगरी, जयपुर आतंकवादियों के कहर का पर्याय साबित हुई जबकि मानवता विरोधी आतंकियों ने साम्प्रदायिक सौहार्द्र का प्रतीक समझे जाने वाले जयपुर शहर को सिलसिलेवार बम धमाकों से हिलाकर रख दिया। आतंकवादियों द्वारा 8 अलग-अलग स्थानों पर मात्र 15 मिनट की समय सीमा के भीतर तथा केवल डेढ़ किलोमीटर की परिधि में यह सभी धमाके किए गए। इन धमाकों में साईकिलों का प्रयोग किया गया। कुल 10 साईकिलें विस्फोट हेतु प्रयोग में लाई गई थीं जिनमें से एक साईकिल में विस्फोट नहीं हो पाया। बताया जा रहा है कि गत् वर्ष मालेगाँव तथा उत्तर प्रदेश के लखनऊ, फ़ैजाबाद व बनारस के अदालत परिसरों में हुए धमाकों में भी विस्फोट हेतु इसी प्रकार साईकिलों का ही प्रयोग किया गया था। विस्फोटक को साईकिल पर किसी थैले अथवा टिफिन में रखकर आतंकवादी इन साईकिलों को विस्फोट स्थल तक एक साईकिल सवार के रूप में आसानी से पहुंचा देते हैं। इसके पश्चात इनमें रखी विस्फोटक सामग्री को टाइमर अथवा रिमोट द्वारा विस्फोट कर दिया जाता है। जयपुर में भी ऐसा ही किया गया। परिणामस्वरूप विभिन्न सम्प्रदायों से संबंध रखने वाले 63 बेगुनाह व्यक्ति अपनी जानों से हाथ धो बैठे तथा 150 से अधिक लोग घायल हो गए।

भारत में आतंकवादी घटनाओं का सिलसिला कोई नया नहीं है। कश्मीर के नाम पर चलने वाला आतंकवाद गत् तीन दशकों से तमाम उतार-चढ़ाव व दाँव-पेच के बीच सक्रिय है। पंजाब भी इस भयानक आतंकित त्रासदी की चपेट में रह चुका है। यहां तक कि अब भी पंजाब आतंकवाद से संबंधित कुछ अलगाववादी संगठनों की सक्रियता के समाचार आते रहते हैं। बोडो, उल्फ़ा, पी डब्ल्यू जी, टी एन एल एफ़, एल टी टी ई तथा नक्सलवाद जैसी कितनी ही हिंसक चुनौतियाँ देने वाले संगठनों का सामना भी हमारा देश गत् कई दशकों से करता चला आ रहा है। परन्तु इन सबके बावजूद इस विशाल भारत में सहिष्णुता, सहनशीलता व सहस्तित्व का परचम हमेशा इतना बुलंद रहा है कि आतंकवाद की घटनाएं हमारे देश की सहिष्णुता जैसी महान विरासत को कभी डगमगा नहीं पाईं। आतंकवादियों द्वारा जान बूझकर बार-बार ऐसे घृणित प्रयोग किए जाते हैं ताकि पूरे देश में साम्प्रदायिक उन्माद की आंधी चले तथा उनके नापाक इरादे कामयाब हों।परन्तु देशवासियों के अपसी सौहार्द्र के परिणामस्वरूप उनकी मंशा कभी पूरी नहीं हो पाती।

जयपुर में हुए सिलसिलेवार विस्फोट भी हालाँकि आतंकवादियों की ऐसी ही नापाक कोशिश का एक नतीजा थे। इन विस्फोटों की तफ़तीश के बाद जो तथ्य सामने आ रहे हैं, वे अत्यन्त गम्भीर व चिंतनीय हैं। इस्लाम के नाम पर फैलने वाला आतंकवाद नि:सन्देह इस समय विश्वव्यापी स्तर पर नज़र आ रहा है। भले ही इस आतंकवाद के अलग-अलग स्थानों पर अपने अलग-अलग कारण क्यों न हों तथा भले ही इनका एक दूसरे से कोई संबंध हो या न हो परन्तु दूर से देखने में दुनिया को यह सभी 'इस्लामिक आतंकवाद' का ही एक चेहरा प्रतीत होता है। विश्वस्तर पर होने वाली इन आतंकवादी घटनाओं में भारत अब तक बड़े गर्व से यह कहता रहा है कि वैश्विक स्तर पर फैले इस आतंकवाद में किसी भारतीय आतंकी संगठन अथवा व्यक्ति का कोई योगदान नहीं रहता। परन्तु जयपुर के हादसे के पश्चात जो ई-मेल जाँच एजेंसियों को मीडिया के माध्यम से प्राप्त हुआ है, उसने तो न सिर्फ़ भारतीय सुरक्षा एजेंसियों को चिंता में डाल दिया है बल्कि भारतीय मुसलमानों के समक्ष भी एक बड़ी समस्या खड़ी कर दी है।

अभी तक तो भारत में मात्र सिमी (स्टूडेंटस ऑंफ इस्लामिक मूवमेंट इन इंडिया) नामक संगठन को ही लेकर यह बहस छिड़ी रहती थी कि इसके सदस्य आतंकवादी हैं या नहीं। सिमी अपने आप में एक आतंकवादी संगठन है अथवा नहीं तथा सिमी के रिश्ते अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों से जुड़े भी हैं या नहीं। परन्तु जयपुर विस्फोट की ज़िम्मेदारी लेने वाले कथित आतंकवादी संगठन 'इंडियन मुजाहिद्दीन' के नाम से जो मेल कथित रूप से गुरु-अल हिंदी की ओर से भेजा गया है, उसने पूरे देश को चिंता में डालकर रख दिया है।

यदि यह ई मेल सही है तो इसमें प्रयोग की गई भाषा व चेतावनी इतनी ख़तरनाक है जिससे कि आतंकवादियों की एक बड़ी व गहरी साज़िश का पर्दाफ़ाश होता है। इस मेल में जहाँ भारत सरकार को यह चेतावनी दी गई है कि वह अमेरिका के साथ अपने मधुर रिश्ते क़ायम रखने से परहेज़ करे, वहीं मेल भेजने वालों ने भारत के मुसलमानों विशेषकर उन मौलवियों की उस तांजातरीन मुहिम को भी ललकारा है, जिसके तहत अब राष्ट्रीय स्तर पर मौलवियों द्वारा संगठित रूप से आतंकवाद की निंदा करने, इसका विरोध करने तथा इसका डटकर मुंकाबला करने का आह्वान किया गया है। इस आतंकी संगठन द्वारा आतंकवाद को ग़ैर इस्लामी गतिविधि क़रार देने वाले इन मौलवियों (इस्लामी धर्मगुरुओं) को ही इस्लाम विरोधी बताया गया है।

यदि यह ई मेल किसी दूसरी बड़ी साज़िश का नतीजा होने के बजाए सच्चाई पर आधारित ई मेल है, फिर तो निश्चित रूप से भारत को इंडियन मुजाहिद्दीन नामक संगठन को लेकर दुनिया में भी शर्मसार होना पड़ सकता है। दरअसल अब तक पाकिस्तान, बंगलादेश, अफ़गानिस्तान, सूडान, चेचेन्या आदि देशों को ही इस्लामिक संगठनों की पनाहगाह के रूप में जाना जाता था। परन्तु जयपुर बम धमाकों के बाद पहली बार सुनाई देने वाले इंडियन मुजाहिद्दीन नामक संगठन ने तो भारतीय सुरक्षा एजेंसियों के समक्ष एक चुनौती ही पेश कर दी है। इसमें कोई शक नहीं कि आतंकवादियों का मक़सद हमेशा से ही भारत में साम्प्रदायिक सौहार्द्र को चोट पहुँचाना रहा है। परन्तु आतंकवादियों ने चाहे मन्दिर में विस्फोट कर उसे अपवित्र करने का प्रयास किया हो तथा हिन्दू मानस को झकझोरने की कोशिश की हो अथवा मस्जिद, दरगाह या क़ब्रिस्तान में बेगुनाहों की लाशें बिछाकर मुसलमानों की साम्प्रदायिक भावनाओं को झकझोरने का काम क्यों न किया हो परन्तु आतंकवादियों के प्रत्येक ऐसे नापाक इरादों का भारतीय जनमानस ने हमेशा ही मुँहतोड़ जवाब दिया है।

कहा जा सकता है कि जैसे-जैसे आतंकवादियों के हौसले व उनकी घिनौनी हरकतों के स्तर में वृद्धि होती जा रही है, ठीक उसी प्रकार भारतवासियों की सहनशीलता में भी इज़ाफ़ा होता जा रहा है। दरअसल पूरा भारत अब आतंकवादियों के प्रत्येक मंसूबे को बख़ूबी भाँप चुका है तथा इनके प्रत्येक प्रहार का जवाब साम्प्रदायिक सौहार्द्र व सहिष्णुता से ही देता आ रहा है जैसा कि जयपूर में गत् दिनों देखने को भी मिला।

इन सबके बावजूद सामूहिक व संगठित रूप से भारतीय मुसलमानों को भी आतंकवादियों के इरादों को समझने तथा उनके विरुद्ध भारत सरकार, राज्य सरकारों तथा सुरक्षा एजेंसियों को पूरा सहयोग देने की ज़रूरत है। भारतीय मुसलमानों को अपने ऊपर इस कलंक को क़तई नहीं लगने देना चाहिए कि कोई भाड़े का टट्टू, आतंकवादी अथवा अनजान व्यक्ति किसी भारतीय मुसलमान के यहाँ पनाह पा रहा है। अथवा उसके घर को मानवता विरोधी सांजिशों व गतिविधियों का केंद्र बनाया जा रहा है।

सच्चा मुसलमान हरगिज़ वह नहीं है जो आतंकवाद जैसी इस्लाम विरोधी गतिविधियों में शामिल किसी गुमराह मुसलमान को पनाह दे बल्कि सच्चा मुसलमान वह है जो बेगुनाह लोगों की हत्या होने से लोगों को बचाए तथा ऐसे मानवता विरोधी व इस्लाम विरोधी लोगों की साज़िशों को बेनक़ाब करने में अपनी सहयोगपूर्ण भूमिका अदा करे।



0तनवीर जाफ़री
(सदस्य, हरियाणा साहित्य अकादमी, शासी परिषद)
22402, नाहन हाऊस
अम्बाला शहर। हरियाणा

कहीं भारतीय रेलवे स्टेशन आतंकवादी पनाहगाह तो नहीं?



गुलाबी नगरी के नाम से प्रसिद्ध भारत का सुप्रसिद्ध पर्यटक स्थल एवं राजस्थान राज्य की राजधानी के रूप में प्रसिद्ध ऐतिहासिक नगरी जयपुर आख़िरकार आतंकवादियों के निशाने पर आ ही गई। 68 लोगों की जान लेने वाले आतंकवादियों के इन क्रमवार धमाकों की जाँच पड़ताल अनेकों कोणों से की जा रही है। कभी सीमापार द्वारा प्रायोजित आतंकवाद की ओर शक की सुई घूमती है तो कभी बंगलादेश का नया नवेला आतंकवादी संगठन हूजी संदेह के दायरे में आता है।

कभी इंडियन मुजाहिद्दीन नामक संगठन का परिचय जयपुर धमाके से जोड़कर कराया जा रहा है तो कभी सिमी नामक संगठन पर भी शक की सुई घूमती है। कहा जा सकता है कि प्रत्येक ऐसी आतंकवादी घटनाओं के बाद संदेह का दायरा इतना बड़ा कर दिया जाता है गोया कि यह भूसे में सुई ढूँढने जैसा हो। कौन सा आतंकवादी संगठन अथवा कौन से लोग इसके लिए ज़िम्मेदार हैं, इस बात का सही-सही पता लग भी पाएगा अथवा नहीं। दोषी लोग क़ानून की गिरफ़्त में आ पाएँगे अथवा नहीं, इन सभी बातों को लेकर संदेह बना हुआ है। संदेह का मुख्य कारण यही है कि देश में होने वाली अधिकांश आतंकवादी घटनाओं को अंजाम देने वालों का अब तक कोई सुरांग नहीं लग पाया है।

परन्तु प्रत्येक आतंकवादी कार्रवाई में एक समानता अवश्य पाई जा सकती है और वह यह कि ऐसी घटनाओं में अधिकांशतय: बेगुनाह आम नागरिक ही मारे जाते रहे हैं। एक दूसरी समानता यह भी है कि हादसे के तुरन्त बाद होने वाली पुलिस कार्रवाई अथवा जाँच पड़ताल में बेगुनाह लोगों को ही जाँच पड़ताल व तफ़तीश का भी सामना करना पड़ता है तथा ऐसी घटनाओं में संलिप्त होने के संदेह मात्र से ही संदेह के दायरे में आने वाले अनेक लोगों को सामाजिक रूप से गहन मानसिक उत्पीड़न के दौर से भी गुज़रना पड़ता है। इन बेगुनाह शहीदों तथा संदेह के दायरे में आने वाले बेगुनाह लोगों के व इनके परिजनों के मानसिक उत्पीड़न की भरपाई न तो कोई सरकार कर सकती है न ही कोई संगठन। उदाहरण के तौर पर राजस्थान सरकार ने जयपुर बम विस्फोट के बाद राज्य में अवैध रूप से रहने वाले बँगलादेशी नागरिकों के विरुद्ध एक बड़ा अभियान छेड़ने का फ़ैसला किया है।

बँगलादेशी नागरिकों की जाँच पड़ताल के नाम पर चलाई जाने वाली इस मुहिम का कारण केवल यह बताया जा रहा है कि जयपुर विस्फोट में हूजी नामक जिस संगठन के शामिल होने का संदेह जताया जा रहा है, वह संगठन मूलत: बंगलादेश से संचालित होता है। माना जा रहा है कि यदि हूजी ने इस आतंकवादी कार्रवाई को अंजाम दिया होगा तो संभव है कि उसे जयपुर में अवैध रूप से रहने वाले बंगलादेशियों द्वारा संरक्षण अथवा पनाह दी गई हो। मात्र इसी संदेह को लेकर अवैध बँगलादेशी नागरिकों के विरुद्ध राजस्थान में राज्यव्यापी मुहिम छेड़ी गई है।

प्रश्न यह है कि क्या मात्र बँगलादेशी नागरिक ही भारत में अवैध रूप से रहकर आतंकवाद के फैलने में सहायक साबित हो रहे हैं अथवा कुछ और भी जीते जागते उदाहरण हैं जोकि आतंकवाद को सुरक्षा, संरक्षण तथा सूचना आदि सब कुछ उपलब्ध करवा सकते हैं। इस पर भी ग़ौर करना बेहद ज़रूरी है। दरअसल भारत, पाकिस्तान व बंगलादेश के लोगों में शारीरिक रूप से प्राकृतिक तौर पर ऐसी समानताएं हैं जिसके कारण पहली नज़र में इनमें अंतर कर पाना आसान नहीं हो पाता। वैसे भी मात्र 60 वर्ष पूर्व यह सभी एक ही देश, भारत के अंग हुआ करते थे। अत: इन तीनों देशों के लोगों का रहन-सहन, चेहरा, रंग रूप, पहनावा तथा काफ़ी हद तक भाषा भी मिलती जुलती सी हुआ करती है। यही कारण है कि यह लोग भारत जैसे विशाल देश में भीड़ भरे बाज़ारों, धार्मिक स्थलों, रेलगाड़ियों, रेलवे स्टेशन, बस स्टैंड, पार्क, अस्पताल आदि कहीं भी बड़ी आसानी से मामूली सा भेष बदलकर अथवा बिना भेस बदले ही घुल मिल जाते हैं। और यही समानता तथा इनका आम भारतीयों जैसा ही दिखाई देना किसी भी बड़े हादसे का कारण बन जाता है। यही विशेषता इन अपराधियों के बचकर निकल भागने में भी सहायक होती है।

तो क्या राजस्थान से बँगलादेशी नागरिकों के निकल जाने मात्र से देश में आतंकवादी घटनाओं में कमी आ जाएगी? भारत में तो बँगलादेशी नागरिकों के विषय को लेकर वैसे भी दो तरह की राजनैतिक धारणाएं हैं। एक का रुख अवैध बँगलादेशी घुसपैठियों के प्रति काफ़ी सख्त है तो दूसरी विचारधारा इनके विरुद्ध नरमी बरते जाने की पक्षधर है। अवैध घुसपैठियों को तो वैसे भी भारत से इसलिए भी निष्कासित कर दिया जाना चाहिए क्योंकि भारत स्वयं जनसंख्या, ग़रीबी, बेरोंजगारी जैसे कई बुनियादी संकटों से जूझ रहा है। परन्तु बँगलादेशी घुसपैठियों के विरुद्ध राजस्थान में होने वाली कार्रवाई से एक बात ज़रूर साफ़ हो जाती है कि चूँकि अवैध रूप से रहने वाले बँगलादेशी नागरिकों की पहचान को लेकर जो संदेह की स्थिति उत्पन्न हो रही है, उसके चलते ऐसी कार्रवाई की जा रही है। तो क्या अवैध बंगलादेशियों को राजस्थान से खदेड़े जाने के बाद भारत को आतंकवादी घटनाओं से छुटकारा मिल जाएगा? शायद नहीं। इसकी वजह यह है कि अवैध बँगलादेशी नागरिकों से कहीं अधिक पहचान की समस्या उन संदिग्ध व्यक्तियों को लेकर होनी चाहिए जोकि लगभग पूरे भारतवर्ष में रेलवे स्टेशन, प्लेटफ़ार्म तथा यात्री विश्राम गृहों, स्टेशन के आसपास, पार्क, मन्दिरों, धर्मशालाओं व रेलवे लाईन के किनारे झोपड़ पट्टियों में आबाद हैं।

सुरक्षा एजेन्सियां यदि इनके विरुद्ध एक बड़ी मुहिम चलाएं तो निश्चित रूप से आतंकवाद के अतिरिक्त बड़े से बड़ा जुर्म, नशीली दवाओं तथा अन्य संवेदनशील नशीली वस्तुओं के क्रय विक्रय तथा सप्लाई व खपत का भी केंद्र इन्हीं स्टेशन पर पनपता मिलेगा। बड़े दु:ख का विषय तो यह है कि कहीं-कहीं तो पीला वस्त्र पहने इन भिखारी अथवा साधु संत रूपी अपराधियों का अपराध तो बांकायदा पुलिस संरक्षण में पनपता हुआ भी देखा जा सकता है। यात्रियों के सामानों की लूट में भी इस नेटवर्क का अहम योगदान रहता है।

आम लोगों की भावनाओं, उनकी सहानुभूति तथा उनके भोलेपन का फ़ायदा उठाने वाले यह भगौड़े, अपराधी तथा निकृष्ट मानसिकता रखने वाले लोग किसी न किसी असाधारण कारणों से अपने घरों को छोड़कर रेलवे स्टेशन जैसे सार्वजनिक जगहों पर स्वयं तो पनाह लेते ही हैं साथ-साथ मात्र पैसे की लालच में यह किसी भी देशद्रोही गतिविधियों में भी शामिल हो सकते हैं।

भारत में कई स्थानों पर रेलवे स्टेशन तथा रेलगाड़ियों में हो चुके धमाकों में इन साधु अथवा भिखारी रूपी अपराधियों का कभी कोई हाथ नहीं रहा अथवा इन हादसों में काम आने वाले विस्फोटकों को लाने ले जाने अथवा इन्हें विस्फोट स्थल पर स्थापित करने में इन लोगों का कभी कोई हाथ नहीं रहा हो आंखिर इस बात की क्या गारण्टी दी जा सकती है। समाचार है कि ऐसे ही आतंकी संगठनों द्वारा भारतीय रेल को पुन: निशाना बनाने की चेतावनी दी गई है।

अत: अवैध बँगलादेशी घुसपैठियों अथवा पाकिस्तानी घुसपैठियों के विरुद्ध क़ानूनी कार्रवाई तो अवश्य की जानी चाहिए परन्तु दो करोड़ से भी अधिक की संख्या में पूरे देश में बेरोक टोक दर-बदर भटकने वाले इन साधु वेशधारियों तथा बहुरूपियों के विरुद्ध भी एक बड़ी मुहिम ठीक उसी प्रकार अथवा उससे भी अधिक गति से छेड़े जाने की ज़रूरत है जैसी कि इन दिनों दक्षिण भारत के कुछ क्षेत्रों में इनके विरुद्ध छेड़ी गई है। हमें इस संभावना को नज़र अंदाज़ नहीं करना चाहिए कि भिखारियों व बाबाओं के रूप में कहीं रेलवे स्टेशन जैसे अन्य सार्वजनिक स्थलों पर तो आतंकवाद पनाह नहीं पा रहा है।


निर्मल रानी
163011, महावीर नगर,
अम्बाला शहर,हरियाणा

5/18/2008

भारत की नदी जोड़ परियोजना: सम्भावनाएं व चिन्ताएं

संपूर्ण पृथ्वी का दो तिहाई हिस्सा जलक्षेत्र होने के बावजूद आज पूरे विश्व में मनुष्य के उपयोग में आने वाले जल का भीषण संकट खड़ा हो गया है। समुद्री जल; खारा, नमकीन तथा प्रदूषित होने के अतिरिक्त कहीं-कहीं तो ऐसा विषैला भी है कि जिसे पीने से कोई भी प्राणी मर भी सकता है।

तमाम कोशिशों के बावजूद अभी तक वैज्ञानिक इस लक्ष्य तक नहीं पहुँच सके हैं कि समुद्री पानी को शुद्ध कर पीने, कृषि में प्रयोग होने तथा औद्योगिक प्रयोग में लाने योग्य बनाया जा सके। यही वजह है कि स्वच्छ और ताज़े व मीठे जल की माँग वैश्विक स्तर पर जनसंख्या वृद्धि के साथ-साथ बेतहाशा बढ़ती ही जा रही है। दूर अंदेश समीक्षक तो इस विषय पर यहाँ तक कह रहे हैं कि यदि दैनिक उपयोग में आने वाले तांजे पानी की कमी से उत्पन्न होने वाली समस्याओं का शीघ्र निराकरण नहीं हुआ तो कोई आश्चर्य नहीं कि जल पर नियंत्रण हेतु पूरी दुनिया में विश्वयुद्ध भी छिड़ जाए। इन्हीं दूरगामी दुष्परिणामों का सामना करने के लिए इस समय दुनिया के कई देश जल संकट से उबरने के प्रयास में लगे हुए हैं।

भारत जैसे विशाल देश में भी इस समय लगभग 30 बड़ी नदियों व नहरों को आपस में जोड़ने जैसा एक बड़ा कार्यक्रम अन्तर्राष्ट्रीय जल प्रबंधन संस्थान की देखरेख में चलाया जा रहा है। इस कार्यक्रम को राष्ट्रीय नदी जोड़ परियोजना का नाम दिया गया है। बावजूद इसके कि भारत एक कृषि प्रधान देश के रूप में जाना जाता है। परन्तु दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि नदियों के जल का सही वितरण व प्रबंधन न होने की वजह से हमारे देश की कृषि का एक तिहाई हिस्सा जल के अभाव तथा जल की मार से तबाह हो जाता है। ज़ाहिर है इसका दुष्परिणाम किसानों के साथ-साथ प्रत्येक वर्ष हमारे देश की अर्थव्यवस्था को भी भुगतना पड़ता है।

भारत के उत्तर पश्चिमी व दक्षिणी राज्य जहाँ नदियों व नहरों से जल लेकर अपनी कृषि की ज़रूरतों को पूरा कर लेते हैं, वहीं गंगा का पूर्वी क्षेत्र बुरी तरह से बाढ़ की चपेट में रहता है। पूर्वोत्तर क्षेत्र की ओर भी कई नदियाँ बरसात के समय ऐसा विकराल रूप धारण कर लेती हैं कि खेतों में खड़ी फ़सल की तो बात ही क्या, पूरे-पूरे गाँव भी इस बाढ़ में बह जाते हैं। परिणामस्वरूप देश को प्रत्येक वर्ष भारी जान, माल व पशुधन की क्षति उठानी पड़ती है। सदियों से यही सिलसिला चल रहा है। परन्तु ग्लोबल वार्मिंग की चेतावनी के बाद अब भारत सहित पूरी दुनिया के कान खड़े हो गए हैं तथा स्वच्छ व मीठे जल के प्रबंधन हेतु विश्व के कई देशों द्वारा अब कुछ सकारात्मक किए जाने का संकल्प लिया गया है।

भारत में जिन प्रमुख नदियों को एक दूसरे से जोड़ने का प्रस्ताव है तथा इनमें से कई परियोजनाओं पर तो काम भी शुरु हो गया है, उनमें कुछ प्रमुख परियोजनाएं इस प्रकार हैं- जैसे कि महानदी को गोदावरी से जोड़ा जाना तथा इन्चमपल्ली नदी को नागार्जुन सागर तथा पुलिचिंताला से जोड़ा जाना। सोमासिला नदी को नागार्जुन सागर तथा ग्रांड अनिकुट लिंक से जोड़ा जाना। पेनार नदी को अलमाटी तथा सिरीसेलम से जोड़ा जाना। यमुना नदी को शारदा व राजस्थान से जोड़ना तथा राजस्थान को साबरमती से जोड़ा जाना। इसी प्रकार सोन बैराज को चुनार तथा दक्षिण में गंगा से जोड़ना। गंगा नदी को दामोदर नदी से व स्वर्ण रेखा नदी से जोड़ना तथा स्वर्ण रेखा को महानदी से लिंक करना।

इसी प्रकार फरक्का को सुन्दरवन व जोगीछोपा से जोड़ा जाना प्रस्तावित है। गंगा-गण्डक, घाघरा-यमुना, कोसी-घाघरा व कोसी-मेची नदियों को जोड़ा जाना भी प्रस्तावित है। इसके अतिरिक्त नेत्रावती-हेमवती परियोजना, पाम्बा-अनचनकोविल-वाईपर लिंक परियोजना का भी प्रस्ताव है। इसी प्रकार दमन-गंगा को पिंजाल से, बेदती को वरदा से, पार्वती को काली सिंध व चंबल से एवं पार्वती, तापी व नर्मदा को भी परस्पर जोड़ा जाना प्रस्तावित है।


दुनिया की इस सबसे बड़ी नदी जोड़ परियोजना का एकमात्र उद्देश्य यही है कि बाढ़ के रूप में तबाही मचाने वाली नदियों के व्यर्थ जाने वाले पानी का सदुपयोग किया जा सके तथा नदी जोड़ परियोजनाओं के माध्यम से इस जल का सदुपयोग करते हुए उन क्षेत्रों में भेजा जा सके जोकि सूखे व जल के भयानक अभाव का सामना करते हैं।

ऐसा माना जा रहा है कि यदि तीन चरणों में काम कर रही इस विराट परियोजना को सही ढंग से पूरा कर लिया गया तथा इसमें क्षेत्रीय राजनीति के महारथी नेतागणों का पूरा सहयोग भी मिलता रहा तो इस बात की संभावना है कि भविष्य में हमारे देश में कृषि की उपज में इज़ाफ़ा होने के साथ-साथ देश की कृषि से होने वाली आय में भी बढ़ोत्तरी हागी। इसके साथ-साथ बाढ़ व सूखे के परिणामस्वरूप होने वाली तबाही से भी लोगों को निजात मिल सकेगी। और इन सबसे भी अधिक ज़रूरी बात यह है कि आम लोगों को पीने का व औद्योगिक प्रयोग का मीठा व स्वच्छ जल उपलब्ध हो सकेगा।



एक ओर तो इस विराट परियोजना के तमाम सकारात्मक परिणाम बताए जा रहे हैं तो दूसरी ओर यही परियोजना; आलोचना व असहयोग का भी शिकार होती नज़र आ रही है। कुछ राज्य ऐसे भी हैं जिनके नेता इस नदी जोड़ परियोजना के विरोध में अपने राज्य के लोगों को यह समझाने का प्रयास कर रहे हैं कि इस परियोजना के कार्यान्वित हो जाने के बाद उनके हिस्से का जल दूसरे क्षेत्रों में चला जाएगा। इसके लिए इनके पास तरह-तरह के तर्क भी हैं।

निश्चित रूप से यह सभी तर्क सीमित, संकीर्ण व वोटबैंक पर आधारित सोच से जुड़े हैं। जबकि नदी जोड़ परियोजना एक राष्ट्रीय परियोजना है तथा इसका अपना राष्ट्रव्यापी महत्व है। इस परियोजना का विरोध करने वालों में दक्षिणपंथी विचारधारा के भारत में सक्रिय कुछ संगठन भी शामिल हैं जिनके प्रवक्तागण पूरे देश में घूम-घूम कर सेमीनार व सभाएं आयोजित कर इस विशाल परियोजना को आम लोगों के समक्ष एक ऐसी भयानक व डरावनी योजना के रूप में प्रचारित कर रहे हैं कि उनकी बातें सुनकर आम आदमी असमंजस में पड़ जाता है। इनके पास जो तर्क हैं, उनमें इस विशाल परियोजना हेतु विश्व बैंक तथा अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष से उधार में बहुत बड़ी रक़म लेने का जोखिम उठाना, विदेशी हाथों में इस परियोजना के निर्माण कार्य सौंपकर उन्हें लाभ पहुँचाना, लगभग असम्भव सी लगने वाली इस परियोजना को संभव बनाने के लिए बेहद ख़र्चीले तकनीकी उपाय करना तथा यह परियोजना ठीक-ठाक चलती रहे, इसके लिए निरंतर इसकी देख रेख व रख-रखाव करते रहना आदि शामिल हैं।

इन आलोचकों के अनुसार यह सब कुछ अत्यन्त ख़र्चीले उपाय हैं। इनका यह भी कहना है कि इस परियोजना के पीछे एक बड़ी अन्तर्राष्ट्रीय साज़िश काम कर रही है जो भारत को भारी क़र्ज के बोझ तले दबाना चाह रही है। इतना ही नहीं बल्कि इस परियोजना के विरोधी यहाँ तक प्रचारित कर रहे हैं कि यदि उधार के विदेशी पैसों से यह परियोजना पूरी हो भी गई तो भी हम इस परियोजना पर आने वाले ख़र्च का बोझ उतार नहीं सकेंगे। और ऐसी स्थिति में इन नदियों पर भी उन्हीं शक्तियों का नियंत्रण हो जाएगा जिन्होंने कि इस परियोजना पर अपना पैसा ख़र्च किया है।

ऐसे में भारत सरकार तथा इस परियोजना के पैरोकारों का यहर् कत्तव्य है कि वह देशवासियों के समक्ष इसके सभी पहलुओं को पूरी पारदर्शिता के साथ समाचार पत्रों व विज्ञापनों के माध्यम से बार-बार पेश करता रहे ताकि देशवासियों का शंका समाधान भी हो सके एवं भारतवासियों को इस परियोजना से होने वाले संभावित फ़ायदे अथवा नुकसान की जानकारी भी मिल सके।

यदि राष्ट्रीय नदी जोड़ परियोजना वास्तव में एक लाभकारी परियोजना है तथा इसके पूरा हो जाने के बाद वास्तव में देश की कृषि उपज में बढ़ोत्तरी होनी संभावित है तथा इस परियोजना पर आने वाले ख़र्च का बोझ भी देश आसानी से सहन कर सकता है तो इस परियोजना का घूम-घूम कर विरोध करने वालों पर भी अंकुश लगाने के उपाय करने चाहिए। दरअसल इस परियोजना की ख़बर से जहाँ बाढ़ व सूखे से प्रभावित होने वाले लोगों में प्रसन्नता देखी जा रही है, वहीं इस परियोजना का विरोध व आलोचना करने वालों के नाना प्रकार के तर्क भी आम जनता के लिए चिंता का विषय बने हुए हैं।

तनवीर जाफ़री
सदस्य, हरियाणा साहित्य अकादमी, हरियाणा

5/14/2008

‘दस्तावेज’ : संकल्प और निष्ठा के तीस वर्ष



हिंदी की स्वस्थ पत्रकारिता को सम्मानित करने के उद्देश्य से प्रारंभ किए गए पं. बृजलाल द्विवेदी साहित्यिक पत्रकारिता सम्मान 2007 से डा. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी को सम्मानित किया जाना वास्तव में एक सार्थक निर्णय है। हिंदी की साहित्यिक पत्रकारिता में ‘दस्तावेज’ के योगदान को रेखांकित किया जाना बहुत आवश्यक है। साहित्यिक पत्रकारिता के इतिहास में ऐसा सौभाग्य बहुत ही कम पत्रिकाओं को मिला है, जो ‘दस्तावेज’ जैसा दीर्घ आयुष्य प्राप्त करें। यह पत्रिका पिछले तीस वर्षों से नियमित निकल रही है। इसका प्रवेशांक अक्टूबर 1978 में प्रकाशित हुआ था जिसमें यह भी घोषणा थी कि संपादक इसके कम से कम 25 अंक ज़रूर निकालना चाहते है। यह सुखद आश्चर्य है कि इस पत्रिका का 117 वाँ अंक हमारे सामने है। उसी आकार-प्रकार में, उसी सुरुचिपूर्ण सादगी और आवरण पृष्ठ पर अपने उसी 'गोला के साथ, जिसके संबंध में संपादक का कहना है, 'यह पूर्णता का प्रतीक है जो ईशावास्योपनिषद् के प्रथम मंत्र से लिया गया है। (दस्तावेज, अंक 101 का संपादकीय)

वास्तव में ‘दस्तावेज’ इस प्रतीक को शुरू से चरितार्थ करती रही है। जहाँ कहीं उसे असंतुलन दिखाई पड़ा, उसने अपने संपादकीयों में कारगर ढंग से हस्तक्षेप किया। इस दृष्टि से सबसे पहले ‘दस्तावेज’ की संपादकीय टिप्पणियों को रेखांकित किया जाना चाहिए। हिंदी में शायद ही किसी साहित्यिक पत्रिका ने सहित्य, भाषा, संस्कृति, धर्म, समाज आदि पर इतनी तल्ख और संतुलित टिप्पणियाँ लिखी हों। इन टिप्पणियों में अपने समय के स्टार माने जाने वाले लेखकों और महाबली सिध्दांतकारों को भी चुनौतियाँ दी गई है। बकौल अशोक वाजपेयी ‘दस्तावेज’’ ने अपने समय के लेखकों के कद की भी नाप जोख की है। (दस्तावेज के 101 वें अंक के लोकार्पण पर दिए गए वक्तव्य से)। इस दृष्टि से इस पत्रिका के अंक 91, 95 और 111 के संपादकीय पठनीय है। इन संपादकीयों पर जितनी प्रतिक्रियाएं छपी है शायद ही हिंदी में किसी लेख पर छपी हों। ये संपादकीय कई महत्वपूर्ण पत्रिकाओं ने आदरपूर्वक पुनर्मुद्रित किए हैं। अपने समय में ही किसी पत्रिका के संपादकीय को ऐसा गौरव मिलना एक असामान्य घटना है।

अपने 30 वर्षों के जीवन में ‘दस्तावेज’ ने लगभग 30 विशेषांक प्रकाशित किए हैं, जो कि अत्यंत महत्वपूर्ण और उनमें से कुछ तो ऐतिहासिक महत्व के हैं। हजारी प्रसाद द्विवेदी, प्रेमचंद, आठवें दशक की कविता, आठवें दशक की आलोचना, रामचंद्र शुक्ल, अज्ञोय, अमृतलाल नागर, श्रीकांत वर्मा, नागार्जुन, विश्व हिन्दी कविता, गोविंद मिश्र, विद्यानिवास मिश्र, नामवर सिंह, शिवप्रसाद सिंह, राहुल सांकृत्यायन, मराठी साहित्य, रचना और आलोचना, भोजपुरी, साहित्य, गीत और गज़ल़, निराला, तुलसीदास तथा महात्मा गांधी पर विशेषांक इसके साक्ष्य हैं। इनमें कई तो ढाई-तीन सौ पृष्ठों के हैं। लक्ष्य किया जा सकता है कि इन विशेषांकों में लेखकों, काव्य रूपों, रचना प्रवृत्तियों, हिंदीतर भाषाओं और बोलियों पर भी अंक केंद्रित हैं। ‘दस्तावेज’ में 'समकालीन भारतीय साहित्य स्तंभ के अंतर्गत लगभग सभी भारतीय भाषाओं और 'देशान्तर स्तंभ के अंतर्गत अनेक विदेशी भाषाओं पर कुछ न कुछ सामग्री प्रकाशित हुई है। बंगला साहित्य का सबसे ज़्यादा अनुवाद छापने का श्रेय इसी पत्रिका को है। इससे इस पत्रिका का एक व्यापक साहित्य-सरोकार प्रकट होता है। ‘दस्तावेज’ ने दिवंगत साहित्यकारों के हज़ारों पत्रों को छापकर एक और ऐतिहासिक काम किया है। आज इलेक्ट्रानिक माध्यमों के चलते पत्र-विधा लगभग समाप्त हो रही है। ऐसे में इन महत्वपूर्ण पत्रों को नष्ट होने से बचाने का यह काम प्रशंसनीय है।

‘दस्तावेज’ जब शुरू हुई थी तो आरंभ में कुछ पत्रों में उसकी विचारधारा का सवाल उठाया गया था। जो लोग विचारधारा का अर्थ मार्क्सवादी विचारधारा मानते हैं उन्हें ‘दस्तावेज’ से निराश होना पड़ेगा। ‘दस्तावेज’ किसी विचारधारा का मुखपत्र नहीं है, जिसमें प्रायोजित लेख और प्रायोजित चर्चाएं प्रकाशित होती हों। यह पत्रिका गुटबंदियों से मुक्त है। इस पत्रिका के पचावसें अंक के लोकार्पण के अवसर पर पत्रिका की इस विशेषता को रेखांकित करते हुए मनोहर श्याम जोशी ने कहा था, ‘दस्तावेज’ एक ऐसी पत्रिका है, जिसमें लेखकों के भी चेहरे दिखाई देते हैं। जबकि आज की अधिकांश पत्रिकाओं में संपादकों के ही चेहरे चमकते रहते हैं। ‘दस्तावेज’ के संपादक लेखक संघों की राजनीति में विश्वास नहीं करते न उनका किसी भी लेखक संघ से किसी प्रकार का संबंध है। मगर उनकी अपनी एक स्पष्ट और दृढ़ विचारधारा है। उन्हीं के शब्दों में, 'संसदीय लोकतंत्र, महात्मा गांधी और भारत की वैश्विक चेतना वाली मूल्यवादी परंपरा मेरी विचारधारा के केंद्र में है जो कि ‘दस्तावेज’ की भी विचारधारा है। (अंक 101 का संपादकीय) ‘दस्तावेज’ में सभी विचारधाराओं के लेखक और उनकी रचनाएं प्रकाशित हुई है। सभी प्रकार की पुस्तकों की समीक्षाएं भी। खासतौर से ‘दस्तावेज’ का ध्यान उन लेखकों और उनकी कृतियों पर रहा है जिन्हें प्रभुत्वशाली वर्ग द्वारा हाशिए पर ठेलने की कोशिश की जाती है।

‘दस्तावेज’ का 100 वाँ अंक महात्मा गांधी पर केंद्रित था, जो प्रकारान्तर से पत्रिका के सरोकार और लक्ष्य का एक महत्वपूर्ण संकेत है। ‘दस्तावेज’ के सम्पादक गांधी को सहस्राब्दि का महानायक मानते हैं और स्वीकार करते हैं कि यदि असली भारत को देखना हो तो गांधी में देखना चाहिए। वे गांधी के विचारों से स्वयं तो प्रभावित हैं ही, उन्हें आज के समय में सबसे ज़्यादा प्रासंगिक भी मानते हैं। ‘दस्तावेज’ एक अकेले व्यक्ति के संकल्प से निकलने वाली पत्रिका है। इसके पीछे न कोई पूंजी संस्थान है, न सरकार, न कोई राजनीतिक दल या लेखक संगठन। इसके सम्पादक और संवेदनशील लेखक विश्वनाथ प्रसाद तिवारी के सरल, पारदर्शी, विनम्र और समर्पित व्यक्तित्व के चुम्बकीय प्रभाव से ही इस पत्रिका को सभी वर्गों के लेखकों का स्नेह-सहयोग प्राप्त हो रहा है। ‘दस्तावेज’ एक अत्यंत निर्भीक पत्रिका है, जो बिना किसी भय और लोभ के अपने सीमित संसाधनों में हिंदी भाषा की रचना और आलोचना को सामने लाने की कोशिस कर रही है तथा भोगवादी अपसंस्कृति, हिंसा, असहिष्णुता और अलगाव के विरुध्द आवाज़ उठा रही है। इस अर्थ में यह पत्रिका भारतेंदु-युगीन पत्रिकाओं की गौरवपूर्ण परंपरा में अपना स्थान बनाती है। 25 मई को शाम 6।00 बजे महंत घासीदास स्मृति संग्रहालय सभागार, रायपुर में आयोजित समारोह में डा. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी सम्मानित होंगे। इस मौके पर हिंदी जगत की हार्दिक शुभकामनाएं।


-चित्तरंजन मिश्र

रीडर, हिंदी विभाग

गोरखपुर विश्वविद्यालय, गोरखपुर

5/13/2008

पं. बृजलाल द्विवेदी स्मृति सम्मान समारोह 25 को





रायपुर। साहित्यिक पत्रकारिता में उल्लेखनीय योगदान के लिए 'दस्तावेज’ (गोरखपुर) के संपादक डा। विश्वनाथ प्रसाद तिवारी पं. बृजलाल द्विवेदी स्मृति अखिल भारतीय साहित्यिक पत्रकारिता सम्मान से सम्मानित किए जाएंगे। 25 मई, 2008 को शाम 6.00 बजे रायपुर स्थित महंत घासीदास स्मृति संग्रहालय सभागार में आयोजित इस कार्यक्रम के मुख्य अतिथि प्रख्यात लेखक विनोद कुमार शुक्ल होंगे तथा अध्यक्षता वरिष्ठ पत्रकार हिमांशु द्विवेदी करेंगे। कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता विश्वविद्यालय के कुलपति सच्चिदानंद जोशी, कवि अष्टभुजा शुक्ल, कथाकार जया जादवानी समारोह के विशिष्ट अतिथि होंगे। इस अवसर पर सम्मानित संपादक डा. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी “साहित्यिक पत्रकारिता की जगह” विषय पर मुख्य व्याख्यान देंगे।


पं. बृजलाल द्विवेदी स्मृति अखिल भारतीय साहित्यिक पत्रकारिता सम्मान समिति की संयोजक भूमिका द्विवेदी ने बताया है कि वर्ष 2007 के सम्मान हेतु डा. तिवारी के नाम का चयन पाँच सदस्यीय निर्णायक मंडल ने किया, जिसमें सर्वश्री विश्वनाथ सचदेव, विजयदत्त श्रीधर, रमेश नैयर, सच्चिदानंद जोशी और गिरीश पंकज शामिल हैं। डा. तिवारी को यह सम्मान साहित्यिक पत्रकारिता के क्षेत्र में उल्लेखनीय सेवाओं और श्रेष्ठ संपादन के लिए दिया जा रहा है। उन्होंने बताया कि हिंदी की स्वस्थ साहित्यिक पत्रकारिता को समादृत करने के उद्देश्य से इस पुरस्कार की शुरुआत की गई है। इस राष्ट्रीय सम्मान के अंतर्गत किसी साहित्यिक पत्रिका का श्रेष्ठ संपादन करने वाले संपादक को ग्यारह हजार रुपए नगद, शाल, श्रीफल, सम्मान पत्र एवं प्रतीक चिन्ह देकर समारोहपूर्वक सम्मानित किया जाता है। गत वर्ष यह सम्मान 'वीणा (इंदौर) के संपादक रहे डा. श्याम सुंदर व्यास को दिया गया था। इस वर्ष सम्मान के लिए चयनित डा. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी गोरखपुर से प्रकाशित हो रही साहित्यिक त्रैमासिक पत्रिका 'दस्तावेज के संपादक हैं। यह पत्रिका रचना और आलोचना की विशिष्ट पत्रिका है, जो 1978 से नियमित प्रकाशित हो रही है। इसके लगभग दो दर्जन विशेषांक प्रकाशित हुए हैं, जो ऐतिहासिक महत्व के हैं। 1940 में उत्तर प्रदेश के कुशीनगर जनपद में जन्मे डा. तिवारी गोरखपुर विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के अध्यक्ष पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। डा. तिवारी की प्रकाशित पुस्तकों की श्रृंखला में आलोचना की नौ पुस्तकें, 6 कविता संकलन, दो यात्रा संस्मरण, एक लेखक संस्मरण, एक साक्षात्कार संकलन तथा 147 विभिन्न पुस्तकों का संपादन शामिल है। साथ ही उनकी कई रचनाओं का विदेशी और भारतीय भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। उन्हें उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा साहित्य भूषण सम्मान, भारत मित्र संगठन मास्को द्वारा पुस्किन सम्मान मिल चुका है। उनके द्वारा संपादित पत्रिका 'दस्तावेज को सरस्वती सम्मान भी मिल चुका है।

5/11/2008

जनता के पास ही होता है दिल


अष्टभुजा शुक्ल
एवरेस्ट पर खड़े होकर, परियार प्रदेश की ओर मुंह करके, दोनों हाथ उठाकर राम जाने कहा जा सकता है कि तुलसीदास हिन्दू धर्म के ब्राह्मणवादी कवि हैं। इस तु... से लेकर हैं तक बनने वाले प्रत्याहार में निश्चित तौर पर तुलसी की उतनी लानत-मलामत भरी हुई है जितनी कि हिन्दी के किसी भी तथाकथित बुध्दिजीवी के लिए संभव है। कुछ क्षिप्र-ज्ञानियों के लिए तो तुलसी सिर्फ अवधी की सीमित बोली के कवि हैं। हिन्दी की व्यापकता के लिहाज से उनका मन, सोच, संवेदना और हृदय बहुत संकीर्ण है। विप्र-विरूध्द, शुद्र-अवमानना और स्त्री प्रतारणा इसके अकाटय प्रमाण हैं। बेशक, इस दृष्टि से तुलसी की आलोचना उचित है और होनी भी चाहिए। लेकिन तुलसी एक महान् कवि हैं इसलिए उनके पास भी अपने समय की तीखी आलोचना करने वाली व्यापक दृष्टि है। कलिकाल ही तुलसी का समकाल है। इसलिए 'कलि के कविन्ह करऊं परनामा' से शुरू होकर वे 'कलिकाल बेहाल भए मनुजा...' तक आर-पार देख पाते हैं। तुलसी तथाकथित साधु-संतों और तपस्वियों को न तो बख्शने वाले हैं और न ही गृहस्थों की दुर्दशा से आंख मूंद लेने वाले। इस कलि-कौतुक पर भी उनकी टिप्पणी गौरतलब है - तपसी धनवन्त दरिद्र गृही, कलि-कौतुक तात न जात कही। तो तात! तु शब्द से एक तौतातिक मत का ही निर्माण यहां हुआ है जिसकी चर्चा यहां व्यर्थ है।


सार्थक बात यह है कि तुलसी के लिए कलिकाल ही काल की एक अवधारणा है जिसका आंखों देखा हाल उन्होंने प्रसारित किया है। जिसे प्रज्ञाचक्षु भी देख सकते हैं। लेकिन सदा-सर्वदा जनसमाज बौध्दिक समाज से इत्तफाक नहीं रखता। बौध्दिक समाज जिस तरह सोचता है, जैसा पुलाव पकाता है, बिम्बों, प्रतीकों या मिथकों की जैसी व्याख्या करता है, जनसमाज कभी-कभी उसे सिर के बल खड़ा कर देता है और चीजों को अपने ही ढंग से बरतता है या 'डील' करता है। अपने गंवारूपन से भी वह आपके तीन-पांच को समझ लेता है। तुलसी लाख समझाते रह गए कि विभीषण ही लंका की नाक है, अपने राम का पक्का भक्त है, दांतों के बीच बिचारी जीभ जैसी उसकी दशा है, लंका के जिस राज को रावण दस बार अपने ही हाथों अपना गला काटकर पाया है उसे राम ने विभीषण को साभार प्रदान किया। अत: विभीषण को बहुत ही 'नीट एण्ड क्लीन' मानना चाहिए। पर जनता तुलसी की भी कोई दलील मानने को तैयार नहीं। वह विभीषण को अब भी 'घर का भेदिया, देशद्रोही या भ्रातृहंता' ही मानती है। जनकवि तुलसी विभीषण की छवि सुधारने की कोशिश में लगातार लगे रहे लेकिन 'मूढ़' जनता आज तक विभीषण को कटघरे में खड़ी करती रही। मैं सोचता हूं कि हिन्दुस्तान में असली दोगला कौन है? बुध्दिजीवी या जनता?


हिन्दुस्तान में हिन्दू लगातार असहिष्णु, बर्बर और हिंसक हुआ है। गुजरात नरसंहार की लोमहर्षक रपटें इसकी साक्ष्य हैं। ऐसी संगठित सांप्रदायिक हिंसा को कदापि जायज नहीं ठहराया जा सकता। लेकिन उन्माद के ऐसे ध्रुवीकरण से क्षुब्ध हिन्दू बुध्दिजीवियों को भी अपने गिरेबां में झांकने की फुर्सत नहीं। वे अपने जनविश्वासों की जितनी अनुदार भर्त्सना और थू-थू जैसे ताल ठोंक कर करते हैं, जितना आक्रामक होकर कुठाराघात करते हैं, वे जनता की सोच और कल्पनाओं से बेखबर अपनी राजनीति के शिकार अधिक होते हैं। यह विचारणीय है कि कहीं बुध्दिजीवियों के बड़बोलेपन की प्रतिक्रिया में भी तो समाज इतना कट्टर नहीं होता जा रहा है? तुलसी अगर कट्टर हिन्दू कवि हैं भी तो वे अन्य संप्रदायों के विरूध्द एक शब्द भी नहीं बोलते और अपने समकाल में नहीं बोलते। और बोलते हैं तो 'नहिं जानत हैं अनुजा-तनुजा' तक। ऐसी साफगोई कि दिल का एतबार क्या कीजै? हिन्दू बुध्दिजीवी खुद को ऐसे निरपेक्ष 'मनुष्य' के रूप में पेश करने को आतुर रहता है कि जनता उसके ढोंग से ऊब जाती है। इतना ही नहीं अपने विश्वासों पर अपनों द्वारा ही इतने तीखे हमलों से तिलमिलाकर भी उसके प्रतिहिंसक होने की संभावनाएं लगातार बनी रहती हैं। सांप्रदायिक विद्वेष को हवा देने वाली ताकतें ऐसी जनभावना को हर -हमेशा भुनाने की ताक में लगी रहती हैं और फौरी तौर पर अपने नापाक मनसूबों में कामयाब भी हो जाती हैं। शायद यही वजह है कि ऊपरी तौर पर तमाम चिल्ल-पों के बावजूद और सांप्रदायिक निर्मूलन के लिए हलकान दिखने वाले पहलवान कोई करामात दिखा पाने में असमर्थ सिध्द होते जा रहे हैं। आखिर सामाजिक सौहार्द्र क्यों कर इस तरह कम होता जा रहा है कि एक शांतिप्रिय समुदाय इतना उग्र और क्रूर नजर आने लगा है? कहीं हमारी नीयत में ही तो कोई खोट नहीं?


लेकिन आत्मालोचन भी एक बड़ा साहस है। अपनों और अपने समाज की रूढ़ियों और जड़ताओं को अनावृत करते जाने में भी बुध्दिजीवी की एक कारगर भूमिका होती है। तुलसी ने अपने समकाल में उन्हें पूरी शिद्दत के साथ प्रश्नांकित किया है। किंतु बहुत ही संयत ढंग से। लेकिन दिनकर जी ने ठीक ही कहा था -किंतु हाय। तप का वश चलता सदैव नहीं, पतित समूह की कुवृत्तियों के सामने। सामने अगर पतित समूह हो, नृशंस रूप से अमानुषिक और हिंसक हो तो सारा अनुनय- विनय अरण्यरोदन बनकर रह जाता है। ऐसी मनुष्यद्रोही शक्तियों का जमकर प्रतिरोध भी होना चाहिए और कटुतम प्रतिवाद भी। इस दृष्टि से हिन्दू बुध्दिजीवी मौजूदा परिदृश्य में साहसिक ही माने जाएंगे कि वे अपने समुदाय की धर्मान्धता पर और उसे हाईजैक करने की ताक में लगे कुटिल मनोरथों पर ताबड़तोड़ चोट कर रहे हैं। इस लिहाज से देखा जाए तो गैर हिन्दू बुध्दिजीवी मजहब जैसे संवेदनशील मुद्दे पर अक्सर बहुत ही लचीला रूप अख्तियार कर लेता है। एक खास एहतियात के साथ अपनी तकरीर पेश करता है ताकि लाठी भी न टूटे। उसके लिए महजब प्रमुख हो जाता है, बाकी चीजें गौण। खासतौर से हिन्दुस्तान के गैर हिन्दू बुध्दिजीवी मित्रों में ऐसी लाचारी अक्सर हां दिखती है। दीगर मुल्कों के रूश्दी, तस्लीमा, इस्मत आपा जैसे तरक्की पसंद लोग जैसे ही मजहब के घेरे से नुक्ता भर बाहर आते हैं, उनके सिर कलम करने के बख्शीश रख दिये जाते हैं। उनका सामाजिक बहिष्कार होता है, कातिलाना हमले होते हैं लेकिन हिन्दुस्तान के कौमी बुध्दिजीवियों का रूख अफसोसजनक रूप से बहुत ही ठंडा अथवा नपा-तुला होता है। उनके अल्फाजों में मजहब की भाप मिली रहती है। इस लिहाज से गौर करें तो पुराने भोपाल की बड़ी मस्जिद एक नायाब मिसाल है जिसके चौतरफा हिन्दुओं की दुकानें हैं और रहाइश मुसलमान भाइयों की और यह पहले ही कहा जा चुका है कि जन समाज सदा-सर्वदा बौध्दिक समाज से इत्तफाक नहीं रखता। वह अपनी ही तरह से जीता, सोचता और 'डील' करता है।


दरअसल जब बुध्दिजीवी भी नस्ली और मजहबी शुध्दता के प्रति बेहद ईमानदारी बरतता है तो सामान्य जनता भी उससे अपने फर्लांग कुछ और ही बढ़ा लेती है। आज जैसा आधुनिक विश्वसमाज बन रहा है, उसे देखते हुए जन्म शताब्दी वर्ष में हजारी प्रसाद द्विवेदी की ये पंक्तियां मील का पत्थर साबित होंगी - सब कुछ अविशुध्द है। शुध्द है तो केवल मनुष्य की जिजीविषा। संभवत: तुलसी भी उतने कट्टर हिन्दू और शुध्द ब्राह्मणवादी नहीं, जितना कि उन्हें सिध्द करने की प्रचेष्टा की जा रही है। उनके विद्रूपों पर कोई रबर न भी लगाया जाय तो भी वे पक्के और सच्चे जनकवि हैं। बुध्दिजीवी के पास दिमाग भले एवरेस्ट जितना ऊंचा हो, लेकिन दिल तो है दिल.... दिल जनता के पास होता है। (मीडिया विमर्श से...)

( लेखक ललित निबंधकार और चर्चित कवि हैं । )

पिक्चर अभी बाकी है

पिक्चर अभी बाकी है यही बॉलीवुड का आज का सच है। वर्ष-2007 का फिल्मी सफर इसी सच के साथ साल भर आबाद रहा। हालांकि बॉलीवुड कभी रामगोपाल वर्मा की आग में झुलसा तो कभी इसकी चुनरी में दाग भी लगा, मगर एक चालीस की लास्ट लोकल में ओम शान्ति ओम करते हुए आंखिरकार इसने चक दे इण्डिया कर ही दिया।


इसमें दो राय नहीं कि बॉलीवुड आज एक बड़े उद्योग के रूप में स्थापित हो चुका है। संख्या की दृष्टि से देखें तो हर साल यहां सैकड़ों फिल्में रिलीज होती हैं। आंकड़े बताते हैं कि इनमें से बमुश्किल बीस प्रतिशत फिल्में ही सफलता की सीढ़ी चढ़ पाती हैं। इस सबके बावजूद भारतीय फिल्म-उद्योग भली-भांति फल-फूल रहा है। समय, काल, परिस्थिति कैसी भी हो, फिल्मों की सफलता का पैमाना है - दर्शकों की स्वीकृति। जिस फिल्म को दर्र्शकों की सराहना मिल जाए वह इतिहास बना देती है और जिसे दर्शकों ने नकार दिया उसे बॉक्स ऑफिस पर औंधे मुंह गिरने से कोई नहीं रोक सकता- न उम्दा संगीत, न बढ़िया लोकेशन्स, न महंगे सेट्स और न ही बड़ी स्टारकास्ट।


दर्शकों की पसंद का अनुमान लगा पाना यकीनन मुश्किल है, फिर भी निर्माता-निर्देशक उनकी रूचि को ध्यान में रखते हुए ही नए फिल्म निर्माण की कल्पना करते हैं। कभी तो यह कल्पना ब्लाकबस्टर के रूप में साकार होती है और कभी फ्लॉप फिल्मों के रूप में तब्दील हो जाती है। जो भी हो कोशिश हमेशा जारी है। इस वर्ष का फिल्मी माहौल भी कुछ इसी तरह रहा।


साल की शुरूआत हुई अभिषेक-ऐश्वर्या अभिनीत गुरू से। इसने अच्छा कारोबार कर सभी को खुश कर दिया। मणिरत्नम की इस फिल्म में हर फ्रंट पर दर्शकों का मनोरंजन किया। धीरू भाई अंबानी के जीवन से प्रभावित इस फिल्म की खासियत रही बेहतरीन सिनेमेटोग्राफी, उम्दा स्टारकास्ट और ए।आर.रहमान का मधुर संगीत। गुरू की सफलता के बाद लगभग दो महीनों तक लगातार कई फिल्मों ने बॉक्स ऑफिस का दरवाजा खटखटाया, मगर ना तो सलमान खान की सलाम-ए-इश्क बेहतर कर पायी और ना ही अमिताभ की नि:शब्द। एक नए कॉन्सेप्ट पर बनी फिल्म हनीमून ट्रेवल्स् प्राइवेट लिमिटेड भी कई कलाकारों की उपस्थिति के बावजूद औसत कारोबार ही कर पायी। अरैंज मैरिज पर आज के युवा वर्ग की सोच दर्शाती जस्ट मैरिड भी कुशल निर्देशन की अनुपस्थिति में फ्लॉप साबित हुई।


ट्रैफिक लाइट पर भीख मांगते बच्चे-बड़ों की वास्तविकता ंजाहिर करती फिल्म ट्रैफिक सिग्नल हालांकि बॉक्स ऑफिस पर खरी नहीं उतरी, मगर दर्र्शकों और आलोचकों के बीच काफी सराही गयी। दीपा मेहता की विवादास्पद फिल्म वाटर भी साल के शुरूआत में ही सिनेमाघरों तक पहुँची मगर अपने ही देश में इसे स्वीकृति नहीं मिली। भारत में विधवाओं की स्थिति पर रोशनी डालती इस फिल्म को अनिवासी भारतीयों ने बहुत सराहा।


इस बीच छोटी-बड़ी कई फिल्में रिलींज हुई मगर दूसरी बड़ी सफलता मिली मार्च में रिलीज नमस्ते लंदन के रूप में। पंजाब के एक छोटे से गांव के मुंडे की लंदन स्थित एक एनआरआई कुड़ी से विवाह की आड़ में देशी-विदेशी संस्कारों की तकरार का अनोखा चित्रण इस फिल्म में देखने को मिलता है जिसे दर्शकों ने खुले दिल से स्वीकार किया। झुम्पा लाहिरी के उपन्यास पर आधारित, मीरा नायर निर्देशित फिल्म नेमसेक भी अपने अनोखे विषय को लेकर इस वर्ष काफी चर्चा में रही। एक बंगाली परिवार के अमेरिका में बसने की दास्तान को मीरा नायर ने बखूबी पर्दे पर उतारा है। हालांकि अपने देश में यह दर्शकों को आकर्र्षित नहीं कर सकी मगर विदेशों में और आलोचकों के बीच इसकी लोकप्रियता आज भी बरकरार है। एक पंजाबी लड़की किरणजीत आहलुवालिया के संघर्ष की सच्ची दास्तान पर आधारित फिल्म प्रोवोक्ड भी आलोचकों को बहुत रास आयी। किरणजीत के किरदार में ऐश्वर्या रॉय ने भी काफी प्रशंसा बटोरी, मगर कारोबार के लिहांज से बॉक्स ऑफिस यह भी कोई खंास कमाल नहीं दिखा सकी। इस साल का पूर्वार्द्ध फिल्मों के लिए कोई खास नहीं रहा, मगर हाइली लो बजट कॉमेडी फिल्म भेजा फ्राई ने बॉलीवुड को सफलता का एक नया पाठ पढाया। नए कान्सेप्ट, नई कहानी, नए ट्रीटमेंट, अनोखी अदाकारी और एक बेहद नये अंदांज में सिर्फ एक कमरे के अन्दर फिल्मांकित इस कहानी ने कई दिनों तक सिनेमाघरों में राज किया।
ऐक्टिंग, म्युंजिक, स्टारकास्ट, फिल्मांकन, स्टोरी लाइन, डायलॉग्स् और डायरेक्शन के लिहांज से एक फिल्म जिसने सही मायने में लोगों का मनोरंजन किया वह है लाईफ इन ए मेट्रो। अनुराग बासु की टीम ने छ: अलग-अलग कहानियों को, अलग अलग समस्याओं और मुद्दों से जूझते हुए दस लोगों की ंजिन्दगियों बड़े आकर्षक अंदांज में एक साथ जिस तरह से सिल्वर स्क्रीन पर उकेरा वह काबिले तारीफ है। उस पर प्रीतम के संगीत ने फिल्म में चार चांद लगा दिए।
लाइफ इन ए मेट्रो से शुरू हुआ सफल फिल्मों का सिलसिला साल के अन्त तक बदस्तूर जारी रहा। साल की सबसे अधिक हिंसक फिल्म रही शूट आउट एट लोखण्डवाला। निर्माता एकता कपूर और संजय गुप्ता के बेनर तले बनी इस फिल्म ने बॉलीवुड के सभी बड़े सितारों मसलन अमिताभ बच्चन, संजय दत्त, सुनील सेठी, विवेक ऑबराय आदि की फौज तैयार उतार दी। इस फिल्म में मुम्बई के एक इलाके में हुए वास्तविक एन्काउन्टर का वीभत्स चित्रण है। इतनी हिंसा के बावजूद इस फिल्म को लोगों ने पसन्द किया और इसे हिट की श्रेणी में खड़ा कर दिया।


अपने संगीत से लोगों का दिल जीत चुके हिमेष रेशमिया को भी उनके नये रूप में दर्शकों की स्वीकृति इस वर्र्ष मिली। उनके संगीत, आवाज और अदाकारी से भरपूर फिल्म आपका सुरूर का सुरूर युवा दिलों पर छाया रहा। इस साल की सबसे बड़ी पारिवारिक फिल्म रही अपने। इस फिल्म में पर्दे पर पहली बार धर्मेंद्र अपने दोनों बेटों सन्नी देओल और बॉबी देओल के साथ अभिनय करते दिखे। अपने ने ना सिर्फ भारत में बल्कि विदेशों में बसे भारतीयों का भी दिल जीत लिया। इस बीच अमिताभ बच्चन और तब्बू की अनोखी जोड़ी के साथ सिनेमाघराें में पहुँची चीनी कम दर्शकों के कौतूहल का विषय बनी रही। 64 साल के एक आदमी की 34 साल की एक युवती के साथ की यह प्रेम कहानी दर्र्शकों के बीच बहुत पसंद की गयी और इसने औसत से अच्छा कारोबार भी किया। साल के मध्य में रिलीज झूम बराबर झूम के संगीत ने संगीत प्रेमियों को झूमने पर तो मजबूर कर दिया मगर सिने प्रेमियों को इससे निराशा ही हाथ लगी। अभिषेक-प्रीति की जोड़ी, शंकर-अहसान-लॉय का संगीत और यशराज फिल्म्स का बैनर भी इसे लड़खड़ाने से नहीं रोक सका। किसिंग किंग इमरान हाशमी ने अपनी किसिंग इमेज से निकल कर आवारापन के रूप में कुछ नया करने की कोशिश की मगर दर्शकों को उनका यह नया रूप रास ना आया और आवारापन आवारा हवा बन कर उड़ गयी।


महात्मा गांधी और उनके बड़े बेटे हरिलाल गांधी के संबंधों की खटास पर आधारित फिल्म गांधी माई फादर को भी दर्शकों ने स्वीकार नहीं किया। हालांकि फिल्म में गांधी का किरदार निभा रहे कांति गांधी और हरिलाल की भूमिका में अक्षय खन्ना के अभिनय को काफी सराहना मिली मगर कमंजोर निर्देशन के कारण फिल्म फ्लॉप साबित हुई।
इस साल का उत्तरार्द्ध फिल्मी कारोबार की दृष्टि से अच्छा रहा। अक्षय कुमार, विद्या बालन और फरदीन खान अभिनीत हे बेबी ने दर्शकों का भरपूर मनोरंजन किया। इस फिल्म के टाइटल सांग पर आज भी लोग जम कर झूमते हैं। हालांकि इसे हॉलीवुड फिल्म ए बेबी एण्ड थ्री मेन की नकल होने का आरोप भी झेलना पडा। इन सबके बावजूद यह फिल्म सुपरहिट साबित हुई। साल की सबसे ज्यादा डिमांडिंग फिल्म रामगोपाल वर्मा की आग अपनी ही आग में झुलस कर रह गयी। शोले की रीमेक बनाते बनाते रामगोपाल वर्मा ने इस फिल्म के साथ इतने ज्यादा प्रयोग कर डाले कि फाइनल प्रोडक्ट दर्शकों की समझ के पार चला गया। गब्बर के रूप में अमिताभ बच्चन और अमिताभ के रूप में नवोदित कलाकार प्रशान्त राज को दर्शक स्वीकार नहीं कर सके। जय-वीरू की उस सुपरहिट जोड़ी को राज-हीरू की यह नई जोड़ी कोई टक्कर नहीं दे सकी।

कुछ ऐसा ही हाल रहा यशराज फिल्म के बेनर तले बनी महत्वाकांक्षी फिल्म लागा चुनरी में दाग का। इस फिल्म से निर्माता-निर्देशकों को ही नहीं बल्कि दर्र्शकों और आलोचकों को भी बहुत उम्मीदें थी मगर वास्तविकता यही है कि लागा चुनरी में दाग को लोग स्वीकार नहीं कर सके। रानी मुखर्जी की एक और बेहतरीन अदाकारी से भरपूर इस फिल्म की कहानी शायद लोगों के जंज्बात को छू नहीं सकी। वैसे इस फिल्म को किसी भी दृष्टि से कमंजोर नहीं कहा जा सकता है। कोंकणा सेन, अभिशेक बच्चन और कुणाल कपूर की अदाकारी भी ंकाबिले तारीफ है, मगर दर्र्शकों के मूड का कोई भरोसा नहीं, इस फिल्म की असफलता यही साबित करती है। कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि विषय या कान्सेप्ट चाहे कुछ भी हो, किसी फिल्म का भविष्य उसके दर्शक ही तय कर सकते हैं। साल भर आबाद यह फिल्मी सफर अन्त में यही कहता है पिक्चर अभी बाकी है।


ब्लॉक बस्ट्र्स का कमाल
पर्दे पर पहली बार गोविन्दा के पार्टनर बनकर आए सलमान खान ने साल की पहली ब्लॉकबस्टर दी। पार्टनर में दर्शकों को कॉमेडी, धमाकेदार संगीत और बेहतरीन अदाकारी का संगम देखने को मिला। गोविन्दा और डेविड धवन की जोड़ी तो हमेशा से हिट रही है, इसमें सलमान का स्टाइल और कैटरीना कैफ की मोहक अदा के शामिल हो जाने से फिल्म पर हुआ असर सामने है। यह सुपरहिट ब्लॉकबस्टर पार्टनर आज भी कई सिनेमाघरों में भीड़ जुटाने में सक्षम है। साल की दूसरी ब्लॉकबस्टर रही भारत के राष्ट्रीय खेल पर आधारित फिल्म चक दे इण्डिया। इसमें कोई शक नहीं कि क्रिकेट से भारतीयों को प्यार है मगर चक दे इण्डिया ने इस प्यार पर क्रिकेट के एक मात्र कब्जे को बांटकर रख दिया है। निर्देशक शिमित अमीन और निर्माता आदित्य चोपड़ा की इस बेमिसाल पेशकश ने सभी देशवासियों को चक दे इण्डिया करने पर मंजबूर कर दिया। कबीर खान के रूप में शाहरूख खान ने पहली बार सुपर स्टार का चोला उतार हॉकी कोच का दामन ओढ़ा और बेशक इस किरदार के साथ पूरा इंसाफ भी किया। भारतीय महिला हॉकी टीम के विश्व कप जीतने की इस रोमांचक कहानी में देश प्रेम और हॉकी प्रेम का जज्बा प्रत्येक भारतीय में जगाया, जिसकी जीती जागती मिसाल है हर खेल में लगातार बेहतर प्रदर्शन कर रही इण्डियन टीम। यकीनन चक दे इण्डिया की पूरी टीम प्रशंसा की हकदार है।

कुछ सुपरहिट फिल्में
भूत-प्रेत पर भरोसा हो या ना हो, अलौकिक शक्तियों पर आधारित फिल्में लोगों को हमेशा पसंद आती हैं। भूल-भूलैया भी एक ऐसी ही सफलता है। मानसिक विकृति के एक रहस्यमयी रूप पर बनी इस फिल्म में सस्पेंस के साथ-साथ कॉमेडी भी है। प्रियदर्र्शन की इस फिल्म के साथ सभी कलाकारों ने न्याय किया है। अक्षय, शाइनी और विद्या बालन का अभिनय और प्रीतम के सुपरहिट संगीत ने भूल-भूलैया में दर्शकों को भटकने पर मंजबूर कर दिया। प्रेम कहानियां फिल्म निर्माताओं के लिए हमेषा से पसंदीदा विषय रही हैं। शाहिद-करीना की जब वी मेट भी प्रेम कहानी पर आधारित एक ऐसी ही फिल्म है जिसकी तांजातरीन प्रस्तुति ने इसे सुपरहिट फिल्म की श्रेणी में डाल दिया है। प्रेम कहानी होने के बावजूद इसकी सारी बातें अलग और नयी लगती हैं। यही कारण है कि जब वी मेट को सभी वर्ग की सराहना मिल रही है और यह आज भी सिनेमाघरों में भीड़ जुटा रही है।
साल की सबसे बड़ी ब्लॉकबस्टर रही अत्यन्त महात्वाकांक्षी और बहुप्रतिक्षित फिल्म ओम शान्ति ओम। यह पूरी तरह से पैसा वसूल मसाला मिक्स फिल्म के रूप में सबके दिलों पर राज कर रही है। ओम शान्ति ओम कई दृष्टियों से साल की बेहतरीन फिल्म मानी जा सकती है। अदाकारी में शाहरूख खान, दीपिका पादुकोण, श्रेयस तलपडे अौर अर्जुन रामपाल का जवाब नहीं जबकि विशाल -शेखर के संगीत ने अपनी रिलीज से ही सारे रिकॉर्ड तोड़ डाले। जावेद अख्तर के बोल आज हर किसी की ंजुबान पर हैं। डायरेक्टर फराह खान की दूसरी ही फिल्म ने सफलता के पिछले सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए , साथ ही शाहरूख का सिक्स पैक एब्स भी इस फिल्म का मुख्य आकर्षण बनी रही। भारतीय सिने इतिहास में पहली बार लगभग 32 कलाकार एक साथ, एक सेट पर, इसी फिल्म में देखने को मिले। पुनर्जन्म पर आधारित इस फिल्म ने यशराज फिल्म्स की पिछली सभी असफलताओं को बहुत पीछे छोड़ दिया।

नए कलाकारों का पहला फिल्मी सफर
यह वर्ष हिन्दी फिल्म जगत में इसलिए भी महत्वपूर्ण रहा क्योंकि अपने समय के तीन बड़े सुपर स्टार्स के बच्चों ने पहली बार सुनहरे पर्दे पर अपनी कोशिश आजमाई। अपने अभिनय से सबको आकर्षित कर देने वाले कलाकार नसीरूद्दीन शाह के बेटे ईमाद शाह की पहली फिल्म दिल दोस्ती एट्सैट्रा ने इस साल सिनेमाघरों का रूख तो किया मगर दर्शकों ने इसे एक सुर में नकार दिया। अपने पिता की उम्दा अदाकारी के आगे ईमाद को दर्शकों की प्रशंसा नहीं मिल सकी। दूसरी तरफ ऋ षि कपूर के बेटे रणबीर कपूर और अनिल कपूर की बेटी सोनम कपूर की अति महत्वाकांक्षी फिल्म सांवरिया भी दर्शकों को रास नहीं आयी। संजय लीला भंसाली का निर्देशन, सलमान खान की उपस्थिति और माेंटी शर्मा के बेहतरीन संगीत के बावजूद सांवरिया दर्शकों का भी इकट्ठा करने में कामयाब नहीं हो सकी। रणबीर सोनम की जोड़ी को आलोचकाें की सराहना तो मिली मगर फिल्म ने सबको निराश ही किया।

आजा नच ले
इस वर्ष यशराज फिल्म्स की कुल पांच फिल्म रिलीज हुई और इनमें से दो को छोड़ दें तो शेष तीन ने बहुत अच्छा व्यवसाय किया। साल के अंत में 30 नवंबर को सिनेमाघर पहुंची माधुरी दीक्षित की फिल्म आजा नच ले। देवदास से फिल्मों को बाय बाय कह चुकी माधुरी दीक्षित की यह फिल्म कई मायनों में बालीवुड के लिए महत्वपूर्ण है। इंडियन फिल्म इंडस्ट्री में माधुरी के टक्कर की डांसर आज तक नहीं हुई और निकट भविष्य में इसकी कम ही गुंजाइश है। डांस की पृष्टभूमि पर बनी यह फिल्म बाक्स आफिस पर कुछ खास कमाल नहीं कर पाई मगर माधुरी के चाहने वालों से सिनेमाघर कभी खाली हाथ नहीं जा सकता। अगले कुछ दिनों तक यही हाल रहा तो आजा नच ले के साथ ताल मिलाने से सिनेप्रेमियों को कोई नहीं रोक सकता।

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5/06/2008

राहुल गांधी के छत्तीसगढ़ दौरे का मतलब


कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव राहुल गांधी का दो दिवसीय छत्तीसगढ़ दौरा जहां प्रदेश कांग्रेस को स्फूर्ति दे गया, वहीं कई अलग तरह के संदेश भी छोड़ गया। देश को जानने और फिर संगठन में जोश फूंकने के लिए निकले युवा नायक के लिए यह दौरा एक ऐसा प्रसंग था जिसने उन्हें तमाम जमीनी हकीकतों के सामने खड़ा किया। राहुल गांधी के लिए छत्तीसगढ़ का दौरा बेहद भावनात्मक क्षण इसलिए भी था कि उनके पिता पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी भी छत्तीसगढ़ के आदिवासी इलाकों के प्रति एक खास स्नेह रखते थे। राजीव ने भी अपने शुरूआती दिनों में इन क्षेत्रों का दौरा कर आदिवासी समाज की स्थिति को परखने का प्रयास किया था। जाहिर है राहुल गांधी के लिए यहां के हालात चौंकाने वाले ही थे। आजादी के 60 सालों के बाद आदिवासी जीवन की विषम परिस्थितियां और बस्तर के तमाम क्षेत्रों में हिंसा का अखंड साम्राज्य उन्हें नजर आया।

राहुल गांधी ने इस दौरे में आदिवासी समाज की जद्दोजहद और जिजीविषा के दर्शन तो किए ही अपने संगठन को भी परखा। उन्हें यह बात नागवार गुजरी कि आदिवासी इलाकों में उनके संगठन में आदिवासी समाज का प्रतिनिधित्व उस तरह से नहीं है, जितना होना चाहिए। उन्होंने यह साफ संकेत दिए कि कांग्रेस संगठन के सभी संगठनों में आदिवासी और दलित वर्गों को उचित प्रतिनिधित्व दिया जाना चाहिए। कांग्रेस के नए नायक को जमीनी हकीकतों का पहले से पता था। शायद इसीलिए वे अपने संगठन की सामाजिक अभियांत्रिकी को दुरूस्त करना चाहते हैं। कांकेर में पत्रकारों से बातचीत करते हुए राहुल ने स्वयं को युवराज कहे जाने पर भी आपत्ति जताई। उन्होंने कहा कि यह शब्द सामंती समाज का प्रतीक है और एक प्रजातांत्रिक देश में यह शब्द अच्छा नहीं लगता। बस्तर, कांकेर और सरगुजा जिलों के दौरे के बाद राहुल क्या अनुभव लेकर लौटे हैं, इसे जानना अभी शेष है। आने वाले दिनों में जब छत्तीसगढ़ में विधानसभा, फिर लोकसभा के चुनाव होने हैं, तब कांग्रेस संगठन की परीक्षा होनी है। पिछले लोकसभा चुनाव में राज्य की 11 सीटों में सिर्फ एक ही कांग्रेस के हाथ लगी थी। बाद में राजनांदगांव लोकसभा उपचुनाव में कांग्रेस के देवव्रत सिंह ने सीट जीतकर जरूर यह संख्या दो कर दी। बावजूद इसके कभी कांग्रेस के गढ़ रहे छत्तीसगढ़ में इस समय भाजपा की सरकार है। इस गढ़ को तोड़ना कांग्रेस के लिए एक बड़ी चुनौती है। दूसरी ओर भारतीय जनता पार्टी और उसके मुख्यमंत्री अपनी सरकार की वापसी के लिए आश्वस्त दिखते हैं। यह साधारण नहीं है कि दो वर्षों पूर्व अध्यक्ष बने डा. चरणदास महंत आज तक अपनी राज्य कार्यकारिणी की घोषणा तक नहीं कर सके हैं। कांग्रेस राज्य में टुकड़ों में बंटी है और आपसी खींचतान आसमान पर है। राज्य के प्रथम मुख्यमंत्री अजीत जोगी भले ही अलग-थलग पड़ गए हों पर उनकी ताकत कांग्रेस का खेल बिगाड़ने में तो सक्षम है ही। दूसरी ओर चरणदास महंत बिना सेना के सेनापति बने हुए हैं। ऐसे में राहुल गांधी के सामने छत्तीसगढ़ के कांग्रेसियों में जोश फूंकने के अलावा उन्हें एकजुट करने की चुनौती भी है। दूसरी ओर भारतीय जनता पार्टी की सरकार में आदिवासी, दलित और गरीब तबके को ध्यान में रखकर कई योजनाएं शुरू की हैं, जिसमें तीन रूपए किलो चावल की योजना प्रमुख है। इससे भाजपा इन क्षेत्रों में पुन: अपनी जीत सुनिश्चित मान रही है। पिछले विधानसभा चुनाव में बस्तर और सरगुजा क्षेत्रों में भाजपा को व्यापक सफलता मिली थी। इसी को देखते हुए राहुल गांधी ने आदिवासी क्षेत्रों को ही केंद्र में लिया है। वे शहरी इलाकों के बजाय आदिवासी क्षेत्रों पर ही फोकस कर रहे हैं। इससे पार्टी को उम्मीद है कि आदिवासी क्षेत्रों में पुन: कांग्रेस की वापसी संभव हो सकती है और उससे दूर जा चुका आदिवासी वोट बैंक फिर से उनकी झोली में गिर सकता है। राहुल के दौरे को खास तौर से इसी नजरिए से देखा और व्याख्यायित किया जा रहा है।

25 अप्रैल, 2008 को जब वे अपनी भारत खोज यात्रा के तहत अंबिकापुर के दरिमा हवाई अड्डे पर उतरे तो वे लगातार अपनी पूरी यात्रा में इस बात का अहसास कराते रहे कि उनकी निगाह में आदिवासी समाज की कीमत क्या है। अंबिकापुर से विश्रामपुर और सूरजपुर के रास्ते के बीच सड़क किनारे आदिवासियों के हुजूम के बीच उन्होंने जा-जाकर उनकी समस्याएं पूछी। अंबिकापुर और विश्रामपुर के बीच पड़ने वाले लेंगा गांव में एक आदिवासी परिवार के साथ खाना भी खाया। इसी दिन शाम को 6 बजकर दस मिनट पर वे जगदलपुर में थे। अगले दिन जगदलपुर में भी उन्होंने आदिवासी बहुल ग्राम जमावाड़ा में आदिवासियों से घुल-मिलकर चर्चा की। आदिवासी समाज के लोग गांधी परिवार के इस नायक को अपने बीच पाकर भावुक हो उठे। कुल मिलाकर राहुल गांधी का छत्तीसगढ़ दौरा कांग्रेस संगठन में एक नया जोश फूंकने और आदिवासी समाज को एक नया संदेश देने में सफल रहा।

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उम्मीद है उनसे
0 राहुल छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण के बाद पहली बार वे यहां आए। इससे एक ओर वे जहां राज्य के दलितों, आदिवासियों, तथा पिछड़ेवर्ग के लोगों की समस्याओं को देखा और समङाा। वहीं दूसरी ओर उनकी यात्रा से राज्य के एनएसयूआई एव युवा कांग्रेस के कार्यकर्ताओं का उत्साहवर्धन भी हुआ। जिसका फायदा कांग्रेस पार्टी को आगामी चुनाव में मिलेगा। गांधी परिवार हमेशा से ही आदिवासियों, दलितों एवं पिछडेवर्ग का हिमायती रहा है। राहुल गांधी जिस सादगी के साथ लोगों के बीच में जाकर उनकी समस्याएं सुनते हैं, उसका व्यापक प्रभाव यहां के जनमानस पर पड़ेगा।
-डॉ. चरणदास महंत, अध्यक्ष, छत्तीसगढ़ कांग्रेस

0 वे जिस लगन के साथ आम जनता के बीच पहुंचे, यह एक बहुत अच्छी बात है। एक युवा नेता होने के नाते इससे उन्हें छत्तीसगढ़ को जानने एवं समङाने का मौका मिला। यह छत्तीसगढ़ की जनता के लिए गौरव का विषय है। यद्यपि इसका सीधे तौर पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा, लेकिन इससे युवाओं में एक नए उत्साह का संचार हुआ, जिसका लाभ आनेवाले आम चुनाव में पार्टी को मिलेगा।
-विद्याचरण शुक्ल, पूर्व केद्रीय मंत्री एवं वरिष्ठ नेता

0 राहुल गांधी उड़ीसा एवं कर्नाटक की यात्रा के बाद छत्तीसगढ़ आए। जिसका लाभ यहां की जनता को अवश्य मिलेगा। उनको यहां चल रही योजनाओं की जमीनी हकीकत के साथ यह भी पता चलेगा कि केन्द्र सरकार की योजनाओं का नाम बदल कर किस प्रकार राज्य सरकार इस योजना का पैसा उस योजना में लगा रही है। उनकी इस यात्रा से यहां हो रहे भ्रष्टाचार का मामला खुलकर सामने आया, जिसका लाभ बाद में ही सही लेकिन आम जनता को मिलेगा।
-मोतीलाल वोरा, कोषाध्यक्ष, अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी

0 राहुल गांधी की यात्रा से हमें पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की यात्रा याद आई। इससे उनको देश को समङाने एवं करीब से देखने का मौका मिला। यह देश की जनता एवं स्वयं राहुल गांधी दोनों के लिए लाभदायक है, क्योंकि यही जानकारियां बाद में काम आएंगी। उनकी सरगुजा से बस्तर तक की यात्रा काफी महत्वपूर्ण है। आदिवासियों की बस्तियों में जाकर उनकी जानकारी लेना, वह भी राहुल गांधी द्वारा, स्वयं एक बहुत बड़ी बात है। जिसका राजनैतिक दृष्टिकोण से पार्टी को काफी लाभ मिलेगा।
-अरविन्द नेताम, पूर्व केन्द्रीय मंत्री

0 राहुल आदिवासियों के बीच पहुंचे। यह एक बड़ा अवसर है, जब राजीव गांधी के बाद कोई युवा नेता आदिवासियों के इतने करीब पहुंचा। उनकी इस यात्रा से चुनाव के पूर्व एक आपसी सदभावना का जो माहौल बनेगा, नि:संदेह उसका लाभ पार्टी को मिलेगा।
-अजीत जोगी, पूर्व मुख्यमंत्री व सांसद

0 उनके छत्तीसगढ़ प्रवास से राज्य में चतुर्दिक उत्साह का माहौल व्याप्त है। हमेशा से ही आदिवासियों एवं दलितों व पिछड़ेवर्ग के लोगों को गांधी परिवार का विशेष स्नेह प्राप्त रहा है। उनके प्रवास से यहां के कार्यकर्ताओं में एक नए उत्साह का संचार हुआ है। जिसका फायदा आगामी आम चुनाव में पार्टी को निश्चित रूप से प्राप्त होगा।
-सत्यनारायण शर्मा, पूर्व शिक्षा मंत्री


--संजय द्विवेदी
(लेखक हरिभूमि, रायपुर के संपादक हैं)

5/02/2008

सृजनगाथा अब तीसरे वर्ष की ओर

हम इस मौके पर हमारे हिंदी के चिट्टाकारों, एग्रीगेटर्स और मित्रों को खास तौर पर धन्यवाद देना चाहेंगे कि प्रकारांतर से उनके सहयोग से हिंदी साहित्य की गंभीर पत्रिका सृजनगाथा ने २४ माह की यात्रा पूरी करने के बाद तीसरे साल में क़दम रखा है । भविष्य में भी हम इसी तरह आपसे सहयोग चाहते रहेंगे ।

इस अंक में खास सामग्री आपके लिए....

समकालीन कविताएँ
सुरेन्द्र काले
स्वप्निल श्रीवास्तव
अरुण शाद्वल
स्वर्ण ज्योति
सुरेश उजाला
माँझी अनन्त
निलय उपाध्याय
नई कलम में - तेजपाल सिंह हंसपाल

छंद
गीत
जगत प्रकाश चतुर्वेदीडॉ. जगदीश सलिल
श्रीमती मीरा शलभराम अधीरडॉ. अशोक गुलशन
माह का गीतकार - राकेश खंडेलवाल
ग़ज़ल
देवमणि पांडेयदेवी नागरानीप्राण शर्मा
माह का ग़ज़लकार - द्विजेन्द्र द्विज

भाषांतर
चार्ल्स डार्विन की आत्मकथा से रोचक अंश -
सूरज प्रकाश की कलम से -स्कूली जीवन के बाद के दौर में मुझे निशानेबाजी का शौक रहा। मुझे नहीं लगता कि जितना उत्साह मुझे चिड़ियों के शिकार का रहता था उतना कोई और किसी बड़े से बड़े धार्मिक कार्य में भी क्या दिखाता रहा होगा। मुझे अच्छी तरह से याद है कि जब मैंने कुनाल पक्षी का शिकार किया तो मैं इतना उत्तेजित हो गया था

मूल्याँकन
नारी विमर्श - डॉ. अजित गुप्ता
संस्कृत पत्रकारिता की दुनिया - आचार्य डॉ.महेशचंद्र शर्मा
लघुकथा में सामाजिक बोध - रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
स्वाधीनता के असाधारण बिम्ब हैं दद्दा - डॉ. विजय सिंह

व्याकरण
आर्थिक ढाँचा, लक्ष्य और भाषा - वीरेन्द्र जैन

कथोपकथन
वे चाहें तो मेरा पद्मभूषण छीन लें
(गोपीचंद नारंग से अरुण आदित्य की बात)
अशोक जी एक बार साहित्य अकादेमी में हिंदी-संयोजक पद के लिए खड़े हुए थे। विष्णु प्रभाकर से हार गए थे। मैंने अकादेमी अध्यक्ष रहते हुए जो काम किया है वह सबके सामने है। मेरे कार्यकाल में ही पहली बार भारतीय भाषाओं के सर्वश्रेष्ठ लेखकों को वृहत्तर सदस्यता दी गई, जिनमें विजयदान देथा, यू आर अनंतमूर्ति, शंख घोष, निर्मल वर्मा, अमृता प्रीतम, विष्णु प्रभाकर, कर्तार सिंह दुग्गल जैसे नाम शामिल हैं। इनमें वामपंथी भी हैं।
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आंबेडकरवाद जैसी अवधारणा में विश्वास नहीं
(मोहनदास नैमिषराय से सृजनगाथा की बात)
दलित साहित्य का उद्भव समता और सम्मान के आंदोलन के गर्भ से हुआ है। यह बात सभी साहित्यकारों, समीक्षकों तथा कार्यकर्ताओं को जाननी चाहिए। आरंभ से ही इसमें राजनैतिक विचार नहीं था। इस मत या विचार की जाँच के लिए आप बहुत से दलित साहित्यकारों के आलेख पढ़ सकते हैं, जिन्होंने स्वयं दलित राजनीतिज्ञों की दलित साहित्य में भूमिका को नकारते हुए उनकी तीखी आलोचना की है।

हिंदी-विश्व
हिंदी में वैज्ञानिक-तकनीकी शिक्षण और चुनौतियाँ
गिरीश पंकज व मंजुला उपाध्याय का शोधपरक लेख

बचपन
◙ बालकथा - सौ के साठ - गिजुभाई बधेका
◙ बालकथा - लौट आओ मनु - सौरभ शर्मा 'निर्भय'

प्रवासी-पातियाँ
अमेरिका की धरती से...
भारत की छवि - छवि का भारत - लावण्या शाह
नेपाल की डायरी...
मदन पुरस्कार पुस्तकालय - कुमुद अधिकारी
इटली से...
शब्द और चित्र - सुनील दीपक

शेष-विशेष
शोध....
दक्षिण भारत की हिंदी पत्रकारिता - डॉ. सी. जय शंकर बाबु
हिंदी लघुकथा का विकास (भाग-8) - डॉ. अंजलि शर्मा
मीडिया...
मीडिया शिक्षा: दशा और दिशा - संजय द्विवेदी
हस्ताक्षर....
नोबेल - २००७ से अलंकृत डोरिस लेसिंग
लोक-आलोक....
विदेशी नाच में कमर हिलती है दिल नहीं- तीजनबाई
प्रसंगवश....
नेपाल: माओवाद का उदय - तनवीर जाफ़री
हम सब खड़े बाज़ार में - संजय द्विवेदी
विचार....
अतिरेक और समाधान - प्रो. महावीर शरन जैन
तकनीक....
गूगल डॉक्स ऑनलाइन शब्द संसाधक -रवि रतलामी
लोग-बाग...
ज़िद और जिजीविषा का दूसरा नाम - राजेन्द्र

कहानी
माँ पढ़ती है - एस.आर.हरनोट
माँ के सिरहाने ऊपर की ओर भीत पर एक कील में लकड़ी का चकौटा टंगा है। उस पर ढिबरी रखी है। छत तक धुँए ने एक लम्बी लकीर बना दी है। बिजली चली जाने पर माँ इसे जला लिया करती होंगी। कमरे में बीड़ी की बास पसरी है। चारपाई के नीचे देखता हूँ तो वहाँ भी कई-कुछ चीज़ें बिखरी हैं। अधबुझी बीड़ी के टुकड़े।
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तरकीब - लंदन से तेजेन्द्र शर्मा की कहानी
पिछले पच्चीस सालों से समीना एक ही तो काम करती आई है-अदनान के कारनामों पर हैरान होती रही है। यह हैरानी अलग क़िस्म की है। सोच रही है कि कैसा इन्सान है उसका पति इन्सान है भी या नहीं। क्या कोई अपने छोटे से पुत्र को सिर्फ़ इसलिये थप्पड़ मार सकता है क्योंकि उसको दाल चावल खाने हैं?

लघुकथा
चार लघुकथायें - पाठक परदेशी

संस्कार
ग़ैर-टिकाऊ अविकास - नोम चॉम्स्की
माना जाता है कि व्यापार धन-संपत्ति बढ़ाता है। शायद बढ़ाता हो, शायद ना बढ़ाता हो, लेकिन बढ़ाता है या नहीं यह आप तब तक नहीं जान सकते जब तक आप व्यापार की लागतों को नहीं गिन लेते, उन लागतों सहित जिन्हें नहीं गिना जाता, जैसे कि प्रदूषण की लागत। जब कोई वस्तु एक जगह से दूसरी जगह ले जाई जाती है तो उससे प्रदूषण पैदा होता है। इसे बाहरी बात - अप्रासंगिक - कहा जाता है; आप ऐसी बातों को गिनती में नहीं लेते। इसी श्रेणी में संसाधनों का क्षरण है, यानी आप कृषि विकास के लिए संसाधनों का दोहन करते हैं। फिर सैनिक लागतें हैं।....

व्यंग्य
तीन व्यंग्य - आर.के.भंवर
अख़बार न निकालने वाले - वीरेन्द्र जैन

संस्मरण
काका अरगरे का जाना - जया केतकी

पुस्तकायन
वर्ल्ड्स एट वार - एन्थोनी
जीवन का इतिहास यही है - नथमल झँवर
सुर्खियाँ,यादेः - संजय द्विवेदी
अलाव - हिमांशु द्विवेदी

ग्रंथालय में (ऑनलाइन किताबें)
कविता कोश - ललित कुमार
सर्वेश्वरदयाल और उनकी पत्रकारिता -शोध- संजय द्विवेदी
सैरन्ध्री - खंडकाव्य - मैथिलीशरण गुप्त
होना ही चाहिए आँगन - कविता - जयप्रकाश मानस
प्रिय कविताएँ - भगत सिंह सोनी

हलचल
(देश विदेश की सांस्कृतिक खबरें)
"प्रवासी आवाज" का विमोचन
नासिरा शर्मा को कथा (यू.के.) सम्‍मान
कौन कुटिल खल कामी’ का लोकार्पण
विजयराज चौहान की किताब का विमोचन
अ.भा.प्रदर्शनी में अवधिया का चयन
देश भर में अनेक कृतियों का लोकार्पण
उपाध्याय को शिमेंगर लेडर फेलोशिप
लंदन में कार्टून प्रदर्शनी उद्घाटित
प्रताप सोमवंशी का नागरिक सम्मान