5/14/2008

‘दस्तावेज’ : संकल्प और निष्ठा के तीस वर्ष



हिंदी की स्वस्थ पत्रकारिता को सम्मानित करने के उद्देश्य से प्रारंभ किए गए पं. बृजलाल द्विवेदी साहित्यिक पत्रकारिता सम्मान 2007 से डा. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी को सम्मानित किया जाना वास्तव में एक सार्थक निर्णय है। हिंदी की साहित्यिक पत्रकारिता में ‘दस्तावेज’ के योगदान को रेखांकित किया जाना बहुत आवश्यक है। साहित्यिक पत्रकारिता के इतिहास में ऐसा सौभाग्य बहुत ही कम पत्रिकाओं को मिला है, जो ‘दस्तावेज’ जैसा दीर्घ आयुष्य प्राप्त करें। यह पत्रिका पिछले तीस वर्षों से नियमित निकल रही है। इसका प्रवेशांक अक्टूबर 1978 में प्रकाशित हुआ था जिसमें यह भी घोषणा थी कि संपादक इसके कम से कम 25 अंक ज़रूर निकालना चाहते है। यह सुखद आश्चर्य है कि इस पत्रिका का 117 वाँ अंक हमारे सामने है। उसी आकार-प्रकार में, उसी सुरुचिपूर्ण सादगी और आवरण पृष्ठ पर अपने उसी 'गोला के साथ, जिसके संबंध में संपादक का कहना है, 'यह पूर्णता का प्रतीक है जो ईशावास्योपनिषद् के प्रथम मंत्र से लिया गया है। (दस्तावेज, अंक 101 का संपादकीय)

वास्तव में ‘दस्तावेज’ इस प्रतीक को शुरू से चरितार्थ करती रही है। जहाँ कहीं उसे असंतुलन दिखाई पड़ा, उसने अपने संपादकीयों में कारगर ढंग से हस्तक्षेप किया। इस दृष्टि से सबसे पहले ‘दस्तावेज’ की संपादकीय टिप्पणियों को रेखांकित किया जाना चाहिए। हिंदी में शायद ही किसी साहित्यिक पत्रिका ने सहित्य, भाषा, संस्कृति, धर्म, समाज आदि पर इतनी तल्ख और संतुलित टिप्पणियाँ लिखी हों। इन टिप्पणियों में अपने समय के स्टार माने जाने वाले लेखकों और महाबली सिध्दांतकारों को भी चुनौतियाँ दी गई है। बकौल अशोक वाजपेयी ‘दस्तावेज’’ ने अपने समय के लेखकों के कद की भी नाप जोख की है। (दस्तावेज के 101 वें अंक के लोकार्पण पर दिए गए वक्तव्य से)। इस दृष्टि से इस पत्रिका के अंक 91, 95 और 111 के संपादकीय पठनीय है। इन संपादकीयों पर जितनी प्रतिक्रियाएं छपी है शायद ही हिंदी में किसी लेख पर छपी हों। ये संपादकीय कई महत्वपूर्ण पत्रिकाओं ने आदरपूर्वक पुनर्मुद्रित किए हैं। अपने समय में ही किसी पत्रिका के संपादकीय को ऐसा गौरव मिलना एक असामान्य घटना है।

अपने 30 वर्षों के जीवन में ‘दस्तावेज’ ने लगभग 30 विशेषांक प्रकाशित किए हैं, जो कि अत्यंत महत्वपूर्ण और उनमें से कुछ तो ऐतिहासिक महत्व के हैं। हजारी प्रसाद द्विवेदी, प्रेमचंद, आठवें दशक की कविता, आठवें दशक की आलोचना, रामचंद्र शुक्ल, अज्ञोय, अमृतलाल नागर, श्रीकांत वर्मा, नागार्जुन, विश्व हिन्दी कविता, गोविंद मिश्र, विद्यानिवास मिश्र, नामवर सिंह, शिवप्रसाद सिंह, राहुल सांकृत्यायन, मराठी साहित्य, रचना और आलोचना, भोजपुरी, साहित्य, गीत और गज़ल़, निराला, तुलसीदास तथा महात्मा गांधी पर विशेषांक इसके साक्ष्य हैं। इनमें कई तो ढाई-तीन सौ पृष्ठों के हैं। लक्ष्य किया जा सकता है कि इन विशेषांकों में लेखकों, काव्य रूपों, रचना प्रवृत्तियों, हिंदीतर भाषाओं और बोलियों पर भी अंक केंद्रित हैं। ‘दस्तावेज’ में 'समकालीन भारतीय साहित्य स्तंभ के अंतर्गत लगभग सभी भारतीय भाषाओं और 'देशान्तर स्तंभ के अंतर्गत अनेक विदेशी भाषाओं पर कुछ न कुछ सामग्री प्रकाशित हुई है। बंगला साहित्य का सबसे ज़्यादा अनुवाद छापने का श्रेय इसी पत्रिका को है। इससे इस पत्रिका का एक व्यापक साहित्य-सरोकार प्रकट होता है। ‘दस्तावेज’ ने दिवंगत साहित्यकारों के हज़ारों पत्रों को छापकर एक और ऐतिहासिक काम किया है। आज इलेक्ट्रानिक माध्यमों के चलते पत्र-विधा लगभग समाप्त हो रही है। ऐसे में इन महत्वपूर्ण पत्रों को नष्ट होने से बचाने का यह काम प्रशंसनीय है।

‘दस्तावेज’ जब शुरू हुई थी तो आरंभ में कुछ पत्रों में उसकी विचारधारा का सवाल उठाया गया था। जो लोग विचारधारा का अर्थ मार्क्सवादी विचारधारा मानते हैं उन्हें ‘दस्तावेज’ से निराश होना पड़ेगा। ‘दस्तावेज’ किसी विचारधारा का मुखपत्र नहीं है, जिसमें प्रायोजित लेख और प्रायोजित चर्चाएं प्रकाशित होती हों। यह पत्रिका गुटबंदियों से मुक्त है। इस पत्रिका के पचावसें अंक के लोकार्पण के अवसर पर पत्रिका की इस विशेषता को रेखांकित करते हुए मनोहर श्याम जोशी ने कहा था, ‘दस्तावेज’ एक ऐसी पत्रिका है, जिसमें लेखकों के भी चेहरे दिखाई देते हैं। जबकि आज की अधिकांश पत्रिकाओं में संपादकों के ही चेहरे चमकते रहते हैं। ‘दस्तावेज’ के संपादक लेखक संघों की राजनीति में विश्वास नहीं करते न उनका किसी भी लेखक संघ से किसी प्रकार का संबंध है। मगर उनकी अपनी एक स्पष्ट और दृढ़ विचारधारा है। उन्हीं के शब्दों में, 'संसदीय लोकतंत्र, महात्मा गांधी और भारत की वैश्विक चेतना वाली मूल्यवादी परंपरा मेरी विचारधारा के केंद्र में है जो कि ‘दस्तावेज’ की भी विचारधारा है। (अंक 101 का संपादकीय) ‘दस्तावेज’ में सभी विचारधाराओं के लेखक और उनकी रचनाएं प्रकाशित हुई है। सभी प्रकार की पुस्तकों की समीक्षाएं भी। खासतौर से ‘दस्तावेज’ का ध्यान उन लेखकों और उनकी कृतियों पर रहा है जिन्हें प्रभुत्वशाली वर्ग द्वारा हाशिए पर ठेलने की कोशिश की जाती है।

‘दस्तावेज’ का 100 वाँ अंक महात्मा गांधी पर केंद्रित था, जो प्रकारान्तर से पत्रिका के सरोकार और लक्ष्य का एक महत्वपूर्ण संकेत है। ‘दस्तावेज’ के सम्पादक गांधी को सहस्राब्दि का महानायक मानते हैं और स्वीकार करते हैं कि यदि असली भारत को देखना हो तो गांधी में देखना चाहिए। वे गांधी के विचारों से स्वयं तो प्रभावित हैं ही, उन्हें आज के समय में सबसे ज़्यादा प्रासंगिक भी मानते हैं। ‘दस्तावेज’ एक अकेले व्यक्ति के संकल्प से निकलने वाली पत्रिका है। इसके पीछे न कोई पूंजी संस्थान है, न सरकार, न कोई राजनीतिक दल या लेखक संगठन। इसके सम्पादक और संवेदनशील लेखक विश्वनाथ प्रसाद तिवारी के सरल, पारदर्शी, विनम्र और समर्पित व्यक्तित्व के चुम्बकीय प्रभाव से ही इस पत्रिका को सभी वर्गों के लेखकों का स्नेह-सहयोग प्राप्त हो रहा है। ‘दस्तावेज’ एक अत्यंत निर्भीक पत्रिका है, जो बिना किसी भय और लोभ के अपने सीमित संसाधनों में हिंदी भाषा की रचना और आलोचना को सामने लाने की कोशिस कर रही है तथा भोगवादी अपसंस्कृति, हिंसा, असहिष्णुता और अलगाव के विरुध्द आवाज़ उठा रही है। इस अर्थ में यह पत्रिका भारतेंदु-युगीन पत्रिकाओं की गौरवपूर्ण परंपरा में अपना स्थान बनाती है। 25 मई को शाम 6।00 बजे महंत घासीदास स्मृति संग्रहालय सभागार, रायपुर में आयोजित समारोह में डा. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी सम्मानित होंगे। इस मौके पर हिंदी जगत की हार्दिक शुभकामनाएं।


-चित्तरंजन मिश्र

रीडर, हिंदी विभाग

गोरखपुर विश्वविद्यालय, गोरखपुर

1 टिप्पणी:

Priyankar ने कहा…

विश्वनाथ प्रसाद तिवारी जी को पढा है,सुना है और मिला हूं . उन्हें बहुत-बहुत बधाई ! उन्हें सम्मानित करने से पुरस्कार की क्रेडिबिलिटी बढेगी .