2/06/2010

छत्तीसगढ़ी साहित्य में समकालीन चेतना -

अशोक सिंघई
विकास के नैरंतर्य में मनुष्य ने समूहों, समाजों और संगठनों में रहने की कला का निरन्तर विकास किया। सफलता, उपलब्धि और अस्तित्व की सुरक्षा की जिजीविषा से आतप्त मनुष्य ने सहेजने, सँवारने और बाँटने की क्रियाओं की अनिवार्यता को अपनी प्राकृतिक शक्तियों में समाहित किया। दुनिया को और उसके अनंत सांसारिक व्यापार और व्यवहार से अपना रिश्ता ढूँढती, समाज व समूहों से तादात्म्य स्थापित रखती मनुष्य की अपनी एकाकी काया अपनी अस्मिता की भी तलाश करती है। आकाश के अबूझ सितारों से लेकर भूगोल की घाटियों में भटकती, इतिहास की परतों और भविष्य की धुँध को टटोलती उसकी जिज्ञासा की अँगुलियाँ, सह-अनुभूतियों एवं सह-अनुभवों के शीतोष्म को जब महसूसती हैं तो वह उसे संचित ज्ञान के कोष अर्थात् साहित्य-रूप में अपनी नस्ल को विरासत के तौर पर सौंपने के सत्कर्म को स्वीकारती है।इस आदिम सोच ने साझे के सिद्धांत को अपनाते हुए मनुष्य को अपनी अदृश्य और अनूठी शक्तियों- शक्ति, स्मृति और फिर कल्पना का आभास हुआ होगा। हर मनुष्य के लिए मानवता की यह सतत-यात्रा प्रारंभ और अंत के वलय से गुज़रती है। यह उसके लिए अंतिम, पर मानव की नस्ल के लिए अनन्तिम और अनन्त होती है। हर मनुष्य अपने जीवन में पूर्वातीत की सारी यात्राओं को एक बार फिर जीता है। हर मनुष्य मानवता की चिर और निरन्तर यात्रा का अपने तईं संवाहक होता है।मनुष्य ने स्वप्न बुने। प्रस्तर-युग से चिप-युग तक की यात्रा में मनन-चिन्तन, विचार, व्यवस्था, सत्ता, संगठन जैसे दुधारी हथियार उसके हाथ लगे। हमारी सोच, हमारे विचार, संजोया ज्ञान और अनुभव, समय की समझ और समय की माँग, हमारे स्वप्न, हमारे आदर्श, हमारे लक्ष्य साझे होने चाहिए, सबके होने चाहिए, सबके लिए होने चाहिए। जैसे-जैसे ज्ञान बढ़ता जाता है, वैसे-वैसे यह बोध भी बढ़ता है कि अभी भी कितना कुछ अज्ञात है। हमारी सारी संगठनात्मकता, हमारा सारा ज्ञान ऐसा हो जो मनुष्य और अंततः मानवता के पक्ष में खड़ा नज़र आये। इन्द्रियों की शक्ति, ज्ञान और चेतना के नैरंतर्य ने हमारी निर्भीकता बढ़ाई, हममें सौन्दर्यबोध विकसित किया, हमारे सपनों को रंग दिये। मुद्रा के आविर्भाव के पूर्व लेन-देन की आविष्कृत संक्रिया से व्यवसाय की समझ विकसित हुई। यात्राओं ने दूरियाँ घटाईं। उत्तर से दक्षिण, पूरब से पश्चिम, यात्राओं के आध्यात्मिक और व्यावसायिक दौर का सदियों का इतिहास है। पूरा विश्व पहुँच के भीतर समाने लगा। अर्थ की अद्भुत विनिमयता से बाज़ार बना और यह वामनावतार सिद्ध हुआ। सौन्दर्य-बोध ने सर्वश्रेष्ठता की परिकल्पना को साकार किया और फिर शुरू हुई प्रतिस्पर्धा। क्षमतायें समृद्ध होतीं हैं, प्रतिस्पर्धा सेे। प्रतिस्पर्धा के लिये किसी भी समूह अथवा संगठन का सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण हथियार होता है मनुष्य। आज का युग तकनीक का युग है। तकनीक से मनुष्य जुड़ा है और मनुष्य से मनुष्य। मनुष्य की दक्षता और क्षमता की कोई अंतिम सीमारेखा नहीं है। इकाई में व्यक्ति अपनी एक विशिष्ट और वैयक्तिक सत्ता रखता है। व्यक्ति और व्यक्ति मिलकर समूह बनाते हैं। समूहों और समाजों के समुच्चय से राष्ट्र बनता है। प्रकृति प्रदत्त सारे संसाधनों के मूल्य सम्वर्धन (वेल्यु एडीशन) में मानव संसाधन ही एकमात्र ऐसा संसाधन है जिसका कि प्रबंधन देश को सर्वोच्च बनाता हुआ प्रगति के शिख तक ले जाता है। ज्ञान मनुष्य की मूल शक्ति है, सम्वेदना नहीं। ज्ञान से शक्ति का और सम्वेदना से प्रेम और करुणा का सीधा संबंध होता है। ज्ञान से सम्वेदना की उत्पत्ति होती है अथवा सम्वेदना से ज्ञान की। मुक्तिबोध जैसे मूल वैज्ञानिक चिंतक और प्रखर समाजशास्त्री साहित्यकार इस गुत्थी को सुलझाने में ताउम्र लगे रहे। उन्होंने यूँ ही ज्ञानात्मक सम्वेदना और सम्वेदनात्मक ज्ञान की बात नहीं की थी। जरा विचार करें, सम्वेदना शून्य ज्ञान विष और ज्ञान शून्य सम्वेदना बाँझ होती है। वस्तुतः ज्ञान और सम्वेदना की सहक्रिया से ही विकास का भु्रूण पनपता है। किसी भी प्रदेश और देश को मानव के संबंध में उसकी सम्वेदना एवं प्रवृत्ति को हमेशा ध्यान में रखना होता है। हमारी इक्कीसवीं सदी में यह अनहोनी हो रही है कि बाज़ारवाद की अन्तर्वृत्ति से विकसित हो रही औद्योगिक संस्कृति में ज्ञान को सूचना से और सम्वेदना की नैसर्गिक प्रवृत्तियों को लाभ-हानि की त्वरित गणना से विस्थापित किया जा रहा है। पत्थरों के ईश्वरों को पूजते-पूजते हम ईश्वर बनने की राह में पत्थर होते जा रहें हैं। मिथेले फूको ने कहा है कि - विचारों के इतिहास को टटोलते हुए परंपराओं की निरंतरतायें नहीं, विच्छिनतायें और क्रम-भंगतायें अधिक महत्वपूर्ण हैं। ये अवरोध ज्ञान के संग्रहण में दख़ल देते हैं तथा ज्ञान की तानाशाही को रोकते हुए, ज्ञान के आधिपत्य को भंग कर एक नए समय को दर्ज़ कराने का दबाव बनाते हैं।विज्ञान और संस्कृति की उपलब्धियाँ अब कमोबेश सार्वभौम हैं। अगर पश्चिम का अंधानुकरण या तीब्र आधुनिकीकरण सामाजिक परिवर्तन का विवेकपूर्ण रास्ता नहीं है, तो भारतीय रूढ़िवाद इसका विकल्प भी तो नहीं है। हमारा अतीत हमारी रक्षा करने में समर्थ नहीं है। हमारा वर्तमान भविष्य के आकर्षण में तेजी से अतीत से पल्ला छुड़ाता नज़र आता है। अतीत में झाँकने पर भविष्य नज़र आता है वैसे ही जैसे झील में चाँद का अक्स। यह तो सिद्ध हो गया है कि भाषा, शिक्षा, आवागमन और संचार परिवर्तन के प्रमुख कारक है। मानव समूह की भाषा और शिक्षा इस अमूल्य और असीम संसाधन की उत्पादकता सुनिश्चित करते हैं। दिक़्कत यह है कि हम स्कूलों में तो अँग्रेज़ियत चाहते हैं और घरों में पौराणिक कथाओं के सीरियल्स् अथवा आस्था व संस्कार के चेैनल्स्। आधुनिकता और परंपरा के संबंध द्वन्द्वात्मक रहे हैं। उसी तरह अतीत और भविष्य के संबंध द्वन्द्वात्मक हैं।व्यावसायिक प्रतिस्पर्धा के दर्शन पर टिका है हमारा वर्तमान। प्रतिस्पर्धा का अस्तित्व ही ’श्रेष्ठता-भाव’ के बचे रहने का बोध है। प्रतिस्पर्धा का अस्तित्व तभी तक है, जब तक सर्वोत्कृष्ट होने की शेष अभिलाषा है। प्रतिस्पर्धा का कोई एक रूप नहीं होता। यह बहुरूपिया है। सफल होने और शीर्ष पर बने रहने के लिए इसे पहचानना हर युग की अनिवार्यता है। सर्वोत्कृष्ट होने की दुर्धर्ष जिजीविषा से प्रतिस्पर्धा प्रारंभ होती है और इस जिजीविषा के क्षरण से संगठन विनष्ट हो जाते हैं। बाज़ार में टिके रहने के लिए, बने रहने के लिए दिलो-दिमाग, दोनों की ज़रूरत है। प्रश्न यह है कि अपनी स्थायी इकाई मानव यात्रा में हम क्या कर रहे हैं? छत्तीसगढ़ प्रदेश के हर एक नागरिक को अपनी भूमिका के प्रति संवेदनशील, सक्रिय और जागरूक होना होगा। हम सामुहिक रूप से अधिक परिणाम दे सकते हैं। क्या खूब कहा गया है, ‘‘है ज़रूरी दूरियों पर सोचना, अपनी भी रफ्तार देखा कीजिये; हाँथ दिखते हैं सभी के एक से, हाँथ के हथियार देखा कीजिये।’’इक्क्ीसवी सदी का पहला दशक अपने अंतिम चरण में एक विश्वव्यापी मंदी का एक वैसा ही दौर लेकर आ रहा है जैसा कि विश्वयुद्धों के उपरान्त अनुभव में आया था। आधुनिकता, उच्च जीवन-स्तर और विज्ञान तथा तकनीकी के सारे लाभों का आस्वाद खारा होने लगा है। जब भी समुद्र-मंथन करना होता है, तब मानव और दानव, दोनों ही शक्तियों को एक धरातल पर खड़ा होना पड़ता है। विश्व-बाज़ार समुद्र है, आपूर्ति और माँग वासुकि के दो छोर हैं। उत्पादक शक्तियों से बनता है पर्वत मेरू। प्रश्न यह है कि हमारेे पास क्या शिव हैं? हलाहल का क्या होगा? मंथन के बाद वैसे भी अमृत उन्हीं में बँट जाता है जिन्हें कभी विष नहीं पीना होता। किसी भी संगठन में, किसी भी मनुष्य में देव और दानव, दोनों ही प्रवृत्तियाँ कमोबेश उपस्थित रहती हैं। अगर निरापद अमृत लक्ष्य है तो दानवत्व को देवत्व में बदलते रहने के उपक्रम गंभीरता से जारी रखने होंगे और इन सबमें साहित्य की भूमिका के महत्व से भला कौन इंकार कर सकता है। मनुष्य ईश्वर की सर्वोत्तम कृति है उसके मानवीय सदगुणों, क्षमा, परोपकार, परदुखकातरता, कार्य के लिए समर्पण, परिश्रम एवं लगन से कार्य करने पर वह आदर्श मनुष्य कहलाता है। सम्प्रेषण अनिवार्य है। सटीक सम्प्रेषण के लिये भाषा भी सटीक होनी चाहिये। उल्लेखनीय है कि काम को सहजता से करने की दृष्टि एवं समस्त मानवीय संसाधन को एकजुट करने में जमीनी भाषा की सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका निश्चित है। हमारे प्रदेश में जनता की भाषा छत्तीसगढ़ी है। विकास के लिये हिमालयीन प्रयासों में जनता को दिल से जोड़ना होगा और इस भगीरथ प्रयास में जनता की भाषा अनिवार्य होगी। जहाँ चाह है, वहाँ राह है। एक अच्छा और जिम्मेदार साहित्यकर्मी भाषा के भावुक प्रवाह में नहीं बह सकता। भाषायी सौहार्द्र के मूलमंत्र को छोड़कर यदि कुछ सुगबुगाहटें होती भी हैं तो बे निर्वंश ही रह जायेंगी। भाषा को लागू करने के संदर्भ में व्यवस्थित कार्यशैली को आत्मसात् कर इसे अपने यहाँ भी वैसे ही अमल में लाने की जरूरत है जैसे कि देश में हिंदी को लाने के लिये अपनाई गई है। भाषा का काम जोड़ना है, तोड़ना नहीं। देश के दूरदर्शी नेतृत्व ने जो दीर्घकालीन योजनायें बनाईं थीं, उनके मूल में इसी सोच की ही ताकत है। कहा जाता है कि दीर्घावधि तक चले देवासुर संग्राम में अन्ततः विजयी होने के लिये देवों ने अनेक प्रयास, अनुष्ठान आदि किये। सुफल के रूप में आनंद का घट देवताओं के हाथ लग गया। आनंद शक्ति और पराक्रम का अविरल स्रोत होता है। आनंद का यह घट असुरों के हाथ न लग जाये, यह चिन्ता उन्हें सताने लगी। वे सब भारी सोच में पड़ गये कि असुरों से इसे बचाकर रखना है तो आखिर कहाँ रखें? बहुत सोचने-विचारने के बाद आखिरकार देवताओं ने एक अति-सुरक्षित स्थान खोज ही लिया और वह था हृदय। सर्वद्रष्टा सहित सभी, सब कुछ देखते हैं, पर हृदय में कोई नहीं झाँकता या यूँ कहें कि झाँक नहीं पाता। इसके लिये विशेष सामथ्र्य चाहिये। इस सबसे निरापद जगह पर देवताओं ने आनंद का घट छिपाकर रख दिया है। हम सब कुछ ढूँढते हैं, सब जगह खोजते हैं, परन्तु हृदय नहीं टटोलते। आनंद का घट वहीं सुरक्षित पड़ा रहता है। सच्चा साहित्यकार अपने मानव समाज के हृदयों को टटोलना जानता है। भाषा को कारग़र हथियार में बदलने की पहली ्यर्त है आपसी विश्वास। यह संस्कृति, भाईचारे और सम्वेदना के वेग से परिचालित अन्तःसलिला है। यह खूबी छत्तीसगढ़ी साहित्यकार अपनी रचनाओं में कैसे लायेगा है, यह उसकी अपनी रचनात्मकता होगी।

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