2/23/2010

पंजाबी साहित्यिक जगत की अपूरणीय क्षति

गुलजार सिंह संधू
कई प्रसिद्ध पंजाबी साहित्यकारों का एक महीने के अंतराल में निधन बेहद दुखद है। जोगिन्द्र सिंह राही की साहित्यिक आलोचना बेजोड़ थी। हरभजन सिंह को ज्ञानपीठ पुरस्कार देने वाली कमेटी को उनकी रचना ‘रुख व ऋषि’ की चार लाइनों ने ही मंत्रमुग्ध कर दिया था।

टीआर विनोद की साहित्यिक मूल्यांकन लोगों के दिलों पर स्थायी प्रभाव डालने वाली थी तो संतोख सिंह धीर ने भी साहित्यिक जगत को कई अनमोल रचनाएं प्रदान कीं। हरिन्द्र महबूब ने अपनी लेखनी से खालसा की आन-बान-शान को आगे बढ़ाया और राम स्वरूप अणखी ने पूरे पंजाबी सभ्याचार को मालवा से परिचित करवाया।

भविष्य की युवा पीढ़ी इन लेखकों द्वारा साहित्यिक जगत में दिए गए अनमोल उपहारों की सदा ऋणी रहेगी। इस दुखद सफर का एक यात्री मैं भी हूं। कुछ साहित्यिक संस्थाओं का बुजुर्ग प्रतिनिधि होने के नाते इन प्रोग्रामों पर जाने की जिम्मेदारी भी मुझ पर आन पड़ती है जिन्हें श्रद्धांजलि समारोह कहा जाता है। अचानक ऐसी परिस्थितियां जब सामने आती हैं तो बहुत दुख होता है। ऐसे समय में मेरा ध्यान परम सत्ता के उस द्वार की ओर चला जाता है जो हंसते-खेलते परिवारों और भाईचारे का सुख-चैन छीनने के लिए वक्त-बेवक्त खुलता है। कई बार इस पर गुस्सा भी आता है पर उसकी इच्छा के आगे किसका जोर चलता है। महबूब के स्वर्गवास की खबर मुझे दिल्ली यात्रा के दौरान मिली। इससे तीन दिन पहले ही मैं चंडीगढ़ में धीर की शोकसभा में शामिल होकर आया था। पहला शोक समाचार ही दिल को बेचैन कर रहा था कि मोबाइल पर अणखी के स्वर्गवास की भी सूचना मिल गई।

दिल्ली पहुंचकर पंजाबी साहित्यिक सभा की बैठक में पांचों महारथियों को श्रद्धांजलि देने हेतु दो मिनट का मौन रखा गया। अगले दिन साहित्य अकादमी की जनरल कौंसिल की रवीन्द्र भवन में मीटिंग हुई। उन्होंने 24 भाषाओं के दिवंगत साहित्यकारों के नाम प्रकाशित किए थे। कुछेक के जीवन का संक्षिप्त विवरण भी साथ में दिया गया था। सूची को पूर्णता प्रदान करने के लिए इसमें 38 नाम और शामिल किए गए जिनमें से चार पंजाबी साहित्यकार थे, आठ उर्दू साहित्यकार और 11 हिंदी के। प्रबंधकों ने खड़े होकर दिवंगतों के लिए दो मिनट का मौन धारण करने के लिए कहा और फिर बैठक में लिए जाने वाले निर्णयों पर बहस शुरू हो गई। संस्कृत के समर्थक साहित्य अकादमी से संस्कृत के लिए विशेष स्थान का आग्रह करने लगे। एक सदस्य ने इसका विरोध करते हुए कहा कि अगर संस्कृत इतनी ही बेहतर है तो इसे हर साल पुरस्कार क्यों नहीं मिलता? जब इस दलील का कोई असर नहीं पड़ा तो एक सदस्य ने इस वर्ष स्वर्गवास हुए साहित्यकारों की सूची में भी संस्कृत के साहित्यकारों की गैरमौजूदगी पर इशारा किया।

मैंने जब इस सूची पर नजर डाली तो सच में इसमें पंजाबी, हिंदी और उर्दू के साहित्यकारों के काफी नाम थे पर संस्कृत के किसी साहित्यकार का नाम नहीं था। मनचले सदस्य की दलील हास्यास्पद थी लेकिन एक क्षण के लिए मुझे लगा जैसे धर्मराज की जल्दबाजी से हमारी भाषा का सम्मान ही नहीं बढ़ा बल्कि जाने वालों को शहीद का भी रुतबा मिल गया। भगवान में आस्था रखने वाले लोग पंजाबी साहित्यकारों के निधन को अपने ढंग से ले सकते हैं पर पंजाबी साहित्यिक जगत को जो नुकसान हुआ है, उसकी क्षतिपूर्ति के लिए हमें मिलकर प्रयास करने होंगे।(दैनिक भास्कर में छपा)

1 टिप्पणी:

Dinesh pareek ने कहा…

ब्लॉग की दुस्निया में आपका हार्दिक स्वागत |
बहुत ही सुन्दर लिखा है अपने |
अप्प मेरे ब्लॉग पे भी आना के कष्ट करे
http://vangaydinesh.blogspot.com/