5/18/2006

व्यर्थ होते हुए अथाह में (समीक्षा)

व्यर्थ होते हुए अथाह में

पुस्तक समीक्षाः रमेश अनुपम

‘इतने गुमान’ सुदीप बनर्जी का तीसरा और सद्यः प्रकाशित काव्य-संग्रह है । सुदीप बनर्जी के पहले दो संग्रहों से उनकी पहचान एक कवि के रूप में बनी है जिनके यहाँ समकालीनता का आग्रह या दबाव उस तरह से नहीं है जिस तरह अनेक दुसरे कवियों की कविताओं में है । इधर की हिंदी कविता जिस चातुर्य के साथ अपने समय और समाज में उपस्थित संकटों तथा चुनौतियों से जहाँ बच निकले की कोशिश करती हुई दिखाई पड़ती है, वहीं सुदीप बनर्जी की कविताएँ जैसे सप्रयास इस संकटों और चुनौतियों से जूझने का उपक्रम करती हैं ।
‘इतने गुमान’ में सगृहित कविताएँ एक ऐसे वयस्क कवि की कविताएँ हैं जिसे अपने समय में हो रहे सामाजिक अवमूल्यन और राजनैतिक षड़यंत्रों की सबसे अधिक चिंता है । इस संग्रह की कविताएँ पिछले एक दशक में देश में उभरी हुई ‘नव्य साम्प्रदायिक प्रवृत्ति’ को भी लक्ष्य करती है । उसमें पिसते हुए भारतीय जन-मन की आहत संवेदना और करुणा को दृढ़ता के साथ दृश्य पर रचने का जोखिम उठाती हैं । एक गहन मार्मिकता और प्रखर वेचारिकता इन कविताओं में अलग से दिखाई देता है –

‘उनकी आँखों में झाँकना है
जिन्हें जिंदगी से अभी भी उम्मीद है
जो मंदिर नहीं जाते पर
अपने बच्चों से प्यार करतेहैं
उन्हें पुकारना है अपने अंतरंग तक ।’

सुदीप बनर्जी के इस संग्रह में कुछ कविताएँ अपने दौर के कवि और कविताओं पर भी है । पर यह होना किसी तरह की टिप्पणी की तरह नहीं बल्कि कवि के दुख एवं अवसाद की एक तरह से सफल अभिव्यक्ति है । कवि कविताओं की निरर्थकता और उनके अपने समय के समक्ष व्यर्थ होते जाने की दुखद परिणति को कुछ इस तरह से रचते हैं –

‘इस तरह कविताओं में जीवन को छिपाता हुआ
शुरुआत में होनहार अंततः फकीर
वह चला गया भाषा के अथाह में महज
एक शब्द लाश
कविताएँ प्राण नहीं फूँकेंगी इस खाक में
ग़म ग़लत नहीं करेंगी गुज़िश्ता का
खाली वह एक शब्द लाश
यहाँ वहाँ सेंध करेगा पदावली में जो
निभा नहीं पाएगी अपने वचन
कविताएँ कविताओं को पुकारतीं
हारतीं इस तरह
गज़ब के मुहाने में
व्यर्थ होते हुए इस अथाह में’
(अथाह में)

हमारे समय में ऐसे कवि कम ही हैं जो कविता को लेकर इतने संशय और द्विविधा से भरे हुए हों, जो कविता के निरंतर (अपनी अंतर्वस्तु और अपनी समूचीसंरचना में) संकुचन पर इतनी गंभीरता के साथ सोच रहे हों । सुदीप बनर्जी की कविता लगातार ओट में किए जा रहे इस अत्यंत महत्वपूर्ण विषय को भी दृश्य पर रचने का उपक्रम करती हैं । एक तरह से कविता की आलोचना में आई हुई बाढ़ पर एक बेहतर टिप्पणी की तरह है ।

‘उतना कवि तो कोई भी नहीं
जितने अन्तर्मन के प्रसंग
आहत करती शब्दावलियाँ फिर भी
उंगलियों को दुखाकर शरीक हो जातीं
निर्लज्ज भाषा के निराकार शोर में ।’

सुदीप की भाषिक संरचना पर भी नए सिरे से विचार करने क जरूरत है, जिसमें उर्दू के शब्दों को वे जानबूझकर हिंदी के तद्भव शब्दों के साथ मिलाकर अपनी कविता को बुनते हैं । सुदीब बनर्जी की इस संग्रह की कविताएँ अपने पूर्ववर्ती दोनों काव्य संग्रह की कविताओं की तरह हिंदी आलोचना के लिए भी कोई कम बड़ी चुनौती नहीं है । समकालीनता के प्रचलित काव्य मुहावरों का निषेध करती हुई और अपने लिए नए काव्य मुहावरों की तलाश करती हुई इन कविताओं को गंभीरता से विश्लेषित किए जाने की जरूरत है ।
******
संपर्कः डब्ल्यू.क्यू- 4, साइंस कॉलेज कैम्पस, रायपुर छत्तीसगढ़

कोई टिप्पणी नहीं: