हमें कवर्धा से रमला देहारी का यह लेख मिला है, उसे हम बिना किसी काट-छांट के यहां छाप रहे हैं । देहारी शिक्षक हैं और आदिवासी के लिए कुछ खास अध्ययन से जुड़े हैं । वे मूलतः दंतेवाड़ा ज़िले के निवासी हैं । - संपादक
मैं दंतेवाड़ा जिले में दंतेश्वरी मंदिर में विराजनेवाली लोकदेवी दंतेश्वरी और वहाँ के आदिवासियों के बारे में सबकुछ जानते हुए भी वैसे नहीं जानता जिसे मैं व्यक्तिवाचक संज्ञा में जान सकूँ । हो सकता है कि यह मेरी कमज़ोरी ही कहलायेगी कि मैं बस्तर के किसी गांधीवादी हिमांशु कुमार को नहीं जानता । यह कैसे संभव है कि मैं हर गांधीवादी को जान भी लूँ । पर जिस तरह से मैं कथित गांधीवादी हिमांशु कुमार को अब जान पाया हूँ उससे कह सकता हूँ और समझ सकता हूँ कि क्योंकर गांधीवाद पर आज की पीढ़ी विश्वास नहीं करती ।
मैं दंतेवाड़ा जिले में दंतेश्वरी मंदिर में विराजनेवाली लोकदेवी दंतेश्वरी और वहाँ के आदिवासियों के बारे में सबकुछ जानते हुए भी वैसे नहीं जानता जिसे मैं व्यक्तिवाचक संज्ञा में जान सकूँ । हो सकता है कि यह मेरी कमज़ोरी ही कहलायेगी कि मैं बस्तर के किसी गांधीवादी हिमांशु कुमार को नहीं जानता । यह कैसे संभव है कि मैं हर गांधीवादी को जान भी लूँ । पर जिस तरह से मैं कथित गांधीवादी हिमांशु कुमार को अब जान पाया हूँ उससे कह सकता हूँ और समझ सकता हूँ कि क्योंकर गांधीवाद पर आज की पीढ़ी विश्वास नहीं करती ।
मैं कोई पहेली नहीं बुझा रहा । सीधे मुख्य बात की ओर आपको ला रहा हूँ । मैंने बहुत पहले एक लेख पढ़ा था । कभी-कभी मैं इंटरनेट पर प्रकाशित होने वाले ब्लॉग लेखों को पढ़ लेता हूँ । उस लेख का शीर्षक था - ................ और जहाँ तक मुझे याद है, उसके लेखक थे विश्वरंजन । राज्य के पुलिस महानिदेशक और पुलिस महानिदेशक ।
यदि आप उस लेख को पढ़ चुके हों तो आप भी सहमत होंगे कि उस लेख में कहीं भी किसी हिंमांशु कुमार का ज़िक्र नहीं हुआ है । न इशारों में, न बिम्बों में । नामधारी तो प्रश्न ही नहीं उठता । मुझे इस लेख से सुखद आश्चर्य हुआ कि राज्य के पुलिस महानिदेशक के रूप में हमने एक ऐसे विचारक को भी पा लिया है जो राज्य की इज्जत और आदिवासी अस्मिता को भली भाँति पहचानता है और इतना ही नहीं वह प्रजातंत्र के लिए उस तरह से वैचारिक कक्षों में भी पूरी तरह सक्रिय और कटिबद्ध है जितना इस दौर के माओवादी यानी कि अराजक तत्व जो सशस्त्र क्रांति की ज़िद पर दीन आदिवासियों को ही अपनी हिंसा का शिकार कर रहे हैं । इससे पहले हम किसी भी पुलिस अधिकारी की ओर से अपने पक्ष मे वैचारिक फ़ोरमों पर लड़ते हुए नहीं देख पाये । यह पूर्व मध्यप्रदेश के ज़माने की बात न हो तो न हो, पर नये राज्य छत्तीसगढ़ में तो उन्हें इस रूप में अपने हितैषी के रूप में उन्हें मैं आदिवासी होने के नाते नमन करता हूँ जो हमारी वेदना को स्वर दे रहे हैं । हमारे दर्द की दरख़्वास्त स्वयं लिख रहे हैं । इससे पहले हमने पुलिस के अधिकारियों को माँ-बहन की गाली देते अधिक, गुलछर्रे उड़ाते अधिक और व्यवस्था के नाम पर चिंतित कम ही देखा है । और शायद यही कारण हो सकता है कि कार्यपालिका के पंगु, भ्रष्ट और कामचोर हो जाने के कारण ही हम आदिवासियों को शोषण और अपनी मूर्खता का शिकार होना पड़ा । ख़ैर... मेरा उद्देश्य यहाँ विश्वरंजन की भाटगिरी नही है पर मेरी नैतिकता की ओर से तकाज़ा था कि मै एक आदिवासी और पढ़ा लिखा आदिवासी होने के कारण जो महसूसता हूँ उसे ज़रूर लिखूँ । सो लिख रहा हूँ । मैं नहीं जानता कि कितने ऐसे लोग हैं जो मेरी अभिव्यक्ति को वास्तविक मानें । क्योंकि सारी दुनिया हमे अनपढ़, ज्ञानहीन, पिछड़ा, पंरपरावादी और जंगली घोषित करने पर तुला हुआ है । और इस समय भी जबकि हम इक्कीसवीं सदी मे पहुँच चुके हैं और उसकी तब्दीली की आँच को धीरे-धीरे महसूस रहे भी हैं ।
बहरहाल मुख्य विषय पर आता हूँ । दंतेवाड़ा सहित बस्तर और अबुझमाड के बहुत सारे एनजीओ के बारे में सामान्य जानकारी रखता हूँ । मेरे बचपन के मित्र भी वहाँ रहते हैं । मैं तो फिलहाल इन दिनों कवर्धा में रहता हूँ और मास्टरी करता हूँ । मेरा नाम गोवर्धन दिहारी है । मेरा जन्म भी दंतेवाड़ा में हुआ है और बचपन भी वहीं गुज़रा है । मैं पिछले कई वर्षों के समय को जानता हूँ कि कैसे सरकारी लोगों के साथ-साथ एनजीओ के फर्जी दुकानकारों ने अपने स्वार्थ के लिए हम आदिवासियों को लूटा और और वह संकट आज भी जारी है ।
पिछले दिनों मैं रायपुर होते हुए जगदपुर से कवर्धा लौट रहा था । रेल्वे स्टेशन पर बैठे-बैठे भूख लगी तो सोचा कुछ खा पीलूँ । एक छोटे से होटल मे मैने भजिया खरीदी । अचानक मुझे भजिया खरीदते समय एक पीले रंग के अखबार, (जो मुझे लपेट कर भजिया दिया गया था) मैं मेरे पड़ोसी जिले के किसी हिमांशु कुमार का नाम दिखा और मुख्य शीर्षक – वनवासी चेतना आश्रम का पत्र डीजीपी के नाम । (आप चाहें तो उसे पढ़ सकते हैं । मैंने उसे कवर्धा के एक कैफे वाले से स्कैनिंग करवा के यहाँ सबूत के लिए रखा है)
मैंने पहले डीजीपी का एकमात्र लेख पढ़ा था । मुझे तत्काल सदर्भ समझने में कोई दिक्कत नहीं हुई । सो मेरी जिज्ञासा एकाएक बढ़ गई । सोचा कुछ होगा । वह भी मेरे अपने क्षेत्र के बार में है तो क्यों न उसे सहेज के रख लिया जाय । मैं भजिया को खाते समय प्रयास करता रहा कि वह पेपर कहीं से भी अपठनीय न बन जाये । मैं उसे समेट के रख लिया ।
मैं तो पढ़ ही चुका हूँ । आप पढ़ चुके हों तो बतायें कि डीजीपी साहब के इस लेख मे कहाँ लिखा है कि हिमांशु कुमार ऐसा करते हैं, वैसा करते हैं । जब मेरी समझ में नही आयी तो मैं अपने हायर सेकेंडरी के प्रिंसिपल साहब से राय लेना उचित समझा जो हिंदी और राजनीति विज्ञान में अर्थात् दो-दो विषय में एमए हैं । कि सर इस दोनों लेखों को पढ़कर बताये कि कौन वास्तव में बुरा है ? कुछ और भी व्याख्याता भी जुड़ गये मेरी इस उलझन में ।
हम सब लोगों ने जो अंति राय बनायी । इसमे यदि मैं केवल अपनी व्यक्तिगत बात कहूँ तो भी ऐसे हिमांशु कुमार जैसे कथित गांधीवादियों ने ही बस्तर को बेचने और माओवादियों जिसे दुनिया नक्सली या नक्सलवादी कहती है के लिए पोस्टआफिस का काम किया है । ये लोग भी कम दुनियादार नही है जिनका केवल उद्देश्य दिखावा और भीतर से पैसा कमाना है ।
मैंने पत्र लिखकर दंतेवाड़ा के कई लोगों से पूछा कि क्या कोई हिमांशु कुमार नामक कोई व्यक्ति है जो गांधी का गुण गाता है ?
मैं अब इस संकट मैं तो खुद को नहीं फँसा सकता । इसलिए सभी मित्रों का नाम नहीं ले सकता । पर जो मुझे वहाँ से जानकारी मिली है उसे यहाँ रखने में कोई गड़बड़ी नहीं है । मुझे मिली जानकारी अनुसार-
“ हिमांशु नामक व्यक्ति के बारे मे सबकुछ हम नहीं जानते । उसका सब कुछ ऐसा नही है कि आर-पार देखा जा सके । गांधीवादी होता यदि वह, तो उसके बारे में सबकुछ हम जान सकते हैं । वह कब आया – हमे ठीक-ठीक तिथि नही पता । वह जब दंतेवाड़ा आया तो वैसा नहीं था, जैसा आज है । पहले वह कम दाम का कपड़ा पहनता था । उसके पास कोई साईकिल भी नहीं थी । पर अब वह सुनते हैं हवाई जहाज में देश विदेश बुलाया जाता है । उसके जूते भी अब महँगे हैं । एक सयाने पिता का यह भी कहना है कि पहले वह सिर्फ हिंदी जानता था अब कुछ स्थानीय बातों को भी जान चुका है । पहले वह एक घर के लिए कई लोगों के सामने गिड़गिड़ाता रहा। भोले आदिवासियों में से कई लोग उसे अपनी सुविधा अनुसार कुछ जगह देने के लिए तैयार हो गये थे । अब जो भी गैर भारतीय आते हैं उससे ही मिलते हैं । वही वहीं ले जाता है जहाँ हम भी जाने से डरते हैं । हमारे मन में यही प्रश्न उठता है कि यह क्या जादू जानता है, भगवान जाने । पर हमे इससे कोई दिक्कत नहीं । पर हम इसे व्यक्ति पर पूर्ण निर्भर नहीं है । हम इतना तो जानते हैं कि ऐसे लोंगों को सरकार भी पैसा देती है कि वे हमारे बीच रहें । ”
एक मित्र का पत्र में लिखा है कि – यह हिमांशु का एक बार एक व्यक्ति से झगड़ा भी हो चुका है । और कई आदिवासी लोग उसके बारे में बहुत अच्छा नही सोचते । वह जो करता है उससे हमे लाभ हो रहा है पर वह कई बार दादाओं (नक्सलियों का स्थानीय संबोधन) के एरिया में क्यों चला जाता है – खास कर तब जब दिल्ली, विदेश के लोग आते हैं तो – क्या वही उनसे मिलाने के लिए नियुक्त किया गया है ? हम उसका तो बिगाड़ नहीं सकते । न ही उसका बिगाड़ना हमारा उद्देश्य । पर उसके पत्नी और रिश्तेदारों के रहन सहन के बारे मे जो जानकारी मिली है उससे हम कह सकते हैं कि वह गांधी के नाम पर केवल संस्था चलाता है । गांधी जैसा है या नहीं ।
जो जानकारी मिली है उसके अनुसार किसकी हिमांशु कुमार नामक व्यक्ति ने किसी आदिवासी के नक्सलवादियों के हाथों मारे जाने या सताये जाने पर कभी भी पेपर में बयान नहीं दिया है न ही हम आदिवासियों की मीटिंग लिया है न ही हम लोगो को उनके विरूद्द लड़ने के लिए बात किया है । वैसे भी हम उनकी ताकत तो जानते हैं ही हैं । हम यहाँ ऐसा नही कहना चाहते हैं कि वह गांधी जैसा नहीं रहता पर वह जाने क्यों वह हम गरीब जैसा न रहता है न खाता पीता है । वह जो भी करता है देश और विदेश के पैसों सो करता है । हम कैसे उस पर विश्वास करें कि वह हमारे लिए ही आया है ।
जहाँ तक किसी हिमांशु के बारे में हम जितना जानते हैं वह कभी दिल्ली के किसी बड़े नेता का अपने को खास बताता है । गांधी राम या ईश्वर या कि आम आदमी के अलावा स्वय को खास नही बताते थे ।
गांधी उपवास करके लोगों को झुका देते थे । हमने कभी नहीं देखा और नहीं सुना वे दादाओं को समझाने के लिए उपवास रखे हैं । गांधी हिंसा का जवाब अहिंसा से देते हैं । यहाँ वाले हिमांशु जिसके बारे में हम जानते हैं वे हर दिक्कत पर हम आदिवासियों को कोर्ट कचहरी और कानून के लिए जाने की बात करते हैं । कभी नही कहते कि हम अपनी बात को अपनी गुड़ी में ही सुलझायें । गांधी पंचायती राज पर विश्वास करते थे ।
राजनेताओं से कैसे संबंध हैं उनके के जवाब में मेरे परिचितों का कहना है कि राजनेताओं के बारे में हम कम जानते हैं । तो उनके बारे में कैसे जाने कि वे किधर के हैं ?
क्या उस पर विश्वास किया जा सकता है ? के जवाब में कहा गया है कि जो हमारे जैसा नहीं रह सकता । जो हमारे जैसे नहीं सोच सकता । जो हमारे जैसे कपड़े नहीं पहन सकता । जो हमारे कुल गोत्र का न हो । जो हमारे कुल देवता की पूजा नही करता । जो जंगल झाड़ी को अपना आवास नहीं समझता वह कैसे हमारा हो सकता है । और कैसे उस पर पूरा विश्वास करें हम । यदि वह सचमुच गांधी जैसा काम करता तो सभी नक्सवादी नही तो कम से कम दो चार नक्सवादी उससे प्रभावित होकर आत्मसमर्पण कर चुके होते । हमारे कुछ पढ़े लिखे मित्र कहते है कि इनकी संस्था के कर्ता धर्ता स्वयं ये और उनकी पत्नी ही हैं । और कोई लोग या आदिवासी भले ही उनकी संस्था में काम करते हैं वह वे कार्यकारिणी या कोषाध्यक्ष या सचिव के रूप मे हैं ही नहीं । इनके सारे बैंक खातों संचालन वे स्वयं करते हैं । गांधी कम से कम ऐसा नहीं करते थे । वे ट्रस्टीशिप के हिमायत थे ।
हाँ उसकी प्रशंसा करनी होगी कि वह दिल्ली का होकर भी यहाँ रहता है । वास्तव में किन अर्थों में रहता है हमने जानने की पूरी कोशिश नही की है । न ऐसा सोचा है ।
यह सब बात जानने के बाद मैं यही कहना चाहता हूँ कि यह कैसा गांधीवादी है जो कहीं भी लड़ने झगड़ने के लिए तैयार बैठा है । मैं नहीं जानता कि विश्वरंजन कितने आदिवासी प्रिय हैं या यह गांधीवादी । पर दोनों लेखों को पढ़ने के बाद मैं कह सकता हूँ कि विश्वरंजन गांधीवाद के नाम पर शोषण करने वालों के खिलाफ हैं । जबकि हिमांशु कुमार स्वयं को गांधीवाद मानकर विश्वरंजन को चिढ़ाना चाहते हैं – यह कह कर कि यदि गांधी होते तो आदिवासियों की तरफ से लड़ रहे होते और आपकी (विश्वरंजन की हिरासत में होते) और आप यानी विश्वरंजन के रूप में ड़ीजीपी उन्हें माओवादी का खिताब दे चुके होते ।
यहाँ यह साफ समझ में आता है कि पुलिस या राज्य को माओवादी से आपत्ति है और यह भी समझ आता है कि माओवाद से हिमांशु को कोई आपत्ति नहीं है । यह कैसे विश्वास किया जा सकता है कि गांधी माओवाद को पंसद करते । यदि आज वह होते । हिमांशु की बात यानी पत्र से साफ यह भी कहा जा सकता कि वे अपने को गांधी का औलाद कहकर एक और गांधीवाद के नाम बस्तर में अपनी निरंतर उपस्थिति की गांरटी भी चाहते हैं और दूसरी और माओवाद के पक्ष में भी वातावरण बनाना चाहते हैं । यह राजनीति हैं । गांधी होते तो सीधे सीधी अहिंसा की बात करते । पर ऐसा करते वक्त वह हिंसक और आंतकवादियों (नक्सलियों की) के आत्म सुधार के लिए प्रार्थना, उपवास करते । हिमांशु यह कब करते हैं हमे नहीं पता ।
हिमांशु के जबरदस्ती लेख से यह भी मुझे लगता है कि माओवाद को सिर्फ पुलिस का दुश्मन समझते हैं - जब वे कहते हैं कि –
1. सलवा जुडूम के कहने से बच्चों के मुंह से कौर छीन लिया है । और बीमार आदिवासियों की दवा बंद कर दी है ।
2. पुलिस आज भी कानून पर ड़ट जाये ... तो माओवादियों को छोड़ जनता आपके पीछे हो लेगी ।
3. गांट घर बैठे ही आयी है ।
यहाँ मेरा कुछ प्रश्न है कथित हिमांशु जी से, जिसे मैं कभी भी नहीं मिला ।
1. सलवा जुड़ूम नहीं था तो बच्चों के मुंह से कौन नहीं छीनता था । और बीमार आदिवासियों की दवा भी बंद नहीं होती थी । इसका मतलब तो यही हुआ कि बस्तर में सब खुशहाल थे और अस्पताल भी काम करते थे । तब कैसे माओवादी वहां आ धमके । कैसे आपने वहाँ पाँव जमाने का विरोध नहीं किया ? आप तो माओवादी यानी हिंसा के विरोधी थे । गांधीवादी थे । यानी अहिंसक भी । आप यह बतायें यह अस्पताल कौन बर्बाद कर रहा है अब । पुलिस या सरकार या नेता या माओवादी ? क्योंकि आप भी तो वहाँ कई साल से वहाँ रह रहे हैं । क्या पुलिस के आने मात्र से ही बस्तर में सब कुछ बिगड़ गया । और माओवादियों के रहने से सब कुछ ठीक ही चल रहा था । यदि ठीक नहीं चल रहा था तो एक गांधीवादी के रूप मे आपने क्या क्या और कब कब ठीक किया । आपने अपने घर से कितना पैसा लगाया । कितना पैसा रूपया लगाया भारत सरकार का या किसी अन्य देश का । आपने क्या कभी माओवादियों की हिंसा का शांतिपूर्ण विरोध किया ? यदि नहीं किया तो आप कैसे प्रजातंत्र के हिमायती है ? यदि नही हैं तो फिर कैसे गांधी का नाम मिट्टी में मिला रहे हैं ? आप यह बताये कि जब आज आदिवासियों के हर सरंक्षकों को एक एक कर और चुन चुनकर माओवादी मौत के घाट उतार रहे हैं तो आपको कैसे वे छोड रहे हैं जबकि आप तो आदिवासी चेतना के लिए पैसा लेकर काम कर रहे हैं । यह कौन सा गांधीवादी रहस्य है ?
2. आपका मतलब यही है कि पुलिस कानून पर नही डटी है ? या नहीं ड़टी थी । तब क्या आप स्वयं चाहते हैं कि बस्तर पुलिस का अड़्ड़ा बन जाये ? आपके कहने का एक मतलब क्या यही तो नही कि जो भी बस्तर की समस्या है उसके पीछे सिर्फ पुलिस की नाकामी नहीं है । यदि ऐसा है तो वही तो पुलिस राज्य के आदेश पर कर रही है । और राज्य ही क्यों आपके केंद्र का भी तो यही इशारा है । आप जब यह कहते हैं कि माओवादी को छोड़कर जनता पुलिस के पीछे ही हो लेगी – तो क्या इसका मतलब यह नहीं है कि आप माओवादियों की उपस्थिति से पूरी तरफ वाकिफ़ है । इसका यह भी मतलब है कि आप माओवाद की उपस्थिति को पुलिस की अनुपस्थिति में वांछित समझते हैं । या विकल्प समझते हैं । यदि ऐसा नही होता तो आपके लेख में माओवादियों के बारे में भी पोल खोला जाता । गांधीवाद के नाम पर उनकी भर्त्सना की जाती जिसे आपने कभी नहीं किया । मैंने बार-बार आपके नाम को इंटरनेट पर सर्च किया तो मुझे यही मिला कि आप सदैव व्यवस्था के विरोध में बोलने के आदि हैं । और ऐसा मैं बीबीसी हिंदी मे प्रसारित समाचारों के प्रमाण पर कह पा रहा हूँ । वहाँ पिछले वर्षों में जो कुछ भी लंदन बीबीसी से बस्तर के बारे में प्रसारित हुआ है उसमें आपका संदर्भ अधिक है जैसे आपके अलावा दंतेवाड़ा का कोई भी अन्य हितचिंतक था ही नहीं या है ही नहीं । और हितचिंतक ही क्यों मीडिया कर्मी या समाजसेवी भी । बाकी कलेक्टर, बीड़ीओ, आदिवासी नेता, समाजसेवी जायें भाड़ में । क्या आप बताना चाहेंगे कि यह कैसे संभव होता है कि बीबीसी जैसी संस्था केवल आपको ही कोट करती है ? और आप हर बार बस्तर में व्यवस्था का विरोध करते हैं । हाँ आप कभी भी खुलकर हिंसावादियों, नक्सवादियों और माओवादियों के बारे नहीं बोलते । जो भी बोलते हैं उसका मतलब इतना गैर गंभीर होता जिससे किसी भी नक्सलियों की मान हानि नहीं होती ।
3. आपको ग्रांट घर बैठे कैसे मिलती है ? यह हमें सिखने या जानने की नई बात है । या तो आप बड़े तोप से जुड़े हैं या फिर आप इतना तो रिश्वत तो देते हैं - संबंधित ग्रांट वालों को कि वे फट से राशि घर पहुँचा देते हैं । वह भी ऐसे बस्तर में जहाँ कोई फंड आज तक समय से नहीं पहुँचता और वह भी बिना रिश्ववत के । क्या आपको फंड़ देने वाले इतने कारगर व्यवस्था वाले हैं । यदि आपको विदेशी फंड़ मिलता है तो हमें यह भी पता है कि वह किन किन उद्श्यों के लिए और किन किन हांथों से होकर मिलती है ? कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं ? यदि ऐसा है तो आपने अब तक बस्तर या दंतेवाड़ा के विकास के लिए कितनो युवाओं की संस्थाओं का निर्माण किया है ? कितनो को उनके द्वारा स्वयं प्रोजेक्ट उनके ही इलाके में चलाने की पहल की है ? नहीं ना । ठीक भी है । कोई भी दुकानदार ऐसा नहीं करता । किसी और को .... दू बनाना भाई जी ।
हम आदिवासी हैं । आप हमारे नाम पर ज्यादा राजनीति ना करें । प्रचार का भूखा गांधी जी भी नहीं थे । वे केवल काम पर विश्वास करते थे । यदि आपको चेतना ही फैलानी है तो बिलावजह राजधानी की ओर न लपकें । आपका कर्मक्षेत्र पेपरबाजी नहीं । आप चेतना के ज्ञाता है । दंतेवाड़ा में चेतना फैलायें । पेपर में लिखकर असत्य के लिए समय न गवांये । क्योंकि आप तो गांधी के अनुयायी है । सच के अनुयायी हैं । हाँ इसमें यदि आपकी राजनीति हो तो मुझे कुछ भी नहीं कहना । प्रजातंत्र है । कोई भी कुछ कह सकता है । पर सच्चे गांधीवाद है तो अपनी अहिंसा से दंतेवाड़ा की हिंसा को रोकने का कोई करतब दिखाइये आखिर आपके पास भी तो किसी ना किसी रूप में देश विदेश से दंतेवाड़ा के हम परिवारों के लिए एक बड़ा राशि बार बार हर साल मिलती ही जा रही है ।
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