1/25/2006

प्रेमचंद-कुछ यादें, कुछ छोटी-बडी बातें


प्रेमचंदः कुछ यादें
धनपत राय उर्फ नवाब राय यानी प्रेमचंद नाम है उस अजीम शख्सियत का जिसने कथा-साहित्य के क्षेत्र में हिन्दी तथा उर्दू भाषा-भाषियों के बीच अपनी अमिट छाप छोडी है। तुलसी के बाद यदि भारत में कोई सर्वाधिक लोकप्रिय साहित्यकार हुआ है तो वह निर्विवाद रूप से प्रेमचंद ही हैं जिनके उपन्यासों तथा कहानियों ने हिन्दी और उर्दू भाषा-भाषी राज्यों के घर-घर और जन-जन के बीच तो अपनी पैठ बनायी ही है, अहिन्दी भाषा-भाषी राज्यों और विदेशों में भी जिनकी कालजयी रचनाओं के अनुवादों ने पाठकों का मन मोह लिया है ।
प्रेमचंद की रचनाओं में जो ताजगी और प्रासंगिकता अपने रचना-काल के समय थी वह आज भी कायम है और संभवतः आने वाले समय में भी लम्बे समय तक यथास्थिति बनी रहेगी । इतना जरूर है कि पिछले छःसात दशकों में देश की राजनीतिक और सामाजिक परिदृश्य में बदलाव आ जाने के कारण कुछ रचनाओं को उस समय के परिदृश्य और परिस्थितियो को ध्यान में रखकर पढना होगा ।
प्रेमचंद की दूर-दृष्टि विलक्षण थी । उनका यथार्थवादी साहित्य अपने समय के समाज, घटनाक्रमों तथा परिस्थितियों का आईना तो है ही, सुदूर भविष्य के बारे में भी उनके विचार और दृष्टिकोण सत्य की कसौटी पर शत-प्रतिशत खरे उतर रहे हैं । बीसवीं शताब्दी के आरम्भ से चौंथे दशक तक की तमाम ज्वलंत सामाजिक और राजनीतिक समस्याओं, यथा विदेशी शासकों द्वारा किया जा रहा शोषण और अत्याचार, प्रशासन तंत्र की जडों तक समाया भ्रष्ट्राचार, जमींदारों का जुल्म, दलितों और गरीबों का उत्पीडन, बाल-विवाह, विधवा-विवाह जाति एवं वर्ग भेद, दहेज की कुप्रथा, नारी की व्यथा आदि विविध विषयों पर तो उन्होंने पुरजोर तरीके से कलम चलायी ही है, जनसंख्या विस्फोट और परिवार नियोजन जैसी ज्वलंत समस्या, जिसकी आज से सात-आठ दशक पहले न कहीं चर्चा थी और न कभी किसी बुद्धिजीवी ने इस विषय पर चिन्तन ही किया था, उन्होंने अपने कथा-पात्रों के माध्यम से गंभीर परिणाम की चेतावनी दे डाली थी जो आज सत्य की कसौटी पर कितनी सही साबित हो रही है यह किसी से छिपा नहीं ।
प्रेमचंद के कृतित्त्व पर, उसकी प्रासंगिकता पर अब तक काफी चर्चा हो चुकी है, बहुत कुछ लिखा जा चुका है तथा उसका पर्याप्त मंथन, समीक्षा, आलोचना एवं समालोचना हो चुकी है और अभी आगे भी होती रहेगी । देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों में अब तक चार सौ से अधिक शोधार्थियों द्वारा प्रेमचंद पर शोध-प्रबन्ध प्रस्तुत किये जा चुके हैं जिनपर उन्हें डाक्टरेट की उपाधियां प्रदान की गयी हैं, परन्तु प्रेमचंद की निजी जिन्दगी के अनेकानेक ऐसे अछूते प्रसंग है जिनसे उनकी लेखन के प्रति प्रतिबद्धता, तन्मयता, विनोद-प्रियता, वाक्-पटुता, सरल और निश्छल स्वभाव तथा सीधी-सादी आडम्बर-रहित जिन्दगी पर प्रकाश पडता है । प्रेमचंद परिवार के वरिष्ठतम जीवित सदस्य के रूप में आज मैं यहां ऐसे ही रोचक और प्रेरक प्रसंगों का उल्लेख करना चाहता हूँ जिनके सम्बन्ध में पारिवारिक दायरे के बाहर शायद अभी कम ही लोगों को जानकारी होगी ।
प्रेमचंद बडे ही स्वाभिमानी व्यक्ति थे और सम्मानपूर्ण जिन्दगी जीने तथा बाल-बच्चों की परवरिश के लिए उन्हें सतत संघर्षरत रहना पडा । प्रारंभिक वर्षों में वह सरकारी शिक्षा विभाग में नौकरी करते रहे और बाद को अपना स्वयं का प्रेस तथा प्रकाशन व्यवसाय सँभालते रहे । कुछ वर्षों तक तो उन्हें इस कार्य में अपने अनुज महताब राय का सक्रिय सहयोग प्राप्त रहा, किन्तु पारिवारिक कारणों से बाद में इसमें टूटन आ गयी और सारा भार अकेले उन्हीं के कन्धों पर आ पडा । इस प्रकार उनका दिनभर का समय तो नौकरी करने और बाद को अपने व्यवसाय की देखरेख में गुजर जाता था । अपना समस्त लेखन कार्य वह प्रातःकाल तथा रात्रि के समय लैम्प की रोशनी में किया करते थे, वह भी ऐसे समय में जब न तो आमतौर पर फाउन्टेन-पेन का प्रचलन था और न डॉट-पेन का अस्तित्व । फाउन्टेन-पेन तो उस समय विलासिता की वस्तु समझी जाती थी और उसका उपयोग सम्पन्न लोगों तक ही सीमित था । सामन्यतः लोग लिखने का काम निब वाली कलम से बार-बार स्याही में डुबोकर किया करते थे । प्रेमचंद ने अपने जीवन-काल में जितना कुछ हिन्दी में लिखा है, उससे कहीं अधिक उर्दू में भी लिखा है । दोनों ही भाषाओं में उनकी रचनाएँ अपना मौलिक स्वरूप लिए हुए हैं । उन्होने पर्याप्त अनुवाद-कार्य भी किया है और पत्रकारिता के क्षेत्र में भी उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा है । आंग्ल भाषा के भी वह अच्छे ज्ञाता थे और अँग्रेजी तथा उर्दू कथा साहित्य का उन्होने गहन अध्ययन किया था । चाहे उर्दू से हिन्दी में, हिन्दी से उर्दू में अथवा अँग्रेजी से हिन्दी –उर्दू में अनुवाद हो, अनूदित रचनाओं को भी मौलिकता का जामा पहिनाना उनकी विशेषता थी । यही कारण है कि पं. जवाहर लाल नेहरु ने आचार्य नरेन्द्र देव के माध्यम से प्रेमचंद से विशेष रूप से अनुरोध करके अपनी पुत्री(इंदिरा) के नाम जेल से लिखे गये अपने अति मार्मिक एवं शिक्षाप्रद पत्रों का हिन्दी और उर्दू भाषाओं में अनुवाद उन्हीं से कराया था । नेहरु जी की ओर से प्रस्ताव के बवजूद प्रेमचंद ने इस कार्य के लिए कोई पारिश्रमिक लेना स्वीकार नहीं किया । उक्त पत्रों के संकलन तीनों ही भाषाओं में पुस्तकाकार प्रकाशित हुए हैं । उत्कृष्ट अनुवाद के लिए नेहरु जी ने प्रमचंद के प्रति विशेष रूप से आभार व्यक्त किया था । इस प्रकार देखा जाय तो अपने मात्र 55 वर्ष के जीवन-काल में प्रेमचंद के अत्यन्त संघर्षपूर्ण जीवन व्यतीत करते हुए इतना अधिक लेखन कार्य किया है कि उसकी कल्पना भी सामान्य जन द्वारा नहीं की जा सकती । इसीलिए तो सुप्रसिद्ध रचनाकार एवं प्रेमचंद के यशस्वी पुत्र अमृत राय ने उन्हें “कलम का सिपाही” माना है, हांलाकि बहुचर्चित समीक्षक एवं शोघकर्मी, अलीगढ विश्वविद्यालय के जनाब जैदी साहब ने उन्हें “कलम का सौदागर” तक कह डाला है । उस कलम के फनकार को कलम का जादूगर तो कहा जा सकता है किन्तु उसे कलम का सौदागर कहना उसके साथ सरासर अन्याय होगा क्योंकि सभी जानते हैं कि उस जमाने में उनका बेजोड साहित्य कौडियों के मोल बिकता रहा जो आज आज अनमोल रत्न बन चुका है ।

तन्मयता और प्रतिबद्धता
लेखन कार्य के प्रति प्रेमचंद की तन्मयता और प्रतिबद्धता के सम्बन्ध में एक प्रेरक प्रसंग पाठकों की जानकारी के लिए प्रस्तुत कर रहा हूँ। बात वर्ष 1922-23 की है । मेरे पिता तथा प्रेमचंद के एकमात्र अनुज स्व. महताब राय उन दिनों काशी से प्रकाशित प्रसिद्ध हिन्दी दैनिक “आज” के प्रेस-व्यवस्थापक थे । एक दिन प्रेस से छुट्टी मिलने पर वह अपने अभिन्न मित्र तथा “आज ” परिवार के ही वरिष्ठ सहयोगी पण्डित छबिनाथ पांडेय के साथ उनके घर चले गये । वहाँ खाते-पीते रात के दस बज गये । जब महताब राय उस समय की खस्ताहाल सडक पर साइकिल चलाते लमही ग्राम स्थित अपने घर लौटे तो रात के 11 बज चुके थे । उन्होंने आहिस्ता से दरवाजे की कुण्डी खटखटायी, किन्तु घर में प्रतीक्षारत बैठी मेरी माता जी के दरवाजा खोलने से पहले ही ऊपर की मंजिल में सोये प्रेमचंद की श्वान-निद्रा भंग हो गयी और वह खिडकी से झाँक कर बोले, “बडी देक कर दी छोटक” वह अपने अनुज को छोटक कहकर सम्बोधित करते थे । छोटक बिना कोई उत्तर दिये चुपचाप अन्दर चले गये, क्योंकि घर लौटने में देर तो हो ही गयी थी । जब वह सोकर उठे और लोटे में पानी लेकर शौच के लिए खेत की ओर जाने लगे तो बाहर चबूतरे पर बैठे प्रेमचंद दातुन-कुल्ला कर रहे थे । छोटक को देखकर बोले, “छोटक, रात जब तुम लौटे तो कोई तीन बज रहा होगा । इतनी रात तक कहाँ रूक गये थे ?”
छोटक अपने से उम्र में 14 वर्ष बडे भाई का पिता के समान आदर और सम्मान करते थे।सिर नीचा किये दबी जबान से उत्तर दिया, “नहीं भैय्या, उस समय 11 बजे थे । प्रेस से उठा तो छविनाथ जी अपने साथ लिवाते गये । वहीं खाते-पीते 10 बजे गये थे।”
प्रेमचंद मुस्कराते हुए बोले, “मैंने तो समझा कि सबेरा होने को है । सो तभी से बैठा लिख रहा था । समय का अन्दाज ही नहीं रहा ।”
भैया की बातें सुनकर छोटक न केवल आश्चर्यचकित रह गये बल्कि मन ही मन अपराध-बोध का अनुभव करते हुए सोचने लगे कि उनके कारण नाहक भैया की नींद उचट गयी और वह सारी रात सो नहीं सके । परन्तु प्रेमचंद के चेहरे पर उस समय भी थकान का नामो-निशान न था और वह तरो-ताजा दिख रहे थे ।
8 अक्टूबर 1959 को प्रेमचंद की 23 वीं पुण्यतिथि के अवसर पर जब देश के प्रथम राष्ट्रपति देशरत्न डॉ.राजेन्द्र प्रसाद लमही ग्राम में प्रेमचंद स्मारक का शिलान्यास करने आये हुए थे, उस समय अपने स्वागत-भाषण में भी महताब राय ने उक्त घटना का उल्लेख अश्रुपुरित नेत्रों से किया था । ऐसी थी प्रेमचंद की तन्मयता कि लिखते समय उन्हें समय की सुधि-बुधि नहीं रहती थी । शायद उनकी विलक्षण सृजन-क्षमता का राज भी यही था । रात के समय उनके कमरे में मिट्टी के तेल से जलने वाला लैम्प कभी बुझाया नहीं जाता था । लेटते समय वह लैम्प की बत्ती थोडी नीची कर दिया करते थे ताकि यदि रात में कोई नई थीम या विचार उनके दिमाग में आये तो वह तुरन्त लैम्प की बत्ती उसका कर अपने विचारों को लिपिबद्ध कर सकें ।
एक बार की बात है कि प्रेमचंद अपने मकान के सामने पत्थर के चबुतरे पर बैठे नाई से हजामत बनवा रहे थे । दाढी बनाने के बाद नाई ने अपनी चमडे की पिटारी से नहरनी निकाली और प्रेमचंद के हाथ की उँगलियों के नाखून काटने लगा । हर उँगली का नाखून वह पाँच-छः प्रयास में छोटे-छोटे टुकडों में कुतर-कुतर कर निकाल रहा था । प्रेमचंद से देखा न गया । मजाकिया लहजे में बोले, “क्यों जी नियामत(गाँव का हज्जाम), एक लखनऊ के हज्जाम होते हैं जो उँगली के एक सिरे पर नहरनी लगाते हैं और एक ही बार में आहिस्ता से दूज के चाँद जैसा नाखून का खूबसूरत टुकडा तराश कर रख देते हैं, एक तुम हो कि एक-एक नाखून पाँच-छः हुचक्कों में कुतर रहे हो ।” इतना कह कर वह ठहाका लगा कर हँस पडे । नाई को बेहद शर्मिन्दगी महसूस हुई ।
एक समय था जब प्रेमचंद की विशिष्ट पहचान उनके सेब जैसी गुलाबी गालों, लम्बी-घनी काली मूँछों और स्वच्छंद अट्टहास से हुआ करती थी । वह कोई चुटीली बात कहकर इतने जोर का ठहाका लगाते थे कि कमरा हिल उठता था और घर के बाहर तक उनका मुक्त हास सुनायी पडता था । कालान्तर में धीरे-धीरे उदर रोग ने उनके चेहरे की कान्ति फीकी कर दी और बडी-बडी गुच्छेदार मूँछों के स्थान पर वह होठों के बराबर छोटी मूँछें रखने लगे थे ।

तोहसे नाहीं देख जात हौ का ?
एक दिन प्रेमचंद के मकान से सटे पक्के कुएँ पर अन्तू महतो का पुरवट चल रहा था । दोपहर के समय प्रेमचंद नहाने के लिए वहाँ पहुँचे । अन्तू अपनी खरी-खोटी बातों और कडक-मिजाजी के लिए कुख्यात था । यद्यपि गाँव के रिश्ते के नाते वह प्रेमचंद को चच्चा कहकर सम्बोधित करता था और उम्र में भी उनसे छोटा ही था, फिर भी अपने तीखे स्वभाव के अनुरुप उसने प्रेमचंद से एक बतुका प्रश्न दाग ही दिया, “कहो चच्चा, आजकल तूँ कुछ करत-धरत नाहीं हौ अ, देखीला दिनवा भर घर ही में घुसुरल रहै ल--। खेतो-बारी थोडिकै है और उहो अधिया पर उठल हौ । आखिर तोहार खरचा-खोराकी कैसे चलैला ।” प्रेमचंद पहले तो अन्तू के प्रश्न पर खूब हँसे और फिर नहले पर दहला रखते हुए बोले, “अरे अन्तू तू काहे के पेरशान हौअ...। आजतक कभों तोहसे त कुछ माँगे नाहीं गइली । केहू क .... चैन से घरे बइठलो तोहसे नाहीं देख जात हौ का ।” इस करारे उत्तर पर अन्तु महतो अपना सा मुँह लेकर रह गये । अपनी मोटी कृषक बुद्धि के कारण उन्हें क्या पता था कि एक बुद्धिजीवी घर में बैठकर भी अपनी सृजनशीलता और बुद्धिबल से कलम घिसकर कमायी कर सकता है । वह तो काम धन्धे का मतलब किसी नौकरी-चाकरी या व्यवसाय को ही मानता था ।
प्रेमचंद के तमाचे की याद
प्रेमचंद का मकान गाँव के बिल्कुल उत्तरी छोर पर स्थित था । उसके बाद आमों का बाग, बाँसों के झुरमुट और फिर खेत-खलिहान थे । एक दिन की बात है कि उनके घर के उत्तर स्थित बाग में गाँव के कुछ लडकों के साथ मैं भी आम के पेड पर ढेलेबाजी कर रहा था । हम लोगों का लक्ष्य था आम की उँची टहनी पर लटक रहा चार पके आमों का गुच्छा । काफी प्रयास के बाद भी हम लोगों को आम का वह गुच्छा गिराने में कामयाबी नहीं मिली । खूब शोर-शराबा मचा रखा था हम लोगों ने । प्रेमचंद अपने कमरे में बैठे कुछ लिख रहे थे । शायद हम लोगों के हल्ले-गुल्ले से उनकी एकाग्रता भंग हो रही थी । वह कमरे से बाहर निकले और हम लोगों की कल्पना के विपरीत डाँटने के बजाय मुस्कराते हुए बोले, “तुम लोग कब से ढेलेबाजी कर रहे हो और आम का एक गुच्छा भी मार कर नहीं गिरा सके । लाओं, एक ढेला मुझे दो, मैं देखता हूँ ।” उन्होंने एक ढेला लेकर पके आम के गुच्छे को लक्ष्य कर ऐसा निशाना लगाया कि एक ही बार में चारों पके आम जमीन पर गिर कर बिखर गये । उन्होंने हम बच्चों को आम बाँटते हुए कहा, “अच्छा, अब यहाँ से रफ्फूचक्कर हो जाओ । मुझे फिर शोर नहीं सुनायी पडना चाहिए ।”हम लोग आम चूसते हुए चुपचाप वहाँ से खिसक गये । उसके बाद कई दिनों तक बच्चों की वहाँ आने की हिम्मत नहीं हुई ।
15-20 दिनों बाद अचानक फिर कुछ बच्चे खेलते हुए उसी बाग में आ पहुँचे । उन्हें देखकर मैं भी अपने बडे भाई रामकुमार राय के साथ वहाँ जा पहुँचा । प्रेमचंद के कमरे में खिडकी बंद थी । हम लोगों ने समझा कि वह कमरे में नहीं हैं । फिर आम पेड पर ढेलेबाजी शुरू कर दी । इसी बीच संयोगवश लालू (रामचन्दर लाल) नामक एक लडके के हाथ से छूटा एक नुकीला ढेला बहक कर मेरे बडे भाई की कनपटी के ऊपर आ लगा और खुन बहने लगा । वह जोर-जोर से रोने लगे । आवाज सुनकर प्रेमचंद दरवाजा खोलकर गुस्से से तमतमाये कमरे से बाहर निकले और लालू, जिसके हाथ से छूटा ढेला भाई की कनपटी पर आ लगा था, का कान ऐंठकर ऐसा तमाचा रसीद किया कि उसकी सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई । भन्नाता सिर लिए वह भाग खडा हुआ और कई महीने तक वह प्रेमचंद के घर के करीब नहीं दिखलाई नहीं पडा । बच्चों के खातिर खुद बच्चा बनकर एक दिन पेड पर ढेले का अचूक निशाना साधने और हम बच्चों को पके आमों का तोहफा देने वाले प्रेमचंद के क्रोध का पारा उस दिन अपने परिवार के एक बच्चे के सिर से बहते खून को देख कर इस चढ गया कि वह आपे से बाहर हो गया और ढेला चलाने वाले बच्चे को ऐसा करारा तमाचा जड दिया कि उसे नानी याद आ गई । उस समय का लालू नामक वह लडका कब का सरकारी सेवा से अवकाश ग्रहण कर अब बुढापे के दिन गुजार रहा है । बातों-बातों में जब कभी उसे प्रेमचंद द्वारा जमाये गये तमाचे की याद दिलायी जाती है तो आज भी उसे अपने गाल पर उस तमाचे की गरमाहट महसूस होने लगती है । फिर भी उसे उस बात का फख्र है कि बचपन में वह प्रेमचंद के जैसे महापुरूष के हाथों एक तमाचा खा चुका है, भले ही उसका अपराध अनजाने में किया गया रहा हो ।

खेलों का राजाः गुल्ली डण्डा
प्रेमचंद को ढेले से अचूक निशाना लगाने के साथ ही गाँवों के लोकप्रिय खेल गुल्ली-डंडा में भी महारत हासिल थी । प्रायः फुर्सत के समय वह गाँव के हम-उम्र लोगों के साथ इस खेल का लुत्फ उठाया करते थे । इसकी झलक “गुल्ली-डंडा” शीर्षक प्रसिद्ध कहानी में भी देखने को मिलती है । आइये, जरा आनंद तो लें उनके इस पंसदीदा खेल का स्वयं उन्हीं के शब्दों में-
“हमारे अंग्रेजीदाँ दोस्त माने या न माने, मैं तो यही कहूँगा कि गुल्ली-डंडा सब खेलों का राजा है । अब भी कभी लडकों को गुल्ली-डंडा खेलते देखता हूँ तो जी लोट-पोट हो जाता है कि उनके साथ जाकर खेलने लगूँ । न लॉन की जरूरत, न कोर्ट की, मजे में किसी पेड से एक टहनी काट ली, गुल्ली बना ली और दो आदमी भी आ गये तो खेल शुरू हो गया ।....यह गुल्ली-डंडा है कि बिना हर्र-फिटकिरी के चोखा रंग देता है।....मुझे गुल्ली ही सब खेलों से अच्छी लगती है और बचपन की मीठी स्मृतियों में गल्ली ही सब खेलों से मीठी है । वह प्रातःकाल घर से निकल जाना, वहाँ पेड पर चढकर टहनियाँ काटना और गुल्ली-डंडा बनाना, वह उत्साह, वह लगन, वह खिलाडियों का जमघट, वह पदना और पदाना, वह लडाई-झगडे, वह सरल स्वभाव जिसमें छूत-अछूत, अमीर-गरीब का बिल्कुल भेद न था, जिसमें अमीराना चोंचलों के प्रदर्शन की, अभिमान की गुंजाइश ही न थी । घर वाले बिगड रहे हैं, पिता जी चौके पर बैठे वेग से रोटियों पर अपना क्रोध उतार रहे हैं, अम्मा की दौड केवल द्वार तक है लेकिन उनकी विचारधारा में मेरा अंधरकारमय भविष्य टूटी हुई नौका की तरह है और मैं हूँ कि पदाने में मस्त हूँ । न नहाने की सुधि है न खाने की । गुल्ली है जरा सी, पर उसमें दुनिया की मिठाइयों की मिठास तमाशों का आनन्द भरा है ।”
प्रेमचंद की निजी जिन्दगी से जुडे ऐसे ही छोटे-मोटे प्रसंगों की याद जेहन में कौधा करती है जिन्हें फिर कभी अवसर मिलने पर लिखूँगा ।
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(प्रेमचंद परिवार के जीवित सदस्यों में सबसे वरिष्ठ कृष्ण कुमार राय का मार्मिक संस्मरण । हम उनकी रचनात्मकता पर कृतकृत्य हैं । उनकी प्रकाशित कृतियों में बीसवीं सदी के सर्वश्रेष्ठ कथाकार प्रेमचंद, गल्प समुच्चय(अंबिका प्रसाद दिव्य पुरस्कार) तरंगिणी व देवी वारांगणा महत्वपूर्ण हैं । 81 वर्ष की अवस्था में भी लगातार सृजनरत हैं । संपर्क है उनका- कृष्ण कुंज, एस.2-51ए, अर्दली बाजार, अधिकारी हॉस्टल के समीप, वाराणसी, (उ.प्र.)221002 -संपादक )

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