11/02/2007

छत्तीसगढ़ राज्य गठन दिवस पर विशेष


लगाएं महतारी के माथे पर सौभाग्य का टीका

सपनों को सच करने की जिम्मेदारी उठाएं राजनीतिक दल
-संजय द्विवेदी
एक नवंबर 2000 को जब छत्तीसगढ़वासी अपना भूगोल और इतिहास दोनों रच रहे थे, तो वह दिन सपनों के सच में बदल जाने का दिन था। यह दिन ढेर सारी खुशियां और नियामतें लेकर आया था, जिसके पीछे यह भावना भी थी कि अब सालों साल से दमित भावनाएं, आकांक्षाएं विकास के सपने, सब कुछ पूरे हो जाएंगे। राज्य गठन के सात साल पूरे होने के बाद अब समय है कि हम इस यात्रा की पड़ताल करें और यह विचार करें कि ऐसे कौन से कारक और कारण हैं जिसके चलते राज्य का गठन अब वह उम्मीदें जगाता नहीं दिखता, जो हमने सोच रखा था।

कोई भी सपना एक दिन में पूरा नहीं होता। जादू की झप्पी से सदियों के दर्द फना नहीं होते। इसके लिए लंबी साधना, सही दिशा में लिए हुए संकल्प, आम नागरिक की भागीदारी जरूरी होती है। यह राज्य बना है, तो इसके पीछे एक लंबा संघर्ष, भले ही वह एक विचार के ही रूप में रहा हो, हमें देखने को मिलता है। जरूरी नहीं कि हर लड़ाइयां सड़कों पर ही लड़ी जाएं। छत्तीसगढ़ का विचार इसीलिए यहां के चिंतकों, विचारकों, बुद्धिजीवियों, समाजसेवियों और कुछ राजनेताओं के मन में पलता और बढ़ता रहा। अपने शाश्वत भूगोल के साथ छत्तीसगढ सन 2000 में नहीं पैदा हुआ। एक सांस्कृतिक इकाई के रूप में पूरे देश में इसकी आवाज सुनी और मानी जाती रही। संयुक्त मध्यप्रदेश में भी छत्तीसगढ़ एक अलग आवाज के रूप में पहचाना जाता रहा। यहां के दिग्गज राजनेताओं पं. सुंदरलाल शर्मा, पं. रविशंकर शुक्ल, बिसाहूदास महंत, खूबचंद बघेल, चंदूलाल चंद्राकर, लरंग साय आदि की एक विशिष्ट पहचान तब भी थी और आज भी है। उनकी स्मृति, उनका संघर्ष और उनकी जिजीविषा हौसला देती थी। इस हौसले के सहारे ही छत्तीसगढ़ ने एक लंबा समय उन सपनों के साथ काट लिया, जो सपने 2000 में राज्य गठन के रूप में पूरे हुए। अब जबकि सात साल पूरे कर यह राज्य प्रगति के कई सोपान तय कर चुका है, तब हमें यह विमर्श करने की जरूरत है कि क्या हम उन सपनों की तरफ बढ़ पाए हैं, जिसके लिए इस राज्य का गठन हुआ था? मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह जब यह कहते हैं-'पलायन को रोकना उनकी सबसे बड़ी इच्छा है', तो वे इस क्षेत्र के सबसे बड़े दर्द का भी बयान करते हैं। इसी के साथ उनकी दूसरी प्राथमिकता नक्सलवाद का उन्मूलन है। शायद पलायन और नक्सलवाद दो ऐसी विकराल समस्याएं हैं, जिन्हें समाप्त किए बिना इस राज्य की राजनीति और समाज को कुछ भी हासिल नहीं होगा।

विकास के मोर्चे पर अनेक दिशाओं में सार्थक प्रयास प्रारंभ हुए हैं। बावजूद इसके कहीं न कहीं कोई कमी है, जो फांस जैसी चुभती है। जिसका उल्लेख चतुर सुजान लोग प्राय: इसलिए नहीं करते, क्योंकि वे राजसत्ता के कोपभाजन नहीं होना चाहते। प्रशासन की संवेदनशीलता, राजनीतिज्ञों की नैतिकता, राज्य के आम लोगों की विकास में हिस्सेदारी, उनके जीवन से जुड़े प्रश्नों के त्वरित हल कुछ ऐसे विषय हैं, जिन पर आज भी सवालिया निशान हैं। अच्छी नीयत और उत्साह से काम करके कोई भी समाज और क्षेत्र दरिद्रता में रहकर भी बड़ी लड़ाइयां जीत सकता है। नीयत का यह सवाल हमें आज भी कई तरह से घेरता और परेशान करता है।

नया राज्य लगभग हर संदर्भ पर बातचीत करता नजर आता है। अचानक राजधानी में गतिविधियों की भरमार हो गई है। समाज जीवन के हर क्षेत्र पर विमर्श के मंच लगे हैं, जहां अखंड और निष्कर्षहीन चर्चाएं हो रही हैं। बावजूद इसके नए राज्य में आम जनता का एजेंडा क्या हो? उसके सपनों का क्या हो? इस पर बातचीत नहीं दिखती। चीजें या तो बिलकुल लोटपोट की शैली में हैं, या फिर सिर्फ आलोचना से बढ़कर षडयंत्र की शक्ल में। जाहिर है ऐसे विमर्श जोड़ते कम और तोड़ते ज्यादा हैं। बातचीत यह भी होनी चाहिए कि वे कौन से लोग हैं, जिन्होंने एक तेजी से प्रगति करते राज्य के रास्ते में रोड़े अटका रखे हैं। फाइलें क्यों इतना धीरे मूव करती हैं, फैसले क्यों घंटे और दिनों में नहीं, सालों में होते हैं? क्या हमारे अपने राज्य के विकास पर हमारी ही बुरी नजर है? या हम किसी भागीरथ के इंतजार में बैठे हुए हैं। नौकरशाही ने अपनी परंपरागत शैली में जिस तरह सत्ता की शक्तियों का नियमन और अनुकूलन किया है, वह बात भी आंखों में चुभती है। राजनीति में आने वालों के सामने कई तरह के प्रश्न होते हैं और उनकी अपनी प्राथमिकताएं भी होती हैं। उनकी पहली प्राथमिकता तो यही होती है कि वे येन-केन-प्रकारेण सत्ता में बने रहें और जो सत्ता से बाहर हैं, वे सत्ता की तरफ लालची निगाहों से देखते रहें। राजनेताओं की यही सीमाएं उन्हें 'वामन' से 'विराट' बनने से रोकती हैं। दूसरा संकट यह है कि राजनीतिक दलों में जिस तरह से प्रशिक्षण और वैचारिक चिंतन घटा है, उसमें अप्रशिक्षित राजनीतिक नेतृत्व सत्ता में अवसर तो पा जाता है पर चालाक नौकरशाही उसे अपने हिसाब से अनुकूलित कर लेती है। शायद इसीलिए आज भी हम अपने लोगों को यह भरोसा नहीं दिला पाए हैं कि नए राज्य का यह राजनैतिक, प्रशासनिक तंत्र आपके और हमारे लिए संवेदनशील है। हमारे पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी कहा करते थे-'यहां अमीर धरती पर गरीब लोग रहते हैं', यह कड़वा सच राज्य बनने के बाद भी कहीं से टूटता नहीं दिखता। दुनिया जहान में आज भी हमारे राज्य को लेकर तमाम नकारात्मक टिप्पणियां की जाती हैं। अगर ऐसा हो रहा है तो उन परंपरागत छवियों को बदलने के लिए हमारी कोशिशें क्या हैं? शोषण और अपमान का शिकार होकर अपना पसीना बहाने वाले श्रमिकों का क्षेत्र हम कब तक बने रहेंगे। क्या यही चेहरा लेकर हम लोगों में भरोसा जगाएंगे? राज्य की बेहतरी की संकल्पना, विकास के संकल्प और प्राथमिकताएं सही नीयत और बुलंद इरादों से ही तय हो सकती हैं।

भ्रष्टाचार के खिलाफ हमारा कोई आक्रामक संकल्प सरकार या समाज की तरफ से इन सात सालों में कभी नजर नहीं आया। आरोप, आरोपों की जांच और आरोपी पाए जाने पर किसी प्रकार की कार्रवाई न होना, ऐसे एक नहीं सैकड़ों उदाहरण हमारे-आपके बीच खड़े हैं। सरकारी स्तर पर नित-नई योजनाएं और आम आदमी के हित में बजट के आबंटन के बावजूद प्रशासनिक क्षेत्र में जो कसावट और संवेदना नजर आनी चाहिए, वह नहीं दिखती। सात सालों के सफर का पाठ यही है कि हम गलतियों से सीखें और फिर वह गलतियां न दुहराएं। कम समय में ज्यादा हासिल करने की आकांक्षा अगर व्यक्तिगत है तो वह अपराधिक है, किंतु यह भावना अगर सामूहिक और राज्य के हित में है, तो यह पूज्य है। हमें यह सोचकर खुश होने का अधिकार नहीं हैं कि हम झारखंड से आगे हैं। झारखंड को जिस तरह की राजनैतिक स्थितियां और जैसा नेतृत्व मिला है, उसमें ऐसे हालात बहुत स्वाभाविक हैं। छत्तीसगढ़ की कांग्रेस और भाजपा दोनों सरकारों को पूर्ण बहुमत और योग्य मुख्यमंत्री मिले, जिसके नाते इसकी राजनीतिक स्थिरता कभी संदिग्ध नहीं रही। ऐसे में दोनों राजनैतिक दल अपनी जिम्मेदारियों से भाग नहीं सकते। राज्य में व्यापक प्रभाव रखने वाले दोनों राजनैतिक दलों और उनके नेताओं को जनता की अदालत में इस राज्य के विकास के मार्ग में आ रहे अवरोधों पर सफाई देनी ही होगी। नक्सलवाद जैसे प्रश्न पर भी जब दो प्रमुख राजनैतिक दल एक स्वर में बात नहीं करते, तो यह दर्द और भी बढ़ जाता है। छत्तीसगढ़ के लोगों के सपनों को अमली जामा पहनाना सही अर्थों में राजनैतिक नेतृत्व की ही जिम्मेदारी है। राज्य के दो करोड़ दस लाख लोग अपना सर्वांगीण विकास करते हुए देश के लिए एक श्रेष्ठ मानव संसाधन के रूप में सामने आएं तो यह बात हमारे समाज के लिए महत्वपूर्ण होगी। छत्तीसगढ़ के दूर-दराज गांवों, वनांचलों में स्वास्थ्य शिक्षा और पेयजल का आज भी गंभीर संकट मौजूद है। शहरों को चमकाते हुए हमें अपने इन इलाकों के भी विकास को दृष्टिगत रखना होगा। मध्यप्रदेश में रहते वक्त हमारे 'नायक' मध्यभारत के मंत्रियों और मध्यप्रदेश के सरकार को सारे अपयश देकर अपना पल्ला झाड़ लेते थे, लेकिन आज जब हम अपना छत्तीसगढ़ बना चुके हैं, तो हमें किसी से शिकायत करने की कोई आजादी नहीं है। आज की इस घड़ी में हमें अपने राज्य को ज्यादा संवेदनशील, ज्यादा बेहतर, ज्यादा मानवीय और ज्यादा सरोकारी बनाने के लिए संकल्प लेने होंगे और इन संकल्पों को मूर्त रूप देने के लिए कठिन श्रम भी करना होगा। क्या आप और हम इसके लिए दिल से तैयार हैं? यदि तैयार हैं तो यह बात छत्तीसगढ़ महतारी के माथे पर सौभाग्य का टीका साबित होगी।

(लेखक हरिभूमि रायपुर के स्थानीय संपादक हैं। )

1 टिप्पणी:

Sanjeet Tripathi ने कहा…

बहुत सही!!