भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को भारत के सबसे पुराने राजनैतिक संगठन के रूप में जाना जाता है। 1885 ई0 में गठित यह राजनैतिक दल अपनी यात्रा के 122 वर्ष पूरे कर चुका है। जहाँ इस विशाल एवं सबसे पुरातन संगठन पर अपने गठन के समय भारत को अंग्रेंजों से मुक्त कराने जैसी बड़ी चुनौती थी, वहीं स्वतंत्रता के पश्चात अर्थात् 15 अगस्त 1947 के बाद इसी कांग्रेस पर स्वतंत्र भारत की स्वतंत्र लोकतांत्रिक सरकार संचालित करने की भी ंजिम्मेदारी आ पड़ी। कांग्रेस ने अपने शुरुआती दौर में जहाँ एनी बेसन्ट, सुरेन्द्रनाथ बैनर्जी, सर ह्यूम तथा महात्मा गांधी जैसे नेताओं का संरक्षण व नेतृत्व प्राप्त किया, वहीं स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी यही कांग्रेस पंडित जवाहरलाल नेहरु, सरदार वल्लभ भाई पटेल, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, ऱफी अहमद क़िदवई, कैप्टन शाहनवाज़ ख़ान, लाल बहादुर शास्त्री व इन्दिरा गांधी जैसे महान नेताओं का संरक्षण पाती रही है। सम्पूर्ण भारत में अपनी सफलता का परचम लहराने वाली तथा विविधता में एकता वाले इस बहुरंगी राष्ट्र में अपनी सर्वधर्म सम्भाव की नीतियों को मनवाने वाली कांग्रेस पार्टी स्वतंत्रता से लेकर अब तक अधिकांश समय केंद्र में अपना शासन चला चुकी है। एक समय ऐसा भी था जबकि भारत के अधिकांश राज्य भी प्राय: कांग्रेस शासित राज्य ही हुआ करते थे।
परन्तु आज कांग्रेस की स्थिति अनेकों उतार चढ़ाव आने के बाद पहले से कांफी बदल चुकी है। आज कांग्रेस पार्टी स्वर्गीय राजीव गांधी की विधवा सोनिया गांधी के नेतृत्व में विगत् दस वर्षों से संचालित हो रही है। सोनिया गांधी के नेतृत्व का परिणाम ही कहा जाएगा कि आज कांग्रेस पार्टी केंद्र में सत्तारूढ़ यू पी ए सरकार का सबसे बड़ा घटक दल है तथा कई राज्यों में भी कांग्रेस सत्तासीन है। परन्तु यदि हम सोनिया गांधी से पूर्व तथा राजीव गांधी की हत्या के पश्चात अर्थात् 1991 से लेकर 1998 के मध्य के कांग्रेस दौर को देखें तो हमें कांग्रेस की स्थिति वर्तमान की स्थिति से कहीं बद्तर दिखाई देगी। यह वह दौर था जबकि नेहरु गांधी परिवार से कांग्रेस की मशाल बुलंद करने वाला कोई व्यक्ति नज़र नहीं आ रहा था। सक्रिय राजनीति से सन्यास ले चुके नरसिम्हा राव को राजीव गांधी की हत्या के पश्चात पुन: राजनीति में वापस बुलाकर उन्हें प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलाई गई थी। यह वही नरसिम्हा राव की पांच वर्ष का कार्यकाल पूरा करने वाली सरकार थी जिसपर झारखंड मुक्ति मोर्चा के 4 सांसदों को धन देकर ख़रीदने तथा उनसे समर्थन लेकर 5 वर्ष तक राव सरकार चलाने का आरोप था। कहा जा सकता है कि तभी से कांग्रेस पार्टी पर ग्रहण लगना शुरु हो गया था।
उधर 1991 से 1998 तक एक ओर तो कांग्रेस नेतृत्व के लिए दिग्गज कांग्रेसी नेताओं में घमासान का दौर चल रहा था तो दूसरी ओर कांग्रेस की वास्तविक नब्ज़ को समझने वाला तथा कांग्रेस व नेहरु गांधी परिवार के प्रति पूरी वंफादारी रखने वाला कांग्रेसजनों का एक बहुत बड़ा वर्ग ऐसा भी था जो राजीव गांधी की विधवा सोनिया गांधी को 7 वर्षों तक इसी बात के लिए मनाता रहा कि आख़िर किसी प्रकार सोनिया स्वयं कांग्रेस को नेतृत्व प्रदान करें तथा टुकड़े-टुकड़े होती जा रही पार्टी को पुन: संगठित एवं मज़बूत करें। 14 मार्च 1998 को सोनिया समर्थकों व कांग्रेस के शुभचिंतकों की मुराद उस समय पूरी हुई जबकि सोनिया ने सीताराम केसरी को हटाकर स्वयं कांग्रेस की बागडोर संभाल ली। यह वह समय था जबकि पार्टी को कमज़ोर देखकर सत्ता के बिना अपनी सांस न ले पाने वाले तमाम नेता कांग्रेस पार्टी छोड़कर सत्ता की तलाश में अन्य राजनैतिक दलों में जाकर पनाह ले चुके थे। उस दौर में तथा उसके कुछ समय बाद तक भी कांग्रेस से ऐसे नेताओं ने अपना नाता तोड़ा जिनके बारे में पार्टी छोड़ने की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। जहाज के डूबते समय चूहों के कूद भागने की कहावत उस दौरान चरितार्थ हो रही थी। उधर सोनिया गांधी के अध्यक्ष बनने के पश्चात कुछ ऐसे पार्टी नेताओं को भी तकलीफ़ महसूस हुई जोकि स्वयं को कांग्रेस की ओर से प्रधानमंत्री पद का दावेदार समझ रहे थे। ऐसे भी कई लोग पार्टी छोड़कर चले गए। यहाँ तक कि ऐसे लोगों ने सोनिया गांधी पर विदेशी मूल की महिला होने जैसा ओछा हमला भी कर डाला। इसे समय की महिमा ही कहा जाएगा कि सोनिया को विदेश मूल का कहने वाले वही लोग आज फिर परिस्थितिवश सोनिया के नेतृत्व में बने संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन में घटक दल की भूमिका निभा रहे हैं तथा सत्ता में साझीदार भी बने बैठे हैं।
आज सोनिया गांधी की गिनती विश्व की चंद प्रमुख शक्तिशाली महिलाओं में की जा रही है। एक ओर तो सोनिया गांधी पर उनके विरोधी राजनीतिज्ञों द्वारा विदेशी मूल का होने, ईसाई होने जैसे तीसरे दर्जे के आक्रमण किए जा रहे हैं तो दूसरी ओर सोनिया गांधी त्याग, तपस्या और बलिदान की मूर्ति के रूप में स्वयं को स्थापित करती हुई आम लोगों के दिलों में अपनी जगह बनाती जा रही हैं। सच्चाई तो यह है कि अप्रत्याशित रूप से सोनिया गांधी नेहरु परिवार के उस अभूतपूर्व लोक आकर्षण की वारिस भी बन चुकी हैं, जिससे कि लाखों लोगों की भीड़ इस परिवार के सदस्य को देखने व सुनने के लिए खिंची चली आती है। गत कई वर्षों से कांग्रेस से नेताओं के पलायन का जो सिलसिला शुरु हुआ था, वह भी लगभग थम सा गया है। पार्टी पहले की तुलना में अब अधिक संगठित व मज़बूत होने लगी है। इंदिरा गांधी की तर्ज़ पर फैसला लेते हुए सोनिया ने भी अपने सांसद पुत्र राहुल गांधी को अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी का महासचिव बनाकर एक बार फिर भारत के कांग्रेसजनों को यह संदेश दे दिया है कि नेहरु गांधी परिवार में कांग्रेस की पताका को बुलंद करने वाला वारिस अब सामने आ चुका है। परन्तु इन सब बातों के बावजूद कांग्रेस उत्तर प्रदेश व बिहार जैसे राज्यों में अपना जनाधार वापस नहीं ला पा रही है। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ व गुजरात जैसे राज्य इसकी पकड़ से बाहर हैं। राजस्थान व उड़ीसा में भी कांग्रेस सत्ता में नहीं है। महाराष्ट्र में गठबंधन सरकार है। बंगाल तो कई दशकों से कांग्रेस के हाथों से निकला हुआ है। हां हरियाणा व दिल्ली जैसे छोटे राज्यों पर ज़रूर कांग्रेस की हुकूमत है। आख़िर इसकी वजह क्या हो सकती है कि देश को स्वतंत्रता दिलाने का श्रेय लेने वाली कांग्रेस पार्टी तथा विशेषकर इस पार्टी को नेतृत्व प्रदान करने वाला नेहरु गांधी परिवार आज जनता को अपनी बात आख़िर क्यों नहीं समझा पा रहा है। यह विषय अत्यन्त गंभीर व चिंतनीय विषय है तथा प्रत्येक भारतवासी को इसे समझने की बहुत सख्त ज़रूरत है।
दरअसल कांग्रेस देश का एक ऐसा राजनैतिक दल है जोकि कश्मीर से कन्याकुमारी तक एक भारत, एक भारतवासी, एक राष्ट्र, एक राष्ट्रीयता तथा एक पहचान की बात करता है। कांग्रेस पार्टी सर्वधर्म सम्भाव, अनेकता में एकता तथा साम्प्रदायिक सौहार्द्र की राष्ट्रव्यापी धारणा रखती है। यदि व्यापक राष्ट्रीय हित की नज़रों से देखा जाए तो आज यह सोच तथा ऐसी नीति केवल कांग्रेस ही नहीं बल्कि सभी राजनैतिक दलों की होनी चाहिए। परन्तु बड़े दु:ख की बात है कि धरातलीय स्थिति ऐसी नहीं है। देश के अधिकांश राजनैतिक दल इस समय या तो धर्म व सम्प्रदाय की राजनीति कर रहे हैं या फिर क्षेत्र, जाति, भाषा या वर्ग की राजनीति कर किसी न किसी आधार पर भारतवासियों में दरार डालने व मत आधारित ध्रुवीकरण करने की कोशिश कर रहे हैं। इस प्रकार के ओछे हथकंडे अपनाने वाले क्षेत्रीय नेता दुर्भाग्यवश शक्तिशाली भी होते जा रहे हैं। वे अपने क्षेत्र के मतदाताओं को क्षेत्रीयता का पाठ पढ़ाते हैं, राष्ट्रीयता का नहीं। ज़ाहिर है चूँकि कांग्रेस पार्टी ऐसे सीमित, घटिया व ओछे हथकंडे नहीं अपनाती इसलिए उसे इसका नुक़सान भी उठाना पड़ रहा है। देश में दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही मँहगाई भी कांग्रेस को बदनाम करने में अपनी अहम भूमिका निभा रही है। ऐसे में आम आदमी के हितों की बात करने वाली कांग्रेस पार्टी से मंहगाई की मार झेल रहा आम आदमी अब कतराता नज़र आ रहा है।
बहरहाल कांग्रेस गांधीवादी नीतियों व विचारधाराओं पर चलने वाला एक विशाल एवं पुरातन राजनैतिक संगठन है। अपने देश भारत में भले ही संकुचित सोच रखने वाली राजनीति के पैर पसारने की वजह से इसका आधार कम क्यों न होने लगा हो परन्तु इस सच्चाई से भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि कांग्रेस आज जिस स्थिति में भी खड़ी दिखाई दे रही है, उसका भी पूरा श्रेय सोनिया गांधी के नेतृत्व को ही जाता है। भारत के प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने से इन्कार कर राजनैतिक त्याग का जो उदाहरण सोनिया गांधी ने पेश की है, उसकी दूसरी मिसाल पूरी दुनिया में कहीं देखने को नहीं मिलती। आशा की जा सकती है कि यदि बढ़ती हुई मँहगाई पर पार्टी नियंत्रण रख पाने में सफल रही तो सोनिया गांधी के नेतृत्व में गांधीवादी नीतियों का अनुसरण करते हुए सम्भवत: कांग्रेस पार्टी एक बार फिर अपने उज्ज्वल भविष्य की ओर बढ़ सकेगी।
0तनवीर जाफ़री
1 टिप्पणी:
बहुत अच्छा लगा ,आप बिल्कुल सही हैं,मेरी दुआ है की आने वाले दिनों में कांग्रेस की सरकार बने और राहुल गांधी देश के प्रधान मंत्री बनें
एक टिप्पणी भेजें