11/28/2008

मुंबई : दो कविताएँ

देखते ही देखते

पानी के रास्ते से छिपते-छिपाते आया हुआ आंतक
मिट जायेगा बुलबुले की तरह
बारुदी गंध की बंधक हवा को
चीरते हुए लौट आयेंगे पंछी ठीहे में
खैनी की तरह दबा देगा सारे ख़ौफ़
वह पानपुरी वाला
गलियों में बेहिचक गेंद उछालेंगे छोटे-छोटे सचिन
ख़ुशनुमा तासीर वाली मुंबई
भूला जायेगी सबकुछ एक दुःस्वप्न की तरह
सब कुछ अपने होने के अंदाज़ में
होंगे सही सलामत फिर से
देखते-ही-देखते
पहले की तरह

पहले की तरह
कुछ नहीं होंगे तो सिर्फ वे ही
जो सबको बचाते हुए चले गये थे
हर बार की तरह
देखते-ही-देखते
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देवता


जिन्हें बेमौत मारा गया
सारे-के-सारे इंसान थे

जो बेमुरव्वत मार रहे थे
वे भी इंसान हो सकते थे

सिर्फ़ मरने-मारने की नहीं
बात उसकी हो रही है
जोमरने-मारने वालों को बचाने के लिए मर रहा था
बात उसकी नहीं हो रही
कि मरने-मारने वालों से कौन जन्नत पायेगा
बात सिर्फ उसकी ही हो रही है
जो बचे हुए लोगों को जन्नत सौंपकर
रूख़सत हुए हैं
बिलकुल अभी-अभी


बात देवता की हो रही है ।

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