अभी-अभी समाचार मिला है कि हमारे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की जन्मशती मनाने के लिए राष्ट्रीय समिति गठित करने की माँग ठुकरा दी है। बाकायदा प्रधानमंत्री कार्यालय ने संस्कृति मंत्रालय को इसकी लिखित जानकारी भी भिजवा दी है । जबकि इसके पहले प्रधानमंत्री ने संस्कृति मंत्री अंबिका सोनी से व्यक्तिगत तौर पर दिनकर की जन्मशती मनाने के प्रसंग में विचार-विमर्श भी किया था। अब प्रधानमंत्री कार्यालय द्वारा कहा जा रहा है कि प्रधानमंत्री ने दिनकर के लिए राष्ट्रीय समिति गठित करने का प्रस्ताव मंजूर नहीं किया।
उल्लेखनीय है कि कई साहित्यिक और सामाजिक संस्थाओं सहित सांसदों ने भी राष्ट्रकवि की जन्मशती राष्ट्रीय स्तर पर मनाने के लिए प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में एक राष्ट्रीय समिति गठित करने का मुद्दा उठाया था । इस क्रम में पूर्व मानव संसाधन विकास मंत्री मुरली मनोहर जोशी के नेतृत्व में सांसदों को भी गिनाया जा सकता है जिन्होंने प्रतिनिधिमंडल के रूप में प्रधानमंत्री से मुलाकात कर यह मांग की थी। सूचना के अनुसार इसी विषय पर जद-यू के पूर्व सांसद वशिष्ठ नारायण सिंह के आवास पर एक बैठक भी हुई थी । संस्कृति मंत्रालय किसी महापुरुष की जन्मशती उनकी सौवीं जयंती के बाद ही मनाता है। ज्ञातव्य हो कि दिनकर की सौवीं जयंती गत 23 सितंबर को थी।
रामधारी सिंह दिनकर हिन्दी के एक प्रमुख लेखक थे। राष्ट्र कवि दिनकर आधुनिक युग के श्रेष्ठ वीर रस के कवि के रूप में स्थापित हैं। बिहार प्रांत के बेगुसराय का सिमरिया घाट कवि दिनकर की जन्मस्थली है। इन्होंने इतिहास, दर्शनशास्त्र और राजनीति विज्ञान की पढ़ाई पटना विश्वविद्यालय से की। साहित्य के रूप में इन्होंने संस्कृत, बंग्ला, अंग्रेजी और उर्दू का गहन अध्ययन किया था।
रामधारी सिंह दिनकर स्वतंत्रता पूर्व के विद्रोही कवि के रूप में स्थापित हुए और स्वतंत्रता के बाद राष्ट्रकवि के नाम से जाने जाते रहे। वे छायावादोत्तर कवियों की पहली पीढ़ी के कवि थे। एक ओर उनकी कविताओ में ओज, विद्रोह, आक्रोश और क्रांति की पुकार है, तो दूसरी ओर कोमल श्रृँगारिक भावनाओं की अभिव्यक्ति है। इन्हीं दो प्रवृत्तियों का चरम उत्कर्ष हमें कुरूक्षेत्र और उवर्शी में मिलता है।
दिनकर 1952 में राज्यसभा के मनोनीत सदस्य थे और 1959 में उन्हें पद्मभूषण मिला था। उन्हें संस्कृति के चार अध्याय पुस्तक पर साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिला था, जिसकी भूमिका पंडित जवाहर लाल नेहरू ने लिखी थी। उन्हें ऊर्वशी पर ज्ञानपीठ पुरस्कार भी मिला था।
पटना विश्वविद्यालय से बी. ए. की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद वे एक विद्यालय में अध्यापक हो गए। १९३४ से १९४७ तक बिहार सरकार की सेवा में सब-रजिस्टार और प्रचार विभाग के उपिनदेशक पदों पर कार्य किया। १९५० से 1९५२ तक मुजफ्फरपुर कालेज में हिन्दी के विभागाध्यक्ष रहे, भागलपुर विश्वविद्यालय के उपकुलपति के पद पर कार्य किया और इसके बाद भारत सरकार के हिन्दी सलाहकार बने। उन्हें पदमविभूषण की से भी अलंकृत किया गया। पुस्तक संस्कृति के चार अध्याय के लिये आपको साहित्य अकादमी पुरस्कार तथा उर्वशी के लिये भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कर प्रदान किये गए। अपनी लेखनी के माध्यम से वह सदा अमर रहेंगे।
उनकी प्रमुख कृतियाँ है - गद्य रचनाएं - मिट्टी की ओर, रेती के फूल, वेणुवन, साहित्यमुखी, काव्य की भूमिका, प्रसाद पंत और मैथिलीशरणगुप्त, संस्कृति के चार अध्याय। पद्य रचनाओं में रेणुका, हुंकार, रसवंती, कुरूक्षेत्र, रश्मिरथी , परशुराम की प्रतिज्ञा, उर्वशी, हारे को हरिनाम आदि महत्वपूर्ण कृतियों के रूप में समादृत होती रही हैं ।
प्रमुख आलोचक एवं साहित्य अकादमी के वरिष्ट सदस्य श्री विश्वनाथ प्रसाद तिवारी एवं गिरीश पंकज ने बताते है कि साहित्य अकादमी ने अगले वर्ष फरवरी के प्रथम सप्ताह में दिनकर पर अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी करने का निर्णय लिया है। साहित्य अकादमी दिनकर के जीवन एवं कृतित्व पर एक वृत्तचित्र का निर्माण भी कर रही है। पिछले दिनों उसने दिनकर संचयन प्रकाशित किया है। यह अलग बात है । किसी राष्ट्रकवि की जन्मशती वर्ष नहीं मनाना समझ से परे है । वह भी ऐसी परिस्थितियों में जब चारों और आंतकवाद पाँव पसार रहा है । राष्ट्रीयता की भावना लगातार कम होती जा रही है । साहित्य और संस्कृति को तिलाजंलि देकर आम भारतीय स्वार्थ के अंधकूप में स्वयं को डालता जा रहा है । राष्ट्र, राष्ट्रीयता और देशप्रेम को स्वार्थ के आगे नतमस्तक होना पड़ रहा है एक यही तो क्षेत्र बचता है कि पुरखों की याद कर फिर से देशवासी को स्मरण कराया जाय कि यह दिनकर का देश है, भूषण का देश है, सेनापति का देश है, अब्दूल रहीम खानखाना का देश है जो युद्ध क्षेत्र में भी जाते थे और अपनी ओजस्वी कविता से मन प्राण को भी जीवंत बनाये रखते थे । यदि ऐसे कवियों को किसी दल या किसी राजनीति के कारण उपेक्षित किया जाय तो यह गंभीर दिशा का परिचायक ही है । राजनीति कम से कम साहित्यकारों, कलाकारों के नाम पर नहीं होना चाहिए । राष्ट्रभक्ति सिर्फ़ भाजपा का विषय नहीं । वह केवल कांग्रेस का विषय नहीं । न ही मार्क्सवादियों का । उसे सभी का विषय बनाया जाना चाहिए । उसे समस्त जनता और उसकी मनीषा के अनुरूप विचार किया जाना चाहिए । यह दीगर बात है कि ऐसी जयंतियों, समारोहों के पीछे सिर्फ़ दिल्ली या बड़ी राजधानियों के दलाल किस्म के साहित्यकार या उनके गुर्गे ही अधिक सक्रिय रहते रहे हों, पर उसे वास्तविक रूप से गाँव गलियों के जनता तक पहुँचाने केलिए ऐसे आयोजनों पर ज़रूर विचार किया जाना चाहिए । एक प्रधानमंत्री से वह भी अधिक ईमानदार और तटस्थ व्यक्ति से ऐसी आशा तो की ही जा सकती है ।
बहरहाल हम अपने प्रधानमंत्री से सिर्फ़ गुजारिश ही तो कर सकते हैं । मानना न मानना तो उनके वश की बात है । उनकी इच्छा वे ही जाने । पर एक साहित्यकार के नाते तो हम ऐसी हरकतों का विरोध करना चाहते हैं दिनकर की पंक्तियों को ही याद करते हुए –
सच है सत्ता सिमट-सिमटजिनके हाथों में आयी,
शान्तिभक्त वे साधु पुरुषक्यों चाहें कभी लड़ाई ?
सुख का सम्यक-रूप विभाजन
जहाँ नीति से, नय से
संभव नहीं; अशान्ति दबी हो
जहाँ खड्ग के भय से,
जहाँ पालते हों अनीति-पद्धतिको सत्ताधारी,
सुख का सम्यक-रूप विभाजन
जहाँ नीति से, नय से
संभव नहीं; अशान्ति दबी हो
जहाँ खड्ग के भय से,
जहाँ पालते हों अनीति-पद्धतिको सत्ताधारी,
जहाँ सूत्रधर हों समाज केअन्यायी, अविचारी;
नीतियुक्त प्रस्ताव सन्धि के
जहाँ न आदर पायें;
जहाँ सत्य कहने वालों के
सीस उतारे जायें;
जहाँ खड्ग-बल एकमात्रआधार बने शासन का;
नीतियुक्त प्रस्ताव सन्धि के
जहाँ न आदर पायें;
जहाँ सत्य कहने वालों के
सीस उतारे जायें;
जहाँ खड्ग-बल एकमात्रआधार बने शासन का;
दबे क्रोध से भभक रहा हो
हृदय जहाँ जन-जन का;
सहते-सहते अनय जहाँ
मर रहा मनुज का मन हो;
समझ कापुरुष अपने को
धिक्कार रहा जन-जन हो;
सहते-सहते अनय जहाँ
मर रहा मनुज का मन हो;
समझ कापुरुष अपने को
धिक्कार रहा जन-जन हो;
जयप्रकाश मानस
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