डॉ. बलदेव
मुख्यमंत्री डॉ। रमन सिंह बहुत ठीक कहते हैं कि राज्य में कविता और लड़ाई साथ चलेगी। यह सिर्फ़ विश्वरंजन से मतलब नहीं सधनेवाले विरोधियों को दिया गया जबाव नहीं अपितु उन सारे बुद्धिजीवियों, साहित्यकारों, मीडियाकरों को भी चेतावनी है कि भाई, जिस तरह से आपने हिंसक और अराजक माओवादी और भ्रामक और पक्षपातपूर्ण तरीक़े से मानवाधिकार की वकालत की है उससे जुझ़ने के लिए केवल पुलिस को ही नहीं सभी को कविता और लड़ाई साथ-साथ करनी होगी । क्योंकि तिल को ताड़ बनाना सिर्फ़ आप ही नहीं जानते, हमारी जनता, सरकार और सारे सरकारी लोग भी उसका मुँहतोड़ जबाव देना जानते हैं।
साहित्य एक युद्ध ही तो है, जिसमें बाहर की लड़ाई भीतर लड़ी जाती है । लड़ाई के पीछे भी कहीं ना कहीं साहित्य क्रियाशील रहता है, जो उसके औचित्य-अनौचित्य को सिद्ध करता है । साहित्य मूलतः युद्ध की मनाही पर ज़ोर देता है, उसके स्थानापन्न विकल्पों की तलाश करता है और युद्ध अंततः साहित्य बनकर इतिहास के पन्नों में रेखांकित होकर सुनहरे भविष्य के विकल्पों का अभिज्ञान कराता रहता है । समय का मार्गदर्शन करता है । साहित्य और युद्ध दो पूरक क्रियायें हैं । आख़िर दोनों का लक्ष्य आत्मरक्षा होता है । साहित्यकार बाहर की लड़ाई को अधिनियमित करते हुए भीतर ही भीतर लड़ता है और योद्धा बाहर लड़ता है और भीतर की लड़ाई की दिशा तय करता है ।
चाहे वह कोई भी समय रहा हो, राज्य नामक व्यवस्था में दोनों ही सदैव प्रासंगिक और अपरिहार्य रहे हैं । राजशाही से लेकर वर्तमान गणतंत्र तक, हर व्यवस्था में साहित्यकार और योद्धा साथ-साथ सम्मान अर्जित करते रहे हैं । यदि छत्तीसगढ़ का पुलिस-मुखिया विश्वरंजन भीतर-बाहर दोनों लड़ाई में पारंगत हैं तो यह अयोग्यता नहीं अपितु सौभाग्य का विषय होना चाहिए । यह शुष्क पुलिस तंत्र की असंवेदनशीलता के विरूद्ध एक उत्तेजक और प्रेरक जन्मघूँटी भी है, जो लगातार असहिष्णुता की सीमा लांघते समय और परिस्थिति में अपरिहार्य है । जनता की भावनाओं, स्वप्नों और आकांक्षाओं को सिर्फ़ लाठी, बंदूक पकड़कर नहीं, शब्द और क़लम पर भी विश्वास रखकर अधिक सुगमता से फलीभूत किया जा सकता है । और यदि ऐसा विश्वरंजन करते हैं तो यह किस तरह आपत्तिजनक है, समझ से परे है ?
विगत 12 जुलाई को जब मदनवाड़ा में गणतंत्र के दुश्मनों के ख़िलाफ़ हमारे जांबाज और अदम्य पराक्रमी बी। के चौबे, गुप्ता और उनके साथी शौर्य का स्वर्णिम इतिहास रच रहे थे तब व्याकुलता और चिंता के साथ उनका पुलिस महानिदेशक विश्वरंजन ही मार्गदर्शन कर रहे थे । जो यह कहते नहीं थक रहे कि वे उस समय साहित्य रस ले रहे थे, वे सिर्फ़ पूर्वाग्रही हैं, झूठे हैं । जो लोग 10-11 जुलाई को आयोजित साहित्य समारोह के बहाने डीजीपी विश्वरंजन की खामी निकाल रहे हैं यह न भूलें कि उनमें से ही कुछ अतिवादी किस्म के साहित्यकार और बुद्धिजीवी ठीक तब कविता पाठ के साथ-रसगुल्ला का स्वाद चख रहे थे जब हमारे राज्य के अनेकों बहादुर सिपाहियों के साथ छत्तीसगढ़ के माटी के सपूत और पुलिस अधीक्षक श्री चौबे के शहीद होने की ख़बर उनके टेबिल तक पहुँच चुकी थी ।
हम प्रमोद वर्मा पर केंद्रित आयोजन के परिप्रेक्ष्य में यह भी नहीं भूलें कि यह कार्य यहाँ के राजनेता, प्रबुद्ध वर्ग, साहित्यिक उत्थान का दंभ भरनेवाले तथाकथित जनतांत्रिक संगठनों और जनता का था जिसे उन्होंने एकसिरे से बिसार दिया था और जिसे एक पुलिस अधिकारी ने कर दिखाया। प्रमोद वर्मा मार्क्सवादी सौंदर्य चेतना में विश्वास करते हुए भी देशीय राग के हिमायती और हिंसात्मक विध्वंस के ख़िलाफ़ थे । वे समाजवादी प्रजातंत्र के हिमायती थे । उनके नज़रों में जनता से बड़ा कोई नहीं था । सत्ता भी नहीं । चाहे वह मार्क्सवादियों की हो या फिर माओवादियों की । जो लोग इस आयोजन से स्वयं को बौना पा रहे हैं वे इस समय अपनी लेखों और विज्ञप्तियों में अपनी भड़ास उतार रहे हैं । यह सभी जानते हैं कि ऐसे बुद्धिजीवियों या साहित्यिक संगठनों के अगुमा किस तक तक लिटरेरी डेमोक्रेसी और कितनी पवित्रता से क्या क्या करते रहे हैं ? उनके समझाइस या बडबोलेपन से लेकर इस राज्य का ना तो कभी सांस्कृतिक विकास हुआ है ना ही प्रजातांत्रिक ।
क्या इस सम्मेलन में राज्य के मुख्यमंत्री और महामहिम की भी भागीदारी नहीं थी ? ऐसे में क्या उन्हें भी मना कर दिया जाये कि वे ऐसे साहित्यिक आयोजनों से परहेज करें और ऐसा करना जनता और राज्य के हित में नहीं है । हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि यह आयोजन इसलिए भी महत्वपूर्ण साबित हुआ है, क्योंकि हमारे राज्य के मुखिया ने देश भर के बुद्धिजीवियों, आलोचकों, साहित्यकारों को छत्तीसगढ़ की महाविपदा माओवादी हिंसा को लेकर भी संबोधित किया और महामहिम राज्यपाल ने शासकीय अधिकारियों द्वारा अपने कर्तव्यों की औपचारिकता के बाद समाज के लिए किये जानेवाले कार्यों को समाज और देशसेवा करार दिया । और यह भी हमें नहीं भूलना चाहिए कि कोई भी हर वक्त सिर्फ़ कर्तव्य पर ही नहीं जुटा होता । न मैं, न आप और न ही दुनिया का कोई। वह अपने जैविक, सांस्कृतिक, मौलिक और सामाजिक अधिकारों के प्रति भी सचेत रहता है और यही उसके कर्तव्यों को बल प्रदान करता है ।
जिन्होंने विश्वरंजन को 12-13 जुलाई को मानपुर-मदनवाड़ा के रास्ते में सैनिक वर्दी में देखा है वे बखूबी समझ सकते हैं कि उस समय एक कवि सेनापति किस तरह द्वंद्व और पीड़ा से गुज़र रहे थे। अपने बहादुर और शौर्यवान् नायकों को खोने का ग़म सिर्फ़ परिजन, नेता या जनता को नहीं उस सेनापति को भी होता है जिसके बल पर वह राज्य की शांति और सुरक्षा के लिए नेतृत्व भी करता है। स्वस्थ माँग, जायज आरोप और नैतिक टिप्पणी प्रजातंत्र को मज़बूत बनाती हैं किन्तु उसका भी समय होता है । असमय और आकारज टिप्पणी से तंत्र हतोत्साहित होता है । उसे अपनी उदात्त जनसेवा के उत्तर में मूर्खतापूर्ण आरोप से निराशा होती है । ऐसी घटनाओं का हल राजनीतिक चश्मे से कभी भी नहीं दिखा है। यह कितनी विडम्बना की बात है कि छत्तीसगढ़ में सक्रिय अनेक राजनीतिक घटक आज भी माओवादी हिंसा को प्रजातंत्र के विरूद्ध नहीं मानते हुए उसे मात्र सिर्फ़ सरकार की ग़रज बताते हैं । यह हमारे प्रदेश की अबौद्धिकता और निहायत अलाली नहीं तो और क्या है कि अब तक किसी भी तथाकथित सांस्कृतिक गरिमावाले लेखक, साहित्यकार, विचारक, शिक्षाविद की तरफ़ से मदनवाड़ा में हुए शहीद के प्रति न तो श्रद्धांजलि स्वरूप कोई टिप्पणी आयी है न ही कोई पहल । क्या हम अपने राज्य को ऐसी मौन अभिव्यक्ति का पाठ पढ़ाना चाहते हैं ? यदि हाँ, तो हमें उस मुक्तिबोध की दुहाई देने का कोई अधिकार नहीं बनता जिसके कहा था – तोड़ने ही होंगे मठ, उठाने ही होंगे अभिव्यक्ति के ख़तरे । मनुष्य नहीं कहेगा तो और कौन बोलेगा ।
किसी साहित्यकार को यह कहना कि वह साहित्य से सर्वथा दूर रहे ठीक उस तरह होगा कि वह साँस न ले । भोजन न करे । वह पुलिस की नौकरी करता है अतः वह सिर्फ़ लाठी चौबीसों घंटे पकड़कर गली-गली भटकता रहे और जनता चैन की नींद सोती रहे । यदि हम समाज को ऐसे ही देखना चाहते हैं भगवान बचाये ऐसे लोगों से । तब तो कोई यह भी कहेगा कि गुरूजी दिन के अलावा रात भर स्कूल खोलें रखे । न्यायाधीश चौबीसों घंटे कोर्ट में बैठें । सीमा के प्रहरी घर भी न लौंटे। पायलेट हवाई जहाज से उतरे हीं नहीं । नेता मंत्रालय में ही बैठे रहें । प्रतिपक्ष सिर्फ़ धरना, आंदोलन ही करते रहें । क्या छत्तीसगढ़ की जनता इतनी निंरकुश और इतनी पलायनवादी हो चुकी है ।
आप भी बोलिए कि यह मात्र राज्य सरकार की समस्या नहीं । यह केवल पुलिस की ड्यूटी नहीं कि वह आपके छत्तीसगढ़ को नक्सली विपदाओं से मुक्त बनाये रखे । यह वक्त निर्णय लेने की घड़ी है कि आप किसका वरण करना चाहते है ? माओवादी हिंसक तंत्र का या प्रजातंत्र का । अब पानी सिर से उतर चुका है । हर बच्चा बोले, हर युवक बोले, माँएं बोले, रिक्शावाला बोले, किसान बोले, मज़दूर बोले, अधिकार बोले । बोलें कि बस्स बहुत हो चुका, सिर्फ़ पुलिस ही नहीं लड़ेगी हम लडेंगे भी और नक्सलवादियों के ख़िलाफ़ बोलेंगे भी । (लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं )
2 टिप्पणियां:
सहमत हूँ आपसे। स्थितियों का अच्छा विश्लेषण किया है आपने।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
बिलकुल सही कहा आपने. भाई दिल्ली का मोहन चन्द्र शर्मा हो या कश्मीर का कोइ फौजी या छत्तीसगढ़ में कोइ विश्वरंजन, देश के शत्रुओं से मुकाबला करने वाला हर जांबाज इन तथाकथित सेकुलर जेहादियों, वामपंथी बुद्धीजीवियों को आँख में चुभता ही है. पहली बार नहीं हुआ है यह. भारत-भारती और हिन्दी - हिन्दुस्तान से इनका हमेशा इनका द्वेष रहा है. भाई छत्तीसगढ़ में लाल झंडे के लिए जमीन जो तैयार करनी है! यह न तो सरल वनवासियों के जनांदोलन सलवा जुडूम को सह सकते हैं और न ही देश-प्रदेश के हित हो. यदि छतीसगढ़ की जनता जागरुक न रही तो नक्सलवादी और उनके पैरोकार इसे नर्क बना देंगे. चौबे और विश्वरंजन जैसे देश के सिपाहियों को साथ देना ही होगा. आखिर वह हमारे जैसे आम हिन्दुस्तानी की ही तो लड़ाई लड़ रहे हैं.
एक टिप्पणी भेजें