राखी सावंत-मीका प्रकरण ने एक बार फिर मीडिया की नैतिकता और समझदारी पर सवाल खड़े कर दिए हैं । पिछले डेढ़ माह में घटी तीन धटनाओं; भाजपा नेता प्रमोद महाजन की हत्या, उनके पुत्र राहुल महाजन का ड्रग्स लेना और राखी–मीका चुम्बन प्रसंग ने इलेक्ट्रनिक मीडिया के कई घंटों और प्रिंट के लाखों शब्दों पर जैसा कब्जा जमाया, उसे देखकर दया आती है ।
चुम्बन प्रकरण पर समाचारों, क्लीपिंग्स के साथ-साथ चैनलों पर छिड़े विमर्शों को देखना एक अद्भुत अनुभव है । शायद यह नए मीडिया की पदावली है और उसका विमर्श है । चुम्बन से चमत्कृत मीडिया के लिए आइटम गर्ल रातों-रात स्टार हो गयी और उसे हाथों-हाथ उठा लिया गया । राखी हर चैनल पर मौजूद थीं, अपने मौजू किंतु शहीदाना स्त्री विमर्श के साथ । वे अपनी जंग को नैतिकता का जामा पहनाती हुई छोटे परदे पर विराजमान थीं तो ‘लार’ टपकाता हुआ मीडिया इसके लुत्फ़ उठा रहा था । ऐसे प्रसंगों पर 24 घंटे के ख़बरिया चैनलों की पौ-बारह हो ही जाती है । महाजन परिवार की चिंताओं से मुक्त मीडिया अब राखी पर पिल पड़ा । आत्मविश्वास से भरी राखी, कभी भावुक, कभी रौद्र रूप लेती राखी का स्त्री विमर्श अद्भुत है । चैनलों पर विचारकों के पैनल थे । जनता थी, जो हर बात पर ताली बजाने में सिद्ध है । बहस सरगर्म है । उसे लंबा और लंबा खींचने की होड़ जारी है । मीडिया की चिंताओं के केंद्र में सिर्फ राखी, राखी और राखी । जाहिर है इस घटना को प्रचार पाने का हथकंडा भी बताया गया । अधरों पर चुम्बन कैसे अनैतिक है, गालों पर जाकर यह कैसे नैतिक हो जाता है-इसकी भी मौलिक व्याख्या सामने आई । ‘फ्रेंड’ और ‘गर्ल फ्रेंड’के मायने समझाए गए । यानी सब कुछ बड़ा मनोहारी था, दुर्घटना सुखांत में बदल रही थी । राखी कहती हैं मीका माफी मांगे । मीका माफी मांगने को तैयार नहीं । फिर कोर्ट में हाजिर मीका-यहां भी कैमरे, लाइव शो, मीका के पीछे दौड़ता मीडिया । उनके साहस या बेशर्मी पर फिदा ! मुफ्त की पब्लिसिटी !! महिला आयोग भी जागा, राखी के साथ बार बालाएं भी एकजुट हुईं । मीका भी नहीं चूकता । कहता है-‘बार बालाओं से माफी मांग लूंगा, राखी से नहीं ।’ एक अच्छी बाइट। मीका के इस अंदाज पर कौन न बलिहारी हो जाए? यही वीरोचित भाव है, “यूथ” का हीरो है मीका । उधर ‘भारत की नारी’
के सम्मान के लिए जूझती राखी भी फाइटर हैं । मल्लिका शेरावत, दीपल शाह के बाद एक और ‘टाकेटिव’ चेहरा। मीडिया मुग्ध हैं। उसे तो वैसे भी ‘किसिंग कंट्रोवर्सीज’ की तलाश है ।
अद्भत है कि मीका-राखी का यह अंतरंग प्रसंग जो प्रिंट पर भी उतने ही उत्साह से पसरा था। शायद ही कोई भाषाई अखबार हो जिसने इस मुद्दे को पहले पेज पर जगह न दी हों । फिर फालोअप के लिए भी पूरी मुस्तैदी । यह मामला तो खैर खबरिया चैनलों के माध्यम से बाहर आया । लेकिन इसके कुछ महीने पहले की चर्चित ‘किसिंग कट्रोंवर्सीं’ तो मुम्बई से निकलने वाले एक शाम के अखबार ने ही उजागर की थी । मुंबई की एक पार्टी के दौरान ली गई करीना कपूर और शाहिद कपूर की तस्वीर छाप कर इस अखबार ने हंगामा मचा दिया । शाहिद से अपने प्रेम प्रसंगों के लिए मशहूर कपूर इस मामले पर अखबार पर बरस पड़ीं । अखबार में छपी फोटो पर इन दोनों ने कहा कि यह उनकी तस्वीर नहीं है । अखबार पहले तो अड़ा पर कानूनी कार्रवाई की धमकी के बाद अखबार ने कई दिनों तक माहौल बनाए रहा और अंततः माफी मांग ली । लेकिन इससे दोनों पक्षों जो को फायदा मिलना था – वह मिल चुका था। इलेक्ट्रानिक मीडिया ने भी इस दौर में काफी टीआरपी बढ़ाई, कई दिनों तक दर्शक बटोरे । चुंबन पर चटखारेदार चर्चाओं ने मीडिया का उत्साह बनाए रखा ।
ऐसा नहीं कि ऐसे विवाद पहली बार सामने आए हैं । लेकिन इन दिनों 24 घंटे के खबरिया चैनल जिस तरह सामान्य प्रसंगों पर हल्लाबोल की शैली में जुट जाते हैं वह मीडिया की दयनीयता ही दर्शाता है । जनमाध्यमों पर ‘जनता का एजेंडा’ गायब है और नाहक मुद्दों पर लाखों शब्द तथा कई घंटे बरबाद करने पर मीडिया आमादा है । हमारे देश में इस तरह का पहला मामला 1980 में चर्चा में आया, जब प्रिंस चार्ल्स के भारत आगमन पर उनकी अगवानी करते हुए फिल्म अभिनेत्री पद्मिनी कोल्हापुरी ने सार्वजनिक रूप से उनका चुम्बन ले लिया था । उस समय यह प्रसंग काफी सुर्खियों में रहा । इसके बाद फिर यह कहानी जनवरी 1999 में दोहराई गई । इस बार पात्र थे-शबाना आजमी और नेल्सन मंडेला । विवाद इस बार भी उठा । कईयों ने इसे भारतीय संस्कृति पर खतरे के रूप में निरूपित किया । इसी दौर में पत्रकार खुशवंत सिंह ने एक कार्यक्रम में पाकिस्तानी उच्चायुक्त की बेटी का चुम्बन ले लिया । हालांकि यह मामला एक स्नेहिल चुम्बन का था क्योंकि खुशवंत सिंह की आयु 90 साल थी और लड़की सोलह साल की थी । इसी तरह सोनी राजदान ने गतवर्ष ‘नजर’ नाम की एक फिल्म बनाई जिसमें पाकिस्तानी अभिनेत्री मीरा और नायक अश्मिता पटेल के चुम्बन दृश्यों पर हंगामा मचा । पाकिस्तानी सरकार ने मीरा पर जुर्माना और प्रतिबंध लगा दिए । हालांकि फिल्मों में मल्लिका शेरावत, इरफान हाशमी जैसे कलाकारो के प्रवेश के बाद ये चीजें बहुत स्वीकार्य और सहज लगने लगी है, बावजूद इसके भारतीय समाज अभी ऐसे दृश्यों को सहजता से नहीं पचा पाता खासकर जब ऐसा सार्वजनिक जगहों पर हो । फिल्मी पर्दे और असली जिंदगी की दूरी अभी भी बनी हुई है ।
राखी ने भी अपने चुम्बन विवाद पर जो बातें कहीं हैं, उसमें भी वे गालों पर लिए गए चुम्बन को जायज ठहराती हैं और अधरों पर लिए गए चुम्बन को विशेषाधिकार । जाहिर है ऐसे ढोंग और मनमानी परिभाषाएं भारतीय समाज में जगह पाती हैं, क्योंकि जिंदगी का दोहरापन सब दूर विद्यमान है। हमारे समाज की इसी दोहरी मानसिकता का मीडिया व फिल्में इस्तेमाल कर रही हैं । चुम्बन की यह ताकत इसीलिए आज सोशलाइट तबकों की जरूरत बन गयी है और पब्लिसिटी पाने का हथियार भी । टीवी प्रोग्राम्स, पेज-थ्री पार्टियां इस ‘नई चुम्बन परंपरा’ का एक बड़ा स्पेस बनाती हैं । अपने परिचितों के साथ इस तरह का व्यबहार परदे पर और एक खास स्तर का जीवन जी रहे लोगों को बड़ा सहज लगता है । लेकिन यह चलन अभी अपर मिडिल क्लास तक ही पहुंचा है । बहुत बड़े भारतीय समाज में ये चीजें पहुंचनी अभी शेष हैं । शायद इसी द्वंद्व के मद्देनजर ये चीजें हमारे समाज में इतना स्पेस पा जाती हैं । मीडिया भी असल मुद्दों भटक कर ऐसे सवालों को प्रमुखता देता नजर आ रहा है । हमारे इसी दोहरेपने के मद्देनजर कभी पामेला बोर्डस ने कहा था –‘यह समाज मिट्टी-गारे से बनी झोपड़ी में रहता है ।’ आज यही बात राखी सावंत भी कह रही हैं । इसी विमर्श में शामिल दीपल शाह, मल्लिका शेरावत भी ऐसी ही बातें कहती हैं । आप इन अभिनेत्रियों की बातों को पव्लिसिटी पाने का कौशल मान कर माप कर सकते हैं । किंतु ऐसी खबरों के पीछे भागते मीडिया को उसकी जिम्मेदारियों से मुक्त नहीं किया जा सकता । प्रमोद महाजन, राहुल महाजन, राखी सावंत के डेढ़ माह में घटे तीन प्रकरण और उसे कवर करने का मीडिया का तरीका विचारणीय ही नहीं, चिंतनीय भी है। मीडिया को यह सोचना होगा कि वह किस को अपनी प्राथमिक बनाए क्योंकि किस के लिए मीडिया है, यह उसे ही तय करना है । अपनी प्राथमिकताओं पर दोबा विचार दरअसल आज के मीडिया के लिए सबसे बड़ी
चुनौती है, वरना यह दौड़ हमें कहां ले जाएगी कुछ कहा नहीं जा सकता ।
(लेखक हरिभूमि, रायपुर के स्थानीय संपादक हैं)
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1 टिप्पणी:
जब बिक्री के मापदँड को प्राथमिकता मिले तो चटकारे ले कर पढ़ने वाले "समाचारों" के पीछे मीडिया का भागना स्वाभाविक ही है. असली प्रश्न तो है कि क्या बिक्री के मापदँड को स्वीकारने के बाद, सही मानों वाले समाचारों के लिए समाचार पत्रों और पत्रिकाओं में जगह है या नहीं? रही बात चुम्बन की तो मैं सोचता हूँ कि कुँठाग्रस्त समाज में अगर यही तरीका है यौन सम्बंधी बातों को उठाने का तो शायद अच्छा ही है. पत्रकार और पत्रकारिता समाज से कटे हुए नही हो सकते, वे भी समाज में प्रचलित मूल्यों का प्रतिबिम्ब हैं और समाज में बढ़ते उपभोक्तावादी मूल्यों को ही प्रतिबिम्बित करते हैं.
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