7/25/2009

नक्सली घटना पर देश भर के लेखक एकमत हुए

देश भर के लेखकों ने की तीव्र भर्त्सना
रायपुर । छत्तीसगढ़ में बढ़ते हुए नक्सली घटना की भर्त्सना करते हुए देश भर के लेखकों ने मदनवाड़ा के नक्सली एंबुश में मारे गये शहीदों के प्रति श्रद्धांजलि दी है ।

प्रख्यात कवि और आलोचक अशोक बाजपेयी ने कहा है कि इस समय नक्सलियों द्वारा कई राज्यों में लगातार जो हिंसा हो रही है उसके बारे में तमाम क्रांति धर्मी लेखक चुप्पी क्यों साधे हुए हैं यह समझ में आना कठिन है । वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति की परंपरा में ही यह चुप्पी है । 20वीं शताब्दी में हम देख आये हैं कि हिंसा और हत्या से सच्ची क्रांती नहीं होती और अगर उसके होने का कुछ देर के लिए भ्रम हो भी जाये तो उसकी परिणति भी देर सवेर हिंसा और हत्या में हीं होती है ।

प्रख्यात कवि चंदकांत देवताले, उज्जैन हिंसा के सभी आयामों पर प्रतिबंध लगाने की अपील करते हुए कहा है कि मौत से प्राप्त की जानेवाले सत्ता का अंत अततः मौत में होती है, वहाँ विकास मायने नहीं रखता । नक्सलवाद की जड़ों में जाकर ही इसका हल निकाला जा सकता है । केवल हिंसक वारदातों से नहीं ।

कोच्चि, केरल के प्रख्यात लेखक ए. अरविंदाक्षन ने मदनवाड़ा की घटना को विकास विरोधी लोगों और संगठित अपराधियों की करतूत निरूपित करते हुए कहा कि सत्ता के लिए जब भी कोई वाद या दल हिंसा का सहारा लेने लगता है वह उसी समय से लक्ष्यच्यूत हो जाता है । लोगों का विश्वास उससे किंचित भी नहीं रह जाता है । आदिवासियों के विकास के बहाने से हिंसा को कभी भी और किसी भी दृष्टि से तवज्जो नहीं दी जानी चाहिए ।

जयपुर के गांधीवादी लेखक नंदकिशोर आचार्य ने नक्सलियों के करतूत को अहिंसा के ख़िलाफ़ और लक्ष्य से भटके हुए ऐसा हितैषी निरूपित किया है जिसे अपने लक्ष्य के अलावा अन्य सभी गतिविधियों पर ही रूचि रह गई है ।

मध्यप्रदेश साहित्य परिषद के प्रमुख और साक्षात्कार के संपादक डॉ. देवेन्द्र दीपक ने नक्सवाद को प्रजा विरोधी अवधारणा बताते हुए विश्व आंतकवाद का एक पहलू बताया है । उन्होंने कहा है कि ऐसे हिंसक तत्वों को अस्त्र शस्त्र पहुंचाने में जिनका हाथ है उनकी भी ख़बर ली जानी चाहिए । ऐसी समस्यायें केवल राज्य, व्यवस्था के लिए ही नहीं समूची मानव जाति के लिए भी अहितकर हैं । विडम्बना कि ऐसे विचारों के प्रति भी कुछ विघ्नसंतोषी मीडियाबाज सहानुभूति रख रहे हैं, अब समय आ गया है कि ऐसे तत्वों की पहचान भी राज्य सरकारें करें ।

धर्मयुग के पूर्व उप संपादक मनमोहन सरल, मुंबई ने कहा है कि छत्तीसगढ़ और साथ ही लालगढ़ की नक्सली हिंसा इस स्वरूप की भर्त्सना करते हुए मैं यह सोचता हूँ कि हमें इस समय की गहराई तक जाना चाहिए । असंतोष के कारणों की मीमांसा करनी चाहिए । केवल दमन से ही समस्या का फौरी हल भले ही हो जाये पर बिना इसके मूल तक जाये इसका स्थायी समाधान नहीं हो सकता । प्रयास इसी दिशा में करने होंगे ।

चर्चित आलोचक द्वय श्री भगवान सिंह,भागलपुर और बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के प्राध्यापक कृष्ण मोहन ने नक्सलियों द्वारा मदनवाड़ा में किये हिंसा को मनुष्य समाज के खिलाफ़ एक जघन्य षडयंत्र निरूपित करते हुए उन पर तत्काल कड़ाई से राज्य और केंद्र सरकार को निपटने का आग्रह किया है । ऐसी घटनाओं को हर विचार, हर कोण, हर दृष्टि से निंदनीय ही माना जाना चाहिए । यदि ऐसी घटनाओं को किन्ही उथले विचार के सहारे समर्थन मिलता है तो वह देश, समाज और समय के खिलाफ ही जायेगा ।

प्रख्यात आलोचक और कवि प्रभात त्रिपाठी, रायगढ़ ने अपने विचार रखते हुए कहा है कि प्रजातंत्र का विकल्प कोई भी हिंसक तंत्र नहीं हो सकता अतः नक्सलवाद मूलतः अपने लक्ष्य के साधनों की विश्वसनीयता खो चुका है । ऐसी घटनाओं को अराजक आक्रोश और मानवविरोधी माना जाकर उनका पूर्ण मनोयोग से जनता को जबाव देना ही होगा ।

शिरीष कुमार मौर्य, कवि, नैनीताल ने लिखा है कि मैं ऐसी किसी भी घटना का पुरजोर विरोध करता हूँ। विचार कहीं पीछे छूट रहा है और उसके नाम पर इस तरह का जो कुछ भी घट रहा है वह खेदजनक है। मृतकों को मेरी श्रद्धांजलि ।

प्रख्यात लेखक डॉ। हरि जोशी, इंदौर ने कहा है कि मदनवाड़ा की घटना को मुंबई में हुए आतंकी हमला से कम नहीं समझा जाना चाहिए । राजनांदगाँव के अपराधियों को कठोरता से जल्द से जल्द दंडित किया जाना चाहिए।

रायगढ़ के कवि और आलोचक डॉ. बलदेव ने कहा है कि यह मात्र राज्य सरकार की समस्या नहीं । यह केवल पुलिस की ड्यूटी नहीं कि वह आपके छत्तीसगढ़ को नक्सली विपदाओं से मुक्त बनाये रखे । यह वक्त निर्णय लेने की घड़ी है कि आप किसका वरण करना चाहते है ? माओवादी हिंसक तंत्र का या प्रजातंत्र का । अब पानी सिर से उतर चुका है । हर बच्चा बोले, हर युवक बोले, माँएं बोले, रिक्शावाला बोले, किसान बोले, मज़दूर बोले, अधिकार बोले। बोलें कि बस्स बहुत हो चुका, सिर्फ़ पुलिस ही नहीं लड़ेगी हम लडेंगे भी और नक्सलवादियों के ख़िलाफ़ बोलेंगे भी

सुशील कुमार, साहित्यकार, दुमका, झारखंड का मानना है कि नक्सली अब आंतकी का रूप ले रहे हैं। ये समाज और राष्ट्र के उसी तरह दुश्मन भी बन गये हैं। इनकी न सिर्फ़ भर्त्सना, बल्कि खात्मा के लिये सरकार और जनता, दोनों को आगे आना होगा। नक्सली अब उसी ऐशोआराम में जी रहे हैं जिस प्रकार शोषक वर्ग रहा करते हैं/थे। इनके भी बच्चे अब बड़े स्कूलों में पढ़ते हैं। इनका भी काफ़ी बैंक-बैलेन्स होता है। अत: नक्सलवाद अब जनांदोलन नहीं, पेट पालने का धंधा भी है।अब हमें ये उल्लू नहीं बना सकते।

आचार्य संजीव सलील, संपादक, नर्मदा, जबलपुर का विचार है कि नक्सलवाद वैचारिक रूप से पथ से भटके हिंसावादी हैं, जो किसी नीति-न्याय में विश्वास नहीं करते। शासन और प्रशासन को योजना बनाकर इन्हें समूल नष्ट कर देना चाहिए। ये न तो उत्पीडित हैं, न किन्ही सामाजिक अंतर्विरोधों का प्रतिफल। कुछ बुद्धिजीवी अपनी सहानुभूति देकर इन्हें पनपाते हैं । ये पौराणिक राक्षसों के आधुनिक रूप हैं जो अन्यों के मानवाधिकारों की रोज हत्या करते हैं और जब मरने लगते हैं तो खुद के मानवाधिकार की दुहाई देते हैं। आपनी साथी महिलाओं से बलात्कार करने में इन्हें संकोच नहीं होता। हिंसा पंथी कहीं भी, किसी भी रूप में हों, समूल नष्ट किये जाएँ। इनकी हर गोले का उत्तर सिर्फ और सिर्फ गोली से दिया जाना ज़ुरूरी है। सामान्य न्याय व्यवस्था नियम-कानून का सम्मान करनेवाले भद्रजनों के लिए है। आतंकवादियों को सामान्य कानून का लाभ नहीं देकर तत्काल ही गोले से मार दिया जाना चाहिए ।

देश के प्रख्यात गीतकार स्व. पं. नरेन्द्र शर्मा की बेटी लावण्या शाह, अमेरिका ने कहा है कि जब आदीवासी प्रजा पर अत्याचार होते हैँ तब वहाँ की दूसरी कौम चुप रहती है ? बस्तर के आदिवासियोँ की कोई मदद नहीँ करता ? ऐसा क्यूँ ?

ग़ज़लकार और रचनाकार के संपादक रवि रतलामी ने मदनवाड़ा में हुए नक्सली वारदात को देश का घृणित दुष्कर्म बताया । यह माओवादियों की हताशा से उपजी हिंसा है । राज्य की पुलिस प्रमुख के नेतृत्व में जिस तरह पुलिस प्रशासन इससे जान गँवाकर भी जूझ रही है वह वंदनीय है । माओवादियों के लिए अब माओ माओ नहीं रह गये, वे खाओ, पीओ और जीओ के प्रणेता की तरह लिये जाने लगे हैं । यह प्रजातंत्र के लिए ही नहीं स्वयं नक्सलियों के लिए घातक होगा । जनता को बंदूक से नहीं प्रेम का संदूक सौंपकर ही रिझाया जा सकता है । बस्तर और छत्तीसगढ़ के आदिवासियों के तथाकथित पक्षधरों का पर्दाफ़ाश हो चुका है अब इनका नाश कऱीब है ।
सभी शहीदों को शत-शत नमन करते हुए अशोक सिंघई, भिलाई ने कहा है कि राज व्यवस्था और नक्सलवादी हिंसक आन्दोलनों के मध्य एक अनंतिम महासमर है जो कि समाप्त होता नहीं दिखता है। छापामार तरीकों से यृद्ध जब भी होता है सदैव चिन्हित व बड़े पक्ष को ही हानि होती है। नक्सली पक्ष जंगों में छिपा और अचिन्हित है अतः कार्यवाही के परिणाम नहीं मिल पा रहे हैं। जन-संसाधनों का संहार राष्ट्रीयय क्षति व अपराध है। इसका हल प्रशासन के पास नहीं वरन राजनीति के पास ही मिल सकता है। यह राजनीति की दुरभिसंधियाँ ही हैं जो इस समस्या को जीवित रखे हुए हैं क्योंकि राजनीति को इन्हीं सबसे प्राणवायु मिलती है। राजनीति और मीडिया में कुछ प्रश्न पुलिस विभाग की भूमिका को लेकर उछाले जा रहे हैं। माननीय मुख्य मंत्री डा. रमन सिंह के वचन, धैर्य और प्रशासनिक चतुरता के बल पर बहुत कुछ बिखरने और बिगड़ने से अभी भी बचा हुआ है। अभी वक्त पुलिस प्रषासन को नसीहतें देने का नहीं वरन सद्भावनायें, सहानुभूतियाँ और शुभकामनायें देने का है।

डैलास, अमेरिका के रेडियो उद्घोषक और लेखक आदित्य प्रकाश सिंह ने अपनी श्रद्धांजलि मे कहा है कि नक्सलवाद केवल छत्तीसगढ़ की विपदा नहीं है । यह केवल विकास के अभाव से उपजा नहीं है । इसके मूल में है चीन के माओवादी ताकतों का विस्तार । भारत इसके लिए न कभी तैयार हुआ है, न कभी भविष्य में वह प्रजातंत्र के विकल्प में उसे स्वीकार करेगा । देश के गृहमंत्री ठीक ही कहते हैं कि अब तक चूक ही हुई है । अब वक्त आ गया है कि उन्हें जड़ से उख़ाड़ फेंका जाये ।

हिन्दी के चर्चित ब्लॉग लेखक जीत भार्गव ने माना है कि वामपंथियों ने हिन्दी, और हिन्दुस्तान का कबाडा किया है। वास्तविकता यह है कि भारत की अधोगति में इन प्रगतिशीलों को सुकून मिलता है। जनता के नरसंहार को यह जनवादी सही ठहराते हैं ।

कवि और साहित्य-शिल्पी के युवा संपादक राजीव रंजन प्रसाद ने लिखा है कि बस्तर और आदिवासी की समझ नहीं रखने वाले अपनी लफ्फाजियों से ही बाज आ जायें तो बडा परिवर्तन हो जायेगा। माओवादियों के समर्थक साहित्यकारों का बहिष्कार आवश्यक है।

दैनिक हरिभूमि, दैनिक भास्कर और वर्तमान में पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल के जनसंचार विभाग प्रमुख संजय द्विवेदी ने मदनवाड़ा की जघन्य हत्या को जाबांज पुलिस कर्मियों का विजय बताया है कि उन्होंने उस युद्ध की शुरुआत कर दी है – जान गँवाकर भी कि अब हिंसक तत्वों को किसी भी कीमत में राज्य में पनपने नहीं दिया जायेगा । यह घटना उन्हें श्रद्धांजलि देने के अलावा स्वयं को ऐसी राष्ट्रद्रोही गतिविधियों के प्रति सतर्क रहने की भी सबक है । नक्सलवाद आंतकवाद का घरेलू संस्करण है जिसे बिना आंतकवाद माने निजात नहीं पाया जा सकता है । अब केंद सरकार को भी ऐसी समस्याओं पर बिना राजनीति किये जूझने के लिए तैयार होना होगा । प्रतिपक्ष में खड़े राजनीतिक दल अब तय करें कि माओवादी हिंसक नक्सली उनके भी खिलाफ़ है। हर उस व्यक्ति के खिलाफ हैं जो प्रजातंत्र की वकालत करता है, उस पर श्रद्धा करता है ।

स्वीड़न निवासी रेडियो संचालक और कवि चांद शुक्ला ने माओवादी हिंसा की कटू आलोचना करते हुए इसे प्रजातंत्र के लिए ख़तरा बताया है । उन्होंने कहा है कि नक्सलवाद की समस्या मात्र छत्तीसगढ़ की समस्या नहीं अपितु समूचे भारत की समस्या है, जिससे निपटने के लिए सारे देशवासी को आगे आना पड़ेगा ।

कार्टूनिस्ट अजय सक्सेना, अजय श्रीवास्तव ने कहा है कि हिंसा पर उतारू नक्सलियों को सबक सिखाने का अंतिम समय आ चुका है, उनसे अब किसी प्रकार की बातचीत की संभावना क्षीण हो चुकी है ।

मदनवाड़ा नक्सली हिंसा की निंदा करने वालों में अन्य प्रमुख लेखक हैं – शिवकुमार मिश्र, खगेन्द्र ठाकुर, प्रभाकर श्रोत्रिय, गंगाप्रसाद बरसैंया, रमेश दवे, अशोक माहेश्वरी, ओम भारती, एकांत श्रीवास्तव, मुक्ता, रंजना अरगड़े, अरूण शीतांश, डॉ. बृजबाला सिंह, नंदकिशोर तिवारी, राजेन्द्र परदेसी, डॉ. नैना डेलीवाला, राजुरकर राज, नवल जायसवाल, सुशील त्रिवेदी, आनंद कृष्ण, संतोष रंजन, राम पटवा, जयप्रकाश मानस, अशोक सिंघई, मुमताज, रवि श्रीवास्तव, बी. एल. पॉल, कमलेश्वर, सुरेश तिवारी, तपेश जैन, कुमेश जैन, हीरामन सिंह ठाकुर, संजीव ठाकुर, डॉ. राजेन्द्र सोनी, डॉ. चित्तरंजन कर, श्रीमती माधुरी कर, गौतम पटेल, डॉ. जे. आर. सोनी, राम शरण टंडन, डॉ. अजय पाठक, एस. अहमद, वंदना केंगरानी, चेतन भारती, भारती बंधु ।

4 टिप्‍पणियां:

रवि रतलामी ने कहा…

अंधाधुंध हिंसा करने वाले नक्सली - तालिबानियों के भाई बंधु हैं. इन्हें भी , इनके विचारों सहित नेस्तनाबूत करने का समय आ गया है. इनके विचार कतई मानवीय नहीं है, बल्कि ये पशु से भी बदतर हो चुके हैं.

घटना दुखद तो है ही, परंतु इस समस्या से निपटने का सरकारों का अब तक रवैया - कहीं इसे पाला पोसा जाता है तो कहीं इस पर से आंख मूंद लिया जाता है - भी कहीं न कहीं जिम्मेदार तो है.

बेनामी ने कहा…

खून के गुबार किसको अच्छा लगता है । शायद आदमियत के दुश्मनों को यही दुश्मन किस्म केलोग नक्सलवाद के पोषक बने हुए हैं । सिर्फ़ अपना मतलब साधने के लिए । सही मायने में नक्सलवाद मानवता पर प्रहार है । लोकतंत्र पर आघात है । नक्सलवाद मौत के सौदागर है । जगजाहिर हो चुका है कि खूनी मंतव्य से विकास साध्य नहीं है । नक्सलवाद फैलाकर मसीहा बनाने के खूनी प्रयास है जो असाध्य रोग बन चुका है, इन नक्सलवादियों को दूत्कार देना चाहिए । इनका विरोध जाति, धरम से ऊपर उठकर किया जाना चाहिए । जिन मुद्दों की आड़ मैं इन्सानियत के दुश्मन अपना झंडा ऊँचा कर रहे हैं उन मुद्दों का निस्तारण सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक स्तर पर किया जाना चाहिए, इसी में मानव समाज, राष्ट्रहित और लोकतंत्र की रक्षा निहित है ही, इसी मैं नक्सलवादियों का दमन भी निहित है ।

नंदलाल भारती
उपन्यासकार, इंदौर
email- nlbharatiauthor@gmail.com

बेनामी ने कहा…

"नक्सली समस्या न सिर्फ छत्तीसगढ वरन पूरे देश में व्याप्त समस्या है, भय व्याप्त कर एवँ लालच देकर तो किसी से कुछ भी करवाया जा सकता है, किंतु कार्य की प्रसंशा तो तब है, जब मनुष्य स्वत: ही आगे बढकर कार्य करने की इच्छा जाहिर करे और कार्य सम्पादित करे, भोले - भाले ग्रामीणों को भय एवँ लालच में अपनी ओर खींच लेना शोषण व कायरता की निशानी है, यह प्रसंशनीय हरगिज नही हो सकता।हमारे देश मे ऎसे अनेकों संवैधानिक व सामाजिक रास्ते हैं जिनसे प्रेरणा लेकर कदम बढाये जा सकते हैं तथा समाज में व्याप्त कुरीतियों का उन्मूलन कर स्वच्छ समाज व राष्ट्र का निर्माण किया जा सकता है , जो वर्तमान नक्सली ढाँचे और कार्य प्रणाली से सम्भव नहीं है, वर्तमान नक्सली कार्य प्रणाली सिर्फ गैर कानूनी - समाज विरोधी है।"

श्याम कोरी 'उदय'
फोन-9300957752 // जन्म - 1969, उदयपुर, जिला - विदिशा (मध्य प्रदेश)
http://kaduvasach.blogspot.com

बेनामी ने कहा…

"नक्सली समस्या न सिर्फ छत्तीसगढ वरन पूरे देश में व्याप्त समस्या है, भय व्याप्त कर एवँ लालच देकर तो किसी से कुछ भी करवाया जा सकता है, किंतु कार्य की प्रसंशा तो तब है, जब मनुष्य स्वत: ही आगे बढकर कार्य करने की इच्छा जाहिर करे और कार्य सम्पादित करे, भोले - भाले ग्रामीणों को भय एवँ लालच में अपनी ओर खींच लेना शोषण व कायरता की निशानी है, यह प्रसंशनीय हरगिज नही हो सकता।हमारे देश मे ऎसे अनेकों संवैधानिक व सामाजिक रास्ते हैं जिनसे प्रेरणा लेकर कदम बढाये जा सकते हैं तथा समाज में व्याप्त कुरीतियों का उन्मूलन कर स्वच्छ समाज व राष्ट्र का निर्माण किया जा सकता है , जो वर्तमान नक्सली ढाँचे और कार्य प्रणाली से सम्भव नहीं है, वर्तमान नक्सली कार्य प्रणाली सिर्फ गैर कानूनी - समाज विरोधी है।"

श्याम कोरी 'उदय'
फोन-9300957752 // जन्म - 1969, उदयपुर, जिला - विदिशा (मध्य प्रदेश)
www.kaduvasach.blogspot.com