भारतीय लोकतंत्र के समक्ष जब कभी भी चुनावों से रूबरू होने का समय आता है, उस समय इस विशाल लोकतंत्र के खेवनहार समझे जाने वाले 'राजनेता' जनता के समक्ष एक-दूसरे नेताओं पर तरह-तरह के आरोप लगाते, उनपर कटाक्ष करते तथा जनता से तरह-तरह के वायदे करते दिखाई देते हैं।
जहां इन नेताओं द्वारा अपने प्रतिद्वन्दी नेताओं को अपमानित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी जाती, वहीं इनके द्वारा अनेकों प्रकार के सुनहरे सपने भी मतदाताओं को दिखाए जाते हैं। सत्ता में आने पर राम राज्य स्थापित करने जैसी बातें की जाने लगती हैं। केवल आश्वासन के दम पर वोट झटकने में महारत रखने वाले यह नेता मतदाताओं को यह समझाने की पूरी कोशिश करते हैं कि यदि राजा हरिशचन्द्र के बाद कोई सत्यवादी है तो वह केवल स्वयं वही हैं। अत: वह उस समय जो भी कह रहे हैं, वही सत्य है तथा वे जो भी वायदा कर रहे हैं, उसे वे ंजरूर पूरा करेंगे। परन्तु सच्चाई तो कुछ और ही है। आरोप-प्रत्यारोप, वचन, वायदे, घोषणाएं आदि महंज अस्थायी एवं सामयिक बातें ही मात्र रह जाती हैं। अब तो हालत यह हो चली है कि यदि किसी नेता ने अपना कथन पूरा कर दिया अथवा उसपर कायम रहा तो मानो उसमें नेता जैसे सम्पूर्ण गुणों का ही अभाव है। यह नेता कहते कुछ और हैं तथा करते कुछ और। 'कथनी और करनी में अन्तर' होने जैसी कहावत तो मानो इन्हीं नेताओं के लिए ही निर्धारित होकर रह गई हो। सिद्धान्त नाम की कोई चीज इनमें नंजर नहीं आती। अनर्गल और अनाप-शनाप बयानबाजियां करने में तो यह नेता इस हद तक आगे बढ़ चुके हैं कि प्राय: इनके पास अपनी ही कही बातों का कोई जवाब नहीं होता और यह अपने ही रचे शब्द जाल में खुद ही फंसकर रह जाते हैं।
उदाहरण के तौर पर वर्तमान यू.पी.ए. सरकार के गठन के समय भारतीय जनता पार्टी द्वारा कांग्रेस व डी.एम.के साथ गठबंधन के मामले को लेकर कांग्रेस को कठघरे में खड़ा किया गया था। भाजपा का कहना था कि जब कांग्रेस पार्टी डी.एम.के. पर राजीव गांधी की हत्या की सांजिश में शामिल होने का आरोप लगा रही थी फिर उसे नैतिक आधार पर डी.एम.के. से चुनावपूर्व गठबंधन नहीं करना चाहिए था। भाजपा इसे कांग्रेस का अवसरवाद बता रही थी। कांग्रेस पार्टी प्रत्युत्तर में कानूनी जवाब देते हुए यह कहकर अपने व डी.एम.के. के नऐ रिश्ते को उचित ठहरा रही थी कि जब जैन कमीशन की रिपोर्ट में डी.एम.के. को क्लीन चिट दे दी गई है तो आयोग की रिपोर्ट का आदर करते हुए डी.एम.के. से गठबंधन करना कोई अनैतिक कदम नहीं है। इस आरोप प्रत्यारोप के मध्य एक प्रश्न भारतीय जनता पार्टी के लिए यह ंजरूर खड़ा होता है कि जैन कमीशन की रिपोर्ट आने से पूर्व इसी डी.एम.के. को भारतीय जनता पार्टी ने राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के सम्मानित घटक के रूप में आंखिर क्यों रखा था जबकि उस समय डी.एम.के. संदेह के घेरे में थी तथा राजीव गांधी की हत्या की सांजिश के लिए कांग्रेस उस पर उंगली उठा रही थी। परन्तु भाजपा इस विषय पर अपने गिरेबान में झांकने के बजाए कांग्रेस पर उंगली उठाना ज्यादा उचित समझती है।
इसी प्रकार भाजपा प्रवक्ता सुषमा स्वराज जिन्होंने कि देवगौड़ा की गठबंधन सरकार को कभी भानुमति का कुनबा कहा था परन्तु अपना समय आने पर वही स्वयं उसी भनुमति के कुनबे अर्थात् गठबंधन सरकार की ंजरूरत को देश की आवश्यकता बताने लगी थीं। उन्होंने कुछ वर्ष पूर्व अपने शब्द जाल के तर्कश से एक तीर छोड़ा था कि 'सोनिया गांधी को राजनीति की ए.बी.सी.डी. का भी पता नहीं है।' यदि सुषमा स्वराज की इस बात को ठीक मान लिया जाए तो क्या यह नहीं मानना पड़ेगा कि सुषमा स्वराज के अनुसार राजनीति से पूरी तरह अनभिज्ञ उसी महिला अर्थात् सोनिया गांधी ने बेल्लारी से अपने को राजनीति का पंडित समझने वाली सुषमा स्वराज को आंखिर किन परिस्थितियों में चुनाव हरा दिया था? क्या इससे सुषमा स्वराज की अपनी राजनैतिक हैसियत का पर्दांफाश नहीं होता कि वह उन्हीं के अनुसार उस महिला से चुनाव हार चुकी हैं जिसे कि राजनीति की ए.बी.सी.डी. भी नहीं आती? गलत बयानबांजी का एक और उदाहरण भारतीय जनता पार्टी में ही उस दौरान देखने को मिला था जबकि भाजपा ने उतावलेपन में आकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बाहुबली डी.पी. यादव को पार्टी में शामिल कर लिया था। वैसे तो 1998 में भाजपा सम्भल संसदीय क्षेत्र से डी.पी. यादव को अपना समर्थन पहले भी दे चुकी है परन्तु गत् संसदीय चुनावों के दौरान चूंकि मीडिया, आम जनता, चुनाव आयोग, पत्रकारों व लेखकों तथा राष्ट्र के दूसरे तमाम हितैषी संगठनों ने देश में होने वाले चुनावों तथा राजनैतिक दलों द्वारा चुनाव जीतने के लिए अपनाए जाने वाले हथकंडों पर अपनी पैनी नंजर रखी हुई थी इसलिए भाजपा के एक प्रवक्ता ने डी.पी. यादव को पार्टी में शामिल करते हुए ही इस आश्चर्यजनक कथन का प्रयोग भाजपा के पक्ष में किया कि- 'भारतीय जनता पार्टी एक समुद्र है तथा इसमें जो भी आकर मिलता है वह भी पवित्र हो जाता है।' अपने इस कथन के ठीक चार दिन बाद डी.पी. यादव को पार्टी से तब अलग कर दिया गया जबकि मीडिया द्वारा भारतीय जनता पार्टी पर राजनीति का अपराधीकरण करने का खुला आरोप लगाया गया। इस परिस्थिति में भाजपा के उसी प्रवक्ता को क्या पुन: इस प्रकरण को लेकर अपने कथन पर रौशनी नहीं डालनी चाहिए थी कि जब डी.पी. यादव भाजपा रूपी कथित समुद्र में शामिल होकर पवित्र हो चुके थे फिर आंखिर उन्हें क्यों उस कथित समुद्र से बाहर निकलना पड़ा? क्या भाजपा के प्रवक्ता के कथन की वास्तविकता यहां समाप्त नहीं हो जाती। क्या इससे यह बात जाहिर नहीं होती कि भाजपा रूपी कथित समुद्र में किसी अपवित्र चींज को पवित्र करने की क्षमता नहीं है? ऐसा नहीं है कि अपने पक्ष में की जाने वाली ऐसी अनाप-शनाप बातें करना केवल भारतीय जनता पार्टी के नेताओं की ही विशेषता हो। वास्तविकता तो यह है कि पूरे देश की अधिकांश पार्टियों के अधिकतर नेता इसी प्रकार की अनर्गल और बेसिर पैर की बातों पर विश्वास करने लगे हैं। वे जब जनता के समक्ष अपना मुंह खोलते हैं तो उनकी आंखें बंद हो जाती हैं। पूरे देश ने सुना कि बहुजन समाज पार्टी की नेता मायावती ने भाजपा व कांग्रेस दोनों के लिए कहा कि इनमें एक सांपनाथ है तो दूसरा नागनाथ। परन्तु उन्होंने यह नहीं स्पष्ट किया कि कौन सांपनाथ है और कौन नागनाथ। इसके कुछ ही दिन बाद इन्हीं माया बहन ने एक और बयान दिया जिसमें उन्होंने कहा कि मैं अटल बिहारी वाजपेयी की दूसरी बेटी हूं। अब मायावती के इस बयान के बाद स्वाभाविक रूप से एक प्रश्न जन्म लेता है कि यदि वह वाजपेयी जी की दूसरी बेटी हैं तो या तो वह सांपनाथ की बेटी हैं अथवा नागनाथ की। अब यहां यह बताने की जरूरत तो नहीं रह जाती है कि सांपनाथ या नागनाथ की बेटी स्वयं क्या हो सकती है। तांजातरीन राजनैतिक घटनाक्रम में यही माया बहन कांग्रेस से अपने नए रिश्ते स्थापित करने में जुटी हैं। शायद यही वर्तमान राजनीति का तकाजा हो। अब फिलहाल न तो यह कांग्रेस उन्हें नाग नंजर आ रही है, न ही सांप। यह सब नेताओं द्वारा प्रयोग किए गए ऐसे ही शब्द जाल हैं जिनका प्रयोग तो वे यह सोचकर कर देते हैं कि वह जो कुछ भी बोल रहे हैं वह लोक लुभावन है परन्तु वह यह भूल जाते हैं कि कहीं ऐसा न हो कि वह स्वयं अपने ही बुने इन्हीं शब्द जालों में खुद ही फंस जाएं। कल्याण सिंह द्वारा वाजपेयी के लिए अपमानजनक शब्दों का प्रयोग करना भी सभी ने देखा है। उसके बाद कल्याण सिंह ने ही कितनी बेहयाई के साथ मीडिया के इस प्रश् का उत्तर दिया कि 'कल तक आप वाजपेयी पर उंगली उठा रहे थे आंखिर आज अचानक यह परिवर्तन कैसा?' इस पर कल्याण सिंह ने कहा था कि 'कल तक मैं वाजपेयी पर एक उंगली उठाता था तो आज पांचों उंगलियों से उन्हें लड्डू भी खिला दिया है।' इस वाक्य को नैतिकता, सिद्धांत या आदर्श की कसौटी पर यदि परखा जाए तो इसमें फरेब, छलावा, स्वार्थ और मक्कारी के सिवा कोई रचनात्मक तर्क नंजर नहीं आता। इसी प्रकार तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष वैंकैया नायडू साहब ने गत संसदीय चुनावों से पूर्व ंफरमाया था कि 'गुजरात जैसा राजनैतिक माहौल पूरे देश में बनाया जाएगा।'
उपरोक्त तथा इस जैसी तमाम बाते ऐसी हैं जिनसे सांफ ंजाहिर होता है कि किसी पार्टी का कोई भी नेता कब क्या बोल रहा है और कब अपनी ही किस बात का खंडन करने लगेगा, उसके सिद्धांत आज क्या हैं और कल के आदर्श क्या होंगे किसी को इस बारे में कुछ पता नहीं रहता। यही वजह है कि नेताओं व राजनैतिक दलों के साथ-साथ चुनाव प्रक्रिया से भी लोगों का मोह भंग होता जा रहा है। जनता का विश्वास दिन-प्रतिदिन इस बात पर पक्का होता जा रहा है कि नेताओं की कथनी और करनी में कांफी अन्तर है तथा इनकी बातों व इनके द्वारा उठाए गए किसी भी राजनैतिक कदम का कोई भरोसा नहीं किया जा सकता।
जहां इन नेताओं द्वारा अपने प्रतिद्वन्दी नेताओं को अपमानित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी जाती, वहीं इनके द्वारा अनेकों प्रकार के सुनहरे सपने भी मतदाताओं को दिखाए जाते हैं। सत्ता में आने पर राम राज्य स्थापित करने जैसी बातें की जाने लगती हैं। केवल आश्वासन के दम पर वोट झटकने में महारत रखने वाले यह नेता मतदाताओं को यह समझाने की पूरी कोशिश करते हैं कि यदि राजा हरिशचन्द्र के बाद कोई सत्यवादी है तो वह केवल स्वयं वही हैं। अत: वह उस समय जो भी कह रहे हैं, वही सत्य है तथा वे जो भी वायदा कर रहे हैं, उसे वे ंजरूर पूरा करेंगे। परन्तु सच्चाई तो कुछ और ही है। आरोप-प्रत्यारोप, वचन, वायदे, घोषणाएं आदि महंज अस्थायी एवं सामयिक बातें ही मात्र रह जाती हैं। अब तो हालत यह हो चली है कि यदि किसी नेता ने अपना कथन पूरा कर दिया अथवा उसपर कायम रहा तो मानो उसमें नेता जैसे सम्पूर्ण गुणों का ही अभाव है। यह नेता कहते कुछ और हैं तथा करते कुछ और। 'कथनी और करनी में अन्तर' होने जैसी कहावत तो मानो इन्हीं नेताओं के लिए ही निर्धारित होकर रह गई हो। सिद्धान्त नाम की कोई चीज इनमें नंजर नहीं आती। अनर्गल और अनाप-शनाप बयानबाजियां करने में तो यह नेता इस हद तक आगे बढ़ चुके हैं कि प्राय: इनके पास अपनी ही कही बातों का कोई जवाब नहीं होता और यह अपने ही रचे शब्द जाल में खुद ही फंसकर रह जाते हैं।
उदाहरण के तौर पर वर्तमान यू.पी.ए. सरकार के गठन के समय भारतीय जनता पार्टी द्वारा कांग्रेस व डी.एम.के साथ गठबंधन के मामले को लेकर कांग्रेस को कठघरे में खड़ा किया गया था। भाजपा का कहना था कि जब कांग्रेस पार्टी डी.एम.के. पर राजीव गांधी की हत्या की सांजिश में शामिल होने का आरोप लगा रही थी फिर उसे नैतिक आधार पर डी.एम.के. से चुनावपूर्व गठबंधन नहीं करना चाहिए था। भाजपा इसे कांग्रेस का अवसरवाद बता रही थी। कांग्रेस पार्टी प्रत्युत्तर में कानूनी जवाब देते हुए यह कहकर अपने व डी.एम.के. के नऐ रिश्ते को उचित ठहरा रही थी कि जब जैन कमीशन की रिपोर्ट में डी.एम.के. को क्लीन चिट दे दी गई है तो आयोग की रिपोर्ट का आदर करते हुए डी.एम.के. से गठबंधन करना कोई अनैतिक कदम नहीं है। इस आरोप प्रत्यारोप के मध्य एक प्रश्न भारतीय जनता पार्टी के लिए यह ंजरूर खड़ा होता है कि जैन कमीशन की रिपोर्ट आने से पूर्व इसी डी.एम.के. को भारतीय जनता पार्टी ने राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के सम्मानित घटक के रूप में आंखिर क्यों रखा था जबकि उस समय डी.एम.के. संदेह के घेरे में थी तथा राजीव गांधी की हत्या की सांजिश के लिए कांग्रेस उस पर उंगली उठा रही थी। परन्तु भाजपा इस विषय पर अपने गिरेबान में झांकने के बजाए कांग्रेस पर उंगली उठाना ज्यादा उचित समझती है।
इसी प्रकार भाजपा प्रवक्ता सुषमा स्वराज जिन्होंने कि देवगौड़ा की गठबंधन सरकार को कभी भानुमति का कुनबा कहा था परन्तु अपना समय आने पर वही स्वयं उसी भनुमति के कुनबे अर्थात् गठबंधन सरकार की ंजरूरत को देश की आवश्यकता बताने लगी थीं। उन्होंने कुछ वर्ष पूर्व अपने शब्द जाल के तर्कश से एक तीर छोड़ा था कि 'सोनिया गांधी को राजनीति की ए.बी.सी.डी. का भी पता नहीं है।' यदि सुषमा स्वराज की इस बात को ठीक मान लिया जाए तो क्या यह नहीं मानना पड़ेगा कि सुषमा स्वराज के अनुसार राजनीति से पूरी तरह अनभिज्ञ उसी महिला अर्थात् सोनिया गांधी ने बेल्लारी से अपने को राजनीति का पंडित समझने वाली सुषमा स्वराज को आंखिर किन परिस्थितियों में चुनाव हरा दिया था? क्या इससे सुषमा स्वराज की अपनी राजनैतिक हैसियत का पर्दांफाश नहीं होता कि वह उन्हीं के अनुसार उस महिला से चुनाव हार चुकी हैं जिसे कि राजनीति की ए.बी.सी.डी. भी नहीं आती? गलत बयानबांजी का एक और उदाहरण भारतीय जनता पार्टी में ही उस दौरान देखने को मिला था जबकि भाजपा ने उतावलेपन में आकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बाहुबली डी.पी. यादव को पार्टी में शामिल कर लिया था। वैसे तो 1998 में भाजपा सम्भल संसदीय क्षेत्र से डी.पी. यादव को अपना समर्थन पहले भी दे चुकी है परन्तु गत् संसदीय चुनावों के दौरान चूंकि मीडिया, आम जनता, चुनाव आयोग, पत्रकारों व लेखकों तथा राष्ट्र के दूसरे तमाम हितैषी संगठनों ने देश में होने वाले चुनावों तथा राजनैतिक दलों द्वारा चुनाव जीतने के लिए अपनाए जाने वाले हथकंडों पर अपनी पैनी नंजर रखी हुई थी इसलिए भाजपा के एक प्रवक्ता ने डी.पी. यादव को पार्टी में शामिल करते हुए ही इस आश्चर्यजनक कथन का प्रयोग भाजपा के पक्ष में किया कि- 'भारतीय जनता पार्टी एक समुद्र है तथा इसमें जो भी आकर मिलता है वह भी पवित्र हो जाता है।' अपने इस कथन के ठीक चार दिन बाद डी.पी. यादव को पार्टी से तब अलग कर दिया गया जबकि मीडिया द्वारा भारतीय जनता पार्टी पर राजनीति का अपराधीकरण करने का खुला आरोप लगाया गया। इस परिस्थिति में भाजपा के उसी प्रवक्ता को क्या पुन: इस प्रकरण को लेकर अपने कथन पर रौशनी नहीं डालनी चाहिए थी कि जब डी.पी. यादव भाजपा रूपी कथित समुद्र में शामिल होकर पवित्र हो चुके थे फिर आंखिर उन्हें क्यों उस कथित समुद्र से बाहर निकलना पड़ा? क्या भाजपा के प्रवक्ता के कथन की वास्तविकता यहां समाप्त नहीं हो जाती। क्या इससे यह बात जाहिर नहीं होती कि भाजपा रूपी कथित समुद्र में किसी अपवित्र चींज को पवित्र करने की क्षमता नहीं है? ऐसा नहीं है कि अपने पक्ष में की जाने वाली ऐसी अनाप-शनाप बातें करना केवल भारतीय जनता पार्टी के नेताओं की ही विशेषता हो। वास्तविकता तो यह है कि पूरे देश की अधिकांश पार्टियों के अधिकतर नेता इसी प्रकार की अनर्गल और बेसिर पैर की बातों पर विश्वास करने लगे हैं। वे जब जनता के समक्ष अपना मुंह खोलते हैं तो उनकी आंखें बंद हो जाती हैं। पूरे देश ने सुना कि बहुजन समाज पार्टी की नेता मायावती ने भाजपा व कांग्रेस दोनों के लिए कहा कि इनमें एक सांपनाथ है तो दूसरा नागनाथ। परन्तु उन्होंने यह नहीं स्पष्ट किया कि कौन सांपनाथ है और कौन नागनाथ। इसके कुछ ही दिन बाद इन्हीं माया बहन ने एक और बयान दिया जिसमें उन्होंने कहा कि मैं अटल बिहारी वाजपेयी की दूसरी बेटी हूं। अब मायावती के इस बयान के बाद स्वाभाविक रूप से एक प्रश्न जन्म लेता है कि यदि वह वाजपेयी जी की दूसरी बेटी हैं तो या तो वह सांपनाथ की बेटी हैं अथवा नागनाथ की। अब यहां यह बताने की जरूरत तो नहीं रह जाती है कि सांपनाथ या नागनाथ की बेटी स्वयं क्या हो सकती है। तांजातरीन राजनैतिक घटनाक्रम में यही माया बहन कांग्रेस से अपने नए रिश्ते स्थापित करने में जुटी हैं। शायद यही वर्तमान राजनीति का तकाजा हो। अब फिलहाल न तो यह कांग्रेस उन्हें नाग नंजर आ रही है, न ही सांप। यह सब नेताओं द्वारा प्रयोग किए गए ऐसे ही शब्द जाल हैं जिनका प्रयोग तो वे यह सोचकर कर देते हैं कि वह जो कुछ भी बोल रहे हैं वह लोक लुभावन है परन्तु वह यह भूल जाते हैं कि कहीं ऐसा न हो कि वह स्वयं अपने ही बुने इन्हीं शब्द जालों में खुद ही फंस जाएं। कल्याण सिंह द्वारा वाजपेयी के लिए अपमानजनक शब्दों का प्रयोग करना भी सभी ने देखा है। उसके बाद कल्याण सिंह ने ही कितनी बेहयाई के साथ मीडिया के इस प्रश् का उत्तर दिया कि 'कल तक आप वाजपेयी पर उंगली उठा रहे थे आंखिर आज अचानक यह परिवर्तन कैसा?' इस पर कल्याण सिंह ने कहा था कि 'कल तक मैं वाजपेयी पर एक उंगली उठाता था तो आज पांचों उंगलियों से उन्हें लड्डू भी खिला दिया है।' इस वाक्य को नैतिकता, सिद्धांत या आदर्श की कसौटी पर यदि परखा जाए तो इसमें फरेब, छलावा, स्वार्थ और मक्कारी के सिवा कोई रचनात्मक तर्क नंजर नहीं आता। इसी प्रकार तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष वैंकैया नायडू साहब ने गत संसदीय चुनावों से पूर्व ंफरमाया था कि 'गुजरात जैसा राजनैतिक माहौल पूरे देश में बनाया जाएगा।'
उपरोक्त तथा इस जैसी तमाम बाते ऐसी हैं जिनसे सांफ ंजाहिर होता है कि किसी पार्टी का कोई भी नेता कब क्या बोल रहा है और कब अपनी ही किस बात का खंडन करने लगेगा, उसके सिद्धांत आज क्या हैं और कल के आदर्श क्या होंगे किसी को इस बारे में कुछ पता नहीं रहता। यही वजह है कि नेताओं व राजनैतिक दलों के साथ-साथ चुनाव प्रक्रिया से भी लोगों का मोह भंग होता जा रहा है। जनता का विश्वास दिन-प्रतिदिन इस बात पर पक्का होता जा रहा है कि नेताओं की कथनी और करनी में कांफी अन्तर है तथा इनकी बातों व इनके द्वारा उठाए गए किसी भी राजनैतिक कदम का कोई भरोसा नहीं किया जा सकता।
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1630/11, महावीर नगर
अम्बाला शहर, हरियाणा
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