लेखक और स्तंभकार
आठवाँ हिंदी सम्मेलन न्यूयॉर्क में होने जा रहा है। सम्मेलन के इतिहास में यह किंचित ही विशिष्ट घटना है. सूचना यह है कि इस बार का उदघाटन सत्र संयुक्त राष्ट्र संघ(यूएनओ) के किसी सभागार में होगा। यह भी एक प्रतीकात्मक घटना होगी। अरसे से हिंदी को यूएनओ की एक मान्य भाषा बनाए जाने की माँग हो रही है. शायद इस बार यह माँग फलीभूत हो. मुझको एक सत्र में बीज-वक्तव्य देने के लिए निमंत्रित किया गया है। मैं जा रहा हूँ. सारा इंतज़ाम आयोजकों की ओर से हैं. भारत सरकार का विदेश मंत्रालय सम्मेलन का आयोजक है।
महत्व
सम्मेलनों का प्रतीकात्मक महत्व होता है। वे वातावरण बनाते हैं. लेखक समूहों के बीच नए संवाद बनाया करते हैं. हिंदी सम्मेलन यही करेगा. हिंदी भाषा के बारे में लगातार पढ़ते, सोचते और लिखते रहने की वजह से इतना तो अब कह ही सकता हूँ कि इस हिंदी भाषा में अधिकतम जनतंत्र है। कट्टरता की जगह उदारता हिंदी की पहचान है। शुद्धतावादी विचारकों की प्रस्थापनाएँ पुरानी पड़ गईं हैं. हिंदी समकालीन भूमंडलीकरण के दौर में एक सशक्त, सर्वत्र उपस्थित विश्वभाषा बन चली है। उसके अनेक स्तर, अनेक रूप, अनेक शैलियाँ हैं और एक नई अंतरंग किस्म की बहुलता है. मुक्त बाज़ार, ग्लोबल जनसंचार, तकनीक क्रांति और हिंदी क्षेत्रों के विराट उपभोक्ता बाज़ार ने हिंदी को एक नई शिनाख़्त और ताकत दी है। संस्कृतवाद का दामन छोड़, बोलियों को अपने में सजोकर, उर्दू के साथ दोस्ती स्थापित कर और अंग्रेज़ी से सहवर्ती भाव में विकास पाती हिंदी अपना 'ग्लोबल ग्लोकुल' बना रही है।
समस्याएँ
मुक्त बाज़ार, ग्लोबल जनसंचार, तकनीक क्रांति औऱ हिंदी क्षेत्रों के विराट उपभोक्ता बाज़ार ने हिंदी को एक नई शिनाख़्त और ताकत दी है.संस्कृतवाद का दामन छोड़, बोलियों को अपने में सजोकर, उर्दू के साथ दोस्ती स्थापित कर और अंग्रेज़ी से सहवर्ती भाव में विकास पाती हिंदी अपना 'ग्लोबल ग्लोकुल' बना रही है.
ज़ाहिर है विकास के साथ-साथ उसकी समस्याएँ भी सामने हैं। ऐसे सम्मेलन इन समस्याओं को भी चिन्हित करने की कोशिश कर सकते हैं. अपना वक्तव्य हिंदी के मीडिया के साथ-साथ हिंदी की 'आर्थिकी' के बारे में है. भाषा के विकास की समस्या समाज के आर्थिक विकास के साथ जुड़ी है। हिंदी भाषा को अगर घर के भीतर पूरा सम्मान नहीं मिलता तो इसकी वजह यही है कि हिंदी को विकास और उत्पादकता से नहीं जोड़ा गया। राष्ट्रवादी, अस्मितावादी और शुद्धतावादी विचार से सोचकर हिंदी बहुत आगे नहीं जा सकती। हिंदी जब अर्थ-उत्पादन में सक्षम होगी तभी आगे जाएगी. अपनी चिंता इसी के आसपास है. कई मित्र और लेखक नहीं जा रहे हैं. उनके न जाने की वजहें निजी होंगी। जाना या न जाना उनकी च्वायस. अपनी च्वायस तो साफ़ है. जो नहीं जा रहे वो अनेक बार गए हैं। तब शायद उन्हें ऐतराज़ नहीं रहा होगा. अब हो गया है.
उनकी वो जानें। अपनी तो लाइन है- आप बुलाएँ, हम ना आएँ, ऐसे तो हालात नहीं.
(साभारः बीबीसी बुधवार, 11 जुलाई, 2007)
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