7/11/2007

इराक में धर्मस्थलों पर होने वाले 'रहस्यपूर्ण' हमले


इराक में मौजूद अमेरिकी सेना के तमाम दावों व प्रयासों के बावजूद इराक की स्थिति सुधरने के बजाए दिन-प्रतिदिन और अधिक बिगड़ती हुई प्रतीत हो रही है। इराक के प्रमुख शहरों में भीड़-भाड़ वाली जगहों पर की जाने वाली आक्रमणकारी कार्रवाई हो या इराक में मौजूद विदेशी सेनाओं पर होने वाले हमले, कुछ भी थमने का नाम नहीं ले रहे हैं। और इन सबसे अधिक चिन्ता का विषय है इराक में धार्मिक स्थलों पर लगातार होने वाले ऐसे विस्फोट जोकि इराक को गृहयुद्ध की ओर भी ढकेल सकते हैं। ऐसे विस्फोटों में भी कमी आने के बजाए बढ़ोत्तरी ही दर्ज की जा रही है। नि:सन्देह इराक के ऐसे हालात न सिंर्फ इराकी अवाम के लिए अत्यन्त दुर्भाग्यपूर्ण हैं बल्कि अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश के समक्ष भी यह बहुत बड़ी चुनौती पेश कर रहे हैं। धर्मस्थलों पर होने वाले हमलों के सिलसिले में एक और दिलचस्प बात यह है कि इराकी अवाम अभी तक यही समझ पाने में नाकाम है कि आंखिर आम लोगों की आस्थाओं को झकझोरने वाली इन प्रलयकारी साजिशों के पीछे कौन सी शक्तियाँ काम कर रही हैं। जैसे ही किसी प्रमुख ऐतिहासिक धर्मस्थल पर आक्रमण होता है या सुनियोजित साजिश के तहत उस स्थल पर कोई बड़ा बम विस्फोट होता है, उसी समय इराक की राजनीति से जुड़ा प्रत्येक पक्ष उन आक्रमणों अथवा विस्फोटों को अपने-अपने ढंग से परिभाषित करने लग जाता है। यदि ऐसा कोई विस्फोट किसी शिया स्थान पर होता है तो इराक में मौजूद अमेरिकी सेना आनन-फानन में ऐसे हमलों की जिम्मेदारी अलकायदा अथवा अन्य सुन्नी विद्रोही गुटों पर मढ़ने की कोशिश करती है। उधर इराक की मौजूदा सरकार भी आमतौर पर अमेरिकी वक्तव्य का ही समर्थन करती दिखाई देती है। दूसरी ओर इराक के शिया संगठन, पड़ोसी देश ईरान, शिया नेता मुक्तदा अल सद्र व लेबनान में बैठे शिया नेता हसन नसरुल्ला आदि इराक में होने वाली ऐसी सभी घटनाओं के लिए सीधे तौर पर सिर्फ अमेरिका को ही जिम्मेदार ठहराते हैं। इराक में प्रमुख शिया धर्मस्थलों पर कई हमले ऐसे भी हुए हैं जिनके लिए अलकायदा या सुन्नी विद्रोही गुटों को जिम्मेदार तो ठहराया गया परन्तु इन संगठनों ने ऐसे हमलों में अपना हाथ होने से इन्कार भी किया है। फिर आखिर प्रश्न यह उठता है कि इराक में शिया व सुन्नी वर्गों के मध्य आग भड़काने वाले तथा अपनी इन नापाक हरकतों से इराक में गृहयुद्ध जैसे हालात पैदा करने वाली इन सांजिशों के पीछे वास्तव में कौन सी शक्तियाँ सक्रिय हैं।

इराक की राजधानी बगदाद के उत्तर पश्चिम में लगभग 100 कि.मी. की दूरी पर स्थित समारा शहर में शिया समुदाय के छठे इमाम हजरत अली नंकी एवं ग्यारहवें इमाम हजरत हसन असकरी का रौंजा (दरगाह) सामूहिक रूप से एक ही इमारत में स्थित है, जिसे अल असकरी मस्जिद के नाम से जाना जाता है। समूचे विश्व के शिया समुदाय के लिए गहन आस्था का केंद्र समझे जाने वाले इस धर्मस्थल के चारों ओर हालांकि सुन्नी समुदाय के लोग अधिक संख्या में रहते हैं तथा समारा शहर भी सुन्नी बाहुल्य शहर है। इसके बावजूद इस पवित्र स्थल पर 22 फरवरी 2006 से पहले न तो कोई आक्रमण किया गया न ही यहाँ कोई बड़ा विस्फोट हुआ। परन्तु 22 फरवरी 2006 को इस पवित्र अल असकरी मस्जिद में प्रात: लगभग 6 बजकर 55 मिनट पर हुए विस्फोट ने तो पूरे विश्व के शिया समुदाय में उस समय हलचल पैदा कर दी जबकि इस धर्मस्थल का मुख्य एवं विशाल स्वर्ण जड़ित गुम्बद एक बड़े बम विस्फोट के द्वारा उड़ा दिया गया।

गत् वर्ष 22 फरवरी को हुई इस घटना की जिम्मेदारी भी हालांकि अमेरिकी सेना व इराकी प्रशासन ने अल ंकायदा के सिर मढ़ी थी परन्तु यदि उस मस्जिद के आस-पास के रहने वाले चश्मदीद लोगों की बातें मानी जाएं तो यह घटना किसी ऐसी बहुत बड़ी साजिश का परिणाम नज़र आती है जोकि इराक में गृहयुद्ध जैसी स्थिति पैदा कर इराक को बांटने के प्रयास के लिए रची जा रही है। 22 फरवरी 2006 की घटना के चश्मदीद बताते हैं कि इस हादसे से पूर्व समारा शहर में कर्फ्यू लगा हुआ था कि अचानक भारी तादाद में आई सशस्त्र अमेरिकी सेना ने भारी टैंकों व बख्तरबंद गाड़ियों के साथ इस पवित्र स्थल को 21 फरवरी की रात 8 बजे के बाद चारों ओर से घेर लिया। प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार दरगाह के इर्द-गिर्द इतनी भारी संख्या में हथियारबंद सैनिकों को घेरा डालते पहले कभी नहीं देखा गया था। अमेरिकी सेना अपनी सहयोगी इराकी सेना के साथ सारी रात उस दरगाह के चारों ओर संदेहपूर्ण स्थिति में घेरा डाले रही। और यह सिलसिला रात 8 बजे से शुरु होकर 22 फरवरी की सुबह 6 बजे तक अर्थात् दस घंटे तक चला। 22 फरवरी को प्रात: 6 बजे के पश्चात अमेरिकी नेतृत्व वाली इस सैन्य टुकड़ी ने अल अस्करी मस्जिद का क्षेत्र छोड़ दिया तथा इस धर्मस्थल की सुरक्षा पूर्ववत वहाँ तैनात सुरक्षाकर्मियों को सौंप दी। इस घटना के कुछ ही मिनट बाद 6 बजकर 55 मिनट पर उसी पवित्र स्थल में एक ऐसा बड़ा विस्फोट हुआ जिसने अल अस्करी मस्जिद के प्रमुख स्वर्ण जड़ित विशाल गुंबद को ध्वस्त कर डाला।

उपरोक्त हालात जिस ओर भी इशारा करते हों परन्तु अमेरिकी सेना ने इस हादसे के लिए तुरन्त अल कायदा को जिम्मेदार ठहराया था। एक बार फिर गत् 13 जून 2007 को प्रात: 9 बजे इसी धर्मस्थल की 2 गगनचुम्बी मीनारों को निशाना बनाया गया है। इस बार भी अल कायदा को इन घटनाओं के लिए जिम्मेदार ठहराया जा रहा है। इसमें कोई शक नहीं कि अलकायदा दुनिया का एक सबसे खतरनाक ऐसा आतंकवादी संगठन है जोकि अपने आतंकवादी कारनामों को अंजाम देकर केवल जान माल की ही भारी क्षति नहीं पहुंचाता बल्कि वैचारिक आतंकवाद का भी जबरदस्त प्रसार करता है। जहाँ तक इराक में अलकायदा की मौजूदगी व दिलचस्पी का प्रश्न है तो स्वाभाविक रूप से अलकायदा की दिलचस्पी इस बात में हो सकती है कि इराक की हुकूमत सुन्नी अरब लोगों के हाथों से निकल कर शिया समुदाय के लोगों के हाथों में न जाने पाए। इस बात का भी अब तक कोई पुख्ता सुबूत नहीं मिल सका है कि पूर्व इराकी तानाशाह सद्दाम हुसैन के अलकायदा से कोई संबंध रहे हों। यह भी सच है कि 11 सितम्बर को अमेरिका में हुए आतंकवादी हमले के बाद बुश प्रशासन ने जिस प्रकार अलकायदा की कमर तोड़ने का प्रयास किया है, उससे अलकायदा लगभग पूरी तरह टूट चुका है। ऐसे में यदि अलकायदा को इराक में स्थित अति संवेदनशील एवं पवित्र धर्मस्थलों पर होने वाले हमलों का दोषी ठहराया जाए तो इसमें कितनी वास्तविकता हो सकती है? और यदि ऐसी घटनाओं के लिए अलकायदा को ही जिम्मेदार माना भी जाए फिर भी अमेरिकी सेना अपनी जिम्मेदारियों से कतई नहीं बच सकती। विश्व की सबसे आधुनिक समझी जाने वाली सेना जिस विशेष स्थल की निगरानी कर रही हो उसी स्थल पर तथाकथित रूप से अलकायदा द्वारा विस्फोट कर दिया जाए, इसमें दो ही बातें हो सकती हैं। एक तो यह कि अमेरिकी सेना इस प्रकार के हमलों को रोक पाने में समर्थ व सक्षम नहीं है और यदि ऐसा है तो भी उसे इराक में कानून व्यवस्था संभालने का स्वयंभू ठेकेदार बनने का कोई अधिकार नहीं है। और दूसरी बात तो फिर वही है जैसा कि न सिंर्फ ईरान व शिया नेता बल्कि तमाम सुन्नी नेताओं व संगठनों द्वारा भी यही आरोप लगाए जा रहे हैं कि ऐसी घटनाएं और कुछ नहीं बल्कि केवल दूरगामी अमेरिकी साजिश का ही परिणाम हैं।

दुर्भाग्यपूर्ण है कि धर्मस्थलों पर होने वाली ऐसी घटनाओं के फौरन बाद वर्गवाद भड़क उठता है। परिणामस्वरूप हंजारों बेगुनाह लोग मारे जाते हैं तथा शिया व सुन्नी समुदाय की सैकड़ों मस्जिदें व दरगाहें इसी वर्गवाद की भेंट चढ़ जाती हैं। ऐसे में अमेरिका दुनिया को फिर यह दिखा पाने में सफल हो जाता है कि इराक की स्थिति अभी भी अत्यन्त चिंताजनक है तथा यहाँ के हालात अभी ऐसे नहीं कि अमेरिकी सेना निकट भविष्य में यहाँ से वापस जा सके। और इस प्रकार उन धर्मस्थलों पर हुए हमलों व विस्फोटों के पीछे कौन? जैसा दक्ष प्रश्न जस का तस बना रह जाता है। और इराक का वर्तमान स्वयंभू रहबर नित नए कारणों व बहानों की तलाश एवं नई सांजिशों की संरचना में लग जाता है। ऐसे ही हालात के तहत शायर कहता है:-

तू इधर-उधर की बात न कर, यह बता कि काफिला क्यों लुटा।
मुझे रहजनों से गरज नहीं, तेरी रहबरी का सवाल है॥
तनवीर जाफ़री
सदस्य, हरियाणा साहित्य अकादमी
अम्बाला

कोई टिप्पणी नहीं: