रायगढ़ के साहित्यिक पृष्ठभूमि के साक्षी
छत्तीसगढ़ का पूर्वी सीमान्त आदिवासी बाहुल्य जिला रायगढ़ केवल सांस्कृतिक ही नहीं बल्कि साहित्यिक दृष्टि से भी सम्पन्न रहा है। रियासत काल में यहां के गुणग्राही राजा चक्रधरसिंह के दीवान, सुप्रसिध्द साहित्यकार और तुलसी दर्शन के रचनाकार डॉ. बल्देवप्रसाद मिश्र थे। उन्हीं की सलाह पर प्रतिवर्ष मनाया जाने वाला रायगढ़ का गणेश मेला का स्वरूप केवल सांस्कृतिक न होकर साहित्यमय हो गया था। अखिल भारतीय स्तर के साहित्यकारों और कवियों को भी आमंत्रित किया जाने लगा और उन्हें भी पुरस्कृत करने की योजना बनायी गयी। उस काल के आमंत्रित साहित्यकारों में सर्वश्री आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, श्री भगवती चरण वर्मा, डॉ. रामकुमार वर्मा, डॉ. पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी और श्री अनंतगोपाल शेवड़े प्रमुख हैं। रायगढ़ के सांस्कृतिक पृष्टभूमि की एक झांकी पं. शुकलाल पांडेय अपने छत्तीसगढ़ गौरव में इस प्रकार करते हैं :-
महाराज हैं देव चक्रधरसिंह बड़भागी।
नृत्य वाद्य संगीत ग्रंथ रचना अनुरागी।
केलो सरिता पुरी रायगढ़ की बन पायल।
बजती हैं अति मधुर मंद स्वर से प्रतिपल पल।
जलकल है, सुन्दर महल है निशि में विद्युत धवल।
है ग्राम रायगढ़ राज्य के, सुखी सम्पदा युत सकल॥
राजा चक्रधरसिंह के पिता राजा भूपदेवसिंह भी साहित्यानुरागी थे। उनके शासनकाल में पं. अनंतराम पांडेय, पं. पुरूषोत्तम प्रसाद पांडेय, पं. मेदिनीप्रसाद पांडेय आदि प्रमुख साहित्यकार थे, जिन्हें रायगढ़ रियासत का संरक्षण मिला था। यही नहीं बल्कि वे साहित्यकारों को जमीन जायजाद देकर अपने राज्य में बसाते भी थे। पं. मेदिनीप्रसाद पांडेय ऐसे ही एक साहित्यकार थे। राजा भूपदेवसिंह उन्हें परसापाली और टांडापुर की मालगुजारी देकर बसाये थे। पं. मेदिनीप्रसाद पांडेय लिखते हैं :-
मध्य प्रदेश सुमधि यह देश ललाम
रायगढ़ सुराजधानी विदित सुनाम।
इहां अधिप श्री नृपसुरसिंह सुजान
दान मान विधि जानत अति गुणमान।
नारायण लिखि सिंह मिलावहु आनि
सो नृप भ्राता सुलीजै जानि ।
इनके गुण गण हो क करौं बखान
विद्यमान सुपूरो तेज निधान ।
श्री नृपवर मुहिं दीने यह दुदू ग्राम
टांडापुर इक परसापाली नाम।
नृपजय नितहिं मनावत रहि निज ग्राम
हरि चरचा कछु कीजत कछु गृह काम॥
इस पद्य में पांडेय जी राजा भूपदेवसिंह को नृपसुरंसिंह और नृपवर शब्द से संबोधित किया है। इस प्रकार रायगढ़ के साहित्यिक परिवेश में डॉ. बल्देवप्रसाद मिश्र लगातार सन् 1923 से 1940 तक पहले न्यायधीश, नायब दीवान और फिर दीवान रहे। यह 17 वर्ष उनके जीवन का सर्वश्रेष्ठ काल रहा है। अपनी प्रशासनिक व्यवस्था में मिश्र जी ईमानदारी, निष्पक्षता, चारित्रिक दृढ़ता और अपूर्व कार्य क्षमता के लिए प्रसिध्द रहे। जन कल्याण के लिए उन्होंने यहां अनेक स्थायी महत्व के कार्य सम्पन्न कराये थे जिसके लिए यहां की जनता उनका ऋणी है। उनकी प्रेरणा और निर्देशन में रायगढ़ में एक अनाथालय बनवाया गया जो प्रदेश में अकेला है। यहां रहने वाले बालकों को ''अर्न एंड लर्न'' के सिध्दांत पर शिक्षा के साथ साथ औद्यौगिक प्रशिक्षण भी दिया जाता है। उन्होंने चक्रधर गौशाला के निर्माण और विकास में भी अपूर्व योगदान देकर उसे एक व्यवस्थित और आदर्श संस्थान बना दिया। यहां का संस्कृत पाठशाला, वाणिज्य महाविद्यालय और आंख का अस्पताल उनके ही सद्प्रयास से खुले हैं।
रायगढ़ का एक अविस्मरणीय पहलू यह भी है कि यहां रहकर श्री बल्देवप्राद मिश्र ने ''तुलसी दर्शन'' जैसे महाकाव्य और शोध प्रबंध का लेखन पूरा किया। इसी शोध प्रबंध के उपर नागपुर विश्वविद्यालय द्वारा सन् 1936 में उन्हें डी. लिट् की सर्वोच्च उपाधि प्रदान किया गया। यह शोध प्रबंध परम्परागत अंग्रेजी भाषा के बजाय हिन्दी भाषा में लिखी जाने वाली प्रथम कृति है। इस ग्रंथ में मिश्र जी ने गीता से लेकर गांधीवाद तक सभी दार्शनिक और आध्यात्मिक विचार धाराओं में सन्निहित मूल तत्वों का शोध करके गोस्वामी तुलसीदास के कृतित्व को अखिल जगत के मानव धर्म का आश्रय स्थल निरूपित किया है। यह ग्रंथ उनके प्रकांड अध्ययन, सूक्ष्म चिंतन मनन, तत्वपूर्ण शोध दृष्टि और व्याख्या विश्लेषण की अपूर्व क्षमता का प्रतीक है।
डॉ. मिश्र के प्रशासनिक व्यक्तित्व की एक अपूर्व विशेषता यह भी रही है कि जनता उनके शासन को ''होमरूल'' समझती थी। अपने सहयोगियों पर विश्वास, उनके विचारधाराओं का सम्मान, उनसे कार्य लेने की क्षमता, उन्हें प्रोत्साहन देते रहने की शक्ति और समदृष्टि-ये कुछ ऐसे गुण हैं जो उनकी प्रशासनिक सफलता के रहस्य माने जा सकते हैं। मिश्र जी के व्यक्तित्व का दूसरा पक्ष लोक सेवक का है। यह उनके भारत सेवक समाज की महती सेवाओं, रायगढ़, खरसिया, रायपुर और राजनांदगांव की नगर पालिकाओं के अध्यक्ष और अन्य पदों को सुशोभित और खुज्जी विधान सभा क्षेत्र से विधायक के रूप में हमारे समक्ष प्रकट होता है। भारत सेवक समाज जैसी लोक सेवी संस्थाओं से उनका प्रगाढ़ सम्बंध सन् 1952 से 1959 तक सात वर्षो तक रहा है। प्रदेश के प्रथम मुख्य मंत्री पंडित रविशंकर शुक्ल ने उनकी विद्वता, कार्य क्षमता, राष्ट्रीयता और ईमानदारी को देखते हुए मिश्र जी को मध्य प्रदेश भारत लोक सेवक समाज का संयोजक नियुक्त किया था। राष्ट्रीय चेतना और देश भक्ति की भावनाएं मिश्र जी के व्यक्तित्व में शुरू से ही रही है। अपने छात्र जीवन में उन्होंने राजनांदगांव में सरस्वती पुस्तकालय, बाल विनोदनी समिति और मारवाड़ी सेवा समाज की स्थापना की थी। सन् 1917-18 की महामारी के समय मारवाड़ी सेवा समाज के सदस्यों ने जन सेवा के बहुत कार्य किये। इसी प्रकार यहां ठाकुर प्यारेलाल सिंह के सहयोग से एक ''राष्ट्रीय माध्यमिक शाला'' खोली थी और इस संस्था के वे पहले हेड मास्टर थे।
इस अंचल में उच्च शिक्षा के विकास में भी डॉ. बल्देवप्रसाद मिश्र का उल्लेखनीय योगदान रहा है। वे सन् 1944 से 47 तक एस. बी. आर. कालेज बिलासपुर, सन् 1948 में दुर्गा महाविद्यालय रायपुर, दो वर्षो तक कल्याण महाविद्यालय भिलाई और कमलादेवी महिला महाविद्यालय राजनांदगांव के वे संस्थापक प्राचार्य रहे। इंदिरा संगीत विश्वपिद्यालय खैरागढ़ के वे कुलपति रहे। लगभग दस वर्षो तक नागपुर विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के वे मानसेवी अध्यक्ष रहे। यहां के किनखेड़े व्याख्याता और बड़ौदा विश्वविद्यालय के विजिटिंग प्रोफेसर रहे। भारत सरकार उन्हें मैसूर राज्य (वर्तमान कर्नाटक प्रांत) में हिन्दी विषय के विजिटिंग प्रोफेसर नियुक्त किया था। इसके अतिरिक्त कई विश्वविद्यालयों में वे शोध निर्देशक, विषय विशेषज्ञ और परीक्षक आदि थे।
डॉ. बल्देवप्रसाद मिश्र ने प्राय: साहित्य की सभी विधाओं में रचनाएं लिखी हैं। महाकाव्यकार के साथ साथ वे कुशल नाटककार, ललित निबंधकार, तत्वपूर्ण शोर्धकत्ता, समीक्षक, हास्य व्यंग्यकार और यशस्वी संपादक भी थे। साहित्य रचना के लिए बह्म साधना का ही दूसरा रूप था। इसे भी वे शिक्षकीय जीवन की तरह एक अत्यंत पवित्र और आध्यात्मिक कार्य मानते थे। उनका सारा साहित्य लोकधर्म की भूमिका पर आधारित है। लोकधर्म के प्रतिष्ठित नेता मर्यादा पुरूषोत्तम श्रीराम उनके जीवन के साथ ही साहित्य के भी आराध्य थे। वे मानस प्रसंग के एक यशस्वी प्रवचनकार थे। उनके प्रवचन हर जगह श्रव्य और सराहनीय था। देशरत्न डॉ. राजेन्द्रपसाद उनके प्रवचन से कई बार मुग्ध हुए थे।
मिश्र जी की प्रकाशित और अप्रकाशित कृतियों की संख्या 85 से भी अधिक है। इनमें तुलसी दर्शन, जीवविज्ञान, साकेत संत, उदात्त संगीत और शंकर दिग्विजय महत्वपूर्ण रचनाएं हैं। जीवविज्ञान (सन् 1928) को मिश्र जी ने जीवन दर्शन का नाम भी दिया है। यह एक दार्शनिक ग्रंथ है। इसमें ब्रह्म जिज्ञासा और धर्म जिज्ञासा का महत्वपूर्ण पक्ष प्रस्तुत किया गया है। इसमें जीव से सम्बंधित 25 सूत्र संस्कृत भाषा में दिये गये हैं। इसमें जीव बुध्दि, मन, चित्त, रस आदि के संदर्भ में अन्य विषयों को स्पष्ट किया गया है। नि:संदेह दार्शर्निक ग्रंथों में यह एक अनूठा ग्रंथ है। ''साकेत संत'' (सन् 1946) इनका महाकाव्य है। इसमें धर्म की धूरी को धारण करने वाले भरत के व्यक्तित्व को पहली बार विस्तार और काव्यात्मक उदात्तता के साथ प्रस्तुत किया गया है। राम काव्य परंपरा में आदि काल से ही भरत एक महिमा मंडित पात्र रहे हैं किंतु अभी तक उनके साथ न्याय नहीं हो सका है। मिश्र जी का यह ग्रंथ राम काव्य परंपरा की ऐतिहासिक कमी को पूरा है। ''कौशल किशोर'' मिश्र जी की किशोर कल्पना तथा ''राम राज्य'' प्रज्ञा का काव्य है। किंतु साकेत संत उनके उर्मिल मानस की भावनात्मक अभिव्यक्ति है। इसमें भरत मनुष्यता के ज्वलंत आदर्श के रूप में प्रस्तुत किये गये हैं और कैकयी को भी उसकी चारित्रिक गरिमा के अनुकूल सर्वथा नया परिवेश प्रदान किया गया है। ''उदात्त संगीत'' में मिश्र जी के उदात्त रस से सम्बंधित आत्म स्फूर्तिपूर्ण प्रगीतों का संकलन है। संस्कृत के काव्य शास्त्रीय ग्रंथों में उदात्त रस का संकेत तो मिलता है, किंतु उसका परिपाक नहीं मिलता। मिश्र जी ने पहली बार इसका शास्त्रीय रूप प्रस्तुत किया है। इस रस का स्थायी भाव आनंद, उल्लास, मस्ती या जीवन की समदर्शी मन:स्थिति को माना है। देखिये इसका एक भाव :-
कांटे दिखते हैं जबकि फूल से हटता मन
अवगुण दिखते हैं जबकि गुणों से आंख हटे
उस मन के कमरे में दु:ख क्यों आ पायेगा
जिस कमरे में आनंद और उल्लास डटे।
''शंकर दिग्विजय'' (सन् 1922), मिश्र जी की पहली प्रकाशित कृति है। इसमें उन्होंने युगीन समस्याओं जैसे देश व्यापी उच्छृंखलाओं, स्वार्थान्दता, अकर्मण्यता और धार्मिक संकीर्णता का चित्रण किया किया है। इसे हम हिन्दी का प्रथम दार्शनिक नाटक कह सकते हैं।
ऐसे महान् साहित्यकार और लोक सेवक का जन्म श्री शिवरतन मिश्र के पौत्र और श्री नारायणप्रसाद मिश्र के पुत्र रत्न के रूप में 12 सिंतंबर सन् 1898 में राजनांदगांव में हुआ था। बचपन से ही वे प्रतिभाशाली थे। उनकी रूचि साहित्य में शुरू से ही थी। एक जगह उन्होंने लिखा है :-''मेरे पिताश्री में साहित्य प्रेम था। उन्होंने ब्रजभाषा के कुछ कवि भी अपने घर रख छोड़े थे। मुझे अपनी पाठशाला में भी कुछ साहित्य प्रेमी शिक्षकों और सहपाठियों का साथ मिला, पर साहित्य रचना की प्रवृत्ति मुझमें कालेज जाने पर ही जगी। सम्मेलन की विशारद की परीक्षा में ब्रजभाषा के अनेक उत्कृष्ट काव्य पढ़ने को मिले और खड़ी बोली के जयद्रथ वध, भारत भारती, प्रिय प्रवास आदि रचनाएं भी देखने और पढ़ने को मिली। अत: मैंने भी ब्रजभाषा के अनेक छंद लिख डाले और खड़ी बोली में एक महाकाव्य लिख डाला जो बाद में ''कौशल किशोर'' के नाम से प्रकाशित हुआ। बी. ए. एल. एल-बी. तथा एम. ए. दर्शनशास्त्र की परीक्षा मारिस कालेज नागपुर से पास करने के बाद उन्होंने वकालत शुरू की मगर उसमें वे सफल नहीं हुये और सन् 1923 में राजा चक्रधरसिंह के बुलावे पर रायगढ़ आ गये। यहां वे 17 वर्षो तक न्यायधीश, नायब दीवान और दीवान रहे और अनेक महत्वपूर्ण कार्य किये जिसके लिये वे हमेशा याद किये जायेंगे। 11-12 वर्ष की आयु में उन्होंने पहली कविता लिखी। देखिये उसका एक भाव :-
बन्दौ चरण कमल रघुराई
दशरथ घर में पैदा है कै
यज्ञ दियो मुनि की करवाई।
इसी प्रकार जबलपुर के मदन महल पर भी उन्होंने कविता लिखी। मिश्र जी आस्तिकता के परम्परावादी कवि थे। वे मानते थे :-
माना कि विषमताएं दुनिया को घेरे हैं
इस घेरे को भी घेर धैर्य से बढ़े चलो
उल्लास भरा है तो मंजिल तय ही होगी
मंजिल को भी सोपान बनाकर चले चलो।
मुक्त शैली में लिखे गये जीवन संगीत में जीवन के अनेक मनोवैज्ञानिक शब्द चित्र हैं जो उल्लासमय दार्शनिकता से ओतप्रोत है। जीवन का दार्शनिक रहस्य मिश्र जी के शब्दों में :-
जीवन क्या जिसमें तिरकर, सौ सौ ज्योति बुझ जायें।
जीवन वह जिस पर तिरकर, लाखों दीप लहरायें॥
गांधीवादी अहिंसा का रूप काव्य के माध्यम से प्रस्तुत करते हुये मिश्र जी लिखते हें :-
जीवन की शांति न खोना, खोकर भी सर्व प्रशंसी।
सुलझाओ केस समस्या, पर रहत हाथ में बंशी॥
डॉ. रामकुमार वर्मा कहते हैं-''पंडित बल्देवप्रसाद मिश्र हिन्दी के उन विभूतियों में से हैं जिन्होंने अपनी प्रतिभा का प्रकाश अज्ञात रूप से विकीर्ण किया है। वे एक दार्शनिक थे और दर्शन के कठिन तर्को को आकर्षक ढंग से प्रस्तुत करते थे।''
मिश्र जी की जैसी विनम्रता बहुत कम देखने को मिलती है। ऐसे विनम्र महापुरूष के हाथों मुझे भी सम्मानित होने का सौभाग्य एक निबंध प्रतियोगिता में मिला था। 04 सितंबर सन् 1975 को काल के क्रूर हाथों ने उन्हें हमसे सदा कि छिन लिया। उन्हें हमारी विनम्र श्रध्दांजलि उन्हीं के शब्दों में अर्पित है :-
बूंदों पर ही क्यों अटके, मदिरा अनंत है छवि की।
नश्वर किरणों तक ही क्यों, उज्ज्वलता देखो रवि की॥
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छत्तीसगढ़ का पूर्वी सीमान्त आदिवासी बाहुल्य जिला रायगढ़ केवल सांस्कृतिक ही नहीं बल्कि साहित्यिक दृष्टि से भी सम्पन्न रहा है। रियासत काल में यहां के गुणग्राही राजा चक्रधरसिंह के दीवान, सुप्रसिध्द साहित्यकार और तुलसी दर्शन के रचनाकार डॉ. बल्देवप्रसाद मिश्र थे। उन्हीं की सलाह पर प्रतिवर्ष मनाया जाने वाला रायगढ़ का गणेश मेला का स्वरूप केवल सांस्कृतिक न होकर साहित्यमय हो गया था। अखिल भारतीय स्तर के साहित्यकारों और कवियों को भी आमंत्रित किया जाने लगा और उन्हें भी पुरस्कृत करने की योजना बनायी गयी। उस काल के आमंत्रित साहित्यकारों में सर्वश्री आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, श्री भगवती चरण वर्मा, डॉ. रामकुमार वर्मा, डॉ. पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी और श्री अनंतगोपाल शेवड़े प्रमुख हैं। रायगढ़ के सांस्कृतिक पृष्टभूमि की एक झांकी पं. शुकलाल पांडेय अपने छत्तीसगढ़ गौरव में इस प्रकार करते हैं :-
महाराज हैं देव चक्रधरसिंह बड़भागी।
नृत्य वाद्य संगीत ग्रंथ रचना अनुरागी।
केलो सरिता पुरी रायगढ़ की बन पायल।
बजती हैं अति मधुर मंद स्वर से प्रतिपल पल।
जलकल है, सुन्दर महल है निशि में विद्युत धवल।
है ग्राम रायगढ़ राज्य के, सुखी सम्पदा युत सकल॥
राजा चक्रधरसिंह के पिता राजा भूपदेवसिंह भी साहित्यानुरागी थे। उनके शासनकाल में पं. अनंतराम पांडेय, पं. पुरूषोत्तम प्रसाद पांडेय, पं. मेदिनीप्रसाद पांडेय आदि प्रमुख साहित्यकार थे, जिन्हें रायगढ़ रियासत का संरक्षण मिला था। यही नहीं बल्कि वे साहित्यकारों को जमीन जायजाद देकर अपने राज्य में बसाते भी थे। पं. मेदिनीप्रसाद पांडेय ऐसे ही एक साहित्यकार थे। राजा भूपदेवसिंह उन्हें परसापाली और टांडापुर की मालगुजारी देकर बसाये थे। पं. मेदिनीप्रसाद पांडेय लिखते हैं :-
मध्य प्रदेश सुमधि यह देश ललाम
रायगढ़ सुराजधानी विदित सुनाम।
इहां अधिप श्री नृपसुरसिंह सुजान
दान मान विधि जानत अति गुणमान।
नारायण लिखि सिंह मिलावहु आनि
सो नृप भ्राता सुलीजै जानि ।
इनके गुण गण हो क करौं बखान
विद्यमान सुपूरो तेज निधान ।
श्री नृपवर मुहिं दीने यह दुदू ग्राम
टांडापुर इक परसापाली नाम।
नृपजय नितहिं मनावत रहि निज ग्राम
हरि चरचा कछु कीजत कछु गृह काम॥
इस पद्य में पांडेय जी राजा भूपदेवसिंह को नृपसुरंसिंह और नृपवर शब्द से संबोधित किया है। इस प्रकार रायगढ़ के साहित्यिक परिवेश में डॉ. बल्देवप्रसाद मिश्र लगातार सन् 1923 से 1940 तक पहले न्यायधीश, नायब दीवान और फिर दीवान रहे। यह 17 वर्ष उनके जीवन का सर्वश्रेष्ठ काल रहा है। अपनी प्रशासनिक व्यवस्था में मिश्र जी ईमानदारी, निष्पक्षता, चारित्रिक दृढ़ता और अपूर्व कार्य क्षमता के लिए प्रसिध्द रहे। जन कल्याण के लिए उन्होंने यहां अनेक स्थायी महत्व के कार्य सम्पन्न कराये थे जिसके लिए यहां की जनता उनका ऋणी है। उनकी प्रेरणा और निर्देशन में रायगढ़ में एक अनाथालय बनवाया गया जो प्रदेश में अकेला है। यहां रहने वाले बालकों को ''अर्न एंड लर्न'' के सिध्दांत पर शिक्षा के साथ साथ औद्यौगिक प्रशिक्षण भी दिया जाता है। उन्होंने चक्रधर गौशाला के निर्माण और विकास में भी अपूर्व योगदान देकर उसे एक व्यवस्थित और आदर्श संस्थान बना दिया। यहां का संस्कृत पाठशाला, वाणिज्य महाविद्यालय और आंख का अस्पताल उनके ही सद्प्रयास से खुले हैं।
रायगढ़ का एक अविस्मरणीय पहलू यह भी है कि यहां रहकर श्री बल्देवप्राद मिश्र ने ''तुलसी दर्शन'' जैसे महाकाव्य और शोध प्रबंध का लेखन पूरा किया। इसी शोध प्रबंध के उपर नागपुर विश्वविद्यालय द्वारा सन् 1936 में उन्हें डी. लिट् की सर्वोच्च उपाधि प्रदान किया गया। यह शोध प्रबंध परम्परागत अंग्रेजी भाषा के बजाय हिन्दी भाषा में लिखी जाने वाली प्रथम कृति है। इस ग्रंथ में मिश्र जी ने गीता से लेकर गांधीवाद तक सभी दार्शनिक और आध्यात्मिक विचार धाराओं में सन्निहित मूल तत्वों का शोध करके गोस्वामी तुलसीदास के कृतित्व को अखिल जगत के मानव धर्म का आश्रय स्थल निरूपित किया है। यह ग्रंथ उनके प्रकांड अध्ययन, सूक्ष्म चिंतन मनन, तत्वपूर्ण शोध दृष्टि और व्याख्या विश्लेषण की अपूर्व क्षमता का प्रतीक है।
डॉ. मिश्र के प्रशासनिक व्यक्तित्व की एक अपूर्व विशेषता यह भी रही है कि जनता उनके शासन को ''होमरूल'' समझती थी। अपने सहयोगियों पर विश्वास, उनके विचारधाराओं का सम्मान, उनसे कार्य लेने की क्षमता, उन्हें प्रोत्साहन देते रहने की शक्ति और समदृष्टि-ये कुछ ऐसे गुण हैं जो उनकी प्रशासनिक सफलता के रहस्य माने जा सकते हैं। मिश्र जी के व्यक्तित्व का दूसरा पक्ष लोक सेवक का है। यह उनके भारत सेवक समाज की महती सेवाओं, रायगढ़, खरसिया, रायपुर और राजनांदगांव की नगर पालिकाओं के अध्यक्ष और अन्य पदों को सुशोभित और खुज्जी विधान सभा क्षेत्र से विधायक के रूप में हमारे समक्ष प्रकट होता है। भारत सेवक समाज जैसी लोक सेवी संस्थाओं से उनका प्रगाढ़ सम्बंध सन् 1952 से 1959 तक सात वर्षो तक रहा है। प्रदेश के प्रथम मुख्य मंत्री पंडित रविशंकर शुक्ल ने उनकी विद्वता, कार्य क्षमता, राष्ट्रीयता और ईमानदारी को देखते हुए मिश्र जी को मध्य प्रदेश भारत लोक सेवक समाज का संयोजक नियुक्त किया था। राष्ट्रीय चेतना और देश भक्ति की भावनाएं मिश्र जी के व्यक्तित्व में शुरू से ही रही है। अपने छात्र जीवन में उन्होंने राजनांदगांव में सरस्वती पुस्तकालय, बाल विनोदनी समिति और मारवाड़ी सेवा समाज की स्थापना की थी। सन् 1917-18 की महामारी के समय मारवाड़ी सेवा समाज के सदस्यों ने जन सेवा के बहुत कार्य किये। इसी प्रकार यहां ठाकुर प्यारेलाल सिंह के सहयोग से एक ''राष्ट्रीय माध्यमिक शाला'' खोली थी और इस संस्था के वे पहले हेड मास्टर थे।
इस अंचल में उच्च शिक्षा के विकास में भी डॉ. बल्देवप्रसाद मिश्र का उल्लेखनीय योगदान रहा है। वे सन् 1944 से 47 तक एस. बी. आर. कालेज बिलासपुर, सन् 1948 में दुर्गा महाविद्यालय रायपुर, दो वर्षो तक कल्याण महाविद्यालय भिलाई और कमलादेवी महिला महाविद्यालय राजनांदगांव के वे संस्थापक प्राचार्य रहे। इंदिरा संगीत विश्वपिद्यालय खैरागढ़ के वे कुलपति रहे। लगभग दस वर्षो तक नागपुर विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के वे मानसेवी अध्यक्ष रहे। यहां के किनखेड़े व्याख्याता और बड़ौदा विश्वविद्यालय के विजिटिंग प्रोफेसर रहे। भारत सरकार उन्हें मैसूर राज्य (वर्तमान कर्नाटक प्रांत) में हिन्दी विषय के विजिटिंग प्रोफेसर नियुक्त किया था। इसके अतिरिक्त कई विश्वविद्यालयों में वे शोध निर्देशक, विषय विशेषज्ञ और परीक्षक आदि थे।
डॉ. बल्देवप्रसाद मिश्र ने प्राय: साहित्य की सभी विधाओं में रचनाएं लिखी हैं। महाकाव्यकार के साथ साथ वे कुशल नाटककार, ललित निबंधकार, तत्वपूर्ण शोर्धकत्ता, समीक्षक, हास्य व्यंग्यकार और यशस्वी संपादक भी थे। साहित्य रचना के लिए बह्म साधना का ही दूसरा रूप था। इसे भी वे शिक्षकीय जीवन की तरह एक अत्यंत पवित्र और आध्यात्मिक कार्य मानते थे। उनका सारा साहित्य लोकधर्म की भूमिका पर आधारित है। लोकधर्म के प्रतिष्ठित नेता मर्यादा पुरूषोत्तम श्रीराम उनके जीवन के साथ ही साहित्य के भी आराध्य थे। वे मानस प्रसंग के एक यशस्वी प्रवचनकार थे। उनके प्रवचन हर जगह श्रव्य और सराहनीय था। देशरत्न डॉ. राजेन्द्रपसाद उनके प्रवचन से कई बार मुग्ध हुए थे।
मिश्र जी की प्रकाशित और अप्रकाशित कृतियों की संख्या 85 से भी अधिक है। इनमें तुलसी दर्शन, जीवविज्ञान, साकेत संत, उदात्त संगीत और शंकर दिग्विजय महत्वपूर्ण रचनाएं हैं। जीवविज्ञान (सन् 1928) को मिश्र जी ने जीवन दर्शन का नाम भी दिया है। यह एक दार्शनिक ग्रंथ है। इसमें ब्रह्म जिज्ञासा और धर्म जिज्ञासा का महत्वपूर्ण पक्ष प्रस्तुत किया गया है। इसमें जीव से सम्बंधित 25 सूत्र संस्कृत भाषा में दिये गये हैं। इसमें जीव बुध्दि, मन, चित्त, रस आदि के संदर्भ में अन्य विषयों को स्पष्ट किया गया है। नि:संदेह दार्शर्निक ग्रंथों में यह एक अनूठा ग्रंथ है। ''साकेत संत'' (सन् 1946) इनका महाकाव्य है। इसमें धर्म की धूरी को धारण करने वाले भरत के व्यक्तित्व को पहली बार विस्तार और काव्यात्मक उदात्तता के साथ प्रस्तुत किया गया है। राम काव्य परंपरा में आदि काल से ही भरत एक महिमा मंडित पात्र रहे हैं किंतु अभी तक उनके साथ न्याय नहीं हो सका है। मिश्र जी का यह ग्रंथ राम काव्य परंपरा की ऐतिहासिक कमी को पूरा है। ''कौशल किशोर'' मिश्र जी की किशोर कल्पना तथा ''राम राज्य'' प्रज्ञा का काव्य है। किंतु साकेत संत उनके उर्मिल मानस की भावनात्मक अभिव्यक्ति है। इसमें भरत मनुष्यता के ज्वलंत आदर्श के रूप में प्रस्तुत किये गये हैं और कैकयी को भी उसकी चारित्रिक गरिमा के अनुकूल सर्वथा नया परिवेश प्रदान किया गया है। ''उदात्त संगीत'' में मिश्र जी के उदात्त रस से सम्बंधित आत्म स्फूर्तिपूर्ण प्रगीतों का संकलन है। संस्कृत के काव्य शास्त्रीय ग्रंथों में उदात्त रस का संकेत तो मिलता है, किंतु उसका परिपाक नहीं मिलता। मिश्र जी ने पहली बार इसका शास्त्रीय रूप प्रस्तुत किया है। इस रस का स्थायी भाव आनंद, उल्लास, मस्ती या जीवन की समदर्शी मन:स्थिति को माना है। देखिये इसका एक भाव :-
कांटे दिखते हैं जबकि फूल से हटता मन
अवगुण दिखते हैं जबकि गुणों से आंख हटे
उस मन के कमरे में दु:ख क्यों आ पायेगा
जिस कमरे में आनंद और उल्लास डटे।
''शंकर दिग्विजय'' (सन् 1922), मिश्र जी की पहली प्रकाशित कृति है। इसमें उन्होंने युगीन समस्याओं जैसे देश व्यापी उच्छृंखलाओं, स्वार्थान्दता, अकर्मण्यता और धार्मिक संकीर्णता का चित्रण किया किया है। इसे हम हिन्दी का प्रथम दार्शनिक नाटक कह सकते हैं।
ऐसे महान् साहित्यकार और लोक सेवक का जन्म श्री शिवरतन मिश्र के पौत्र और श्री नारायणप्रसाद मिश्र के पुत्र रत्न के रूप में 12 सिंतंबर सन् 1898 में राजनांदगांव में हुआ था। बचपन से ही वे प्रतिभाशाली थे। उनकी रूचि साहित्य में शुरू से ही थी। एक जगह उन्होंने लिखा है :-''मेरे पिताश्री में साहित्य प्रेम था। उन्होंने ब्रजभाषा के कुछ कवि भी अपने घर रख छोड़े थे। मुझे अपनी पाठशाला में भी कुछ साहित्य प्रेमी शिक्षकों और सहपाठियों का साथ मिला, पर साहित्य रचना की प्रवृत्ति मुझमें कालेज जाने पर ही जगी। सम्मेलन की विशारद की परीक्षा में ब्रजभाषा के अनेक उत्कृष्ट काव्य पढ़ने को मिले और खड़ी बोली के जयद्रथ वध, भारत भारती, प्रिय प्रवास आदि रचनाएं भी देखने और पढ़ने को मिली। अत: मैंने भी ब्रजभाषा के अनेक छंद लिख डाले और खड़ी बोली में एक महाकाव्य लिख डाला जो बाद में ''कौशल किशोर'' के नाम से प्रकाशित हुआ। बी. ए. एल. एल-बी. तथा एम. ए. दर्शनशास्त्र की परीक्षा मारिस कालेज नागपुर से पास करने के बाद उन्होंने वकालत शुरू की मगर उसमें वे सफल नहीं हुये और सन् 1923 में राजा चक्रधरसिंह के बुलावे पर रायगढ़ आ गये। यहां वे 17 वर्षो तक न्यायधीश, नायब दीवान और दीवान रहे और अनेक महत्वपूर्ण कार्य किये जिसके लिये वे हमेशा याद किये जायेंगे। 11-12 वर्ष की आयु में उन्होंने पहली कविता लिखी। देखिये उसका एक भाव :-
बन्दौ चरण कमल रघुराई
दशरथ घर में पैदा है कै
यज्ञ दियो मुनि की करवाई।
इसी प्रकार जबलपुर के मदन महल पर भी उन्होंने कविता लिखी। मिश्र जी आस्तिकता के परम्परावादी कवि थे। वे मानते थे :-
माना कि विषमताएं दुनिया को घेरे हैं
इस घेरे को भी घेर धैर्य से बढ़े चलो
उल्लास भरा है तो मंजिल तय ही होगी
मंजिल को भी सोपान बनाकर चले चलो।
मुक्त शैली में लिखे गये जीवन संगीत में जीवन के अनेक मनोवैज्ञानिक शब्द चित्र हैं जो उल्लासमय दार्शनिकता से ओतप्रोत है। जीवन का दार्शनिक रहस्य मिश्र जी के शब्दों में :-
जीवन क्या जिसमें तिरकर, सौ सौ ज्योति बुझ जायें।
जीवन वह जिस पर तिरकर, लाखों दीप लहरायें॥
गांधीवादी अहिंसा का रूप काव्य के माध्यम से प्रस्तुत करते हुये मिश्र जी लिखते हें :-
जीवन की शांति न खोना, खोकर भी सर्व प्रशंसी।
सुलझाओ केस समस्या, पर रहत हाथ में बंशी॥
डॉ. रामकुमार वर्मा कहते हैं-''पंडित बल्देवप्रसाद मिश्र हिन्दी के उन विभूतियों में से हैं जिन्होंने अपनी प्रतिभा का प्रकाश अज्ञात रूप से विकीर्ण किया है। वे एक दार्शनिक थे और दर्शन के कठिन तर्को को आकर्षक ढंग से प्रस्तुत करते थे।''
मिश्र जी की जैसी विनम्रता बहुत कम देखने को मिलती है। ऐसे विनम्र महापुरूष के हाथों मुझे भी सम्मानित होने का सौभाग्य एक निबंध प्रतियोगिता में मिला था। 04 सितंबर सन् 1975 को काल के क्रूर हाथों ने उन्हें हमसे सदा कि छिन लिया। उन्हें हमारी विनम्र श्रध्दांजलि उन्हीं के शब्दों में अर्पित है :-
बूंदों पर ही क्यों अटके, मदिरा अनंत है छवि की।
नश्वर किरणों तक ही क्यों, उज्ज्वलता देखो रवि की॥
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प्रो. अश्विनी केशरवानी
राघव डागा कालोनी, चांपा(छ.ग.)
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