अयोध्या स्थित राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद जैसे विवादित मुद्दे को हवा देकर तथा 6 दिसम्बर 1992 को इस स्थल को बलपूर्वक ध्वस्त करने के बाद सत्ता तक पहुंचे देश के दक्षिणपंथी संगठनों द्वारा एक बार फिर सत्ता का लक्ष्य हासिल करने के लिए सेतु समुद्रम परियोजना के मुद्दे को भावनात्मक रंग देने की कोशिश की जा रही है। 2004 में हुए लोकसभा के आम चुनावों में भारतीय मतदाताओं द्वारा राम मन्दिर मुद्दे को नकार दिए जाने के बाद चूंकि अब दक्षिणपंथी संगठनों के पास कोई ऐसा भावनात्मक मुद्दा शेष नहीं रह गया था जिसे उभारकर जनमत को अपने पक्ष में किया जा सके। अत: अवसर की तलाश में बैठी भारतीय जनता पार्टी व उनके सहयोगी समान विचार वाले संगठनों को बैठे बिठाए सेतु समुद्रम परियोजना का मुद्दा मिल गया है। बड़े हैरत की बात है कि आज इन्हीं दक्षिणपंथी संगठनों द्वारा जिस सेतु समुद्रम परियोजना का विरोध करते हुए केंद्र की यू पी ए सरकार को निशाना बनाया जा रहा है तथा उसे हिन्दू विरोधी प्रमाणित करने की पुरज़ोर कोशिश की जा रही है। वास्तव में भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में सत्ता में रह चुकी पिछली राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार के कार्यकाल में अर्थात् तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के शासनकाल में ही इस परियोजना को मंजूरी मिल चुकी थी। उस समय इन तथाकथित राम भक्तों द्वारा अपनी सरकार का विरोध नहीं किया गया था।
भारत व श्रीलंका के बीच समुद्र में सेतु के रूप में दिखाई देने वाले लगभग 48 कि.मी. लम्बे मार्ग की प्राकृतिक संरचना कुछ अजीबोग़रीब सी है। इसका काफ़ी बड़ा हिस्सा तो समुद्र में ही समाया हुआ है जबकि कुछ हिस्सा तीन फीट से लेकर 10 फीट समुद्री जल में डूबा हुआ है। इसका कुछ भाग बिल्कुल छिछला भी है जिसपर चहलक़दमी भी की जा सकती है।
वैज्ञानिकों का मानना है कि 48 किलोमीटर लम्बा यह सेतुनुमा ढांचा मानव निर्मित नहीं है बल्कि यह लाईमस्टोन की रेत व समुद्री तलछट का मिश्रण है जो समुद्र में होने वाले प्राकृतिक मंथन व अन्य समुद्री प्रक्रियाओं के परिणामस्वरूप अस्तित्व में आया है। सेतु समुद्रम परियोजना के तहत इस सेतु का तीन सौ मीटर चौड़ा व बारह मीटर गहरा भाग इस परियोजना में सांफ किया जाना है। सेतु समुद्रम् परियोजना का मंकसद भारत के पूर्वी तट व पश्चिमी तट के मध्य चलने वाले समुद्री जहाँ जों के लिए वर्तमान लम्बे रास्ते को कम कर उसे छोटा करना है। इस योजना के पूरी होने के बाद जहाँ जों की वर्तमान यात्रा में 36 घण्टे का कम समय लगेगा तथा लगभग 780 कि.मी. की यात्रा भी कम हो जाएगी। इस योजना के पूरा होने के बाद दूरी घटने की वजह से भाड़ा भी कम लगेगा, ईंधन का ख़र्च भी कम होगा। माल का आवागमन भी वर्तमान निर्धारित समय से 36 घण्टा पहले हो जाया करेगा। इन कारणों के चलते सरकार इस परियोजना को देश के आर्थिक विकास से जोड़कर देख रही है।
ऐसा भी नहीं है कि इस परियोजना के सारे परिणाम सकारात्मक ही हों, इस परियोजना के कुछ नुक़सान भी बताए जा रहे हैं। कहा जा रहा है कि इस स्थान पर समुद्र की गहराई बढ़ाने से उच्च ज्वार भाटे पैदा होंगे जिससे समुद्री तटों के कटाव की सम्भावना बनेगी। इस क्षेत्र में मछलियों के घटने तथा मछुआरों पर संकट आने की भी संभावना है। कुछ विशेषज्ञों का तो यह भी मानना है कि उस क्षेत्र के भूगर्भ में पाए जाने वाले कुछ परमाणु भण्डार भी इस परियोजना से प्रभावित हो सकते हैं तथा उन्हें नुक़सान पहुँच सकता है। इस प्रकार कई पर्यावरणविद ऐसे संभावित दुष्प्रभावों के कारण इस परियोजना का विरोध कर रहे हैं। परन्तु इस परियोजना को प्रारम्भिक मंजूरी देने वाली भारतीय जनता पार्टी का वर्तमान विरोध पूरी तरह से धार्मिक मतदाताओं को आधार बनाकर किया जा रहा है। इन तथाकथित राजनैतिक राम भक्तों का आज यह कहना है कि इस सेतु को क़तई नहीं तोड़ा जाना चाहिए क्योंकि यह वही सेतु है जिसका निर्माण भगवान राम की वानर सेना द्वारा किया गया था। इसी सेतु को पार कर भगवान राम ने अपनी सेना के साथ लंका में प्रवेश किया था तथा रावण पर विजय प्राप्त की थी। प्रश् यह है कि जब दक्षिणपंथी विचारधारा के संगठन इस सेतु के प्रति इस प्रकार का धार्मिक विश्वास वास्तव में रखते थे तथा वे नहीं चाहते कि इस परियोजना के अन्तर्गत इस ऐतिहासिक महत्व वाले प्राचीन सेतु को क्षति पहुँचाई जाए फिर आख़िर वाजपेयी के शासनकाल में इस परियोजना को शुरुआती दौर में ही मंजूरी क्योंकर दी गई?
हाँ, इस प्रकरण को लेकर केन्द्र सरकार के भारतीय पुरातत्व विभाग द्वारा जो हलफ़नामा सर्वोच्च न्यायालय में दायर किया गया था जिसमें कि राम के अस्तित्व व राम-रावण युद्ध की घटना से ही इन्कार किया गया था वह अवश्य निंदनीय है। दरअसल किसी भी धर्म की धार्मिक मान्यताओं को वैज्ञानिक तर्कों से तोला नहीं जा सकता। धर्म पूर्णतय: विश्वास पर आधारित विषय वस्तु है। इतनी अधिक कि इसी विश्वास के गर्भ से ही अंधविश्वास भी जन्म लेता है। यह धार्मिक विश्वास प्राय: सभी सीमाओं को पार कर जाता है और सीधे तौर पर किसी भी व्यक्ति की भावनाओं से जुड़ जाता है। ऐसे में किसी भी व्यक्ति, संगठन या विभाग को यह अधिकार हरगिज़ नहीं पहुँचता कि वह किसी के विश्वास अथवा उसकी आस्थाओं पर अपनी बातों या तर्कों से ठेस पहुँचाए। ख़ासतौर पर दक्षिण एशियाई देशों में तो इस बात पर क़तई एहतियात बरते जाने की ज़रूरत होती है जहाँ कि राजनैतिक संगठन ऐसे मुद्दों को हवा देने तथा इन पर हंगामा बरपा करने की प्रतीक्षा में लगे रहते हैं।
हालाँकि इस आपत्तिजनक हलफ़नामा पर कड़ा रुख़ अख्तियार करते हुए भारतीय पुरातत्व मंत्रालय द्वारा अपने विभाग के दो ऐसे उच्चाधिकारियों को बंर्खास्त कर दिया गया है जो इस विवादित हलफ़नामा को तैयार करने के लिए ज़िम्मेदार थे। उसके बावजूद इस मुद्दे को समाप्त करने के बजाए इसे और अधिक हवा देने की पुरज़ोर कोशिश की जा रही है। इस परियोजना को पहली मंजूरी देने वाले लोग व संगठन अब इसी सेतु के माध्यम से सत्ता का संफर तय करने की कोशिश कर रहे हैं। 2004 में ऐसी ही परियोजनाओं की बदौलत इन्हें इण्डिया शाईनिंग होता हुआ नज़र आ रहा था तथा भारतीय जनता को यही संगठन जबरन 'फ़ील गुड' का एहसास कराने पर तुले थे। परन्तु आज जब उसी परियोजना को राष्ट्रीय विकास नीति के अन्तर्गत रचनात्मक स्वरूप प्रदान किए जाने की कोशिश की जा रही है तो इन तथाकथित राम भक्तों को पुन: भगवान राम याद आने लगे हैं।
निश्चित रूप से किसी की धार्मिक भावनाओं को आहत करने का अधिकार न तो किसी को है और न किसी को होना चाहिए। और यदि कोई ऐसा प्रयास करे तो उसे दण्डित भी किया जाना चाहिए। परन्तु अपने राजनैतिक स्वार्थवश किसी भी धर्म अथवा सम्प्रदाय की धार्मिक भावनाओं को भड़काने व उकसाने की आज़ादी भी किसी को हरगिज़ नहीं होनी चाहिए। भागवान राम देश के किसी राजनैतिक संगठन विशेष की अमानत नहीं हो सकते। इस प्रकार का राजनैतिक प्रपंच कर, लोगों की धार्मिक भावनाओं को भड़का कर धर्म के आधार पर मतों के ध्रुवीकरण का जो घिनौना प्रयास किया जा रहा है, यह देश की राजनीति को ग़लत दिशा प्रदान कर रहा है। ज़रूरत इस बात की है कि सेतु समुद्रम मुद्दे पर जनता अपनी पैनी नज़र रखे तथा कथित राम भक्तों के राजनैतिक हथकण्डों से ख़बरदार रहे।
भारत व श्रीलंका के बीच समुद्र में सेतु के रूप में दिखाई देने वाले लगभग 48 कि.मी. लम्बे मार्ग की प्राकृतिक संरचना कुछ अजीबोग़रीब सी है। इसका काफ़ी बड़ा हिस्सा तो समुद्र में ही समाया हुआ है जबकि कुछ हिस्सा तीन फीट से लेकर 10 फीट समुद्री जल में डूबा हुआ है। इसका कुछ भाग बिल्कुल छिछला भी है जिसपर चहलक़दमी भी की जा सकती है।
वैज्ञानिकों का मानना है कि 48 किलोमीटर लम्बा यह सेतुनुमा ढांचा मानव निर्मित नहीं है बल्कि यह लाईमस्टोन की रेत व समुद्री तलछट का मिश्रण है जो समुद्र में होने वाले प्राकृतिक मंथन व अन्य समुद्री प्रक्रियाओं के परिणामस्वरूप अस्तित्व में आया है। सेतु समुद्रम परियोजना के तहत इस सेतु का तीन सौ मीटर चौड़ा व बारह मीटर गहरा भाग इस परियोजना में सांफ किया जाना है। सेतु समुद्रम् परियोजना का मंकसद भारत के पूर्वी तट व पश्चिमी तट के मध्य चलने वाले समुद्री जहाँ जों के लिए वर्तमान लम्बे रास्ते को कम कर उसे छोटा करना है। इस योजना के पूरी होने के बाद जहाँ जों की वर्तमान यात्रा में 36 घण्टे का कम समय लगेगा तथा लगभग 780 कि.मी. की यात्रा भी कम हो जाएगी। इस योजना के पूरा होने के बाद दूरी घटने की वजह से भाड़ा भी कम लगेगा, ईंधन का ख़र्च भी कम होगा। माल का आवागमन भी वर्तमान निर्धारित समय से 36 घण्टा पहले हो जाया करेगा। इन कारणों के चलते सरकार इस परियोजना को देश के आर्थिक विकास से जोड़कर देख रही है।
ऐसा भी नहीं है कि इस परियोजना के सारे परिणाम सकारात्मक ही हों, इस परियोजना के कुछ नुक़सान भी बताए जा रहे हैं। कहा जा रहा है कि इस स्थान पर समुद्र की गहराई बढ़ाने से उच्च ज्वार भाटे पैदा होंगे जिससे समुद्री तटों के कटाव की सम्भावना बनेगी। इस क्षेत्र में मछलियों के घटने तथा मछुआरों पर संकट आने की भी संभावना है। कुछ विशेषज्ञों का तो यह भी मानना है कि उस क्षेत्र के भूगर्भ में पाए जाने वाले कुछ परमाणु भण्डार भी इस परियोजना से प्रभावित हो सकते हैं तथा उन्हें नुक़सान पहुँच सकता है। इस प्रकार कई पर्यावरणविद ऐसे संभावित दुष्प्रभावों के कारण इस परियोजना का विरोध कर रहे हैं। परन्तु इस परियोजना को प्रारम्भिक मंजूरी देने वाली भारतीय जनता पार्टी का वर्तमान विरोध पूरी तरह से धार्मिक मतदाताओं को आधार बनाकर किया जा रहा है। इन तथाकथित राजनैतिक राम भक्तों का आज यह कहना है कि इस सेतु को क़तई नहीं तोड़ा जाना चाहिए क्योंकि यह वही सेतु है जिसका निर्माण भगवान राम की वानर सेना द्वारा किया गया था। इसी सेतु को पार कर भगवान राम ने अपनी सेना के साथ लंका में प्रवेश किया था तथा रावण पर विजय प्राप्त की थी। प्रश् यह है कि जब दक्षिणपंथी विचारधारा के संगठन इस सेतु के प्रति इस प्रकार का धार्मिक विश्वास वास्तव में रखते थे तथा वे नहीं चाहते कि इस परियोजना के अन्तर्गत इस ऐतिहासिक महत्व वाले प्राचीन सेतु को क्षति पहुँचाई जाए फिर आख़िर वाजपेयी के शासनकाल में इस परियोजना को शुरुआती दौर में ही मंजूरी क्योंकर दी गई?
हाँ, इस प्रकरण को लेकर केन्द्र सरकार के भारतीय पुरातत्व विभाग द्वारा जो हलफ़नामा सर्वोच्च न्यायालय में दायर किया गया था जिसमें कि राम के अस्तित्व व राम-रावण युद्ध की घटना से ही इन्कार किया गया था वह अवश्य निंदनीय है। दरअसल किसी भी धर्म की धार्मिक मान्यताओं को वैज्ञानिक तर्कों से तोला नहीं जा सकता। धर्म पूर्णतय: विश्वास पर आधारित विषय वस्तु है। इतनी अधिक कि इसी विश्वास के गर्भ से ही अंधविश्वास भी जन्म लेता है। यह धार्मिक विश्वास प्राय: सभी सीमाओं को पार कर जाता है और सीधे तौर पर किसी भी व्यक्ति की भावनाओं से जुड़ जाता है। ऐसे में किसी भी व्यक्ति, संगठन या विभाग को यह अधिकार हरगिज़ नहीं पहुँचता कि वह किसी के विश्वास अथवा उसकी आस्थाओं पर अपनी बातों या तर्कों से ठेस पहुँचाए। ख़ासतौर पर दक्षिण एशियाई देशों में तो इस बात पर क़तई एहतियात बरते जाने की ज़रूरत होती है जहाँ कि राजनैतिक संगठन ऐसे मुद्दों को हवा देने तथा इन पर हंगामा बरपा करने की प्रतीक्षा में लगे रहते हैं।
हालाँकि इस आपत्तिजनक हलफ़नामा पर कड़ा रुख़ अख्तियार करते हुए भारतीय पुरातत्व मंत्रालय द्वारा अपने विभाग के दो ऐसे उच्चाधिकारियों को बंर्खास्त कर दिया गया है जो इस विवादित हलफ़नामा को तैयार करने के लिए ज़िम्मेदार थे। उसके बावजूद इस मुद्दे को समाप्त करने के बजाए इसे और अधिक हवा देने की पुरज़ोर कोशिश की जा रही है। इस परियोजना को पहली मंजूरी देने वाले लोग व संगठन अब इसी सेतु के माध्यम से सत्ता का संफर तय करने की कोशिश कर रहे हैं। 2004 में ऐसी ही परियोजनाओं की बदौलत इन्हें इण्डिया शाईनिंग होता हुआ नज़र आ रहा था तथा भारतीय जनता को यही संगठन जबरन 'फ़ील गुड' का एहसास कराने पर तुले थे। परन्तु आज जब उसी परियोजना को राष्ट्रीय विकास नीति के अन्तर्गत रचनात्मक स्वरूप प्रदान किए जाने की कोशिश की जा रही है तो इन तथाकथित राम भक्तों को पुन: भगवान राम याद आने लगे हैं।
निश्चित रूप से किसी की धार्मिक भावनाओं को आहत करने का अधिकार न तो किसी को है और न किसी को होना चाहिए। और यदि कोई ऐसा प्रयास करे तो उसे दण्डित भी किया जाना चाहिए। परन्तु अपने राजनैतिक स्वार्थवश किसी भी धर्म अथवा सम्प्रदाय की धार्मिक भावनाओं को भड़काने व उकसाने की आज़ादी भी किसी को हरगिज़ नहीं होनी चाहिए। भागवान राम देश के किसी राजनैतिक संगठन विशेष की अमानत नहीं हो सकते। इस प्रकार का राजनैतिक प्रपंच कर, लोगों की धार्मिक भावनाओं को भड़का कर धर्म के आधार पर मतों के ध्रुवीकरण का जो घिनौना प्रयास किया जा रहा है, यह देश की राजनीति को ग़लत दिशा प्रदान कर रहा है। ज़रूरत इस बात की है कि सेतु समुद्रम मुद्दे पर जनता अपनी पैनी नज़र रखे तथा कथित राम भक्तों के राजनैतिक हथकण्डों से ख़बरदार रहे।
-तनवीर जाफ़री
(सदस्य, हरियाणा साहित्य अकादमी)
22402, नाहन हाऊस
अम्बाला शहर। हरियाणा
(सदस्य, हरियाणा साहित्य अकादमी)
22402, नाहन हाऊस
अम्बाला शहर। हरियाणा
2 टिप्पणियां:
श्रीमान जी 2004 का चुनाव राम मंदिर के मुददे पर नहीं लड़ा गया था। वो इंडिया शाइनिंग के मुददे पर लड़ा गया था।
अगर ये मान भी लें कि भाजपा मे एनडीए के शासन काल में सेतुसमुद्र परियोजना को शुरु किया था तो क्या यूपीए सरकाप एनडीए के कामों को पूरा करने के लिये सत्ता में आई है?
सिरफिरे फतवों का तो आपसे विरोध होता नहीं है बस हिन्दुओ की बातों पर कलम चलता है।
बीके
सेतु समुद्रम परियोजना पर आपके निष्पक्ष विचार देखकर अच्छा लगा। खासकर निम्न लाइनें तो बहुत ही अच्छी हैं-
"निश्चित रूप से किसी की धार्मिक भावनाओं को आहत करने का अधिकार न तो किसी को है और न किसी को होना चाहिए। और यदि कोई ऐसा प्रयास करे तो उसे दण्डित भी किया जाना चाहिए। परन्तु अपने राजनैतिक स्वार्थवश किसी भी धर्म अथवा सम्प्रदाय की धार्मिक भावनाओं को भड़काने व उकसाने की आज़ादी भी किसी को हरगिज़ नहीं होनी चाहिए।"
आशा है आगे भी ज्वलंत मुददों पर इसी प्रकार निष्पक्ष विचार जानने को मिलते रहेंगे।
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